Friday 27 December 2013

फ़ालतू पचड़े में क्यों पड़ना




आज अनदेखी करना शान्त जीवन का गुरु-मंत्र बन गया है। 'फ़ालतू पचड़े में क्यों पड़ना', ये सीख हम रोजमर्रा कि जिन्दगी में लेते-देते रहते है, इसके बावजूद इसके ये 'पचड़े' दिन दौ गुनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे है। शायद ही हमारा सामाजिक जीवन इससे पहले कभी इतना त्रस्त रहा हो। डर ने हमारे जीवन को हर लिया है। इतना कि किसी गलत बात का विरोध करने कि सोचते ही उसके परिणाम हमें डराने आ जाते है। 'मेरे ऐसा करने से क्या होगा, उल्टा अपना ही नुकसान कर बैठूँगा' की भावना इतनी बलवती हो जाती है कि वहाँ से खिसकना ही श्रेयस्कर लगता है। अब तो जैसे ये बात सर्व-स्वीकार्य हो चुकी है और ऐसा नहीं करने वाला यानि फ़ालतू पचड़े में पड़ने वाला तय शुदा 'मूर्ख'।

दिल ही दिल में तो हम सब ही जानते है कि ये बात गलत है। उस दिन ये बात और भी शिद्दत से समझ आती है जब बारी हमारी होती है और, कोई और ऐसे ही अनदेखी कर खिसक रहा होता है। फिर हम ऐसा क्यूँ करते है? यहाँ तक कि अपने साथ ऐसा हो जाने के बाद भी हमारा व्यवहार नहीं बदलता। मन में इस सवाल के साथ जवाब ऐसे ही चला आया जैसे शिव के साथ पार्वती। मन ने कहा ऐसे व्यक्ति से, ऐसी स्थितियों से हम जीत तो सकते नहीं, फिर लड़ने से क्या फायदा? ये जवाब कम और सवाल ज्यादा था, सयाना सवाल। काफी दिनों तक इसे ले लेकर घूमता रहा कि अच्छा घर देखकर इसे ब्याह दूँ, आखिर खोज पूरी हुई, उम्र में मुझसे काफी एक बड़े एक स्नेही लेखक-मित्र की आप-बीती में।

उन्होंने बताया, कई वर्षों पहले कि यह घटना है। मैं ऑफिस से लौट रहा था कि कुछ मनचले चलती सड़क पर एक लड़की के साथ बदतमीजी कर रहे थे। बीस-पच्चीस लोग भी जमा थे पर सब के सब मूक-दर्शक। मैंने ड्राइवर से गाडी रोकने को कहा, पहले तो रोकी नहीं और फिर दृढ़ता से कहने पर रोकी भी तो थोड़ी आगे ले जाकर। कहा, मैं तो पचड़े में नहीं पड़ता, आपको जाना हो तो जाओ। उन्होंने आगे बताया, वे गए और उन लड़कों से भिड़ गए। लड़कों को उलझाकर सबसे पहला काम किया, लड़की को कहा, 'तुम निकलो, घर जाओ'। वे अकेले और सामने दो-चार लड़के, अच्छी खासी मार खानी पड़ी लेकिन वह लड़की जरुर बच निकली। वे कहते है, एक तरफ तो पूरा शरीर दर्द कर रहा था दूसरी तरफ रास्ते भर वो ड्राइवर उपदेश दिए जा रहा था। कहा था न बाबू, फ़ालतू कि तबालत मोल मत लो, अब भुगतो। पता नहीं कैसे, लेकिन उन लड़कों से उलझते मेरा कोई विजिटिंग-कार्ड जेब से गिर गया होगा। दूसरे दिन, जिस स्वर में उस लड़की का फ़ोन आया, उसने मेरे सारे दर्द को हवा कर दिया।

यही था जवाब 'जीत नहीं सकते तो लड़ने से क्या फायदा?' का। गलत का विरोध करना ही पर्याप्त है, विरोध का परिणाम चाहे जो हो, ऐसा कर पाना ही व्यक्ति की जीत है, डर पर जीत और डर से बड़ा व्यक्ति का कोई शत्रु नहीं। कोई हारे न हारे ऐसा कर हम डर को जरुर डरा देते है और इससे बड़ी जीत किसी व्यक्ति के लिए क्या होगी?

हमें अहसास ही नहीं होता पर हमारे ये छोटे-छोटे विरोध एक सामूहिक प्रतिरोध में हिस्सेदारी निभा रहे होते है जो लम्बे समय में व्यवस्था में बदलाव का कारण बनती है। चलिए, लम्बे समय के बाद होने वाले फायदे हमें नहीं लुभाते हों तो भी इतना तो तय है कि हमारा ये आचरण अपनों से छोटों के लिए प्रेरणा जरुर बनता है, जीवन जीने की एक सीख। इससे बढ़कर, श्रेष्ठतम तो यह है कि हमारा यह आचरण हमारे ही आत्म-बल को निखारता है। आत्म-बल की जिस गंगा को हमारे तर्क-वितर्कों ने डर के पत्थर से दबा रखा था, उसे मुक्त कर हमारा ये आचरण हमारा और हमारे अपनों का जीवन सुंदर और सुरक्षित बना देता है।

आपका
राहुल ...........  
(जैसा कि दैनिक नवज्योति में रविवार, 22 दिसम्बर को प्रकाशित)


3 comments:

  1. इस घटना से जिसका जुड़ाव है उसे पूछिए तो वह यही कहेगा कि अन्याय के विरोध से पलायन का अपराध बोध सौ चोटों से अधिक और दीर्घ अशेष होता है। किन्तु एकेले ही कर्तव्य को निभाने का प्रयास जीवन भर आत्म-शक्ति का स्रोत बन जाता है।

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  3. भाई साहब,

    ये आप ही की आप-बीती थी जिसने मुझे इस आलेख को लिखने के प्रेरित किया। जैसा आप कहते है वैसा आप कर पाते है यही आपको विशेष बनाता है।
    आशा है मैंने आपके अनुभवों और भावनाओं को सही शब्द दिए होंगे।
    धन्यवाद।

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