Friday 7 December 2012

आत्म-सम्मान ~ पहला धर्म




        .......... और कसाब को फाँसी हो गई। पहली बार किसी के मरने पर अच्छा  रहा था। हर चेहरे पर एक मुस्कान तैर रही थी कुछ लोगों ने तो पटाखे छोड़े और एक-दूसरे को मिठाइयाँ खिलाई। मुझे भी पक्का विश्वास था कि मेरा खुश होना जायज है लेकिन इस घटना ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर कसाब की फाँसी ने एक आम आदमी को ऐसा क्या लौटा दिया कि पूरा देश एकजुट होकर उसके फाँसी चढ़ जाने का जश्न मना रहा था?

हम आज तक स्वयं के ईश्वर की अभिव्यक्ति, क्षमा के सबसे सुन्दरतम भाव, चेतना के भिन्न स्तरों की बात करते आये है फिर उसका गुनाह अक्षम्य क्यूँ था? क्या उसका गुनाह केवल बेगुनाहों की मौत था या उससे बढ़कर और कुछ था? सवाल है तो जवाब भी होगा और आखिरकार अन्तस में बैठा मिल ही गया और वह है ; आत्म - सम्मान। वह हमला किसी व्यक्ति पर नहीं देश के प्रत्येक व्यक्ति के आत्म-सम्मान पर था। उसने देश के हर नागरिक को लज्जित किया था कि कोई भी ऐरा - गैरा नत्थू - खैरा आएगा और जो चाहेगा करके चला जाएगा। कसाब की फाँसी ने हमारे आत्म - सम्मान को लौटाया।

आइए, थोडा पीछे लौटते है; कृष्ण जब धृतराष्ट्र के पास पाण्डवों के लिए 'पांच गाँव' का संधि-प्रस्ताव लेकर गए और कौरवों ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था तब क्या उन राजाओं की कमी होगी जो पांच गाँवों के बदले पाण्डवों की मित्रता और कृष्ण का सामीप्य पा लेते? क्या महाभारत पांच गाँवों को हासिल करने के लिए हुआ था? नहीं, कृष्ण के प्रस्ताव को ठुकराना पाण्डवों के आत्म-सम्मान को नकारना था और यही महाभारत की वजह थी। श्री कृष्ण ने हमें बताया कि आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए युद्ध ही अंतिम विकल्प हो तो उसे अपनाने में भी गुरेज नहीं होना चाहिए।

व्यक्ति के आत्म-सम्मान से बढ़कर कुछ नहीं। इतना अहम् की इसके लिए क्षमा, समानता और जीने के अधिकार जैसे आध्यात्मिक गुणों की अवहेलना भी जायज है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस परम सत्य के बावजूद कि हम सब परमात्मा की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है यानि हम सब में उस एक ही परमात्मा का अंश है, हम अभिव्यक्ति और अनुभूति के स्तर पर स्वतंत्र एवं भिन्न है और इसलिए हमारा पहला धर्म है अपने स्वयं के सम्मान की रक्षा कर उस परमात्मा का सम्मान करना जिसका हमारे भीतर मौजूद अंश हमारे जीवित होने की वजह है।

यदि हम भी अपने जीवन में किसी के आदर में स्वयं की अवहेलना करते है तो समझ लीजिये हमने आदर को सही अर्थों में समझा ही नहीं। आप ही सोचिये, जिनका हम आदर करते है क्या वे खुश होंगे जब उन्हें पता चलेगा कि हम वह सब कुछ अपना मन मारकर कर रहे है? ऐसा कर हम उलटा उनका दिल ही दुखाएँगे। ऐसे लोग जो चाहते है कि आप अपनी अवहेलना करके भी उनका आदर करें, सच मानिए वे आपसे प्रेम ही नहीं करते। वे या तो आपको अपनी अहं तुष्टि का या अपना काम निकालने का जरिया भर समझते है। ऐसे लोगों को अपनी  से खदेड़ निकालना अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करना ही होगा। विश्वास मानिए, जो व्यक्ति आत्म-सम्मान से जीते है वे ही किसी का सच्चा सम्मान कर सकते है और एवज में सच्चा सम्मान पा सकते है।


(रविवार, 2 दिसंबर को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका
राहुल........

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