Saturday 20 October 2012

अपने को जाया न करें




एक अखबार के स्तम्भ में खुशवंत सिंह जी लिखते है कि उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं पीछे मुड़कर  हूँ तो अहसास होता है कि मैंने किस तरह अपना कीमती समय जाया किया वह भी जवानी के उन ऊर्जावान दिनों  में जब मेरे पास करने के कई बेहतर विकल्प थे। वे आगे लिखते है कि उन दिनों मुझे अख़बार में छपने वाली ' क्रासवर्ड पजल्स ' को हल करने की लत पड़ गई थी. सुबह के खाने से पहले का समय जो सामान्यतया मेरी पढाई - लिखाई का होता था, उसे कई बार मैं इन पहेलियों को हल करने में ही व्यर्थ कर देता था।

वे सिर्फ अपने बारे में नहीं बता रहे थे बल्कि याद दिला रहे थे कि किस तरह हम सब अपनी जिन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा बेहोशी में गवां देते है। क्षणिक आनन्द जो बाद में अफ़सोस में बदल जाता है। सबसे कीमती है ये क्षण क्योंकि इसे कभी लौटाया नहीं जा सकता। यही सब सोचते - सोचते मुझे जॉर्ज बनार्ड शॉ की वे पंक्तियाँ याद आने लगी जिनमें उन्होंने होशपूर्ण जीवन को बहुत ही खूबसूरती से बयाँ किया है। वे लिखते है, " मैं मरने से पहले पूरी तरह काम में आ जाना  हूँ - क्योंकि जितना काम आऊँगा उतना ही जिऊँगा। जिन्दगी अपने आप में ही मुझे आनन्दित करती है।"

प्रत्येक व्यक्ति की अपने जीवन से कोई न कोई महत्वाकाँक्षा होती है। किसी को डॉक्टर बनना है, किसी को खेल-जगत में नाम कमाना है, किसी को समाज-सेवा करनी है तो किसी को अच्छा व्यापारी। जीवन का हर क्षण हमें मौका देता है इनकी तरफ कदम बढ़ने का लेकिन हम रोजमर्रा की  बातों और परिवार के गैर-जरुरी बातों पर मतभेद मैं उलझ अपने वृहत्तर उद्देश्यों से भटक जाते है। सबसे मजे की बात यह कि कुछ दिनों बाद ये बातें हमें ही याद नहीं रहती।  जीवन की इन अडचनों की तुलना हम गाडी में आने वाली उन गड़बड़ियों से कर सकते है जो उसके रख-रखाव की श्रेणी में आती है। गाडी हम अपनी सुविधा से आने-जाने के लिए रखते है न कि रख-रखाव के लिए। रख-रखाव जरुरी है जिससे गाडी वक्त पर हमारे काम आ सके लेकिन इसी में उलझे रहे तो गाडी होने का आनंद ही क्या? दैनिक जीवन की छोटी-मोटी परेशानियों के प्रति हमारा यही दृष्टिकोण होना चाहिए। जिन्दगी जीने के लिए इन्हें सुलझाना है, इन्हें सुलझाना जिन्दगी नहीं है। इस तरह हर गुजरते क्षण को अपने जीवन उद्देश्यों को पूरा करने का साधन बना लेना ही ' मरने से पहले पूरी तरह काम आ जाना '  हो सकता है।

फिर हमारा होना ही किसी आश्चर्य से कम है? जीवन का मतलब ही महसूस करना और व्यक्त करना है और ऐसा कर पाना ही जीवन का सच्चा आनन्द है। इस आनन्द को अपना स्थायी भाव बना लेना, स्वतः ही मन में कृतज्ञता के भाव लाएगा। अब जहाँ कृतज्ञता होंगी वहाँ शिकायतें कैसे रहेंगी। ' जिन्दगी अपने आप में मुझे आनन्दित करती है ' से बनार्ड शॉ का शायद यही आशय है। जब किसी से कोई शिकायत नहीं तब स्वतः ही आप अपनी जिन्दगी के मालिक होंगे और फिर आपको अपने लक्ष्यों से कोई नहीं भटका सकता। आपके लिए अपनी तरह से जी पाना और हो पाना कहीं आसान होगा।

बचपन में सुनी कछुए और खरगोश की कहानी तो आपको जरुर याद होगी। कछुए को हर क्षण अपना लक्ष्य ध्यान था और खरगोश को कभी पेड़ की छावं रोक रही थी तो कभी अपने अपने तेज दौड़ पाने का दम्भ। बस इतनी सी बात ध्यान रखनी है फिर देखना कछुए की तरह जीत हमारी ही होगी।


आपका,
राहुल .......
( रविवार, 14 अक्टुबर को नवज्योति में प्रकाशित )

No comments:

Post a Comment