Friday 3 May 2013

अपने कहे को निभाइए



एक दिन शाम को मैं अपने दोस्त के साथ बैठा था। बात चली कि शहर में एक बहुत अच्छा कवि-सम्मेलन होने वाला है लेकिन चूँकि प्रवेश निःशुल्क है इसलिए सुबह जल्दी आठ बजे ही 'पासेज' ले लेने होंगे वरना बाद में तो लम्बी लाईन लग जाएगी। तय हुआ कि वो साढ़े सात बजे मेरे यहाँ आएगा और आठ बजे से पहले ही हम वहाँ पहुँच जाएँगे। हमेशा की तरह मुझे उसके कहे पर विश्वास तो नहीं था लेकिन चूँकि कवि-सम्मेलन का उसे जबरदस्त शौक था इसलिए इस बार मुझे भरोसा था। मैं नियत समय पर तैयार था और भाई साहब हिलते-हिलते सवा-आठ बजे के करीब मेरे पास पहुँचे। न जाने क्यूँ इस बार मुझे झुंझलाहट नहीं हुई बल्कि सोचने लगा ये हमेशा ऐसा क्यूँ करता है?

एक बारगी तो लगा कि उसमें समय की पाबंदगी और अनुशासन की कमी है लेकिन जैसे-जैसे सोच गहरी उतरने लगी, कुछ और ही नज़र आने लगा। जो नज़र आने लगा वो यह था कि उसे अपने कहे शब्दों पर ही विश्वास नहीं था। जब आपको अपने पर ही विश्वास नहीं तो भला दूसरा कोई आप पर कैसे विश्वास करेगा?

जब उसने मुझे साढ़े सात बजे आने को कहा तब निश्चित रूप से उसकी जल्दी पहुँचने की मंशा थी और उसने कोशिश भी की होगी लेकिन वो समय पर नहीं पहुँच पाया क्योंकि उसकी अपने शब्दों के प्रति प्रतिबद्धता नहीं थी। चाहे वो कोई हो, जब व्यक्ति अपने शब्दों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होता है तब वह अपने कर्मों के प्रति भी प्रतिबद्ध नहीं हो पाता और फिर न तो उसे संतुष्टि मिलती है और न ही सफलता; यही मलाल जिन्दगी भर बना रहता ही कि वो जिसका हकदार था वह उसे कभी नहीं मिल पाया। हमारी प्रतिबद्धता हमारी क्षमताओं को बढ़ा देती है। हम वो कर गुजरते है जिसका शायद हमें भी विश्वास न था, जैसे ढेरों शक्तियाँ हमारे अन्तःकरण में सोई पड़ी थी और हमारी प्रतिबद्धता ने उन्हें जगा दिया हो।

यदि गायक बनना है तो रियाज़ से प्रतिबद्ध होना होगा, यदि लेखक बनना है तो लेखन से प्रतिबद्ध होना होगा, यदि विशेषज्ञ बनना है तो अध्ययन से प्रतिबद्ध होना होगा। रास्तों से प्रतिबद्ध हुए बिना मंजिल को पाना सम्भव नहीं लेकिन ख्याल रहे, रास्तों की भी अपनी माँग होती है। यदि आप जो करना चाहते है उसके बीच आने वाली मानवीय संवेदनाओं के प्रति असंवेदनशील है तो समझ लीजिए आपकी प्रतिबद्धता को आपके अहं ने हर लिया है। आपने जो कहा वैसा ही करना आपने अहं का विषय बना लिया है। याद है आपको 'थ्री इडियट्स' के डीन वीरू सहस्त्रबुद्धि। वे जब कहते है कि उन्होंने अपने बेटे की मौत के दूसरे दिन भी क्लास ली थी तो ये उनका अहं था जो प्रतिबद्धता का लिबास पहने था। कोई भी चारित्रिक गुण कितना ही अच्छा क्यूँ न हो जब उसमें अहं का कीड़ा लग जाता है तो वह सड़ांध ही फैलाता है।

अपने कहे को निभाइए और जो निभा पाएँ वही कहिए। विश्वास रखिए, अंतर्मन में उपजा विचार जो शब्दों का रूप लेना चाहता है, उसे निभा पाने की क्षमता आप में है तभी तो वह आपके मन में उपजा है। एक शेर के मन में उड़ने का विचार कभी नहीं आता लेकिन एक कबूतर को अपनी पहली उड़ान से भी पहले पता होता है कि वो उड़ सकता है।

अपने कहे को निभाइए, सफलता के इस रास्ते पर संतुष्टि आपकी संगिनी होगी जो आपके और आपके अपनों के जीवन में सुन्दरता की रचना करेगी।


(नवज्योति में रविवार, 28 अप्रैल को प्रकाशित)
आपका 
राहुल..........                          

4 comments:

  1. :)Kya khoob..!!!hatss of 2 u sir..'aap bdi se bdi baat kitni easily smja dete h..!!'

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  2. ये प्रशंसा भी है और सफलता भी। वो ऐसे कि जिन्हें मैं गुरु-तुल्य हूँ और मेरे लिखने की प्रेरणा भी है , श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' लिखते है , " ज्ञान वेदों-सा हो पर अभिव्यक्ति लोरियों-सी हो"। मेरी लिखने में यही कोशिश रहती है।
    बहुत-बहुत धन्यवाद।।

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  3. ( A mail from Dr.M.R.Jain)

    Yes, dedication , determination with proper direction assures success in life. Man must have a VISION and must have the capacity to pursue it with all his wisdom and positive energy

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  4. I completely agree with you uncle. Thank you very much.

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