Friday 16 November 2012

उत्सव, एक जरुरत




इन दिनों हम भारत-वर्ष के सबसे बड़े धार्मिक-उत्सव मनाने में डूबे है। दिवाली पर ढेरों शुभकामनाएँ देते हुए मन कर रहा है कि आज हम तलाशे कि आखिर हम उत्सव मनाते ही क्यूँ है? क्या महज श्रद्धा ही इन परम्पराओं का कारण है या कुछ और भी? और यदि है तो वे किस तरह हमारे जीवन को प्रभावित करती है?

उत्सव चाहे कोई हो उन दिनों एक खास माहौल बनने लगता है जैसे इन दिनों रामायण पर आधारित कई धारावाहिक आ रहे है तो ख़बरों में जगह-जगह होने वाली विशेष रामलीलाओं की चर्चा है, शहर में जगह-जगह रावण के पुतले बनते नज़र आ रहे थे तो घरों में सफ़ाईयाँ  चल रही थी। इस खास माहौल की बदौलत हमारे अवचेतन में कहीं न कहीं श्री राम और उनका जीवन रहने लगता है। पिता की आज्ञा-पालन कर राम का राज-पाट छोड़ना, सीता-लक्ष्मण का साथ वनवास जाना, भरत का खडाऊ रख शासन चलाना................. राम की रावण पर विजय। ये सारी घटनाएँ  उन मूल्यों की याद दिलाती है जिन्हें अपने जीवन का आधार बना एक राजा ईश्वर बन गया। ये हमें भरोसा दिलाती है कि आखिर विजय उसी की होती है जो सत्य की राह पर चलता है और इस तरह आम जन-जीवन में मूल्यों की पुर्नस्थापना करना किसी भी उत्सव को मनाने की सबसे अहम् वजह होती है।

एक और खास वजह, उत्सव हमें अवकाश देते है अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी से। लियानार्डो डी विन्ची लिखते है, 'अवकाश आपके निर्णयों को पक्का और पैना बनाते है।' सच ही तो है, रोजमर्रा की जिन्दगी ने हमें घड़ी से बाँध दिया है। अपने काम को सही समय पर करने के लिए हम समय-प्रबंधन करते है लेकिन धीरे-धीरे काम और उसकी गुणवत्ता कहीं पीछे छूट जाती है वैसे ही जैसे निश्चित समय पर भोजन करने की प्रतिबद्धता के चलते भूख का अहसास द्वितीय हो जाता है। उत्सव इस दुष्चक्र को तो तोड़ते है ही साथ ही हमें अवसर देते है जहाँ से खड़े होकर हम अपने काम को समग्रता से देख सकें। जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर अपने ही शहर को देखने पर उसकी खूबसूरती और कमियाँ साफ़ नज़र आने लगती है उसी तरह अवकाश के दिनों से अपने काम को समग्रता से देखने पर हमें साफ़ नज़र आएगा कि हमारे काम में कहाँ अनुपात बिगड़ रहा है और कहाँ लय टूट रही है।

एक सबसे छोटा दिखने वाला लेकिन सबसे महत्वपूर्ण लाभ -- उत्सव हमें अपने रिश्तों की मरम्मत करने का अवसर देते है। शायद इसीलिए हर धार्मिक उत्सव के बाद चाहे वह दिवाली हो, होली हो, ईद हो या क्रिसमस ; अपने प्रियजनों से मिल उनका अभिवादन करने की प्रथा है। एक-दूसरे से मिलने और अभिवादन की यह रस्म अदायगी धीरे-धीरे रिश्तों के बीच आई दीवार ढहाने लगती है।

इस तरह उत्सव हमारे जीवन मूल्यों की पुर्नस्थापना करते है, काम की गुणवत्ता लौटते है, हमारे निर्णयों को पहले से ज्यादा पैना बनाते है और सबसे अव्वल हमारे रिश्तों की मिठास को बनाए रखते है। उत्सव श्रद्दा से कहीं अधिक हमारी जिन्दगी की जरुरत है। ईश्वर करें यह दिवाली हमारे जीवन को और बेहतर बनाएँ।


( रविवार 11, नवम्बर को नवज्योति में  प्रकाशित )
आपका 
राहुल................   

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