Friday, 13 December 2013

थकना तो मरना है




ये बात मेरे लिए तो बिलकुल नयी है। न तो कहीं पढ़ा न ही किसी को कहते हुए सुना। कोई और कहता तो हवा में उड़ा भी देता पर जब कोई 92 वर्षीय स्वस्थ योग-नौलि विशेषज्ञ ऐसी बात कहे तो मैं तो क्या किसी को भी सोचने पर मजबूर होना पड़े। बात है कुछ दिनों पहले सेंट्रल-पार्क की, जब श्री सूरज करण जी जिन्दल मुझे नियमित सूर्य-नमस्कार करने को प्रेरित कर रहे थे और मेरा ऐसा नहीं कर पाने के फ़ालतू तर्कों को एक के बाद एक खारिज कर रहे थे। एक बात के जवाब में उन्होंने कहा, 'अरे! भाई थकिए मत। उतना ही कीजिए जितना कर सकें। जो थकाए वह योग हो ही नहीं सकता। इतनी जल्दी क्या है? बस थोडा-थोडा सीखते-करते चले जाइए और फिर थकना तो मरना है।'

मैं चौंका, ये क्या 'थकना तो मरना है'। पूछा उनसे तो उन्होंने एक सटीक उदहारण दिया, 'आप 100 मीटर के ओलम्पिक विजेता को दौड़ ख़त्म होने के तुरंत बाद वापस दौड़ने को कहिए, कोई हालत में वह ऐसा नहीं कर पाएगा। वह इतना थक चूका होगा कि कुछ समय तो उसे लगेगा ही अपने आप को इकट्ठा करने में। अब दुनिया के सबसे तेज धावक के जिन्दगी का वो समय जब वो दौड़ ही न पाए, उसके लिए 'मर जाने' जैसा हुआ कि नहीं? उनकी बात सुनकर आप ही बताइए, मेरे पास उनसे सहमत हो जाने के अलावा चारा ही क्या था?

उनसे बात कर मैं घर तो आ गया पर 'थकना तो मरना है' मेरे दिमाग में घर चुकी थी। ऐसी कि मैं तब से इसे जिन्दगी के हर पहलू से जोड़ कर देख रहा हूँ और अभी तक जहाँ पहुँच पाया वह यह कि किसी काम को तब तक ही कीजिए जब तक आप उसकी गुणवत्ता को बरक़रार रख सकें। यही आपके काम की हद होनी चाहिए। अपने काम को अच्छे से अच्छा करने की कोशिश आपको आत्म-संतुष्टि तो देगी ही, यही आत्म-संतुष्टि आपके मन में उस काम को करने की ललक भी बनाये रखेगी। हो सकता है यहाँ तक आपका शरीर थक जाए पर मन नहीं थकेगा। उसे फिर करने, और बेहतर करने की इच्छा मन में बनी रहेगी क्योंकि आपको कहीं न कहीं यह अहसास रहेगा कि अन्त में मुझे इससे संतुष्टि का आनन्द मिलने वाला है।

मुझे मालूम है, आप क्या सोच रहे हैं? आप कह रहे हैं, ऐसा कर पाना सम्भव थोड़े ही है। दिन में, जिन्दगी में ढेरों काम ऐसे होते है जिन्हें करना ही पड़ता है चाहे मन करे न करे या शरीर साथ दे न दे। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ लेकिन सिर्फ वहाँ तक जिन बातों पर हमारा जोर नहीं, जो ईश्वर या प्रकृति प्रदत्त है। एक बार सोच कर देखिए कि कितने ऐसे काम है जो हमें इस जीवन के साथ मिले है और कितने ऐसे जिन्हें हम न जाने क्यूँ लोक-लिहाज के नाम पर जबरदस्ती ढोए जा रहे हैं। आप जब अपने मन का काम करके थकते भी हैं तो उसकी थकान भी मजा देती है क्योंकि तब सिर्फ शरीर थकता है, मन तो खिल उठता है और यह खिला मन ही उन कामों को करने का ऊर्जा-स्रोत भी बनता है जो हमें इस जीवन के साथ मिले हैं। जरुरी है हम अपने जीवन से वो सारा बोझ उतार लें, उन सारे अनावश्यक दायित्वों से मुक्ति पा लें जो हमारे मन को थकते हों, उन्हें खिलने से रोकते हों। 

अन्त में मुझे दो सूत्र हाथ लगे। पहला, आपके कामों से आपका अंतर्मन रज़ा हो। जिन कामों को आप चुन सकें वे आपके मन के अनुकूल हों। दूसरा, आपके कामों की हद उसकी गुणवत्ता हो। काम को तब तक ही करें जब तक आप उसकी गुणवत्ता बनाए रख सकें। मैं तो आने वाले जीवन में यह कोशिश करूँगा कि मन कभी न थके क्योंकि थकना तो .....................। क्या आप मेरे साथ आएँगे?



(जैसा कि नवज्योति में 8 दिसम्बर, रविवार को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ......... 

Saturday, 7 December 2013

सुरति बनी रहे


स्मृति का अपभ्रंश है सुरति। दादू, नानक, कबीर का दिया शब्द ही ये। उन्होंने अपने दोहों-भजनों में जगह-जगह इसकी महिमा को गया है। परमात्मा को याद करना जितना जरुरी है उससे कहीं अधिक जरुरी है परमात्मा का याद रहना, यही है सुरति। हर क्षण यह अहसास जगा रहे, यह स्मृति रहे कि हम उसी की एक अभिव्यक्ति है, एक अद्वितीय रचना। वही हम सब के होने की वजह है। यह सुरति हमें हर बात में 'क्या होगा' कि चिंता से मुक्त रखेगी और तब हमारा पैमाना केवल उपयुक्तता और आनन्द होगा। कुछ भी करने से पहले हम सिर्फ यह सोचेंगे कि क्या हमारे लिए ठीक है और क्या हमें आनन्द भी देता है? ये सुरति हमें कर्ता भाव से मुक्त रख कभी अहंकारी न बनने देगी, फिर भला हमारा रास्ता कौन रोकेगा?
 
कबीर का रूपक सुरति को तरल कर सीधा दिल में उतारता है। वे कहते है जिस तरह पनिहारिनें घड़ा लेकर चलती है वही आपके जीने का अन्दाज हो। वे पनघट से घर हँसी-ठिठोली करती, गाती हुई लौटती है लेकिन सारी बातों के साथ एक ध्यान हमेशा घड़े पर बना रहता है। वह ध्यान न तो रास्ते के आनन्द में रुकावट बनता है न ही चिंता का कारण, बस बना रहता है एक पृष्ठभूमि की तरह। वे जो कुछ भी रास्ते में करती आती है उसे करने का ढंग अपने आप ही ऐसे ढल जाता है कि जरा सा पानी भी न झलके। बस यही सुरति है, इसी को गौतम बुद्ध ने 'माइंडफुलनेस' कहा है। 

इसी बात को थोडा विस्तार दें तो लगता है यह तो सफलता का अचूक सूत्र है। हमारी सम्भावनाओं को सम्भव कर पाने का रसायन। जीवन में हमें क्या पाना है, क्या होना है बस इसकी एक सुरति बनी रहे। हमारे हर किये न किये में एक 'माइंडफुलनेस' नजर आए। जीवन का तो हर क्षण उपलब्ध विकल्पों से अटा पड़ा है। मेहनत भरे, धैर्य माँगते रास्तों के साथ कुछ जुगाड़ भी और कुछ भटकाव भी सामने है जो निश्चित ही अधिक लुभावने होते है और तब अपने सपनों की स्मृति ही हमें सही रास्तों पर बनाए रखती है। एक और बात जिसका ध्यान रखना जरुरी है वह यह कि कहीं हम 'माइंडफुलनेस' को 'मिशन' न बना दें। मिशन यानि आपको सिर्फ और सिर्फ अपने लक्ष्य ध्यान रहे, रास्ते का आनन्द आप ले ही न पाएँ जैसे ताँगे का घोडा चलता है जबकि माइंडफुलनेस का मतलब रास्तों का आनन्द लेते हुए अपने सपनों को पूरा करने से है। 

हर क्षण की सुरति तो अंतिम सोपान है, एक दिन में भी कई बार ऐसा होगा जब कुछ करने के बाद ऐसा महसूस हो कि मैंने नाहक ही समय व्यर्थ किया। कहीं इससे आप यह न समझ बैठे कि इस तरह जीना तो मेरे लिए सम्भव नहीं। आप तो बस दिन में कभी भी एक बार यह टटोल लें कि आज आपने ऐसा कुछ किया या नहीं जो आपके सपनों को थोडा ही सही, नजदीक ले आया हो। इतना भर बहुत बड़ी बात है। इस तरह जीने की आदत हम दैनिक जीवन के छोटे-छोटे कामों को करने के ढंग से डाल सकते है जैसे खाना खाना हो या गाड़ी चलाना, सुबह कि सैर हो या सब्जी-फल खरीदना; इन्हें यंत्रवत न करें। आप पूरे मन से इन कामों में उपस्थित रहिए। इस तरह उपस्थित रहना आपकी आदत बनती चली जायेगी और तब जीवन के महत्वपूर्ण कामों में भी ऐसा ही होने लगेगा, जीवन के तागों में वस्त्र होने की सुरति बनने लगेगी। 


(नवज्योति में रविवार, 1 दिसम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ........... 
 

Friday, 29 November 2013

एक श्रद्धांजलि, एक पछतावा



और बिज्जी नहीं रहे ............। बिज्जी यानि श्री विजयदान देथा। राजस्थानी के शीर्षस्थ लेखक। आप शायद उन्हें फ़िल्म 'पहेली' के नाम से जल्दी जान पाएँ। अमोल पालेकर निर्देशित और शाहरुख़ खान अभिनीत इस सुन्दर फ़िल्म के कहानीकार वे ही थे। मिट्टी की सौंधी खुश्बू लिए उनकी सारी कहानियाँ इतनी ही सुन्दर और अनूठी है।  

उनकी 'सपन-प्रिया'से तो ऐसा मोह हुआ कि हिंदी में अनुदित लगभग सारा साहित्य ही पढ़ना पड़ा। उन्हें पढ़ना शुरू करने के बाद अपने को रोक पाना शायद ही किसी के लिए सम्भव हो। ऐसा लगता है मानो आपका बचपन लौट आया हो और आप अपने दादा-नाना कि गोदी में बैठकर कहानी सुन रहे हों। बिज्जी की शुरुआत का तो शायद ही दूसरा कोई सानी हो जैसे कोई बात को लोक-जीवन की पहली तह से समेटना शुरू करे।      

तो बात तक़रीबन दस साल पहले कि होगी। मैं अपनी बिटिया के साथ उस दूकान पर था जहाँ से बिज्जी कि किताबें प्रकाशित होती थी। वह तब 5 या 6 वर्ष की रही होगी। मैं उससे अलग-अलग किताबों और उनके लेखकों के बारे में बात कर रहा था। हम देखते-देखते उस रैक तक पहुँचे जहां बिज्जी कि किताबें रखी हुई थी। उन्ही दिनों मैंने 'सपन-प्रिया'पढ़ी थी। मैं अपनी बिटिया को उनके बारे में बताने लगा। मैं उनका प्रशंसक हो चला था इसलिए शायद कुछ ज्यादा ही विस्तार से बता रहा था। एक सज्जन जो काफी देर से हमें देख रहे थे, हमारे पास आए। उन्होंने मुझे शाबासी दी कि मैं अपनी बिटिया को किताबों के बारे में बता रहा हूँ। उन्होंने बताया कि वे बिज्जी के मित्र है, वे जोधपुर विश्वविद्यालय के प्रो. भारद्वाज थे। उन्होंने मुझे बिज्जी के टेलीफोन नम्बर दिए और कहा कि मैं उनसे अवश्य बात करूँ, उन्हें भी अच्छा लगेगा। 

और मैं, मैं सोचता ही रह गया। इन पिछले वर्षों में कई बार सोचा, टेलीफोन डायरी हाथ में भी उठायी पर हर बार यह सोचकर रख दी कि जिस दिन कुछ लिखूँगा उस दिन बात भी करूँगा और अपना लिखा भी दिखाऊँगा। पिछले दो वर्षों से लिख रहा हूँ और इस स्तम्भ के जरिए आपसे हर सप्ताह रुबरु भी हूँ पर क्या मालूम यही लगता रहा कि अभी वैसा और वैसे थोड़े ही लिख पाया हूँ जो उन्हें दिखाने काबिल हो। मुझे आज भी नहीं मालूम कि मैं वैसा लिख पाता हूँ या नहीं पर इतना जरुर है कि जब से ये खबर आयी है मन पछतावे से भरा है, अपने आपको कोस रहा हूँ। काश ! .......

अब पछतावे का भार कुछ हल्का हुआ है तो एक बात पक्के तौर पर गाँठ बाँध ली है कि आइंदा कभी ऐसी गलती नहीं करूँगा। जो बात हमें इतनी शिद्दत से महसूस हो कि उसे करना चाहिए या न करना चाहिए को लेकर मन में जरा भी सन्देह न हो वही तो हमारा होना है, हमारी अन्तरात्मा की आवाज और अपनी अन्तरात्मा की आवाज को दबाना तो निश्चित ही किसी गुनाह से कम नहीं। अब ऐसा कर हम पछतावे को नहीं तो किसे बुलावा दे रहे होते है। स्थगन यदि योजना का हिस्सा है तो और बात है अन्यथा दूसरे सारे तर्क बेवजह है, गलत है। स्थितियाँ कभी बिल्कुल ठीक नहीं होती, हमारे कदम उन्हें ठीक बनाते चले जाते है। मैं तो बिज्जी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए यही सलाह दूँगा कि अपनी ऐसी किसी इच्छा को एक पल के लिए भी स्थगित मत कीजिए जिसकी जन्मभूमि आपकी अन्तरात्मा हो, आपको जीवन में कभी पछतावे का मुँह नहीं देखना पड़ेगा। मेरी तो यही सीख उन्हें मेरी श्रद्धांजलि होगी।

 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 24 नवम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ............ 

Saturday, 23 November 2013

कोई बात नहीं



संगीत और शोर के बीच में इतना सा ही तो फर्क होता है, जिन स्वरों के बीच निःशब्दता यानि खाली जगह होती है वह संगीत बन जाता है और जहाँ स्वरों में निरंतरता होती है, जहाँ स्वर एक क्षण को भी नहीं ठहरते वो शोर हो जाता है। यह ठहरना ही तो है जो स्वरों में मधुरता पैदा कर उसे संगीत में तब्दील कर देता है। कितना, कैसे और कहाँ ठहरना है इसमें संगीतज्ञ की निपुणता जैसे-जैसे बढ़ती चली जाती है संगीत उतना ही मधुर होता चला जाता है। 

ठहरना एक कला है और किसी भी साधना या विकास-क्रम का एक आवश्यक अंग, चाहे वह हमारा आध्यात्मिक विकास ही क्यूँ न हो लेकिन यह बात पहले ही दिन बताने की नहीं है। यदि कोई संगीत-गुरु पहले ही दिन अपने विद्यार्थी से स्वर की बजाय ठहरने की बात करने लगे तो शायद ही वो कुछ सीख पाए। पहले तो उसे शोर सिखाना होगा फिर शोर को तराशना होगा। पहले तो अभ्यास कि नियमितता सिखानी होगी चाहे थोड़े डर और कुछ प्रलोभन का ही सहारा क्यूँ न लेना पड़े। शोर के बीच उसे एक बार संगीत कि झलक तो मिले फिर तो वो झलक ही उसकी प्रेरणा बन जाएगी। संगीत स्वयं उसकी प्रेरणा बनने लगे तब उसे डर और प्रलोभन से मुक्त करना होगा। अभ्यास की आदत के लिए जहां डर और प्रलोभन औषधि का काम करते है वहीँ निपुणता के लिए विष का। जिन बैसाखियों का हमने चलना सीखने के लिए सहारा लिया उन्हें क्रमशः छोड़ना भी होगा। 

हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक अभ्यासों में इसी बात को भूला दिया गया। ऐसा अनजाने हुआ या हमारे गुरुओं का और कोई प्रयोजन था, मालूम नहीं पर हुआ जरुर। बात मन्दिर जाने कि हो या नमाज पढ़ने की, व्रत-उपवास की हो या ध्यान-स्वाध्याय की; इन्हें लगातार किया तो ये मिल जाएगा और नहीं तो वो हो जाएगा जैसी बातों से इसलिए जोड़ दिया कि हम इस ओर आयें तो सही। इनका प्रयोजन इतना भर है कि एक बार हम इधर आयें और एक झलक उस परमात्मा की, उस आनन्द की मिल जाए। ठीक वैसे ही जैसे एक बच्चे को पहली कोई चीज चखाने के लिए डर या प्रलोभन का सहारा लेना पड़े लेकिन दूसरी बार तो उसका स्वाद ही उसे खाने को लालायित करे और ऐसा नहीं भी हो पाता है तो इसमें भी कुछ गलत नहीं। ये उसका स्वाद नहीं, इसकी उसे जरुरत नहीं, उसका खाना कुछ और है। 

हम सब किसी न किसी धार्मिक-आध्यात्मिक अभ्यास से जुड़े हैं लेकिन किसी दिन हम न कर पायें तो हमें कुछ अधूरा-अधूरा सा लगने लगता है। इससे बढ़कर यदि कुछ दिनों तक हमारा मन उन अभ्यासों में जाने का न करे तो, या तो हम उन्हें जबरदस्ती घसीटते है या अपने को ग्लानि भाव से भर लेते है। हमें लगता है, मैं वैसा नहीं हूँ जैसा मुझे होना चाहिए। मैं ठीक नहीं हूँ और जब ये दौर गुजर भी जाता है तब ये ही घर कि हुई भावनाएँ हमें वापस अपने अभ्यास पर आने से रोकती है। 

मैं सोचता हूँ ये उतना ही स्वाभाविक और आवश्यक है जितना कि संगीत के लिए दो स्वरों के बीच निःशब्दता,ठहराव। वे डर, वे प्रलोभन आनंद की एक झलक के लिए थे, हमें सिखाने के लिए थे की करने वाला वो परमात्मा है हम केवल निमित्त मात्र। अब एक बार ये पहाड़ा आ गया और बीच में कुछ दिन रट्टा नहीं भी लगाया तो क्या फर्क पड़ता है। जरुरी है पहाड़ा याद रहना ठीक उसी तरह जरुरी है अपने कर्मों को समर्पण भाव से करना। हमारे सारे अभ्यास इसीलिए तो है, तो विश्वास रखिए आप जिस दिन मन्दिर नहीं भी गए या नमाज अदा नहीं भी की तो कोई बात नहीं, उस दिन भी आप उतने ही धार्मिक है जिस दिन आपने ऐसा किया था। 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 17 नवम्बर को प्रकाशित)
आपका  
राहुल ............ 

Friday, 15 November 2013

उम्मीद पर दुनिया कायम है



कोई और होता तो कब की उम्मीद छोड़ बैठा होता पर उन्होंने नहीं छोड़ी। वे है मुम्बई पुलिस के कांस्टेबल गणेश रघुनाथ धननगडे। 1989 में अपने दोस्तों के साथ रेल से कहीं जा रहे थे कि उनसे बिछुड़ गए। इतने छोटे थे कि अपने आप से घर लौट पाना उनके लिए सम्भव नहीं था। इन बुरे दिनों में उन्हें भीख तक मांगनी पड़ी लेकिन इतने में ही उनकी खैर कहाँ थी। बदहवासी की उस हालत में कुछ ही दिनों बाद वे एक रेल से टकरा गए। जान तो बच गयी लेकिन कोमा में चले गए। गनीमत थी कि दुर्घटना रेल से हुई थी इसलिए उन्हें अस्पताल पहुँचा दिया गया। कहते है न जीवन में कुछ भी निरुद्देश्य नहीं होता, यह जानलेवा दुर्घटना ही उनके लिए आगे चलकर वरदान साबित हुई। वैसे भी हमें कहाँ पता होता है कि जो कुछ भी हमारे साथ होता है वह सचमुच ही हमारे लिए अच्छा है या बुरा। इधर ठीक हो जाने के बाद अस्पताल वालों ने उनको एक अनाथालय को सौंप दिया। 

प्रकृति की एक व्यवस्था है कि जीवन में आप चाहे जहाँ हों आपके पास वह सब कुछ मौजूद होता है जो आपको आगे ले जाने के लिए आवश्यक है। गणेश ने देखा कि वह कुछ बनकर ही कुछ कर पाएगा। उन्होंने जमकर मेहनत की और सन् 2011 में मुम्बई पुलिस में कांस्टेबल नियुक्त हो गए। अब तक परिवार से बिछुड़े 24 वर्ष बीत चुके थे पर उन्हें विश्वास था कि एक न एक दिन वे अवश्य अपने घर लौटेंगे। उन्होंने अपने दोस्त सुमित गंधवाले के साथ थाने-थाने जाकर गुमशुदी कि रिपोर्टें खंगाली। फेसबुक, ऑरकुट पर एक तरह से अभियान चलाया पर कुछ पता न चला। एक दिन बैठे-बैठे उन्हें ख्याल आया कि जब उन्हें अनाथालय ले जाया गया होगा तब उन्होंने प्रविष्टि के लिए अपना कोई न कोई पता जरुर बताया होगा। जवाब हमेशा ही व्यक्ति के सामने होते है बस उनका दिखना जरुर उसकी सजगता पर निर्भर करता है। अनाथालय से मालूम चला कि जब वे यहाँ आए थे तब उन्होंने अपना पता कोई मामा-भांजा की दरगाह के पास बताया था। 

अब मिशन था इस दरगाह को ढूँढना। दो महीनों के अथक परिश्रम के बाद यह दरगाह मिली उन्हें ठाणे में। सुमित ने यहाँ भी पूरा साथ निभाया। वहाँ उन्होंने घर-घर जाकर अपनी माँ के उम्र की महिलाओं से पूछताछ की। आखिर मंदा नाम कि महिला ने बताया कि करीब 20 वर्ष पहले दोस्तों के साथ जाते हुए उनका बेटा बिछुड़ गया था। गणेश ने कोई निशानी पूछी। मंदा ने बताया कि उसके हाथ पर गोदना था। गणेश ने अपना हाथ आगे कर दिया। दोनों का गला रुंध गया बस आँखों से बहती अविरल धारा बोले जा रही थी। सुमित कहते है कि उस भावुक क्षण को शब्दों में बयाँ करना मुमकिन नहीं। 

ये सब कुछ हो पाया क्योंकि गणेश ने अपने मन में उम्मीद की लौ जलाए रखी। एक मिनट के लिए भी अपने विश्वास को नहीं खोया। परिस्थितियों को भाग्य नहीं समझा। परिस्थितियों को भाग्य समझ लेना उन्हें स्वीकार करना है, अपने हथियार डाल देना है। वे जब तक परिस्थितियाँ बनी रहती है तब तक हमारे मन में उन्हें बदल पाने का जज्बा बना रहता है। गणेश इसका जीता-जागता उदाहरण है कि यदि मनोबल दृढ़ हो तो परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही मुश्किल क्यों न हो उन्हें बदलना ही पड़ता है। 

मैं अपनी ही बात कहूं तो दिन में कम से कम एक बार तो कह ही उठता हूँ कि अब कुछ नहीं हो सकता लेकिन फिर गणेश और सुमित जैसे लोग यह सोचने पर मजबूर कर देते है कि कुछ हमेशा ही हो सकता है। हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था चरमरा चुकी है लेकिन हम इसे अपना भाग्य न मान लें। धैर्य और विश्वास के साथ लगे रहें तो जिस तरह गणेश को अपनी माँ मिल गई हमें भी अपनी मंजिल मिल ही जाएगी। हम जिस बात को यूँ ही बोल देते है वह कितनी सार्थक है कि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है।
 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 10 नवम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ...........  

Friday, 8 November 2013

सुख, शान्ति और समृद्धि


आज शाम हम सब अपने मन में समृद्धि की कामना लिए लक्ष्मी-पूजन में बैठेंगे। कुछ लोग ऐसा नहीं भी करेंगे तो भी वे अपने जीवन में सुख-समृद्धि कि चाहना को नकार नहीं सकते। नकारें भी क्यूँ, ये हमारा अधिकार है, हमारा स्वभाव है। 
एक बात पर गौर किया आपने, कैसे समृद्धि के पीछे-पीछे सुख चला आया। सुख और समृद्धि का यही मिलन जीवन में शान्ति का कारण बनता है। 

हम सब किसी न किसी तरीके से यह सब जानते जरुर है, समझते भी हैं लेकिन मानने से हिचकिचाते है। समृद्धि का आशय - प्रचुरता, और दैनिक जीवन में उसकी इकाई धन।  अब न जाने क्यूँ और कब से हम सब नए यह मान लिया है कि जिस काम से हमें पैसे मिलते हों वो कभी पवित्र-पावन या आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता। आपको नहीं लगता यही वो बात है जिस कारण या तो व्यक्ति दो चेहरों के साथ जी रहा है यानि 'स्प्लिट पर्सनलटी' या व्यक्ति आध्यात्मिक होने को अपने बूढ़े हो जाने, अपनी जिम्मेदारियों के निपटा लेने तक स्थगित किए रखता है। 

व्यक्ति अपने घर में, दोस्तों में, समाज में कुछ और तरीके से पेश आता है और अपने कार्यस्थल पर कुछ और तरीके से। वहाँ उसके मूल्य कुछ और होते है और वहाँ कुछ और। उसे लगता है जिन मूल्यों के साथ वह जीना चाहता है उन पर टिके रहकर तो पैसे कमाना सम्भव नहीं और पैसों के बिना जिंदगी चलाना भी सम्भव नहीं। इसके जवाब में कोई तर्क देने से बेहतर है स्टीव जॉब्स, सुनील दत्त, अजीम प्रेमजी, डॉ नरेश त्रेहन या प्रोफेसर यशपाल जैसे लोगों को याद करना। हो सकता है ये नाम बड़े हों पर इस कारण से इन्हें हाशिए पर डाल देने से पहले हम एक बार अपने ही चारों ओर नज़र घुमाए तो ऐसे लोग जरुर दिख जाएँगे जिन्होंने अपने काम से समाज को फायदा भी पहुँचाया तो सुख, शान्ति और समृद्धि भरा जीवन भी जीया। सिर्फ पैसा कमाने के लिए किसी काम को करना निश्चित ही हेय है लेकिन अपने काम का उचित मूल्य मिले इसमें गलत क्या है? एक बात जो यहाँ स्पष्टीकरण माँगती है वह यह कि मैं यहाँ आदर्श मूल्यों और नीतिगत आचरण की बात कर रहा हूँ, नियमों को शत-प्रतिशत पालन की पैरवी नहीं कर रहा। हमारी व्यवस्था के कुछ नियम इतने अप्रासंगिक और अव्यावहारिक है कि कई बार उनकी अवहेलना अपरिहार्य हो जाती है।

व्यक्ति के लिए शास्त्रों में चार पुरुषार्थों का उल्लेख है,- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसका सीधा सा तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य सही रास्ते पर चलते हुए धन का उपार्जन करे जिससे वो अपनी कामनाओं को पूरा कर सके। ऐसा जीवन ही शान्त मृत्यु के बाद मोक्ष का अधिकारी होगा। एक योगी इन चारों में से सिर्फ धर्म और मोक्ष को चुनता है तो एक भोगी सिर्फ अर्थ और काम को लेकिन एक सद् गृहस्थ के लिए तो इन चारों में श्रम करना और इनमें सही संतुलन बनाना उसके जीवन का लक्ष्य और परीक्षा होती है। शायद इसीलिए हमारी संस्कृति में एक सद् गृहस्थ को सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है। 

लक्ष्मी जी कमल पर विराजित है। मैं सोचता हूँ हमारे जीवन में धन-वैभव का यह श्रेष्ठ रूपक है। कमल कीचड़ में ही खिलता है, पानी का स्तर कितना भी उपर या नीचे हो कीचड़ कमल छू भी पाता। लक्ष्मी जी की इस कल्पना के साथ पूजा-अर्चना के विधान का आशय शायद यही रहा होगा कि हमें स्मरण रहे कि हमारे काम हमारे जीवन में उसी धन-वैभव को लाएँ जिस पर दुनियादारी के छींटे न लगे हों। हमारे आँगन में लक्ष्मी आए, खूब आए लेकिन कमल पर आसीन आए कीचड़ से सनी नहीं। 
मेरी ओर से भी आपके और मेरे लिए इन्हीं मंगल कामनाओं के साथ आप सभी को दिवाली कि बहुत-बहुत बधाई।  


(जैसा कि नवज्योति में दिवाली कि सुबह प्रकाशित) 
आपका,
राहुल ............    

Saturday, 2 November 2013

रावण के पुतले और महावीर



दशहरा गया, न जाने कितने रावण के पुतले फूँके गए। साल दर साल हम यही करते है इसलिए तो हम इन्हें त्यौहार कहते है। त्यौहार यानि जिसकी पुनरावृति हो। त्यौहार चाहे किसी धर्म का हो ये हमारा प्रतीकात्मक सम्मान तो है ही साथ ही ये समाज में प्रेम और समरसता बनाए रखने के एक मात्र सहज सुन्दर उपाय होते है। ये त्यौहारों के महीने है। शुभ दिनों की इस ऋतु में न जाने क्यूँ ऐसा लगा कि जैसे सुगन्ध बिना कोई भेदभाव किए अपने चारों ओर के वातावरण को महका देती है वैसे ही ये त्यौहार हमारे आध्यात्मिक जीवन को भी जरुर पोषित करते होंगे। 

क्या त्यौहार महज उन घटनाओं को याद करना भर है? नहीं, हम सब जानते है ऐसा नहीं है। दशहरा अच्छाई की बुराई पर जीत तो होली ईश्वर पर भरोसा रखने की याद और ईद किसी के लिए मर-मिट जाने के जज्बे को बनाए रखने की प्रेरणा देती है। ऐसी ही कोई न कोई नैतिक शिक्षा हर त्यौहार के पीछे छिपी है। हर साल इन त्यौहारों को मनाना ठीक वैसा ही है जैसा सुदूर यात्रा के दौरान हर थोड़ी देर बाद रोड मेप को देखते रहना। भटक भी जाएँ तो जल्दी से वापस आ सकें और हमारा सही चलना हमारे मन में मंजिल पर पहुँच पाने का हौसला बनाए रखे। 

आप कहेंगे, उपर से तो ये बात ठीक लगती है लेकिन रोड़ मेप देखकर आगे के रास्ते के बारे में जानना और साल दर साल उन्हीं नैतिक शिक्षाओं को याद करने के लिए त्यौहार मनाना बिल्कुल अलग बात है। ये तो बहाना है मौज-मस्ती करने का। यही बात थी जिसने मुझे इतना उद्वेलित किया कि वो आज हमारी बातचीत का कारण बनी। 

सोचते-सोचते इस बात का जवाब भगवान महावीर की शिक्षाओं में मिला। वे कहते है, जिस तरह जमीन पर बैठने से कुछ मिट्टी हमारे कपड़ों पर लग जाती है और हर बार उठते वक्त उसे झाड़ना होता है ठीक उसी तरह आपसी व्यवहार में जिसे हम दुनियादारी कहते है कुछ गर्द हमारे चित्त पर भी लग जाती है और इसे भी झाड़ना उतना ही जरुरी है। इसे उन्होंने बाकायदा एक नाम दिया 'निर्झरा'। जैन अनुयायी जो स्वाध्याय या 'समाई' करते है वह अपने आपको 'निर्झर' करने की एक विधि ही तो है। 

यह दुनिया द्वैत पर टिकी है। अच्छाई का अस्तित्व भी बुराई पर ही टिका है। बुराई है इसलिए अच्छाई है और उसकी जरुरत है। रावण ही राम अवतार का कारण है यही हालत हमारे मन कि दुनिया कि भी है। बुराई के बीज मन कि भूमि में दबे पड़े हैं, वे रहेंगे हमेशा। हमें तो ध्यान रखना है कि वे कभी पौधे और वृक्ष न बन पाएँ इसीलिए समय-समय पर इस खरपतवार को हटाते रहना है जिससे हमारे जीवन का उद्यान सुन्दर बना रहे। 

यही कारण है इन त्यौहारों को साल दर साल मनाने का। ये हमारे मन-चित्त को निर्झर करने का काम करते है। हमें रास्ता दिखाते है, उस पर लौटा लाते है बशर्ते हम त्यौहारों के उल्लास और उमंग के साथ इनके मनाने कि वजह को अपनी जिन्दगी से जोड़ पाएँ। दशहरा हमें याद दिलाए कि जीत अन्ततः अच्छाई की ही होती है, होली हमें परमात्मा पर भरोसा करना सिखाए और ईद समर्पण कि भावना पैदा करे तो इन त्यौहारों को मना भर लेने के अलावा शायद ही व्यक्ति को किसी शिक्षा-दीक्षा कि कोई जरुरत रहे। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 27 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ...........