ये बात मेरे लिए तो बिलकुल नयी है। न तो कहीं पढ़ा न ही किसी को कहते हुए सुना। कोई और कहता तो हवा में उड़ा भी देता पर जब कोई 92 वर्षीय स्वस्थ योग-नौलि विशेषज्ञ ऐसी बात कहे तो मैं तो क्या किसी को भी सोचने पर मजबूर होना पड़े। बात है कुछ दिनों पहले सेंट्रल-पार्क की, जब श्री सूरज करण जी जिन्दल मुझे नियमित सूर्य-नमस्कार करने को प्रेरित कर रहे थे और मेरा ऐसा नहीं कर पाने के फ़ालतू तर्कों को एक के बाद एक खारिज कर रहे थे। एक बात के जवाब में उन्होंने कहा, 'अरे! भाई थकिए मत। उतना ही कीजिए जितना कर सकें। जो थकाए वह योग हो ही नहीं सकता। इतनी जल्दी क्या है? बस थोडा-थोडा सीखते-करते चले जाइए और फिर थकना तो मरना है।'
मैं चौंका, ये क्या 'थकना तो मरना है'। पूछा उनसे तो उन्होंने एक सटीक उदहारण दिया, 'आप 100 मीटर के ओलम्पिक विजेता को दौड़ ख़त्म होने के तुरंत बाद वापस दौड़ने को कहिए, कोई हालत में वह ऐसा नहीं कर पाएगा। वह इतना थक चूका होगा कि कुछ समय तो उसे लगेगा ही अपने आप को इकट्ठा करने में। अब दुनिया के सबसे तेज धावक के जिन्दगी का वो समय जब वो दौड़ ही न पाए, उसके लिए 'मर जाने' जैसा हुआ कि नहीं? उनकी बात सुनकर आप ही बताइए, मेरे पास उनसे सहमत हो जाने के अलावा चारा ही क्या था?
उनसे बात कर मैं घर तो आ गया पर 'थकना तो मरना है' मेरे दिमाग में घर चुकी थी। ऐसी कि मैं तब से इसे जिन्दगी के हर पहलू से जोड़ कर देख रहा हूँ और अभी तक जहाँ पहुँच पाया वह यह कि किसी काम को तब तक ही कीजिए जब तक आप उसकी गुणवत्ता को बरक़रार रख सकें। यही आपके काम की हद होनी चाहिए। अपने काम को अच्छे से अच्छा करने की कोशिश आपको आत्म-संतुष्टि तो देगी ही, यही आत्म-संतुष्टि आपके मन में उस काम को करने की ललक भी बनाये रखेगी। हो सकता है यहाँ तक आपका शरीर थक जाए पर मन नहीं थकेगा। उसे फिर करने, और बेहतर करने की इच्छा मन में बनी रहेगी क्योंकि आपको कहीं न कहीं यह अहसास रहेगा कि अन्त में मुझे इससे संतुष्टि का आनन्द मिलने वाला है।
मुझे मालूम है, आप क्या सोच रहे हैं? आप कह रहे हैं, ऐसा कर पाना सम्भव थोड़े ही है। दिन में, जिन्दगी में ढेरों काम ऐसे होते है जिन्हें करना ही पड़ता है चाहे मन करे न करे या शरीर साथ दे न दे। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ लेकिन सिर्फ वहाँ तक जिन बातों पर हमारा जोर नहीं, जो ईश्वर या प्रकृति प्रदत्त है। एक बार सोच कर देखिए कि कितने ऐसे काम है जो हमें इस जीवन के साथ मिले है और कितने ऐसे जिन्हें हम न जाने क्यूँ लोक-लिहाज के नाम पर जबरदस्ती ढोए जा रहे हैं। आप जब अपने मन का काम करके थकते भी हैं तो उसकी थकान भी मजा देती है क्योंकि तब सिर्फ शरीर थकता है, मन तो खिल उठता है और यह खिला मन ही उन कामों को करने का ऊर्जा-स्रोत भी बनता है जो हमें इस जीवन के साथ मिले हैं। जरुरी है हम अपने जीवन से वो सारा बोझ उतार लें, उन सारे अनावश्यक दायित्वों से मुक्ति पा लें जो हमारे मन को थकते हों, उन्हें खिलने से रोकते हों।
अन्त में मुझे दो सूत्र हाथ लगे। पहला, आपके कामों से आपका अंतर्मन रज़ा हो। जिन कामों को आप चुन सकें वे आपके मन के अनुकूल हों। दूसरा, आपके कामों की हद उसकी गुणवत्ता हो। काम को तब तक ही करें जब तक आप उसकी गुणवत्ता बनाए रख सकें। मैं तो आने वाले जीवन में यह कोशिश करूँगा कि मन कभी न थके क्योंकि थकना तो .....................। क्या आप मेरे साथ आएँगे?
(जैसा कि नवज्योति में 8 दिसम्बर, रविवार को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .........