Saturday 22 April 2017

बड़ी दूर तक जाता है ये






दिल्ली से जयपुर का सफर था, ट्रेन रवाना होने को थी कि एक भाई साहब भागते-दौड़ते पहुँचे। कूपे की छः बर्थ के हम पाँच मुसाफिर पहले से बैठे थे और थोड़ी-थोड़ी गप्पें लगना शुरू हो गयीं थी। बातों का सिलसिला जारी रखते हुए, हम थोड़ा खिसके कि वे भी बैठ जाएँ। हमें कहाँ मालूम था कि उनका मूड उखड़ा हुआ है। उन्होंने अपना सीट नम्बर तलाशा जो कि खिड़की के पास वाला था। वहाँ एक महिला बैठी थी जो अपना लैपटॉप जमाकर काम भी कर रही थी और हमसे बातें भी। 'ये सीट तो मेरी है', भाई साहब बोले। उनकी आवाज में इतनी खीझ और झुंझलाहट थी कि हम सब चुप हो, उनकी तरफ देखने लगे। 

ट्रेन में सोने से पहले नीचे वाली बर्थ पर तीन लोग साथ ही तो बैठते हैं, खिड़की से सटी जगह उन भाई साहब की थी और उसके बाद वाली उस महिला की और फिर मेरी। यानि बिल्कुल पास-पास लेकिन उनकी बॉडी लैंग्वेज को देख उस महिला ने भी उन्हें कुछ नहीं कहना ही उचित समझा, और वो बाहर निकल आयी। हम सब ही शायद मन ही मन सोच रहे थे, ये खडूस कहाँ से आ गया पर किसी ने चेहरे से भी इसका इजहार नहीं होने दिया और फिर से हम अपनी बातों में लग गए। उन भाईसाहब ने इतने में अपना मोबाइल निकाला और किसी पर भड़कने लगे। उनकी बातों से ही लग रहा था कि वे कॉरपोरेट वर्ल्ड के बाशिन्दे हैं, और अपने जूनियर्स से बात कर रहे हैं। वे गुस्से में थे इसलिए तेज बोल रहे थे। 

आधा घण्टा लगा होगा, वे नॉर्मल होने लगे, और फिर धीरे-धीरे हमारी बातों में शामिल। हमें भी कहाँ गाँठ बाँधनी थी, ज्यादा से ज्यादा घण्टा भर और जागते, सुबह जयपुर और सब अपने-अपने घर। शायद ही कभी वापस मिलना हो। 
जिन्दगी में भी यही होता है पर प्रकृति ऐसा छलावा खेलती है कि हम याद ही नहीं रख पाते कि कुछ सालों बाद हम सब को भी बिछड़ना है। काश! हमें ये याद रह पाता तो एक-दूसरे को माफ करना, वो जैसा है उसे स्वीकार करना कितना आसान हो जाता। 
खैर, बातें चल रही थी, कि अचानक उन्होंने कहा, सॉरी, मैंने आते ही जिस तरह सीट के लिए कहा। वो एक्चुअल में हफ्ते भर पहले की ही बात है, मुझे एक जरुरी प्रेजेंटेशन बनानी थी, खिड़की के पास वाली सीट उस दिन भी एक महिला की ही थी। मैंने उससे रिक्वेस्ट की, कि वो एक घण्टे के लिए मुझे वहाँ बैठने दे दे। मुझे अपने लैपटॉप और फाइलों के साथ काम करना है तो थोड़ी आसानी होगी, पर वो महिला तो वापस ऐसे बोली जैसे उसने वो सीट खरीद ही ली हो। 

क्या कहता हम में से कोई, पर उस महिला ने जो आज उनकी जगह पर बैठी थी, असहजता तोड़ते हुए कहा, कोई बात नहीं। हो जाता है हम सब से कभी-कभी ऐसा। मुश्किल से एक या दो मिनट गुजरे होंगे कि वे कहने लगे, आप सब ने सोचा होगा कि कैसा आदमी है जो अपने जूनियर्स से ऐसे बात कर रहा है। पर, क्या बताऊँ आपको? कल की ही बात है, दिल्ली हैडऑफिस ने अचानक मीटिंग कॉल कर ली। मैं जयपुर से रवाना हुआ, इन्हीं जूनियर्स को कहकर कि वे मुझे जरुरी इनपुट देंगे, और सुबह जल्दी उठ में प्रेजेंटेशन तैयार कर लूँगा। पर इन्होंने ऐसी बुरी की मेरे साथ, रात के दस बजे तक तो फोन नहीं उठाए, फिर उठाए तो देर रात तक इनपुट्स भेजने का कहा, सुबह उठा, मेल खोली तो पाया सारे के सारे आधे-अधूरे। बड़ी मुश्किल से अपने लैपटॉप पर पुराने स्टोर्ड डाटा के भरोसे दौड़ते-भागते मीटिंग अटेन्ड की और अपनी जान बचायी। 
उन्होंने फिर अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगी, और बात आयी-गयी हो गयी। 


मैं सोचने लगा, हम अपने व्यवहार को लेकर कितने बेपरवाह होते हैं लेकिन ये कितनी दूर तक जाता है। किसी के साथ हमारा व्यवहार हमारा आपसी मसला ही नहीं होता बल्कि न जाने कितनों को प्रभावित कर रहा होता है। खासकर हम अपनों के साथ तो कुछ ज्यादा ही लापरवाह होते हैं कि कभी मना लेंगे। ख्याल ही नहीं आता कि ऐसा कर हम तब तक उन्हें उस मनोस्थिति में छोड़ रहे हैं जहाँ वे उन भाई साहब की ही तरह दूसरों के साथ व्यवहार करने लगेंगे। और हम ही वजह होंगे उस व्यवहार के बाद में उनके शर्मिन्दा होने और माफी माँगने के पीछे। अरे बापरे! इतनी बड़ी कीमत चुका रहे होते हैं हम अपनी इस बेपरवाही की।