Saturday, 28 September 2013

हमारे बच्चे और कठोपनिषद



 
पाण्डवों में जो स्थान अर्जुन का है वही स्थान उपनिषदों में कठोपनिषद का है। एक ख़ास वजह है उसकी, बालक नचिकेता और पिता राजा उद्दालक के बीच इस लम्बे कथा-संवाद के माध्यम से ये उपनिषद परतें खोलता है उस चिर जिज्ञासा की जो मानव मन पर सदियों से छाई है। आखिर क्या होता है व्यक्ति मृत्यु के बाद और जो कुछ भी होता है क्या उसके लिए मरना जरुरी है या कोई विधि है उसे जीते जी भी पा लेने की?

कठोपनिषद को पढना ही शुरू किया था कि आचार्य रजनीश ने एक बात जो उसकी पृष्ठभूमि में कही, उसने मन भर दिया। वे कहते है, ये कोई एक ऋषि होगा जिसने एक बच्चे को अपनी बात अपने पिता से कहते हुए सुन लिया होगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने बच्चों को इतने ही ध्यान और मर्म से सुनना शुरू कर दे तो न जाने कितने कठोपनिषदों का जन्म हो जाए, या फिर किसी कठोपनिषद की जरुरत ही न रहे। कितना सूक्ष्म अन्वेक्षण है लेकिन कितना सुन्दर। सच ही तो है, एक सरल ह्रदय हमेशा ही अपने में वेद-उपनिषदों सा ज्ञान समाए होता है। 

और हम, हम लगे है अपने ही बच्चों की इस सरलता को मिटाने में क्योंकि हम उनसे प्रेम करते है। हमें लगता है यह इस तरह इस दुनिया में कैसे जी पायेंगे और लग जाते है उन्हें पाने जैसा बनाने की जद्दोजहद में। इस मिशन में हम इतने खो जाते है कि ये तक ध्यान नहीं रहता कि हम खुद ही कहाँ खुश और संतुष्ट है अपनी जिन्दगी से,लेकिन हम भी क्या करें? यही हमारे पास है और यही हमें आता है। 

तो क्या करें? मुझे लगता है इसका एक ही इलाज है। हमें इस जबरदस्ती के ओढ़े हुए दायित्व से मुक्त होना होगा की मुझे अपने बच्चों को हर स्थिति में गाइड करना है चाहे स्वयं मुझे पता हो या न हो। मैं हर बात में अपने बच्चों से ज्यादा जानता हूँ, इस दंभ से निजात पानी होगी। निश्चित ही हमारे पास अनुभव है और कुछ चीजों को अनुभव से ही समझा जा सकता है, वहां हम जरुर उनका मार्गदर्शन करें लेकिन जिन बातों का वास्ता सरलता-सहजता से है वहां हमारे बच्चे हमसे ज्यादा जानते है। मानने से आगे बढ़कर जरुरत तो इस बात की है कि इन बातों में हम उनसे सीखें। 

अब ये जो संकरी गली है अनुभव की, हम अनजाने ही सही इसका भी दुरूपयोग करने लग जाते है और हर बात को मनवाने के लिए अपने अनुभवों की दुहाई देने लगते है। जिन्दगी के दस प्रतिशत निर्णय ऐसे होते होंगे जिनमें अनुभव की आवश्यकता हो अन्यथा नब्बे प्रतिशत तो ऐसे ही होते है जो एक सरल ह्रदय के लिए बायें हाथ का खेल होता है लेकिन अपने बच्चों से प्रेम की खोल में ढका हमारा दंभ इस अनुपात को उलट देता है। 

कितना अच्छा हो हम अपने बच्चों की जिन्दगी बनाना छोड़ बच्चों के साथ जीना शुरू कर दें। अपनी कहें, उनकी सुनें। मुझे मालूम है आप क्या कहना चाहते है? आप उनकी सुन कर तो देखिये, वे भी आपकी सुनेगें। इस तरह सबसे पहले तो हम एक दूसरे को जान पाएँगे और तब मिलकर किसी सही निर्णय पर पहुँचना आसान होगा। ऐसा हम कर पाये तो हमारे नाचिकेताओं का जीवन कहीं आसान और हम उद्दलकों का जीवन कहीं खुशहाल होगा। 

आपका,
राहुल ……… 

Friday, 20 September 2013

अपनी झोली फैलाये रखिए



एक बार की बात है। एक गाँव के बाहर एक संत आकर रुके। जब गाँव वालों को इस बात का पता चला तो वे उनके पास इकट्ठा होकर पहुँचे। उनका आग्रह था कि वे गाँव में पधारें और अपने ज्ञान से सभी को लाभान्वित करें। उन संत को इन सब में रूचि नहीं थी। जब देखो वे अपनी ध्यान-साधना में ही लीन मिलते। गाँव वालों के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि मैं आप लोगों से एक प्रश्न पूछूँगा और देखूँगा कि मेरे कुछ कहने की जरुरत भी है या नहीं।

संत ने पूछा,'अच्छा बताओ, ईश्वर है या नहीं?' गाँव वालों को ऐसे प्रश्न की कतई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने सोचा एक संत के सामने इस प्रश्न का जवाब 'हाँ' के अलावा और क्या हो सकता है लेकिन वे बोले, तब तुमको मेरी जरुरत नहीं। निराश गाँव वाले वापस लौट आएँ। उन्होंने सोचा कल वापस चलते है और कहते है 'ईश्वर नहीं है' तब शायद वे मान जाएँ। उन्होंने ऐसा ही किया लेकिन हुआ वही। 'नहीं' सुनकर भी वे यही बोले 'तब तुमको मेरी जरुरत नहीं।' परेशान होकर तीसरे दिन वापस पहुँचे और झुंझला कर बोले, बाबा ! हमें नहीं पता ईश्वर है या नहीं, बाकि आपकी इच्छा। सुनकर उनका चेहरा खिल गया। वे बोले, तब मेरी जरुरत हैं। मैं जरुर चलूँगा तुम्हारे साथ और बताऊंगा मैंने क्या पाया है। 

इस कहानी का मर्म ज्ञान का आधार है। कुछ पाना है तो सबसे पहले खाली होना पड़ेगा, वैसे ही जैसे भरे हुए बर्तन को नहीं भरा जा सकता। ज्ञान की आवक वहीँ रुक जाती है जब व्यक्ति 'मुझे सब पता है' की गुफा में प्रवेश कर जाता है। यही कारण है कि एक अच्छा शिक्षक वही बना रह पाता है जो हमेशा पहले एक विद्ध्यार्थी बना रहे। मुझे तो लगता है शिक्षक वो नहीं होता जो अपने विषय के बारे में सब कुछ जानता है बल्कि वो होता है जो अपने विषय को जानना चाहता है और जो कुछ जान पाता है उसे अपनों के बीच बाँटता है। 

आप किसी की और कोई आपकी मदद भी तब ही कर सकता है जब हम उन्हें ऐसा करने दें। प्रकृति के अपार भंडार में वो सब कुछ है जिसकी आपको जीवन के किसी भी मोड़ पर जरुरत है या हो सकती है बस आपके मनोभावों की झोलों फैली होनी चाहिए। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूँ जो किसी की सुनते ही नहीं लेकिन कोई उन्हें नहीं समझता ये शिकायत उन्हें हमेशा अपनी जिन्दगी से रहती है। मैं ऐसे भी कई विद्वानों से मिला हूँ जो अपनी बात को वेद-वाक्यों की तरह कहते है लेकिन पाता हूँ की तब से वे वहीँ खड़े हैं। 

ये बातें जीवन के दूसरे पहलुओं पर भी जस की तस लागू होती है चाहे समृद्धि,प्रतिष्ठा हो या आपसी रिश्ते। आपके पास जो है उससे संतुष्ट जरुर रहिए लेकिन और के लिए प्रयास हमेशा जारी रखिए। नहीं मांगने से तो देने वाले की ही हेठी लगती है और 'मैं सब जानता हूँ', मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ ' या मेरे पास सब कुछ है' कहकर हम उस देने वाले की हेठी ही तो लगा रहे होते है। आप तो बस झोली फैलाये रखिए, आप सोच भी नहीं सकते उसने आपके लिए क्या-क्या सोच रखा है। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 15 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 
 




Friday, 13 September 2013

कोशिश मत कीजिए


यही बात महसूस हुई जब मैं दो दिनों तक यह सोचता रहा कि अगला विषय क्या होगा जिस पर मैं आपसे बात करूँगा। फिल्म के दृश्यों की तरह एक के बाद एक विषय आते और अगले ही क्षण या यों कह लीजिए साथ ही कोई न कोई तर्क (कु) भी चला आता कि क्यों मुझे उस पर बात नहीं करनी चाहिए। थक कर एक क्षण के लिए आँखें मूँदी और अपना सारा ध्यान साँसों पर ले गया तो बस यही एक विचार कौंधा। 

ये विचार पढ़ा तो पहले भी था लेकिन आज से पहले कभी इसे स्वीकार नहीं कर पाया। लगता था हम कोशिश ही नहीं करेंगे तो सफल कैसे होंगे? जीवन में नई बातें कैसे सीखेंगे? इस परत दर परत दुनिया को कैसे ढूंढ़-जान आनन्दित होंगे? जीवन में और गहरे कैसे उतर पायेंगे? आज लगा, यहाँ भी जीवन की वही उलटबाँसी। जब तक कोशिश करो कुछ दूरी बनी रहती है और जो पाना चाहते हो उसे जीना शुरू कर दो तो लगता है यह तो पहले ही से प्राप्त था, बस इसे काम ही में नहीं लिया था। आपको नहीं लगता, कोशिश शब्द ही अपने आप में इस स्वीकारोक्ति को समाए हुए है कि शायद मुझसे नहीं हो पाएगा या मैं नहीं कर पाऊँगा। एक दबी नकारात्मकता। हम जो पाना चाहते है उसके लिए हम जो है उससे कहीं अधिक होना पड़ेगा। 

अपनी आँखों को मूँद अपना सारा ध्यान साँसों पर ले जाते समय ये विचार शायद इसीलिए मन में कौंधा होगा क्योंकि हम साँस लेने की कोशिश नहीं करते बस लेते है। यह हमारी प्रकृति है अतः कोशिश करने की कभी जरुरत ही नहीं पड़ी। कोशिश तो तब करनी पड़ती है जब आप साँस लेने में पूरी तरह सक्षम न हों यानि साँस की तकलीफ हो। ठीक इसी तरह यदि आपके अंतर्मन में कोई विचार उपजा है तो तय मानिए उसका पाना और होना उतना ही सहज है जैसे साँस लेना बशर्ते यह आपके अंतर्मन की उपज हो न कि अहम् या किसी और जैसा बनने की चाह। वेन डब्लू. डायर ने इसे बहुत ही सुन्दरता से कहा है, उन्हीं के शब्दों में, 'इफ यू केन कन्सीव इट, यू केन क्रिएट इट।'

ये हमारे मन के सन्देह ही तो है जो हमें मानसिक रूप से कमजोर बना देते है और तब हम स्वयं ही रास्ते में आने वाली मुश्किलों को बढ़ा अपने असफल होने की संभावनाओं को बढ़ा लेते है। डगमगाए विश्वास की नीवं पर कभी सफलता की पक्की इमारत खड़ी नहीं हो सकती। इसका मतलब ये कतई नहीं कि अंतर्मन की आवाज़ पर किए किसी काम में हम असफल होंगे ही नहीं। बिल्कुल, जीवन में ऐसा कई बार होगा लेकिन तब वो हमारी मेहनत में कमी और तरीकों में बदलाव की जरुरत का सूचक होगा न कि हमारी अक्षमताओं का परिचायक। किसी भी काम को करने का एक विशेष तरीका और उपयुक्त बल की जरुरत होती है। यदि इसे हम समय-समय पर जाँचते-परखते रहें तो आपके होने को कोई नहीं रोक सकता। 

मैं अपनी बात को वॉरेन बफेट की इन सारगर्भित पंक्तियों के साथ विराम दूँगा, " मैं हमेशा से जानता था कि मैं धनी होऊँगा। मैं नहीं सोचता मैंने एक मिनट के लिए भी इस पर सन्देह किया हो। "



(जैसा की दैनिक नवज्योति में रविवार, 8 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .........    

Friday, 6 September 2013

अपने आपको लौटाएँ



अभी कुछ दिनों पहले मैं अपने पूरे परिवार के साथ मारवाड़ के प्राचीन तीर्थों पर घुमने निकला था। सच है,साथ होने से बड़ा सुख नहीं। जब वापस काम पर लौटा तो ऐसा लगा जैसे रोजमर्रा के जीवन की सफाई हो गई हो, जैसे फालतू चीजों को बुहार कर कूड़े दान में डाल दिया हो। न जाने कितनी बेवजह चीजें करता ही चला जा रहा था। एक तरह से घडी का गुलाम होता जा रहा था और उपर से शिकायत, समय के कमी की। 

ऐसा ही होता है, एक ढर्रे पर चलते-चलते, पर हम भी क्या करें हमारी मज़बूरी होती है और इस चक्कर में ऐसे काम हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन जाते है जो अब बेवजह हो चूके है और उन कामों को अपना समय नहीं दे पाते जिन्हें हमारी प्राथमिकता होना चाहिए। कुल मिलाकर हम भाग रहे होते है और ये भूल जाते है कि हम क्यों भाग रहे थे। इस अहसास ने मुझे महान चित्रकार, गणितज्ञ और पुनर्जागरण के प्रणेताओं में से एक लियोनार्डो डी विंची की एक बहुत सुंदर कविता दिला दी .......

जब कभी निकल लें 
थोडा आराम करें     
और तब 
जब आप लौटेंगे काम पर 
आपके निर्णय होंगे ज्यादा पक्के 
बिना रुके कैसे रहेगा 
आपके निर्णयों में पैनापन

थोडा दूर निकल आएँ 
कम दिखेगा छोटा होकर 
और उससे भी ज्यादा 
दिखेगा पूरा का पूरा 
और तब 
चल जाएगा तुरंत मालूम 
कहाँ अनुपात बिगड़ रहा है 
कहाँ लय टूट रही है। 

इस क्षण में किये गए हमारे चुनाव, हमारे निर्णय ही तय करते है कि हमारा आने वाला क्षण, हमारा भविष्य कैसा होगा और उसके लिए रुकना उतना ही जरुरी है जितना समय-समय पर चाकू के धार लगवाना। जिस तरह लगातार काम में लेने से चाकू भोंतरा हो जाता है उसी तरह रोजमर्रा के जीवन में उलझे रहने से हमारे निर्णय भी दूसरी बातों से प्रभावित होने लगते है। चूँकि हम सामाजिक प्राणी है इसलिए हमारा कोई भी निर्णय चाहे वह कितना भी निजी क्यों न हो, किसी न किसी को प्रभावित जरुर करता है और जिन्हें प्रभावित करता है उनकी प्रतिक्रियाएँ हमारी सोच को पुनः प्रभावित करने लगती है। सोच के इस ऑक्सीकरण यानि जंग लगने से हमारे निर्णयों का पैनापन जाने लगता है। इसे बनाए रखने के लिए जरुरी है हम अपनी सोच की सफाई के लिए समय-समय पर रुकें। 

रुकने का दूसरा फायदा, हमें अपना काम समग्रता से दिखाई देता है ठीक वैसे ही जब हम अपने ही शहर को ऊँचाई से देख रहे होते है। चूँकि जीवन का हर पहलू दुसरे से जुदा है अतः क्या ठीक है क्या नहीं, ये अपने काम-अपने जीवन को एक साथ पूरे का पूरा देखने पर ही पता चल सकता है और तब इसे दुरुस्त करना कहीं आसान हो जाता है। 

इस मंथन से मेरे हाथ दो सूत्र लगे। पहला, समय-समय पर स्वयं एवम जीवन से परे होकर देखने की कोशिश करें। सशरीर कहीं जाना जरुरी नहीं, आप जहाँ हैं वहीँ से ऐसा कर सकते है जिसे हम साक्षी भाव कहते है। आपको जीवन की रुकावटों के बेहतर वैकल्पिक मार्ग नज़र आने लगेंगे। दूसरा, अपने काम को शुरू करने से पहले कम से कम दो-तीन मिनट के लिए इसी भाव में आ जाएँ, ध्यान लगाएँ। आपके सामने आपके काम का खाका स्वतः खींच जाएगा। यही तो कहते है विन्ची, जैसे भी हो बस थोडा निकल लें। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 1 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका 
राहुल .........    

Friday, 30 August 2013

गुरु कृष्ण की दक्षिणा


कृष्ण अवतरण की कथा तो आपने खूब सुनी है, मैं जन्माष्टमी की ढेरों बधाईयों के साथ आपसे उस अनमोल भेंट की बात करना चाहता हूँ जो गुरु कृष्ण ने हम सब को दी। जिसने पूरे अध्यात्म का ही रुख मोड़ दिया। इससे पहले कर्म और अध्यात्म जीवन के दो अलग-अलग रास्ते हुआ करते थे और कर्म का मार्ग कहीं निम्न था। कर्मशील व्यक्ति यानि दुनियादारी के जंजाल में फंसा ऐसा व्यक्ति जो अपने कर्म-बंधन बाँधते ही चला जा रहा है और जिसकी मुक्ति संभव ही नहीं। उन्होंने 'अनासक्त कर्म' का सूत्रपात कर न केवल उसका योग अध्यात्म से कर दिया अपितु एक साधारण गृहस्थ के लिए परमात्मा के द्वार भी खोल दिए। निस्संदेह अनासक्त कर्म ही गुरु कृष्ण की सारे जगत को अमूल्य भेंट है। 

साधारणतः जो जुमला प्रचलित है वह यह कि गीता कहती है, कर्म करो लेकिन फल की इच्छा मत करो। शायद इसीलिए कि ये सुनने में बड़ा चुनौतीपूर्ण लगता है जो हमारी बुद्धि की कमजोरी है, उसकी पसंदीदा खुराक है। जहाँ तक गीता को मैं समझ पाया, गीता में कृष्ण कहते है, 'कर्म करो और उसके परिणाम निस्संदेह तुम्हारे कर्म की प्रेरक शक्ति बनें लेकिन उन परिणामों से तुम्हारी आसक्ति न हो। यहाँ इच्छा और आसक्ति में फर्क को समझने की जरुरत है। इच्छा प्रेरक शक्ति है और आसक्ति हवस। जब कुछ पाने की लालसा आपकी समझ से अच्छे-बुरे का भेद मिटा दे और आपको उसे पाने के लिए गलत रास्ते भी जायज जान पड़े, वही आसक्ति है। आपका प्राप्य आपके जीवन का पर्याय बन जाए। ऐसे कर्म निश्चित ही कर्म-बंधन का कारण होंगे। आसक्त कर्म, एक ऐसा दलदल है जिससे हम जितना निकलने की कोशिश करते है उतने ही फँसते चले जाते है।

हमारे कर्म क्रिया है तो कर्म-फल प्रकृति की प्रतिक्रिया। हम जो कुछ करते है उसका परिणाम प्रकृति के शाश्वत नियमों के अनुसार पाते है अतः कोई औचित्य नहीं बनता कि हम कर्म-फल को नियंत्रित करने की कोशिश करें। यही आशय है कृष्ण के उस कथन का कि तू अपने सारे कर्मों को मुझे समर्पित कर। ऐसा कह वे भरोसा दिलाना चाहते है कि यदि हम अच्छा करते है तो निश्चिन्त रहें, हमारे साथ अच्छा ही होगा। यही अनासक्त कर्म है। 

स्वामी विवेकानन्द ने अनासक्त कर्म को जीवन में अपनाने का एक बहुत ही सरल-सुगम मार्ग सुझाया है 'हम किसी से कोई उम्मीद न करें। उम्मीद ही आसक्ति का व्यावहारिक रूप है।' मैं समझता हूँ अनासक्त कर्म को अपना स्वभाव बना पाने की शुरुआत हम आपसी रिश्तों में उम्मीदों को कम और धीरे-धीरे उन्हें शून्य कर, कर सकते है। हम किसी के लिए कुछ करें तो सिर्फ इसलिए कि ऐसा करना हमें अच्छा लगता है, हमारे मन को सुकून देता है। हमारा व्यवहार हमारा स्वभाव हो, निवेश नहीं। हमारा अच्छा व्यवहार इस कारण हो कि प्रत्युत्तर में जैसा हम चाहते है वैसा व्यवहार मिलेगा तो तय मानिए वो रिश्ता लम्बे समय तक मधुर नहीं रह सकता। हम सब का अपना-अपना स्वभाव है और वैसा ही आचरण। एक दूसरे को जीने की जगह देकर हम जीवन में अनासक्त कर्म का व्यावहारिक पक्ष समझ सकते है। 

उलटबाँसी यह है कि कर्म फल की आसक्ति से मुक्त होकर हमारे कर्म सघन हो जाते है। जब हम परिणामों की चिंता किए बगैर कुछ करते है तब हम अपना शत-प्रतिशत दे पाते है और तब हमारे परिणाम स्वतः ही सर्वोत्तम होते है। अनासक्त कर्म स्वतन्त्र जीवन और बेहतर परिणामों का मार्ग है अतः उमीदों से निजात पाने से श्रेष्ठ श्री कृष्ण को हमारी गुरु दक्षिणा हो ही नहीं सकती। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 25 अगस्त को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........    

Friday, 23 August 2013

क्या हम इतना भी नहीं कर सकते?




रक्षा-बन्धन का त्यौहार कब, कैसे और कहाँ शुरू हुआ इसका प्रमाणिक लेखा-जोखा तो कहीं नहीं मिलता। हाँ, कुछ कथाएँ जरुर प्रचलित हैं। उनमें से एक है, जब समुद्र-मंथन के समय असुरों का पलड़ा भरी पड रहा था तब इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी ने अभिमंत्रित कर एक धागा उनके हाथ पर बाँधा था। इस रक्षा-कवच के बाद असुर उनका बाल भी बांका नहीं कर पाए, वह दिन श्रावण मास की पूर्णिमा का था। एक कथा राजा बलि और वामनावतार की भी है। तीन पग जमीन नापते हुए भगवान विष्णु ने राजा बलि को रसातल में भेज दिया। राजा बलि ने एक बार फिर भगवान विष्णु की तपस्या की और उन्हें प्रसन्न कर ये वचन ले लिया कि वे हमेशा ही उसकी आँखों के सामने बने रहेंगे। अब विष्णु जी का घर लौटना सम्भव नहीं था और लक्ष्मी जी का चिंतित होना स्वाभाविक। ब्रह्मर्षि नारद ने सुझाया और लक्ष्मी जी राजा बलि को राखी बाँध अपने पति को लौटा लाई। कहते है उस दिन भी श्रावण मास की पूर्णिमा ही थी। 

एक प्रसंग जिसका ऐतिहासिक प्रमाण है, वह है बादशाह हुमायूँ और रानी कर्मावती का। मेवाड़ की रानी कर्मावती को गुप्त सूचना मिली की बहादुरशाह उन पर हमला बोलने वाला है। उन्हें आभास था कि यदि ऐसा हुआ तो वे अपने राज्य की रक्षा नहीं कर पाएँगी। उन्होंने अपने दूत के हाथों हुमायूँ को राखी भिजवाई। हुमायूं राखी देखते ही समझ गए। बादशाह हुमायूँ मेवाड़ की रक्षा के लिए रानी कर्मावती की ओर से लड़े। निश्चित ही था, बहादुरशाह रानी कर्मावती को नहीं हरा पाया। 

आज जब हम अपने चारों और देखते है तो लगता है इस त्यौहार की प्रासंगिकता कहीं अधिक हो गयी है। प्रेम को हमने कितना संकीर्ण बना दिया है। प्रेम के मायने सिर्फ स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध होकर रह गए है। रक्षा-बन्धन का ये त्यौहार प्रतिवर्ष हमें प्रेम के सच्चे उदात्त स्वरुप की याद दिलाता है। प्रेम को हमारे संकीर्ण विचारों की बेड़ियों से मुक्त करवाने की कोशिश करता लगता है। 

ये त्यौहार याद दिलाता है कि प्रेम बिना शर्त होता है, प्रेम जिम्मेदार होता है, प्रेम प्रतिबद्धता है, प्रेम सर्व शक्तिशाली है और अंततः प्रेम ही भक्ति है। प्रेम से बांधे एक धागे की शक्ति इन्द्र को असुरों पर विजय दिला देती है, यही धागा हुमायूँ को एक जिम्मेदारी से बाँध देता है और इसी पावन धागे के कारण राजा बलि सब कुछ भूलकर विष्णु जी को लक्ष्मी जी के साथ विदा करते है। इन पौराणिक कथाओं के सच होने पर विवाद हो सकता है लेकिन प्रेम इस सृष्टि की आधार-ऊर्जा है इसमें शायद ही किसी के मन में कोई दो राय हो। आप प्रेम के बारे में थोड़ी देर गहनता से विचारेंगे तो आपको लगेगा कि किसी इन्सान में हो सकने वाली कोई भी अच्छाई वास्तव में प्रेम का ही एक रूप है। वास्तव में इंसान के सारे चारित्रिक गुण प्रेम की परिधि में ही तो समाए है।

यदि हम प्रेम के इस उदात्त स्वरुप को समझने की कोशिश करें तो निश्चित ही हमारे चारों ओर का दृश्य बदल सकता है। ये आए दिन के दुष्कर्म, घरेलू हिंसा और सामाजिक सुरक्षा का यही एकमात्र उपाय है। प्रेम ही व्यक्ति को सुसंस्कृत करेगा और तब ही हम अपने परिवार के साथ निर्भीक होकर जीवन-रस ले पाएँगे। 

हुमायूँ रानी कर्मावती के लिए युद्ध कर सकता है तो मैं चाहता हूँ, एक सवाल हम सब अपने आप से करें, क्या हम इतना भी नहीं कर सकते?


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 18 अगस्त को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........   

Sunday, 18 August 2013

जंगली बेर, नदी और परमात्मा


हमारी संस्कृति में ये महीने वर्ष के सबसे पावन होते है। हिन्दुओं में श्रावण तो मुसलमानों में रमजान। प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने-अपने तरीकों से उस परम पिता परमेश्वर की आराधना में जुटे होते है। जगह-जगह धार्मिक गोष्ठियाँ, कथा-वाचन और प्रवचन-व्याख्यान चलते है, ये चौमासा होता ही ऐसा है। 

ये धार्मिक अनुष्ठान तब ही सार्थक सिद्ध होंगे जब हम कर्मकाण्डों से ऊपर उठकर धर्म के मर्म को समझें। आज हमारा समाज जिस तरह धर्म के नाम पर बँटता ही चला जा रहा है उस सन्दर्भ में यह और भी प्रासंगिक हो जाता है। आपको याद है न वो चरवाहा जो अपने काम से थककर नदी के किनारे बैठ जाया करता था। ऐसा ही एक दिन था; वह नदी के किनारे जंगली बेर खाते, सूर्यास्त होते देख अपने तन-मन की थकन उतार रहा था। अचानक वह कहीं खो गया। उसे लगा ये आकाश नहीं कोई अदभूत चित्र है जिसमें प्रकृति ने सारे रंगों को आजमाया है। पक्षी अपने घोंसलों की और ऐसे लौट रहे है जैसे वे अपने जीवन के सबसे खुबसूरत दिन का उत्सव मना रहे हों। नदी शान्त लेकिन ऐसे बहे जा रही है जैसे कृष्ण-मिलन को आतुर मीरा भजन गा रही हो। एक ही क्षण में वो रूपांतरित हो चुका था। उसका चेहरा सूर्य की मानिंद दमक रहा था तो चित्त चन्द्रमा की तरह निर्मल था। 

थोड़ी ही देर बाद वो ऐवड के साथ गाँव लौटा और हमेशा की तरह घर-घर जाकर अपने पशु लौटा रहा था लेकिन आज जिससे मिलता वही विस्मित। पूछने पर वो सहज भाव से अपना अनुभव बताता। थोड़ी ही देर में ये बात गाँव में आग की तरह फ़ैल गई। 

रोजाना की तरह वो सुबह उठकर अपने पशुओं को इकट्ठा करने निकला। एक घर बंद मिला, दूसरा ......,तीसरा .......और थोड़ी देर में उसे अहसास हुआ कि गाँव तो खाली हो चुका है।  उसे कुछ समझ नहीं आया, जोर-जोर से आवाजें दी, गली-गली घूमा, करते-करते दोपहर हो आयी। वो हैरान-परेशान अपने चहेते ठौर पहुँचा। वहाँ पहुँच कर क्या देखता है, नदी किनारे गोल पत्थरों पर एक-एक करके पूरा गाँव बैठा है और सब के सब जंगली बेर खा रहे है। 

यही बात हम सब को समझनी है। नदी किनारे बैठकर जंगली बेर खाने से सत्य की अनुभूति नहीं होती। यह उस चरवाहे की नियति थी, हमें अपनी ढूंढनी है। अहम् बात है यह आत्मसात करना कि उस अनुभूति में ही सच्चा आनन्द है। वह किसी को भी हो सकती है। वह कभी भी हो सकती है। बस जरुरत है उस क्षण की जब आपका ह्रदय विशुद्ध प्रेम से लबालब हो। जब आप प्रकृति के हर घटक के साथ अपने आपको एकाकार पाएँ। जब आप सृष्टि से एक होकर उस एक को महसूस कर लें और वो अहसास आपको आपका परिचय करवा दे। आपका ये क्षण खाना खाते हुए, अपने बच्चों के साथ खेलते हुए, अपना काम करते हुए या कोई और भी हो सकता है।

इसका मतलब यह नहीं कि ईश्वर आराधना की सारी विधियाँ फिजूल है। निश्चित ही उनका महत्व है लेकिन इतना कि वे हमारे चित्त को शान्त कर हमारे क्षण को ढूंढने में मदद करती है। हमें आध्यात्मिक अभ्यासों के लिए अनुशासित करती है। वे हमें दिखाती है कि एक व्यक्ति के लिए क्या संभाव्य है। यह बात ठीक वैसे ही है कि हम अपने माता-पिता-शिक्षक से लिखना सीख सकते है लेकिन लिखावट हमारी अपनी ही होगी। इस बार चौमासे को इस नज़र से मना कर देखिए, मुझे विश्वास है आपको अधिक आनन्द आएगा।


(जैसा की दैनिक नवज्योति में रविवार, 11अगस्त को प्रकाशित)
आपका,
राहुल........