Saturday 2 November 2013

रावण के पुतले और महावीर



दशहरा गया, न जाने कितने रावण के पुतले फूँके गए। साल दर साल हम यही करते है इसलिए तो हम इन्हें त्यौहार कहते है। त्यौहार यानि जिसकी पुनरावृति हो। त्यौहार चाहे किसी धर्म का हो ये हमारा प्रतीकात्मक सम्मान तो है ही साथ ही ये समाज में प्रेम और समरसता बनाए रखने के एक मात्र सहज सुन्दर उपाय होते है। ये त्यौहारों के महीने है। शुभ दिनों की इस ऋतु में न जाने क्यूँ ऐसा लगा कि जैसे सुगन्ध बिना कोई भेदभाव किए अपने चारों ओर के वातावरण को महका देती है वैसे ही ये त्यौहार हमारे आध्यात्मिक जीवन को भी जरुर पोषित करते होंगे। 

क्या त्यौहार महज उन घटनाओं को याद करना भर है? नहीं, हम सब जानते है ऐसा नहीं है। दशहरा अच्छाई की बुराई पर जीत तो होली ईश्वर पर भरोसा रखने की याद और ईद किसी के लिए मर-मिट जाने के जज्बे को बनाए रखने की प्रेरणा देती है। ऐसी ही कोई न कोई नैतिक शिक्षा हर त्यौहार के पीछे छिपी है। हर साल इन त्यौहारों को मनाना ठीक वैसा ही है जैसा सुदूर यात्रा के दौरान हर थोड़ी देर बाद रोड मेप को देखते रहना। भटक भी जाएँ तो जल्दी से वापस आ सकें और हमारा सही चलना हमारे मन में मंजिल पर पहुँच पाने का हौसला बनाए रखे। 

आप कहेंगे, उपर से तो ये बात ठीक लगती है लेकिन रोड़ मेप देखकर आगे के रास्ते के बारे में जानना और साल दर साल उन्हीं नैतिक शिक्षाओं को याद करने के लिए त्यौहार मनाना बिल्कुल अलग बात है। ये तो बहाना है मौज-मस्ती करने का। यही बात थी जिसने मुझे इतना उद्वेलित किया कि वो आज हमारी बातचीत का कारण बनी। 

सोचते-सोचते इस बात का जवाब भगवान महावीर की शिक्षाओं में मिला। वे कहते है, जिस तरह जमीन पर बैठने से कुछ मिट्टी हमारे कपड़ों पर लग जाती है और हर बार उठते वक्त उसे झाड़ना होता है ठीक उसी तरह आपसी व्यवहार में जिसे हम दुनियादारी कहते है कुछ गर्द हमारे चित्त पर भी लग जाती है और इसे भी झाड़ना उतना ही जरुरी है। इसे उन्होंने बाकायदा एक नाम दिया 'निर्झरा'। जैन अनुयायी जो स्वाध्याय या 'समाई' करते है वह अपने आपको 'निर्झर' करने की एक विधि ही तो है। 

यह दुनिया द्वैत पर टिकी है। अच्छाई का अस्तित्व भी बुराई पर ही टिका है। बुराई है इसलिए अच्छाई है और उसकी जरुरत है। रावण ही राम अवतार का कारण है यही हालत हमारे मन कि दुनिया कि भी है। बुराई के बीज मन कि भूमि में दबे पड़े हैं, वे रहेंगे हमेशा। हमें तो ध्यान रखना है कि वे कभी पौधे और वृक्ष न बन पाएँ इसीलिए समय-समय पर इस खरपतवार को हटाते रहना है जिससे हमारे जीवन का उद्यान सुन्दर बना रहे। 

यही कारण है इन त्यौहारों को साल दर साल मनाने का। ये हमारे मन-चित्त को निर्झर करने का काम करते है। हमें रास्ता दिखाते है, उस पर लौटा लाते है बशर्ते हम त्यौहारों के उल्लास और उमंग के साथ इनके मनाने कि वजह को अपनी जिन्दगी से जोड़ पाएँ। दशहरा हमें याद दिलाए कि जीत अन्ततः अच्छाई की ही होती है, होली हमें परमात्मा पर भरोसा करना सिखाए और ईद समर्पण कि भावना पैदा करे तो इन त्यौहारों को मना भर लेने के अलावा शायद ही व्यक्ति को किसी शिक्षा-दीक्षा कि कोई जरुरत रहे। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 27 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ...........   

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