Friday 7 September 2012

जिन्दगी है, कोई नाटक नहीं




हम में से कोई अपने बारे में पूछे तो हम अपनी बीती जिन्दगी को सिलसिलेवार घटनाओं के रूप में बता सकते है. ध्यान से देखें तो ये सारी घटनाएँ अपने मूल में एक-सी होती है. प्रतिकूल परिस्थितियाँ, साधन-क्षमताओं की कमी और हमारा साहस जिससे हमने उन पर विजय पायी. कहीं-कहीं ऐसी घटनाओं का जिक्र भी जहाँ हम भाग्य को दोष देकर अपनी आज की स्थिति को सही ठहरा रहे होते है.

अरे! आप तो बुरा मान गए. नहीं, ऐसा मत कीजिए. इन सारी घटनाओं को अपना परिचय बनाने के पीछे हमारी नीयत बिल्कुल पाक-साफ होती है. सभी का प्रेम पाना और स्वीकार किया जाना. एक कहावत है, 'आदमी भूख बर्दाश्त कर सकता है दुत्कार नहीं, लेकिन क्या यह पावन उद्देश्य इस तरह पूरा हो पाता है? और नहीं तो हम ऐसा करते ही क्यूँ है? फिर हम क्या करें कि सभी हमें प्रेम और सम्मान की नज़रों से देखें?

हम इसलिए ऐसा करते है क्योंकि हमने अपनी जिन्दगी की डोर अहम् के हाथों सौंप दी है. अहम् जो उत्तेजना का भूखा है. जो हमें दूसरों से अलग कर देखता है. अपने को सही साबित करने के लिए दूसरों को गलत सिद्ध करना जिसकी कार्य-पद्धति है. अब आप ही बताइए, हमारी जिन्दगी जब इन आधारशिलाओं पर टिकी हो तो उसे सोप ओपेरा जैसा नाटकीय होने से कौन बचा सकता है. 

अहम् प्रेम और सम्मान पाने के लिए मुख्यतः तीन तरीके अपनाता है. पहला, सबके सामने अपने आपको हीरो सिद्ध करना. हम सब पौराणिक कथाओं, बचपन की कहानियों से लेकर अपनों से बड़ों के ऐसे अनुभव ही तो सुनते आए है कि कैसी-कैसी मुश्किलों का साहसपूर्ण सामना कर एक व्यक्ति ने अपनी मंजिल पा ली. हमने इन सब से मुश्किलों का सामना करने का जज्बा सीखने की बजाय यह मान लिया की जीतने के लिए मुश्किलें जरुरी है, हीरो बनने के लिए जीतना और प्रेम पाने के लिए हीरो होना. हमारा अहम् लगातार जिन्दगी में ऐसी नाटकीय स्थितियां ढूंढता और पैदा करता है.

दूसरा, प्रमाणित करना कि मैं ही सही हूँ. अहम् मानता है कि मैं सही तब ही हूँ जब तक सामने वाले को गलत सिद्ध न कर दूँ. इस तरह हम अपनी सोच, अपने विचार एक-दूसरे पर थोपने लगते है लेकिन भूल जाते है कि अगला भी तो यही सोच रहा है. इस संघर्ष में जीत तो कोई नहीं पाता; हाँ!इतना जरुर है कि हम एक-दूसरे कि जिन्दगी को तमाशा बनाकर रख देते है. तीसरा, सहानुभूति बटोरना. जिन्दगी की नाकामियों और व्यक्तित्व की कमजोरियों को अहम् इस बेचारगी से बयान करता है कि वह सारा ठीकरा भाग्य और परिस्थितियों के सर फोड़ सकें. वह सोचता है कि इस तरह लोगों कि सहानुभूति बटोर उनके दिलों में जगह बना लेगा.  

यहाँ तक की हम मैं से अधिकतर को तो इस नाटकीयता की लत-सी पड गई है. अहम् के वशीभूत इस तरह जीने में उत्तेजना तो है और उत्तेजना में क्षणिक आनंद भी. इस कारण जब भी जिन्दगी अपनी लय में शान्ति से गुजर रही होती है हम अनजाने ही ऐसे अवसर ढूंढने लगते है जहाँ बात का बतंगड़ और राई का पहाड़ बना सकें. अपनी बात कहने की आड़ में हम फिर से वही सब करने लग जाते है. 

प्रेम और सम्मान पाना है तो सबसे पहले अहम् के चंगुल से बाहर निकल अपनी जिन्दगी की डोर अपने हाथ में लेनी होगी. हर व्यक्ति अपनी जिन्दगी का हीरो है, हमें किसी को कुछ सिद्ध नहीं करना. हम सब जो है वो हो जाएँ. अपने आपको और दूसरों को अपनी-अपनी निजता के साथ स्वीकार करें. एक-दूसरे को जगह दें. यही एक दूसरे के प्रति हमारे प्रेम और सम्मान की पहली सीढ़ी होगी. सच तो यह है कि हम जिन विशिष्टताओं के साथ आयें है उनकी सच्ची अभिव्यक्ति ही हमें प्रेम और सम्मान दिला सकती है और कोई नहीं.

इसका मतलब यह नहीं है कि सारी मुश्किलों और परेशानियों के लिए हम ही जिम्मेदार है. हर व्यक्ति की जिन्दगी में कुछ न कुछ मुश्किलें-परेशानियाँ और दुःख भी जरुर होते है लेकिन उन्हें महिमामंडित करने की बजाय यदि धैर्यपूर्वक उन्हें स्वीकार करते हुए उनका सामना करें तो जिन्दगी कहीं अधिक शांत-सुखमय होगी. अरे भाई ! ये जिन्दगी है , कोई नाटक नहीं.


( दैनिक नवज्योति में रविवार, २ सितम्बर को प्रकाशित )
आपका, 
राहुल..... 


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