Saturday 27 October 2012

क्या कह रहे है, आप ?




विचारों के बीज से ही तो शब्दों का जन्म होता है और फिर शब्द हमारी दुनिया बनाते है। शब्द अपने जन्म से पहले मस्तिष्क में उठा विचार ही तो है। जिन शब्दों को हमारी इच्छा-शक्ति का बल मिल जाता है वे हमारे कर्म और धीरे-धीरे आदतें बन जाती है। हमारी आदतें हमारा चरित्र बनाती है और आदमी का चरित्र ही उसकी जीवन-परिस्थितियों यानि भाग्य के लिए जिम्मेदार होता है और इस तरह हमारी जिन्दगी का पहिया घूमता है। विचारों की पहली सीढ़ी शब्द तो अंतिम परिणिति भाग्य है। जीवन को सुंदर बनाना है तो अपने विचारों को दुरुस्त करना होगा।

लेकिन क्या विचारों को बदल पाना इतना आसान है? एक रोचक तथ्य के अनुसार एक औसत व्यक्ति के मस्तिष्क में रोजाना लगभग 60,000 विचार आते है। विचारों के इस हडकम्प में इन्हें बदलना तो बहुत दूर इन्हें पकड़ना ही बहुत मुश्किल हो जाता है। ध्यान लगाना विचारों को दुरुस्त करने का सबसे सुन्दर और प्रामाणिक तरीका है लेकिन सबके लिए सुगम भी तो नहीं। विचारों की गति इतनी तेज होती है कि ध्यान के शुरूआती दिनों में तो ऐसा है जैसे हम  अपने जीवन की समस्याओं पर बनी फिल्म देख रहे है।

ऐसे समय हम अपने शब्दों के जरिए अपने विचारों को जान-समझ सकते है। सामान्यतया हम जिस सूक्ष्मता से दूसरों की कही बात सुनते है अपनी नहीं सुनते। आप जब भी बोलें सजग रहकर स्वयं भी सुनें। मेरा विश्वास है कि कई बार आपको स्वयं आश्चर्य होगा कि 'मैं ऐसे कैसे बोल सकता हूँ।'  यही सजगता यही आश्चर्य आपको अपने कहने के पीछे की सोच और नजरिए को समझने में मदद करेगी। आपके शब्द आपको उस विचार तक पहुँचाएगे जो आपकी आज की परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी है और तब उसे ठीक करना कहीं आसान होगा।

यदि हमारे लिए विचारों तक पहुँचना फिर भी मुश्किल है तो एक आसान तरीका है जिसे अपना आप अपने विचारों को बिना उन तक पहुँचे-जाने उन्हें सकारात्मक बना सकते है और वह है ' स्व-वार्ता '। स्व-वार्ता यानि बातें जो हम अपने आप से करते है। हमारे विचारों और शब्दों के बीच की एक सूक्ष्म कड़ी। आप गौर करेंगे तो पायेगें कि हम हर समय अपने आप से कुछ न कुछ बात कर रहे होते है। जैसी हमारी सोच होगी वैसी ही बातें हम अपने आप से करेगें, उदाहरण के तौर पर यदि हर छोटी-बड़ी घटना के लिए हम अपने आपको जिम्मेदार मानते है तो हम अपने आपको हमेशा ही डाँटता-धिक्कारता पाएँगे। जिस तरह हम अपने आप से बात करते है उससे हमारा मानसिक वातावरण बनता है और जैसा हमारा मानसिक वातावरण होता है वैसे ही हम औरों से बात करते है, शब्दों का प्रयोग करते है। इस पहलू का महत्व एवम उपयोगिता इसलिए भी ज्यादा हो जाती है क्योंकि अपने प्रति अपनी भाषा को सुधारना कहीं आसान है औरों के प्रति अपनी भाषा सुधारने से। 

आपका मन चाहे कुछ भी कहे, ध्यान रखिये कि आप हमेशा अपने आप से प्यार से ही बात करेंगे। आपके लगातार ऐसा करने से आप औरों पर स्नेह तो बरसाएँगे ही, एक स्वस्थ मानसिक वातावरण के चलते एक तरफ तो आपके विचार स्वतः ही दुरुस्त हो जायेंगे तो दूसरी तरफ आप अच्छे कर्मों की ओर उद्दृत होंगे।

अपनी कही को हवा में मत उड़ाइए, आपके शब्द आपकी सोच और नजरिया भी बदल देंगे तो आपका जीवन और भाग्य भी। आपको नहीं लगता कितना आसान है वह काम जो हमारी बोली मात्र से सुधर जाएँ ? 


( रविवार 21, अक्टूबर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल........ 

No comments:

Post a Comment