Friday 18 April 2014

ये हमने क्या कर दिया ?



आजकल मैं अपने मित्र के साथ वर्कशॉपस की एक श्रृंखला कर रहा हूँ, इममें ज्यादातर इंजीनियरिंग के छात्र हैं। दो-चार कार्यशालाओं जैसे 'यही सही वक़्त है', 'सफलता आप ही में निहित',' क्षण की स्वीकार्यता' के होते-होते एक चौकाने वाला तथ्य उभरकर सामने आने लगा। वो यह था कि हम तो सपनों और उन्हें कैसे पूरा करें, के बारे में बात कर रहे थे वहीं उन्हें तो सन्देह था कि उनके कोई सपने हैं भी। ऐसे में अपने सपनों को पूरा करने की बात तो उनके लिए न जाने कौन-सी दुनिया की थी। हम तो बात कर रहे थे अन्तर्मन की पुकार और उसकी और कैसे कदम बढ़ाने की और उन्हें तो कोई आवाज़ ही नहीं आ रही थी। 

किसी ने बताया कि मैकेनिकल की बजाय उसने कम्प्यूटर साइन्स को इसलिए पसन्द किया कि सारे दिन हाथ गन्दे करने की बजाय वातानुकूलित कमरों में पढ़ाई करना बेहतर है तो किसी ने फलाँ ब्राँच इसलिए ली थी क्योंकि उसके दोस्त ऐसा कर रहे थे और ऐसे न जाने कितने कारण। तब मुझे लगा कि इन सब बातों को करने से पहले जरुरी है यह बात करना कि सपने होते ही क्या हैं? क्या ये कुछ सफल-होशियारों का ही अधिकार है या ये सभी के होते है? अगली वर्कशॉप का शीर्षक रखा, 'सपने-हमारी अभिव्यक्ति का संसार' और पाया कि सपनों का अर्थ है व्यक्ति का वह हो पाना जहाँ व्यक्ति अपने आपको पूरी तरह से अभिव्यक्त कर सके। आखिर में बात यहाँ तक पहुँची कि सपने ही हमारे जीवन की दिशा तय करते है और अन्ततः हमारे जीवन का उद्देश्य बनते हैं। 

ये सारी बातें करते हुए मन में आश्चर्यमिश्रित पछतावा हो रहा था कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे हुआ? ध्यान चारों ओर घूमकर जहाँ रुका वह थी हमारी शिक्षा-पद्धति। मैंने इसका जिक्र वर्कशॉप में नहीं किया। मैं नहीं चाहता था कि मैं किसी को दोष देने का सन्देश दूँ लेकिन हकीकत यही थी। शिक्षा-पद्धति पर बात करने से पहले जरुरी है 'शिक्षा' के शाब्दिक अर्थ को समझना। इंग्लिश मीडियम के दौर में इसे उसी ओर से समझते हैं। 'एज्युकेशन' शब्द आया है लेटिन भाषा के 'एड्यूकेयर' से जिसका अर्थ है, सामने लाना। इस तरह 'एज्युकेशन-सिस्टम' का अर्थ हुआ ऐसा सिस्टम जो बच्चों के अन्दर जो कुछ भी है उसे सामने लाने, बाहर निकालने में मदद करे। ऐसी पद्धति जो व्यक्ति का स्वयं से परिचय कराने में सहायक बने। जिससे गुजर कर बच्चों को सहज ही पता चल जाए कि वो जीवन में क्या करें जहाँ वे अपने आपको पूर्ण रूप से अभिव्यक्त कर पाएँगे। 

लेकिन हुआ क्या? बाहर तो कुछ निकला नहीं, सामने तो कुछ आया नहीं उल्टा बच्चों के अन्दर हमने जाने क्या-क्या ठूँस दिया। ठूँस दिया वो सब कुछ जो हम ठीक समझते थे, जो हमारे लिए सुविधाजनक था या वो सब कुछ जिससे ये बच्चे आगे चलकर हमारे काम आ सकें, हमारे बनाये सिस्टम को चला सकें। हम जब भी शिक्षा-पद्धति की बात करते हैं तो पाठ्यक्रम, परीक्षा देने के तौर-तरीकों, विद्ध्यार्थियों के परीक्षा-तनाव व दिशा-निर्देशों की बात करते हैं। मैं मानता हूँ, इनकी अपनी अहमियत है लेकिन क्या कभी किसी ने शिक्षा के उद्देश्यों को लेकर कोई बात, कोई चर्चा की है? क्या किसी ने शिक्षित करने के उद्देश्यों को स्पष्ट और परिभाषित करने कि जेहमत उठायी है? ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे आप अपने वाहन से कहीं जा रहे हैं, आपका ध्यान वाहन की सुन्दरता,ईंधन,रफ़्तार और यातायात-नियमों पर तो हैं बस रास्ते के बारे में मालूमात करना ही कहीं भूल गए हैं। 

आज देश में कोई राजनैतिक,सांस्कृतिक या सामाजिक बात हो, हम 'युवा'शब्द उससे जोड़ देते हैं। उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर अपने अभियान को सफल बनाने के लिए लेकिन भूल जाते है कि कोई शक्ति कितनी भी बड़ी क्यूँ न हो यदि वह भ्रमित है तो किसी काम की नहीं। न अपने न किसी और के। भटका तीर कहीं नहीं लगता। आज हमारी युवा-शक्ति भ्रमित है, एक ओर उनका अन्तर्मन खींचता है तो दूसरी ओर हमारी ठूँसी हुई जानकारियाँ। जानकारियाँ जिन्हें हम अपनी अहं-तुष्टि के लिए 'ज्ञान' कह देते है। 
ये हमने अपने ही बच्चों के साथ क्या कर दिया?

हमारे लिए यह गर्व की बात है कि हमारा देश दुनिया की सबसे बड़ी युवा-शक्ति बनता जा रहा है पर साथ ही याद रखना होगा कि शक्ति जितनी बड़ी हो उसकी सम्भाल उतनी ही करनी पड़ती है। अब समय आ गया जब हमें अपनी युवा-शक्ति को भ्रमित होने से बचाना होगा। उनके साथ मिलकर उन्हें अपनी दिशा पकड़ने में मदद करनी होगी। यदि हम ऐसा कर पाए तो हमें अपने राष्ट्र-उत्थान के लिए किसी और की दरक़ार नहीं। 



(जैसा कि नवज्योति में सेकिंड संडे 13 अप्रैल को प्रकाशित) 
राहुल हेमराज 

4 comments:


  1. Dear Rahul,

    I have gone through your blog which deals with changing trend in thinking by your young generation.
    I as a doctor face so many parents who complain that their very young children are constantly glued to Mobile, Laptop and TV at the cost of their studies. No child wants to play or read general books. A young child of 10-12 years wants a smart phone.
    I woulkd like you to have a blog on thios topic.

    MRJ

    PROF. DR M. R. JAIN FICS, FAMS

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  2. Jain Uncle,

    It is really a serious problem stealing precious time from our children. I will definitely try to explore it someday.

    Thank you very much for keep reading me.

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  3. Very nice bhaiya...
    there is always some lesson in ur article

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