Friday, 16 November 2012

उत्सव, एक जरुरत




इन दिनों हम भारत-वर्ष के सबसे बड़े धार्मिक-उत्सव मनाने में डूबे है। दिवाली पर ढेरों शुभकामनाएँ देते हुए मन कर रहा है कि आज हम तलाशे कि आखिर हम उत्सव मनाते ही क्यूँ है? क्या महज श्रद्धा ही इन परम्पराओं का कारण है या कुछ और भी? और यदि है तो वे किस तरह हमारे जीवन को प्रभावित करती है?

उत्सव चाहे कोई हो उन दिनों एक खास माहौल बनने लगता है जैसे इन दिनों रामायण पर आधारित कई धारावाहिक आ रहे है तो ख़बरों में जगह-जगह होने वाली विशेष रामलीलाओं की चर्चा है, शहर में जगह-जगह रावण के पुतले बनते नज़र आ रहे थे तो घरों में सफ़ाईयाँ  चल रही थी। इस खास माहौल की बदौलत हमारे अवचेतन में कहीं न कहीं श्री राम और उनका जीवन रहने लगता है। पिता की आज्ञा-पालन कर राम का राज-पाट छोड़ना, सीता-लक्ष्मण का साथ वनवास जाना, भरत का खडाऊ रख शासन चलाना................. राम की रावण पर विजय। ये सारी घटनाएँ  उन मूल्यों की याद दिलाती है जिन्हें अपने जीवन का आधार बना एक राजा ईश्वर बन गया। ये हमें भरोसा दिलाती है कि आखिर विजय उसी की होती है जो सत्य की राह पर चलता है और इस तरह आम जन-जीवन में मूल्यों की पुर्नस्थापना करना किसी भी उत्सव को मनाने की सबसे अहम् वजह होती है।

एक और खास वजह, उत्सव हमें अवकाश देते है अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी से। लियानार्डो डी विन्ची लिखते है, 'अवकाश आपके निर्णयों को पक्का और पैना बनाते है।' सच ही तो है, रोजमर्रा की जिन्दगी ने हमें घड़ी से बाँध दिया है। अपने काम को सही समय पर करने के लिए हम समय-प्रबंधन करते है लेकिन धीरे-धीरे काम और उसकी गुणवत्ता कहीं पीछे छूट जाती है वैसे ही जैसे निश्चित समय पर भोजन करने की प्रतिबद्धता के चलते भूख का अहसास द्वितीय हो जाता है। उत्सव इस दुष्चक्र को तो तोड़ते है ही साथ ही हमें अवसर देते है जहाँ से खड़े होकर हम अपने काम को समग्रता से देख सकें। जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर अपने ही शहर को देखने पर उसकी खूबसूरती और कमियाँ साफ़ नज़र आने लगती है उसी तरह अवकाश के दिनों से अपने काम को समग्रता से देखने पर हमें साफ़ नज़र आएगा कि हमारे काम में कहाँ अनुपात बिगड़ रहा है और कहाँ लय टूट रही है।

एक सबसे छोटा दिखने वाला लेकिन सबसे महत्वपूर्ण लाभ -- उत्सव हमें अपने रिश्तों की मरम्मत करने का अवसर देते है। शायद इसीलिए हर धार्मिक उत्सव के बाद चाहे वह दिवाली हो, होली हो, ईद हो या क्रिसमस ; अपने प्रियजनों से मिल उनका अभिवादन करने की प्रथा है। एक-दूसरे से मिलने और अभिवादन की यह रस्म अदायगी धीरे-धीरे रिश्तों के बीच आई दीवार ढहाने लगती है।

इस तरह उत्सव हमारे जीवन मूल्यों की पुर्नस्थापना करते है, काम की गुणवत्ता लौटते है, हमारे निर्णयों को पहले से ज्यादा पैना बनाते है और सबसे अव्वल हमारे रिश्तों की मिठास को बनाए रखते है। उत्सव श्रद्दा से कहीं अधिक हमारी जिन्दगी की जरुरत है। ईश्वर करें यह दिवाली हमारे जीवन को और बेहतर बनाएँ।


( रविवार 11, नवम्बर को नवज्योति में  प्रकाशित )
आपका 
राहुल................   

Friday, 9 November 2012

जिन्दगी के मौसम




प्रकृति से श्रेष्ठ कोई शिक्षक नहीं और इसके आश्चर्यों का आनन्द लेते हुए जीने से बड़ा कोई सुख नहीं। प्रकृति यानि बदलते मौसम। मौसम यानि जो कल था वो आज नहीं और जो आज है वो कल नहीं। निरंतरता की यही प्रवृति है प्रकृति की अद्वितीय सुन्दरता का राज। यही है हर सुबह की नई ताजगी और हर शाम की शीतलता की वजह। हमारे लिए ही गर्मियों के दिनों में सर्दी की कल्पना कर पाना कितना मुश्किल हो जाता है, इसी शिद्दत से जीती है प्रकृति अपने मौसमों को पर फिर धीरे-धीरे सर्दियाँ आने लगती है, कितनी सहजता से स्वीकार कर लेती है इस बदलाव को और उसी रंग-ढंग में ढल जाती है।

हम प्रकृति के इन रंगों के इतने अभ्यस्त हो चुके है कि इनसे सीखना तो दूर यह विविधता हमें आनंद-आश्चर्य भी नहीं देती। प्रकृति तो हर क्षण अपने आचरण से हमें याद दिलाती है कि जो कुछ जिओ उसे उस समय पूरी तरह डूबकर, कोई गिला बाकी न रहे लेकिन साथ ही यह भी याद रहे कि दुनिया में जिस किसी का भी अस्तित्व है तो उसके होने की वजह भी, तो जाने का समय भी। छोटी हो या बड़ी सबकी एक उम्र होती है लेकिन जिन क्षणों को भरपूर जिया हो उनकी विदाई आसान होती है। एक मौसम की सहज विदाई ही तो दुसरे मौसम के स्वागत का द्वार खोलती है और यही वो तरीका है जिससे हमारी जिन्दगी भी प्रकृति की तरह अद्वितीय सुंदर बन सकती है।

जिन्दगी के सबसे अहम् पहलू है हमारा काम और हमारे रिश्ते। दोनों के प्रति हमारा नज़रिया वही होना चाहिए जो प्रकृति का अपने मौसम के प्रति होता है। यह ठीक है कि हम वो करें जिसकी हमें दिल गवाही दे और तब काम, काम नहीं खेल बनकर रह जाएगा लेकिन कई बार हम व्यावहारिक कारणों के चलते अपने मनचाहे काम के अलावा किसी और काम में होते है या समय के साथ हमें अपना काम ही कम भाने लगता है। दोनों ही स्थितियों का जवाब प्रकृति में  छुपा है। पहले तो आप जिस भी काम में है उसे पूरे मन से कीजिए। पूरे मन से किया काम ही आपको सफलता देगा और यह सफलता ही आपको एक बार वापस अपने काम के चुनाव का अवसर देगी। मान लीजिए आप इंजिनियर है लेकिन चाहते है पेंटर बनना। सबसे पहले तो अपने मन में पेंटर बनने की इच्छा को जिन्दा रखते हुए इंजीनियरिंग के काम को अपना शत-प्रतिशत दीजिए। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में आपकी सफलता आपको वो सब उपलब्ध करवाएगी जिससे आप अपने पेंटर बनने के सपनों को पूरा कर सकें, ठीक उसी तरह जिस तरह प्रकृति पूरी शिद्दत से हर मौसम को जीती है और यही अगले मौसम के आगमन का कारण बनाता है।

जिन्दगी का दूसरा अहम् पहलू है हमारे रिश्ते। किसी भी रिश्ते को तब भरपूर जियें जब आप उसमें हों, यही खुशियों भरे जीवन का राज है लेकिन हम या तो रिश्ते बनाने से पहले उत्साहित होते है या बाद में उन्हें याद करते है। रिश्तों को वर्तमान में जीते हुए भी जीवन में कई बार ऐसी स्थितियाँ बन जाती है कि उन्हें एक मोड़ दे देना ही एकमात्र विकल्प बचता है, तो इसमें कुछ गलत नहीं। आप ऐसा कर दोनों का भला ही कर रहे है लेकिन याद रहे न तो यह क्षणिक भावावेश हो और न ही बेहतर बेहतर रिश्ते की उम्मीद में उठाया कदम; यह स्थिर मन से अन्तरात्मा की आवाज़ पर किया निर्णय हो। किसी भी रिश्ते को महज इसलिए न निभाए कि यह आपका नैतिक दायित्व है वरना लोग क्या कहेंगे? रिश्ते जब कोरी जिम्मेदारी बन जाते है तो अपनी सुगंध खो देते है लेकिन अपनी जिम्मेदारी को नकारा भी नहीं जा सकता अतः रिश्तों को तब तक सहेजने की कोशिश करें जब तक उसमें आत्मिक ख़ुशी का एक भी रेशा बचा हो। एक बात ध्यान रखें रिश्ते परमात्मा का हमारा जीवन खुशियों से भर देने का साधन है लेकिन उसके पास साधनों की कोई कमी नहीं।

प्रकृति से मिली इसी सीख को श्री हरिवंश राय बच्चन ने बहुत ही सुन्दर और सार्थक शब्दों में पिरोया है, " पाप हो या पुण्य कुछ भी नहीं किया मैंने आधे-अधूरे मन से।"


(रविवार, 4 नवम्बर को दैनिक नवज्योति में  प्रकाशित)

आपका 
राहुल ........     

Friday, 2 November 2012

संतुष्टि की संजीवनी




' काम को जल्दी में नहीं उसकी सम्पूर्णता के साथ कीजिए, छोटे-छोटे प्रलोभन आपको बड़ी उपलब्धियों से वंचित रख देंगे। '

                                                                                                                         -  कन्फ्यूसियस   


आचार्य चाणक्य को कहाँ जरुरत थी कि वे धनानंद से बदला लेने के लिए इतना प्रपंच करते। वे किसी तरह धनानंद को मरवा देते और उनका बदला पूरा हो जाता लेकिन क्या तब हम उन्हें इसी श्रद्धा और सम्मान से याद करते? निश्चित रूप से, नहीं। उन्होंने अपने अपमान को उस समय के समाज में गिरते हुए मूल्यों और देश की बदहाल कानून-व्यवस्था के प्रतीक के रूप में देखा और जुट गए नव-भारत निर्माण में। यही है काम को उसकी सम्पूर्णता के साथ करना।

आपकी बात बिलकुल सही है कि सभी महापुरुष तो नहीं हो सकते लेकिन विश्वास मानिए ये बात हमारे जीवन के नव-निर्माण पर भी उतनी ही शिद्दत से लागू होती है। आज हमें किसी भी काम को करने के बाद ठीक वैसा ही लगता है जैसा अपने विद्यार्थी जीवन में परीक्षा परिणाम के दिन लगता था कि काश मैं थोडा वो भी कर लेता कितना छोटा सा हिस्सा था और मेरे लिए मुश्किल भी नहीं। वास्तव में ' शॉर्ट-कट ' हमारी जीवन शैली बन गई है और अफ़सोस मानना हमारी आदत। 

हमें लगता है कि ये सब इसलिए हुआ क्योंकि आज की तेज-रफ़्तार जिन्दगी में हमें कितना कुछ करना होता है और समय है कम। 'एक जान, हज़ार अरमान' वाली उक्ति शायद हम जैसों के लिए ही बनी है पर मैं आपको बता दूँ कि शॉर्ट-कट अपनाने का हमारा यह तर्क बिलकुल सतही है। यदि हम सब अपना-अपना काम ढंग से करें तो आत्म-संतुष्टि के प्रतिफल के साथ हमारी वाजिब इच्छाएँ स्वतः पूरी होंगी। सारी समस्या यह है कि हम कर्म की बजाय परिणामों को अपना ध्येय बना लेते है। आपस की बातचीत में आपने कई बार सुना होगा; अभी तो एक ढंग की कार खरीदनी है, बच्चों को पढ़ाना है, घर बनाना है और फिर बच्चों की शादियाँ भी तो करनी है और फिर लग जाते है इन सब के ' जुगाड़ ' में। हम अपने काम को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करने और उस पर एतबार करने की बजाय इधर-उधर हाथ मरने लगते है और अपनी सुंदर जिन्दगी को 'तनाव', 'भाग-दौड़', 'तेज-रफ़्तार', जैसे विशेषणों से सजा देते है। अपने काम पर विश्वास और उसके प्रति हमारी ईमानदारी और निष्ठा आत्म-संतुष्टि के साथ हमारी अभिलाषाएँ तो पूरी करेंगी ही, समाज में प्रतिष्ठा का अतिरिक्त लाभ भी देगी।

टेक्नोलोजी के इस युग की इन्सान को सबसे कीमती भेंट है तो वह है ' समय की  बचत '। आज हर चीज को बनाते समय सबसे अहम् यही बात ध्यान रखी जाती है कि ये उपयोग करने वाले का कितना समय बचाएगी। लेकिन क्या आपने कभी गौर किया कि इस बचे हुए समय का हम करते क्या है? यह समय बचाया था इसलिए कि हम अपना काम ढंग से कर लें लेकिन इन चीजों के बीच रहते-रहते हम अपने काम को भी इन उपकरणों की शैली में करने लग गए। 

जिन्दगी में धीरे होना और अपने काम को सम्पूर्णता से करना एक कला है। धीरे-धीरे स्वाद लेकर थोडा भी खाया हुआ संतुष्टि देता है। मैं शर्तिया कह सकता हूँ कि आपकी जिन्दगी के दस यादगार अनुभव वे ही होंगे जिनमें आपने अपना शत-प्रतिशत दिया होगा। धीरे होने में स्मृति है तो तेज होने में विस्मृति। काम की सम्पूर्णता ही जीवन में संतुष्टि की संजीवनी है।


( रविवार, 28 अक्टुबर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल...... 
 

Saturday, 27 October 2012

क्या कह रहे है, आप ?




विचारों के बीज से ही तो शब्दों का जन्म होता है और फिर शब्द हमारी दुनिया बनाते है। शब्द अपने जन्म से पहले मस्तिष्क में उठा विचार ही तो है। जिन शब्दों को हमारी इच्छा-शक्ति का बल मिल जाता है वे हमारे कर्म और धीरे-धीरे आदतें बन जाती है। हमारी आदतें हमारा चरित्र बनाती है और आदमी का चरित्र ही उसकी जीवन-परिस्थितियों यानि भाग्य के लिए जिम्मेदार होता है और इस तरह हमारी जिन्दगी का पहिया घूमता है। विचारों की पहली सीढ़ी शब्द तो अंतिम परिणिति भाग्य है। जीवन को सुंदर बनाना है तो अपने विचारों को दुरुस्त करना होगा।

लेकिन क्या विचारों को बदल पाना इतना आसान है? एक रोचक तथ्य के अनुसार एक औसत व्यक्ति के मस्तिष्क में रोजाना लगभग 60,000 विचार आते है। विचारों के इस हडकम्प में इन्हें बदलना तो बहुत दूर इन्हें पकड़ना ही बहुत मुश्किल हो जाता है। ध्यान लगाना विचारों को दुरुस्त करने का सबसे सुन्दर और प्रामाणिक तरीका है लेकिन सबके लिए सुगम भी तो नहीं। विचारों की गति इतनी तेज होती है कि ध्यान के शुरूआती दिनों में तो ऐसा है जैसे हम  अपने जीवन की समस्याओं पर बनी फिल्म देख रहे है।

ऐसे समय हम अपने शब्दों के जरिए अपने विचारों को जान-समझ सकते है। सामान्यतया हम जिस सूक्ष्मता से दूसरों की कही बात सुनते है अपनी नहीं सुनते। आप जब भी बोलें सजग रहकर स्वयं भी सुनें। मेरा विश्वास है कि कई बार आपको स्वयं आश्चर्य होगा कि 'मैं ऐसे कैसे बोल सकता हूँ।'  यही सजगता यही आश्चर्य आपको अपने कहने के पीछे की सोच और नजरिए को समझने में मदद करेगी। आपके शब्द आपको उस विचार तक पहुँचाएगे जो आपकी आज की परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी है और तब उसे ठीक करना कहीं आसान होगा।

यदि हमारे लिए विचारों तक पहुँचना फिर भी मुश्किल है तो एक आसान तरीका है जिसे अपना आप अपने विचारों को बिना उन तक पहुँचे-जाने उन्हें सकारात्मक बना सकते है और वह है ' स्व-वार्ता '। स्व-वार्ता यानि बातें जो हम अपने आप से करते है। हमारे विचारों और शब्दों के बीच की एक सूक्ष्म कड़ी। आप गौर करेंगे तो पायेगें कि हम हर समय अपने आप से कुछ न कुछ बात कर रहे होते है। जैसी हमारी सोच होगी वैसी ही बातें हम अपने आप से करेगें, उदाहरण के तौर पर यदि हर छोटी-बड़ी घटना के लिए हम अपने आपको जिम्मेदार मानते है तो हम अपने आपको हमेशा ही डाँटता-धिक्कारता पाएँगे। जिस तरह हम अपने आप से बात करते है उससे हमारा मानसिक वातावरण बनता है और जैसा हमारा मानसिक वातावरण होता है वैसे ही हम औरों से बात करते है, शब्दों का प्रयोग करते है। इस पहलू का महत्व एवम उपयोगिता इसलिए भी ज्यादा हो जाती है क्योंकि अपने प्रति अपनी भाषा को सुधारना कहीं आसान है औरों के प्रति अपनी भाषा सुधारने से। 

आपका मन चाहे कुछ भी कहे, ध्यान रखिये कि आप हमेशा अपने आप से प्यार से ही बात करेंगे। आपके लगातार ऐसा करने से आप औरों पर स्नेह तो बरसाएँगे ही, एक स्वस्थ मानसिक वातावरण के चलते एक तरफ तो आपके विचार स्वतः ही दुरुस्त हो जायेंगे तो दूसरी तरफ आप अच्छे कर्मों की ओर उद्दृत होंगे।

अपनी कही को हवा में मत उड़ाइए, आपके शब्द आपकी सोच और नजरिया भी बदल देंगे तो आपका जीवन और भाग्य भी। आपको नहीं लगता कितना आसान है वह काम जो हमारी बोली मात्र से सुधर जाएँ ? 


( रविवार 21, अक्टूबर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल........ 

Saturday, 20 October 2012

अपने को जाया न करें




एक अखबार के स्तम्भ में खुशवंत सिंह जी लिखते है कि उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं पीछे मुड़कर  हूँ तो अहसास होता है कि मैंने किस तरह अपना कीमती समय जाया किया वह भी जवानी के उन ऊर्जावान दिनों  में जब मेरे पास करने के कई बेहतर विकल्प थे। वे आगे लिखते है कि उन दिनों मुझे अख़बार में छपने वाली ' क्रासवर्ड पजल्स ' को हल करने की लत पड़ गई थी. सुबह के खाने से पहले का समय जो सामान्यतया मेरी पढाई - लिखाई का होता था, उसे कई बार मैं इन पहेलियों को हल करने में ही व्यर्थ कर देता था।

वे सिर्फ अपने बारे में नहीं बता रहे थे बल्कि याद दिला रहे थे कि किस तरह हम सब अपनी जिन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा बेहोशी में गवां देते है। क्षणिक आनन्द जो बाद में अफ़सोस में बदल जाता है। सबसे कीमती है ये क्षण क्योंकि इसे कभी लौटाया नहीं जा सकता। यही सब सोचते - सोचते मुझे जॉर्ज बनार्ड शॉ की वे पंक्तियाँ याद आने लगी जिनमें उन्होंने होशपूर्ण जीवन को बहुत ही खूबसूरती से बयाँ किया है। वे लिखते है, " मैं मरने से पहले पूरी तरह काम में आ जाना  हूँ - क्योंकि जितना काम आऊँगा उतना ही जिऊँगा। जिन्दगी अपने आप में ही मुझे आनन्दित करती है।"

प्रत्येक व्यक्ति की अपने जीवन से कोई न कोई महत्वाकाँक्षा होती है। किसी को डॉक्टर बनना है, किसी को खेल-जगत में नाम कमाना है, किसी को समाज-सेवा करनी है तो किसी को अच्छा व्यापारी। जीवन का हर क्षण हमें मौका देता है इनकी तरफ कदम बढ़ने का लेकिन हम रोजमर्रा की  बातों और परिवार के गैर-जरुरी बातों पर मतभेद मैं उलझ अपने वृहत्तर उद्देश्यों से भटक जाते है। सबसे मजे की बात यह कि कुछ दिनों बाद ये बातें हमें ही याद नहीं रहती।  जीवन की इन अडचनों की तुलना हम गाडी में आने वाली उन गड़बड़ियों से कर सकते है जो उसके रख-रखाव की श्रेणी में आती है। गाडी हम अपनी सुविधा से आने-जाने के लिए रखते है न कि रख-रखाव के लिए। रख-रखाव जरुरी है जिससे गाडी वक्त पर हमारे काम आ सके लेकिन इसी में उलझे रहे तो गाडी होने का आनंद ही क्या? दैनिक जीवन की छोटी-मोटी परेशानियों के प्रति हमारा यही दृष्टिकोण होना चाहिए। जिन्दगी जीने के लिए इन्हें सुलझाना है, इन्हें सुलझाना जिन्दगी नहीं है। इस तरह हर गुजरते क्षण को अपने जीवन उद्देश्यों को पूरा करने का साधन बना लेना ही ' मरने से पहले पूरी तरह काम आ जाना '  हो सकता है।

फिर हमारा होना ही किसी आश्चर्य से कम है? जीवन का मतलब ही महसूस करना और व्यक्त करना है और ऐसा कर पाना ही जीवन का सच्चा आनन्द है। इस आनन्द को अपना स्थायी भाव बना लेना, स्वतः ही मन में कृतज्ञता के भाव लाएगा। अब जहाँ कृतज्ञता होंगी वहाँ शिकायतें कैसे रहेंगी। ' जिन्दगी अपने आप में मुझे आनन्दित करती है ' से बनार्ड शॉ का शायद यही आशय है। जब किसी से कोई शिकायत नहीं तब स्वतः ही आप अपनी जिन्दगी के मालिक होंगे और फिर आपको अपने लक्ष्यों से कोई नहीं भटका सकता। आपके लिए अपनी तरह से जी पाना और हो पाना कहीं आसान होगा।

बचपन में सुनी कछुए और खरगोश की कहानी तो आपको जरुर याद होगी। कछुए को हर क्षण अपना लक्ष्य ध्यान था और खरगोश को कभी पेड़ की छावं रोक रही थी तो कभी अपने अपने तेज दौड़ पाने का दम्भ। बस इतनी सी बात ध्यान रखनी है फिर देखना कछुए की तरह जीत हमारी ही होगी।


आपका,
राहुल .......
( रविवार, 14 अक्टुबर को नवज्योति में प्रकाशित )

Friday, 12 October 2012

आप बस आप हो जाएँ




जब हम अपने बच्चों को कह रहे होते है कि ' बेटा ! अच्छे बच्चे ऐसे नहीं करते' तब हमें कहाँ अंदाजा होता है कि एक अच्छी आदत सिखाने की कोशिश के साथ -साथ हम उनके कन्धों पर कितना बड़ा बोझ लाद रहे है। आप कहेंगे, अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देना ही तो माता-पिता का कर्त्तव्य है और फिर इसके लिए बच्चों को थोडी-बहुत तकलीफ भी हो तो, क्या गलत है? सोना तपकर ही तो निखरता है।

आप की बात सोलह आने सच है लेकिन क्या अनजाने ही आपने यह नहीं कह दिया कि वह अच्छा बच्चा नहीं है और अच्छा बनने के लिए कुछ अलग से करने की जरुरत है। हम अपने बच्चों को अच्छा बनाने के लिए अपने प्रेम को हथियार की तरह इस्तेमाल करने लगते है। बच्चे जो सिर्फ प्रेम की भाषा समझते है हर संभव कोशिश में जुट जाते है कि वे हमारे प्रेम के काबिल बन सकें। समय के साथ-साथ उन्हें अच्छे से अच्छा बनाने की जुगत में हमारे मानदण्ड ऊँचे उठते चले जाते है। धीरे-धीरे बच्चे उन मानदण्डों को छू पाने में असफल होने लगते है लेकिन एक बात अनजाने ही सही उनके अवचेतन में गहरे पैठ जाती है कि वे जैसे है वैसे ही तो प्रेम के काबिल नहीं। यदि वे सबके द्वारा स्वीकार किया जाना चाहते है तो उन्हें हमेशा ही कुछ अतिरिक्त कर अपने आपको सिद्ध करना होगा।

बच्चों के मन में पैठी यही बात लगता है आज पूरे समाज में व्याप्त हो गई है। जहां व्यवस्था का आधार यह होना चाहिए कि ' प्रत्येक व्यक्ति ईमानदार है जब तक कि वह बेईमान सिद्ध न हो जाएँ ' वहाँ हो इसका बिलकुल उलट रहा है। आज की समाज-व्यवस्था ऐसी हो गई है कि ' प्रत्येक व्यक्ति बेईमान है जब तक कि वो ईमानदार सिद्ध न हो जाएँ'। पग-पग पर हम पर अपने आपको सिद्ध करने का बोझ है। दैनिक जीवन का कोई काम यदि बिना किसी प्रक्रिया से गुजरे सम्मानपूर्वक हो जाएँ तो हमें ही शक होने लगता है कि जरुर कुछ गड़बड़ है। शायद मुझसे ही कहीं कोई कमी रह गई है मुझे लग रहा है पर काम ढंग से हुआ नहीं है।

बचपन से लगाकर आज तक व्यक्ति के साथ यह जो कुछ भी हुआ उसने व्यक्ति के मन को अपराध-बोध से भर दिया है। अपराध-बोध कमतर होने का, सबसे हीन होने का। इसी भावना के चलते हम हमेशा ही किसी और की तरह होने और दिखने की कोशिश मैं लगे रहते है, कभी खुलकर नहीं जी पाते। चेहरों की पारदर्शिता तो न कहाँ खो गई है?

समय के साथ हम सब यह तो मानने लगे है कि हर बच्चे में कोई न कोई एक विशेष गुण होता है बस जरुरत होती है उसे ढूंढ़ने की, तराशने की। बावजूद इसके न जाने क्यों यही बात हम अपने बारे में समझने और मानने से झिझकते है। हम स्वयं दूसरे के जैसा और हमारे अपनों को हमारे जैसा बनाने के युद्ध में लगे है। स्वयं तो लहू-लूहान है ही उन्हें भी किए बठे है जिनसे हम प्रेम करते है।

जीवन में शांति और आनंद लौटाने है तो इस युद्ध को रोकना होगा। यह समझना और मानना होगा कि हम सब 'अच्छे' है, एक-दुसरे के प्रेम के काबिल। एक-दूसरे की पूर्णता को उनकी विशिष्टताओं के साथ स्वीकार करना होगा। हमारी यही समझ हमें खुलकर जीने का मैदान देगी। आज मैं फिर अपनी पसंदीदा पंक्ति की पुनरावृति को नहीं रोक पा रहा हूँ कि ' हम सब ईश्वर की स्वतंत्र भौतिक अभिव्यक्ति है'। अपनी और अपनों के अद्वितीय होने की स्वीकारोक्ति ही हमें अपराध-बोध की बेड़ियों से मुक्त कराएगी।


आपका
राहुल......
( रविवार 7 अक्टूबर को नवज्योति में प्रकाशित )

Friday, 5 October 2012

अपने सपनों को जिएँ




हुत कम लोग ऐसे होंगे  जिन्हें अपनी जिन्दगी से यह शिकायत न हो कि फलाँ-फलाँ कारणों से इन्हें वो जिन्दगी नहीं मिल पायी जिसके ये हक़दार थे और हैं. इनके ढेर सारे कारणों में ये कहीं नहीं होते. कोई और, चाहे वो कोई भी हो इनके आज के लिए जिम्मेवार होता है. आप जब भी इनसे मिलेंगे या तो किसी न किसी को कोसता या किसी न किसी से उलझता पायेंगे.

एक मिनट के लिए रूककर इनके दैनिक जीवन पर नज़र डालें तो माजरा बिल्कुल साफ़ नज़र आ जायेगा. ये वे लोग है जो दिल्ली की ट्रेन पकड़कर मुंबई पहुँचना चाहते है. ये जिस तरह अपना दिन बिताते है और एवज में जैसी जिन्दगी चाहते है, इन दोनों का आपस में कोई मिलान नहीं होता. वैसे ही जैसे एक व्यक्ति अच्छा गायक तो बनना चाहें लेकिन रियाज़ से कतराए और दोष दे जिन्दगी को. कर्म-व्यवहार और सपनों का यही असंतुलन हमारी शिकायतों की असली वजह है.

ये कोई ऐसी बात नहीं जो आपको पहले से मालूम नहीं, तो फिर बात आकर ठहरती है कि सब कुछ मालूम होते हुए भी हम अपना दिन अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश में क्यों नहीं गुजारते? क्यों हम उचित और अनुचित के नाम पर उन कामों में जुटे रहते है जिन्हें करने को हमारा दिल गवारा नहीं करता और उन्हें हमेशा ही आगे टालते रहते है जिनसे हमारा मन भरता है? जवाब तो सवाल में छुपा है -' विश्वास '.  हमें अपने सपनों पर विश्वास नहीं.

मैं आपको याद दिला दूँ , ये वे सपने नहीं जो हम रात को सोते हुए देख लेते है बल्कि हमारे अन्तर्मन की पुकार है जो सोते-जागते हर क्षण हमारे साथ रहती है, जैसे कोई किधर खींच रहा हो. जिस तरह एक बीज में पेड़ बन पाने की हमेशा ही क्षमता होती है बस जरुरत होती है उसे बोने की, खाद-पानी देने की, रखवाली करने की; उसी तरह हम में भी अपने सपनों को पूरा कर पाने की हमेशा ही क्षमता होती है जरुरत होती है उन पर विश्वास करने की, उन्हें जिन्दा रखने की, उन्हें जीने की. हमारे सपने हमारे होने की वजहें है और इन पर विश्वास करने की इससे पुख्ता क्या वजह हो सकती है?

आप कहेंगे, 'ये बातें कहने-सुनने में ही अच्छी लगती है'. ठीक भी है, व्यावहारिक जीवन में सपनों के आर्थिक पक्ष को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता विशेषकर जब वे हमारे काम-काज से जुड़ें हों. कुछ क्षेत्र ऐसे है जिनके बलबूते आप अपना जीवन और गृहस्थी सहजता से चला पायें, इस स्थिति तक पहुँचने में समय लग सकता है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति को अपने सपनों को पूरा करने की कोशिशों के साथ-साथ किसी ऐसे अतिरिक्त काम से भी जुड़ जाना चाहिए जो उसके जीवन की सहजता को बरक़रार रखते हुए उसके सपनों को जिन्दा रख सकें. यह सपनो से समझौता नहीं उन्हें पूरा करने की प्रक्रिया का हिस्सा भर है. आपके सपने, चाहे जो भी हो, उनमें निस्संदेह इतना माद्दा होता है कि वे आपको वैसा जीवन दे सकें जो आपके लिए अनुकूल हों; बात सिर्फ समय के अन्तराल की है.

हमारा यही विश्वास दैनिक जीवन में कर्म-व्यवहार और सपनों के संतुलन को लौटाएगा.
प्रकृति तो चाहती है कि हम अपने सपनों को जिएँ, पूरा करें; जरुरत है तो बस हाथ थामने भर की.

आपका,
राहुल......
( रविवार, ३० सितम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )