Friday 24 May 2013

ईश्वर की कृपा है, अल्लाह का करम है.


कई सालों पहले 'श्रद्धांजलि' के नाम से लता जी का दो भागों में संगीत-संकलन आया था। इसमें उन्होंने अतीत के महान गायकों का परिचय देते हुए अपनी पसंद का उनका एक-एक गाना अपनी आवाज़ में गाया था। बहुत सुंदर और अदभुत संकलन था वो। उसी में लता जी जोहरा बाई का परिचय देते हुए एक वाकया सुनाती है, "मैं एक गाने की रिहर्सल कर रही थी। जोहरा बाई वहाँ बैठी थी। उन्होंने कहा, लता बेटी माशा अल्लाह बहुत अच्छा गा रही हो।" मैंने कहा, "नहीं-नहीं, मैं क्या ........ आप ऐसे ही कह रही है. तब वो बोलीं, नहीं बेटी, जब कोई तुम्हारे गाने की तारीफ़ करे तो कहना चाहिए, अल्लाह की मेहरबानी है। उसका करम है।"

इतनी जहीन और महीन बात जोहरा बाई जैसी महान गायिका ही कह सकती थी और अरसा बीत जाने के बाद 'ऐसे लोग अब कहाँ' कहते हुए लता जी जैसे लोग ही ऐसी मर्मस्पर्शी बात को याद रख सकते है। मर्मस्पर्शी इसलिए क्योंकि मुझे लगता है ये सीख मात्र किसी भी व्यक्ति की पात्रता या काबिलियत बढ़ा सकती है।

अपनी तारीफ़ के जवाब में यह कहना कि ईश्वर की कृपा है या अल्लाह का करम है, में दो महत्वपूर्ण बातों का समावेश है। पहली, अपनी प्रशंसा को स्वीकार करना यानि पूरे विश्वास के साथ अपने आपको उस लायक समझना और दूसरी, इस बात का ध्यान रखना कि ये स्वीकारोक्ति मन में कृतज्ञता का भाव लाए न कि अहंकार का। आज मुझे फिर मौका मिला है अपनी पसंदीदा पंक्ति को दोहराने का और मैं इसे बिल्कुल नहीं छोडूँगा। ' हम ईश्वर की स्वतन्त्र भौतिक अभिव्यक्ति हैं '- और जब हम इस बात को आत्मसात कर लेते है तो बड़ी आसानी से एक हाथ से अपनी प्रशंसा को ले दूसरे हाथ से उसे परमात्मा के चरणों में समर्पित कर पाते है।

प्रशंसा की विनम्र स्वीकारोक्ति हमारी ग्रहण करने की शक्ति को बढाती है और हम वह सब और बेहतर करने में समर्थ एवम सहज पाते है जिस कारण हमारी प्रशंसा हुई है।  तरह हम अपने क्षेत्र में निपुण होते चले जाते है और एक दिन अपने-अपने क्षेत्र में लता मंगेशकर बनने की राह पर होते है। समस्या तो तब पैदा होती है जब हमारी प्रशंसा हमारा अहंकार तुष्ट करने लगती है। हमें ये ग़लतफ़हमी हो जाती है कि मेरे बिना तो ये सम्भव नहीं । मैं नहीं होता तो ये कौन कर पाता? इस तरह हम स्वयं ही अपनी बेहतरी के रास्ते में खड़े हो जाते है और फिर तो ईश्वर भी चाहे तो हमारी मदद नहीं कर सकता।

आपकी प्रशंसा आपकी पहचान है, आप में ईश्वर होने का प्रमाण-पत्र। इसे स्वीकार कीजिए और धन्यवाद दीजिए उस ईश्वर को जिसने आपको इस लायक समझा। आप साज़ है, साजिन्दे नहीं। साजिन्दे को साज़ बजाने की खुली छूट दीजिए, फिर देखिए ये मधुर-संगीत किस तरह आपके जीवन में रस घोल देता है।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 19 मई को प्रकाशित )
आपका,
राहुल ..............                            

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