Monday 25 December 2017

बच्चों की सीख

और उसने कहा, "यदि मैं थोड़ा बहुत भी असंतुष्ट नहीं होऊँगा तो कुछ भी पाने की कोशिश ही नहीं करूँगा? मैं अपने जीवन में प्रगति करता चला जाऊँ इसके लिए जरुरी है कि मेरे मन में थोड़ी-बहुत ही सही, असंतुष्टि बनी रहे।"
ये पहला मौका नहीं था जब मुझे ऐसा कुछ सुनने को मिला था; कैरियर, प्रोग्रेस या सक्सेस के नाम पर जिन्दगी के बारे में जब-जब किसी से बात हुई ऐसा ही कुछ सुनने को मिला था। 
संतुष्टि जैसे ठहराव का पर्याय है!
पर क्या ऐसा है?

ऐसा होता तो सबसे पहले आपको बच्चे असंतुष्ट, बेचैन नजर आते क्योंकि कोई भी व्यक्ति बचपन में जितना कुछ नया सीखता है, जितनी प्रगति कर पाता है वैसी शायद ही जिन्दगी के और किसी दौर में कर पाता हो। बोलना, चलना, दौड़ना, लिखना और न जाने क्या-क्या? कितनी जल्दी वो भाषा सीख जाता है, बिना किसी व्याकरण के, बिना किसी टीचर के। क्या आप और मैं बड़े होने के बाद उतनी ही सहजता से किसी भाषा को सीख सकते हैं?, सवाल ही नहीं!
पर वो तो दुनिया का सबसे संतुष्ट प्राणी नजर आता है। 
बस, इसी बात में हमारा उत्तर और उत्तर का कारण छिपा है।
संतुष्टि ठहराव का नहीं प्रगति के लिए पूरी तरह से तैयार होने का पर्याय लगता है। आप जो हैं, आपके पास जो है उसके प्रति कृतज्ञ होते हैं और उसके होने से खुश हैं। ये कृतज्ञता, आपका खुश मन आपको वो सब पाने के लिए उत्साह और उमंग से भरे रखता है जो आप पाना चाहते हैं। 

चाहना, हमारा और हमारी ही तरह प्रकृति के हर अंग का नैसर्गिक गुण है। हम सब कल जो थे उससे आज आगे बढ़ रहे हैं, बीज पौधा बन रहा है, पौधों पर फूल आ रहे हैं, .........। 
यानि आगे बढ़ना, प्रगति करना हमारे अन्दर है। 
लेकिन असंतुष्टि, वो बाहर से आती है। किसी को देखकर, किसी से अपनी तुलना करके या अपने आपको किसी और के तय किए मापदण्डों पर कस के। ये आपकी नहीं होती, इसलिए आपकी कोई मदद भी नहीं करती। आप जिन्हें देखकर अपनी असन्तुष्टियाँ तय करते हैं वे जब तक पूरी होती हैं तब तक उनकी जगह कोई और आ चुका होता है और आप नई असन्तुष्टियाँ पाल चुके होते हैं, बिल्कुल एक मृग-मरीचिका की तरह ये मिलती कभी नहीं पर बनी हमेशा रहती है। 

इस तरह असंतुष्ट रहना हमारी आदत में शुमार हो जाता है। हम कुछ भी पाकर असंतुष्ट ही बने रहते हैं क्योंकि हम ही ने तो तय किया होता है कि चूँकि हमें जिन्दगी में प्रगति करनी है तो मन में थोड़ा-बहुत ही सही असंतुष्टि का भाव तो रखना ही होगा। हम जीवन भर असंतुष्ट बने रहते हैं इसीलिए जीवन भर नाखुश भी क्योंकि जिस घर में असंतुष्टि रहती हो वहाँ ख़ुशी तो फटक भी नहीं सकती। यानि एक मिनट के लिए मान भी लें कि मन की असंतुष्टि से हम कुछ पा भी लेंगे तो यकीन मानिए वो हासिल आपको खुशियाँ तो नहीं ही दे पाएगा। और जब आपकी प्रगति आपके जीवन में खुशियाँ ही नहीं ला सकती तो पहला, वो किस काम की होगी? और दूसरा, कि क्या वो सचमुच प्रगति भी होगी? 


तो जो मैं समझा वो ये कि 
हम जो हैं, जैसे हैं, जो कुछ हमें मिला है उसके लिए प्रकृति के प्रति कृतज्ञ बने रहने का अभ्यास करना होगा। ये कृतज्ञता मन में संतुष्टि का भाव लाएगी और तब हम उत्साह और उमंग के साथ अपने जीवन में जो कुछ करना चाहते हैं, जो कुछ पाना चाहते हैं, के लिए तत्पर होंगे। 
चाहना और असंतुष्ट होना दो अलग-अलग बातें हैं। एक हमारा नैसर्गिक गुण है तो दूसरा एक नकारात्मक भाव जो अन्ततः जीवन में नकारात्मकता ही ला पाएगा। 
और जब हम उत्साह और उमंग के साथ जीवन में बढ़ रहे होंगे तब प्रगति सहज और खुशियाँ स्वाभाविक होगी और यही सही मानों में हमारी प्रगति होगी।    

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