Saturday 7 December 2013

सुरति बनी रहे


स्मृति का अपभ्रंश है सुरति। दादू, नानक, कबीर का दिया शब्द ही ये। उन्होंने अपने दोहों-भजनों में जगह-जगह इसकी महिमा को गया है। परमात्मा को याद करना जितना जरुरी है उससे कहीं अधिक जरुरी है परमात्मा का याद रहना, यही है सुरति। हर क्षण यह अहसास जगा रहे, यह स्मृति रहे कि हम उसी की एक अभिव्यक्ति है, एक अद्वितीय रचना। वही हम सब के होने की वजह है। यह सुरति हमें हर बात में 'क्या होगा' कि चिंता से मुक्त रखेगी और तब हमारा पैमाना केवल उपयुक्तता और आनन्द होगा। कुछ भी करने से पहले हम सिर्फ यह सोचेंगे कि क्या हमारे लिए ठीक है और क्या हमें आनन्द भी देता है? ये सुरति हमें कर्ता भाव से मुक्त रख कभी अहंकारी न बनने देगी, फिर भला हमारा रास्ता कौन रोकेगा?
 
कबीर का रूपक सुरति को तरल कर सीधा दिल में उतारता है। वे कहते है जिस तरह पनिहारिनें घड़ा लेकर चलती है वही आपके जीने का अन्दाज हो। वे पनघट से घर हँसी-ठिठोली करती, गाती हुई लौटती है लेकिन सारी बातों के साथ एक ध्यान हमेशा घड़े पर बना रहता है। वह ध्यान न तो रास्ते के आनन्द में रुकावट बनता है न ही चिंता का कारण, बस बना रहता है एक पृष्ठभूमि की तरह। वे जो कुछ भी रास्ते में करती आती है उसे करने का ढंग अपने आप ही ऐसे ढल जाता है कि जरा सा पानी भी न झलके। बस यही सुरति है, इसी को गौतम बुद्ध ने 'माइंडफुलनेस' कहा है। 

इसी बात को थोडा विस्तार दें तो लगता है यह तो सफलता का अचूक सूत्र है। हमारी सम्भावनाओं को सम्भव कर पाने का रसायन। जीवन में हमें क्या पाना है, क्या होना है बस इसकी एक सुरति बनी रहे। हमारे हर किये न किये में एक 'माइंडफुलनेस' नजर आए। जीवन का तो हर क्षण उपलब्ध विकल्पों से अटा पड़ा है। मेहनत भरे, धैर्य माँगते रास्तों के साथ कुछ जुगाड़ भी और कुछ भटकाव भी सामने है जो निश्चित ही अधिक लुभावने होते है और तब अपने सपनों की स्मृति ही हमें सही रास्तों पर बनाए रखती है। एक और बात जिसका ध्यान रखना जरुरी है वह यह कि कहीं हम 'माइंडफुलनेस' को 'मिशन' न बना दें। मिशन यानि आपको सिर्फ और सिर्फ अपने लक्ष्य ध्यान रहे, रास्ते का आनन्द आप ले ही न पाएँ जैसे ताँगे का घोडा चलता है जबकि माइंडफुलनेस का मतलब रास्तों का आनन्द लेते हुए अपने सपनों को पूरा करने से है। 

हर क्षण की सुरति तो अंतिम सोपान है, एक दिन में भी कई बार ऐसा होगा जब कुछ करने के बाद ऐसा महसूस हो कि मैंने नाहक ही समय व्यर्थ किया। कहीं इससे आप यह न समझ बैठे कि इस तरह जीना तो मेरे लिए सम्भव नहीं। आप तो बस दिन में कभी भी एक बार यह टटोल लें कि आज आपने ऐसा कुछ किया या नहीं जो आपके सपनों को थोडा ही सही, नजदीक ले आया हो। इतना भर बहुत बड़ी बात है। इस तरह जीने की आदत हम दैनिक जीवन के छोटे-छोटे कामों को करने के ढंग से डाल सकते है जैसे खाना खाना हो या गाड़ी चलाना, सुबह कि सैर हो या सब्जी-फल खरीदना; इन्हें यंत्रवत न करें। आप पूरे मन से इन कामों में उपस्थित रहिए। इस तरह उपस्थित रहना आपकी आदत बनती चली जायेगी और तब जीवन के महत्वपूर्ण कामों में भी ऐसा ही होने लगेगा, जीवन के तागों में वस्त्र होने की सुरति बनने लगेगी। 


(नवज्योति में रविवार, 1 दिसम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ........... 
 

2 comments:

  1. Aala! Padh kar mazaa hi nahi aaya, lagaa ke kuch paaya hai, kuch aisa jo main aur logon se baantnaa chaahoonga. likhtay rahiye. baant'tay rahiye :)

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  2. अंकित,

    सबसे पहले तो सॉरी, इतने रेस्पोंसिव कमेंट का इतनी देरी से जवाब देने के लिए।
    तुमसे अपनी बिटिया के साथ कहानी-फेस्टिवल में मुलाकात हुई थी। बातें तो बहुत लोग करते है पर तुम वो जीवन जी रहे हो जिसमें विश्वास करते हो और तुम्हारा एनर्जी लेवल, जिस तरह तुम बच्चों से बात करते हो वो तो सचमुच ही अद्भुत है।
    ऐसे लोगों से मिली इतनी सुन्दर प्रशंसा बड़ी हौसलाअफजाई करती है।

    राहुल ......

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