Saturday 23 November 2013

कोई बात नहीं



संगीत और शोर के बीच में इतना सा ही तो फर्क होता है, जिन स्वरों के बीच निःशब्दता यानि खाली जगह होती है वह संगीत बन जाता है और जहाँ स्वरों में निरंतरता होती है, जहाँ स्वर एक क्षण को भी नहीं ठहरते वो शोर हो जाता है। यह ठहरना ही तो है जो स्वरों में मधुरता पैदा कर उसे संगीत में तब्दील कर देता है। कितना, कैसे और कहाँ ठहरना है इसमें संगीतज्ञ की निपुणता जैसे-जैसे बढ़ती चली जाती है संगीत उतना ही मधुर होता चला जाता है। 

ठहरना एक कला है और किसी भी साधना या विकास-क्रम का एक आवश्यक अंग, चाहे वह हमारा आध्यात्मिक विकास ही क्यूँ न हो लेकिन यह बात पहले ही दिन बताने की नहीं है। यदि कोई संगीत-गुरु पहले ही दिन अपने विद्यार्थी से स्वर की बजाय ठहरने की बात करने लगे तो शायद ही वो कुछ सीख पाए। पहले तो उसे शोर सिखाना होगा फिर शोर को तराशना होगा। पहले तो अभ्यास कि नियमितता सिखानी होगी चाहे थोड़े डर और कुछ प्रलोभन का ही सहारा क्यूँ न लेना पड़े। शोर के बीच उसे एक बार संगीत कि झलक तो मिले फिर तो वो झलक ही उसकी प्रेरणा बन जाएगी। संगीत स्वयं उसकी प्रेरणा बनने लगे तब उसे डर और प्रलोभन से मुक्त करना होगा। अभ्यास की आदत के लिए जहां डर और प्रलोभन औषधि का काम करते है वहीँ निपुणता के लिए विष का। जिन बैसाखियों का हमने चलना सीखने के लिए सहारा लिया उन्हें क्रमशः छोड़ना भी होगा। 

हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक अभ्यासों में इसी बात को भूला दिया गया। ऐसा अनजाने हुआ या हमारे गुरुओं का और कोई प्रयोजन था, मालूम नहीं पर हुआ जरुर। बात मन्दिर जाने कि हो या नमाज पढ़ने की, व्रत-उपवास की हो या ध्यान-स्वाध्याय की; इन्हें लगातार किया तो ये मिल जाएगा और नहीं तो वो हो जाएगा जैसी बातों से इसलिए जोड़ दिया कि हम इस ओर आयें तो सही। इनका प्रयोजन इतना भर है कि एक बार हम इधर आयें और एक झलक उस परमात्मा की, उस आनन्द की मिल जाए। ठीक वैसे ही जैसे एक बच्चे को पहली कोई चीज चखाने के लिए डर या प्रलोभन का सहारा लेना पड़े लेकिन दूसरी बार तो उसका स्वाद ही उसे खाने को लालायित करे और ऐसा नहीं भी हो पाता है तो इसमें भी कुछ गलत नहीं। ये उसका स्वाद नहीं, इसकी उसे जरुरत नहीं, उसका खाना कुछ और है। 

हम सब किसी न किसी धार्मिक-आध्यात्मिक अभ्यास से जुड़े हैं लेकिन किसी दिन हम न कर पायें तो हमें कुछ अधूरा-अधूरा सा लगने लगता है। इससे बढ़कर यदि कुछ दिनों तक हमारा मन उन अभ्यासों में जाने का न करे तो, या तो हम उन्हें जबरदस्ती घसीटते है या अपने को ग्लानि भाव से भर लेते है। हमें लगता है, मैं वैसा नहीं हूँ जैसा मुझे होना चाहिए। मैं ठीक नहीं हूँ और जब ये दौर गुजर भी जाता है तब ये ही घर कि हुई भावनाएँ हमें वापस अपने अभ्यास पर आने से रोकती है। 

मैं सोचता हूँ ये उतना ही स्वाभाविक और आवश्यक है जितना कि संगीत के लिए दो स्वरों के बीच निःशब्दता,ठहराव। वे डर, वे प्रलोभन आनंद की एक झलक के लिए थे, हमें सिखाने के लिए थे की करने वाला वो परमात्मा है हम केवल निमित्त मात्र। अब एक बार ये पहाड़ा आ गया और बीच में कुछ दिन रट्टा नहीं भी लगाया तो क्या फर्क पड़ता है। जरुरी है पहाड़ा याद रहना ठीक उसी तरह जरुरी है अपने कर्मों को समर्पण भाव से करना। हमारे सारे अभ्यास इसीलिए तो है, तो विश्वास रखिए आप जिस दिन मन्दिर नहीं भी गए या नमाज अदा नहीं भी की तो कोई बात नहीं, उस दिन भी आप उतने ही धार्मिक है जिस दिन आपने ऐसा किया था। 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 17 नवम्बर को प्रकाशित)
आपका  
राहुल ............ 

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