Sunday 4 June 2017

और मुसीबत टल गयी





जस्टिन बीबर आए और चले गए और मुझे मुसीबत में डाल गए। ये मुसीबत जब तब पहले भी खड़ी हुई है लेकिन लगता है इस बार हल हुए बिना ये टलने वाली नहीं। और मुसीबत ये कि क्या हम जैसों को ऐसे कॉन्सर्ट में शरीक होना चाहिए? हम जैसों का मतलब, चाहे हमारे पास कितने भी पैसे हों आज भी हमारे यहाँ कोई भूखा सो रहा है, कोई किसान आत्महत्या कर रहा है या ऐसा ही कुछ और, और ऐसे में ये सब। अरे! मैं ये बताना तो भूल ही गया कि उनके कॉन्सर्ट के एक टिकट की कीमत थी 76,000 रुपये और इसके अलावा भी न जाने क्या-क्या। 
और ये कोई मेरे मन में उपजा प्रश्न नहीं था बल्कि सोशियल मीडिया ने मुझे पकड़ाया था लेकिन पढ़-पढ़ कर लगने लगा था जैसे मैं ही इसका जवाब माँग रहा हूँ।   

ये प्रश्न हर बार यूँ ही सुलगने लगता फिर अगले किसी भव्य समारोह तक के लिए बुझ जाता है पर विचार करें तो ये हम सब की निजी जिन्दगी से भी उतना ही जुड़ा है। त्यौहार हो, शादी-ब्याह, जन्मदिन हो या और कोई उत्सव, हम सब भी तो अपनी-अपनी जेब और जज्बातों के हिसाब से उसे मनाते हैं। जो हमारे लिए मितव्ययता है वो किसी और के लिए फिजूलखर्ची हो सकती है और जो किसी की मितव्ययता है वो हमारे लिए फिजूलखर्ची। 
क्या कोई मापदण्ड हो सकता है इसका? 
मुझे तो नहीं लगता। 
व्यक्ति की आर्थिक हैसियत कई सारे कारणों और संयोगों पर निर्भर करती है। और हमने यदि सबसे एक जैसे खर्चे की पैरोकारी तो व्यक्ति कमाएगा क्यूँ कर? और ऐसे में तो हम अकर्मण्यता की तरफ जाने लगेंगे। ये तो किसी देश-समाज के लिए ठीक नहीं होगा? और कोई कमाये तो उसे अपनी मर्जी मुताबिक खर्च करने का हक क्यों न हो? क्यों उस पर फिजूलखर्ची का इल्जाम लगे और वो क्यूँ अपनी खुशियों को मनाते कोई ग्लानि रखे?

पर क्या इन सब तर्कों के चलते व्यक्ति संवेदनहीन हो जाए। कोई गरीब, कोई किसान या ऐसे ही किसी के साथ जो बीतती है बीतती रहे और वो बस, अपनी खुशियों और उत्सवों में डूबा रहे? मैंने कहा था ना आपको, ये जस्टिन बीबर क्या आया मुझे मुसीबत में डाल गया। अब पार तो पाना था, तो मैंने पहले मुद्दों को पॉइन्ट-आउट यानि रेखाँकित करने की कोशिश की। और सामने दो मुद्दे आए, पहला तो ये कि व्यक्ति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? और दूसरा, क्या उसे जितना कमाए उसे अपनी मर्जी मुताबिक खर्च करने का हक भी है? 

और जो मैं समझा वो ये कि 
किसी को भी अपना कमाया अपनी मर्जी के मुताबिक खर्च करने का हक है बशर्ते कि उसने वो धन नैतिक तरीकों से कमाया हो। मसला खर्च की राशि का नहीं बल्कि कमाने के तरीकों का है। यदि कमाया सही है तो ये खर्च करने वाले का विवेक है कि वो किस पर कितना खर्च करता है। इसके बावजूद भी आपको लगे तो आप सुझाव दे सकते हैं, दोषी नहीं ठहरा सकते। 
रही बात संवेदनहीनता की तो ये मसला फिर सँस्कारों का है। हम अपनी कमाई में से अधिकाँश हिस्सा अपने पर खर्च करें लेकिन ये अहसास भी बना रहे कि मेरे कुछ सामाजिक दायित्व भी हैं। मैं हूँ क्योंकि और भी हैं, इसलिए मेरा सिर्फ मेरा नहीं है। मेरे होने में जितना योगदान उनका है कम से कम उनके होने में मुझे उतना योगदान तो निभाना ही होगा। 
बात ये नहीं कि आप 76,000 क्यूँ खरीदते हैं, बात ये है कि वो पैसा आपने नैतिक तरीकों से कमाया है या नहीं, और ऐसा सब करते हुए आपको अपनी सामाजिक दायित्वों का अहसास है या नहीं। यदि है, तो ये आपकी निजी पसन्द का मामला है, इसमें गलत या सही का प्रश्न ही नहीं।