Friday 15 November 2013

उम्मीद पर दुनिया कायम है



कोई और होता तो कब की उम्मीद छोड़ बैठा होता पर उन्होंने नहीं छोड़ी। वे है मुम्बई पुलिस के कांस्टेबल गणेश रघुनाथ धननगडे। 1989 में अपने दोस्तों के साथ रेल से कहीं जा रहे थे कि उनसे बिछुड़ गए। इतने छोटे थे कि अपने आप से घर लौट पाना उनके लिए सम्भव नहीं था। इन बुरे दिनों में उन्हें भीख तक मांगनी पड़ी लेकिन इतने में ही उनकी खैर कहाँ थी। बदहवासी की उस हालत में कुछ ही दिनों बाद वे एक रेल से टकरा गए। जान तो बच गयी लेकिन कोमा में चले गए। गनीमत थी कि दुर्घटना रेल से हुई थी इसलिए उन्हें अस्पताल पहुँचा दिया गया। कहते है न जीवन में कुछ भी निरुद्देश्य नहीं होता, यह जानलेवा दुर्घटना ही उनके लिए आगे चलकर वरदान साबित हुई। वैसे भी हमें कहाँ पता होता है कि जो कुछ भी हमारे साथ होता है वह सचमुच ही हमारे लिए अच्छा है या बुरा। इधर ठीक हो जाने के बाद अस्पताल वालों ने उनको एक अनाथालय को सौंप दिया। 

प्रकृति की एक व्यवस्था है कि जीवन में आप चाहे जहाँ हों आपके पास वह सब कुछ मौजूद होता है जो आपको आगे ले जाने के लिए आवश्यक है। गणेश ने देखा कि वह कुछ बनकर ही कुछ कर पाएगा। उन्होंने जमकर मेहनत की और सन् 2011 में मुम्बई पुलिस में कांस्टेबल नियुक्त हो गए। अब तक परिवार से बिछुड़े 24 वर्ष बीत चुके थे पर उन्हें विश्वास था कि एक न एक दिन वे अवश्य अपने घर लौटेंगे। उन्होंने अपने दोस्त सुमित गंधवाले के साथ थाने-थाने जाकर गुमशुदी कि रिपोर्टें खंगाली। फेसबुक, ऑरकुट पर एक तरह से अभियान चलाया पर कुछ पता न चला। एक दिन बैठे-बैठे उन्हें ख्याल आया कि जब उन्हें अनाथालय ले जाया गया होगा तब उन्होंने प्रविष्टि के लिए अपना कोई न कोई पता जरुर बताया होगा। जवाब हमेशा ही व्यक्ति के सामने होते है बस उनका दिखना जरुर उसकी सजगता पर निर्भर करता है। अनाथालय से मालूम चला कि जब वे यहाँ आए थे तब उन्होंने अपना पता कोई मामा-भांजा की दरगाह के पास बताया था। 

अब मिशन था इस दरगाह को ढूँढना। दो महीनों के अथक परिश्रम के बाद यह दरगाह मिली उन्हें ठाणे में। सुमित ने यहाँ भी पूरा साथ निभाया। वहाँ उन्होंने घर-घर जाकर अपनी माँ के उम्र की महिलाओं से पूछताछ की। आखिर मंदा नाम कि महिला ने बताया कि करीब 20 वर्ष पहले दोस्तों के साथ जाते हुए उनका बेटा बिछुड़ गया था। गणेश ने कोई निशानी पूछी। मंदा ने बताया कि उसके हाथ पर गोदना था। गणेश ने अपना हाथ आगे कर दिया। दोनों का गला रुंध गया बस आँखों से बहती अविरल धारा बोले जा रही थी। सुमित कहते है कि उस भावुक क्षण को शब्दों में बयाँ करना मुमकिन नहीं। 

ये सब कुछ हो पाया क्योंकि गणेश ने अपने मन में उम्मीद की लौ जलाए रखी। एक मिनट के लिए भी अपने विश्वास को नहीं खोया। परिस्थितियों को भाग्य नहीं समझा। परिस्थितियों को भाग्य समझ लेना उन्हें स्वीकार करना है, अपने हथियार डाल देना है। वे जब तक परिस्थितियाँ बनी रहती है तब तक हमारे मन में उन्हें बदल पाने का जज्बा बना रहता है। गणेश इसका जीता-जागता उदाहरण है कि यदि मनोबल दृढ़ हो तो परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही मुश्किल क्यों न हो उन्हें बदलना ही पड़ता है। 

मैं अपनी ही बात कहूं तो दिन में कम से कम एक बार तो कह ही उठता हूँ कि अब कुछ नहीं हो सकता लेकिन फिर गणेश और सुमित जैसे लोग यह सोचने पर मजबूर कर देते है कि कुछ हमेशा ही हो सकता है। हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था चरमरा चुकी है लेकिन हम इसे अपना भाग्य न मान लें। धैर्य और विश्वास के साथ लगे रहें तो जिस तरह गणेश को अपनी माँ मिल गई हमें भी अपनी मंजिल मिल ही जाएगी। हम जिस बात को यूँ ही बोल देते है वह कितनी सार्थक है कि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है।
 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 10 नवम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ...........  

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