Saturday 12 December 2015

संतुष्ट हूँ कि और चाहिए




कुछ दिनों पहले एक टी.वी. प्रोग्राम में पण्डित शिवकुमार शर्मा का इंटरव्यू देखने का अवसर मिला। जब बोमन ईरानी, जो उनका इंटरव्यू ले रहे थे, ने उनकी उपलब्धियाँ बतानी शुरू की तो अंत में पण्डित जी ने यही कहा, 'मैं आज भी संगीत का विद्यार्थी हूँ।' मैं रियाज करता हूँ तब तो सीखता ही हूँ, जब कॉन्सर्ट दे रहा होता हूँ तब भी सीख रहा होता हूँ और जब अपने शिष्यों को सीखा रहा होता हूँ तब भी।

ये बातें वो व्यक्ति कर रहा था जिसे भारत सरकार ने पदम् श्री और पदम् विभूषण से नवाजा, जिसे सयुंक्त राज्य की मानद नागरिकता प्राप्त है, जिसने लोक-संगीत में काम आने वाले वाद्य को शास्त्रीय संगीत बजा सकने के लिए परिष्कृत कर दिया, जो स्वयं आज संतूर का पर्याय है। इसके बाद भी वे अपनी कला में और निपुण होना चाहते है, तो क्या पण्डित जी संतुष्ट नहीं है? कितना बेतुका सवाल है, लेकिन हाँ, यहाँ यह प्रश्न हमें संतुष्टि को समझने में मदद जरुर कर सकता है।

'और की चाह' हमें प्रकृति से मिली है। एक बीज, वृक्ष होने तक हर क्षण उन्नत होना चाहता है और यही हम सब के साथ भी है, आखिर हम भी तो उस विराट प्रकृति का ही तो हिस्सा है। यदि अपने आपको रोक लेना संतुष्टि है तब तो यह हमारे नैसर्गिक गुणों के विपरीत है। अर्जुन से ज्यादा कृष्ण का सामीप्य किसे मिला होगा पर उसे भी कृष्ण के विराट स्वरुप और फिर चतुर्भुज स्वरुप की चाह है।

संतुष्टि का मतलब 'और की चाह' न होना कतई नहीं है वरन जो कुछ है उसके लिए प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का एवम स्वयं के प्रति सराहना का भाव होना। अपनी कमियों को, जिसे मैं विशिष्टताएँ कहूँगा, स्वीकारना। इन भावों के साथ हर क्षण अपने आपको और बेहतर अभिव्यक्त करने की चाह, यही संतुष्टि है। संतुष्टि अकर्मण्यता नहीं, जीवन को बेहतर बनाने का मंत्र है।

वास्तव में, 'और की चाह' हमारी बेचैनी और तनाव का कारण नहीं होती वरन हमारी यह सोच कि उन सब के बिना हमारा काम नहीं चल सकता, एक अच्छी जिन्दगी वो सब हासिल किए बिना सम्भव नहीं। हम अपनी उपलब्धियों को अपने जीवन की सार्थकता और अपना परिचय समझने लगते है। हमारी इसी सोच के चलते हम अपनी जिन्दगी को बेचैनी और तनाव से भर लेते है जो हमें अधीर तो बनाती ही है हमारी दृष्टी को भी धुंधला कर देती है। कई बार लगता है कि सीधे तरीकों से यह सब कर पाना सम्भव नहीं तो कई बार सामने पड़े अवसर भी दिखाई नहीं देते।

ऐसा नहीं है, एक खुशहाल जिन्दगी न तो आपकी उपलब्धियों की मोहताज है न ये आपका परिचय न ही आपके होने का प्रमाण। ये महज आपकी अभिव्यक्ति है, वृक्ष पर आये फल और फूलों की तरह । उपलब्धियाँ जिन्दगी का श्रृंगार हो सकती है प्राण नहीं। जिन्दगी की यही उलटबाँसी है कि यदि हमारा रवैया यह रहे कि 'मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक' तो ज्यादा मिलता है क्योंकि तब दृष्टी साफ़ और मन शांत होता है।

मेरी मानिए, संतुष्टि को सफलता की सीढी बनाइए और जिन्दगी का लुत्फ़ उठाइए।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 17 मार्च 2013 को प्रकाशित)

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