Friday 20 September 2013

अपनी झोली फैलाये रखिए



एक बार की बात है। एक गाँव के बाहर एक संत आकर रुके। जब गाँव वालों को इस बात का पता चला तो वे उनके पास इकट्ठा होकर पहुँचे। उनका आग्रह था कि वे गाँव में पधारें और अपने ज्ञान से सभी को लाभान्वित करें। उन संत को इन सब में रूचि नहीं थी। जब देखो वे अपनी ध्यान-साधना में ही लीन मिलते। गाँव वालों के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि मैं आप लोगों से एक प्रश्न पूछूँगा और देखूँगा कि मेरे कुछ कहने की जरुरत भी है या नहीं।

संत ने पूछा,'अच्छा बताओ, ईश्वर है या नहीं?' गाँव वालों को ऐसे प्रश्न की कतई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने सोचा एक संत के सामने इस प्रश्न का जवाब 'हाँ' के अलावा और क्या हो सकता है लेकिन वे बोले, तब तुमको मेरी जरुरत नहीं। निराश गाँव वाले वापस लौट आएँ। उन्होंने सोचा कल वापस चलते है और कहते है 'ईश्वर नहीं है' तब शायद वे मान जाएँ। उन्होंने ऐसा ही किया लेकिन हुआ वही। 'नहीं' सुनकर भी वे यही बोले 'तब तुमको मेरी जरुरत नहीं।' परेशान होकर तीसरे दिन वापस पहुँचे और झुंझला कर बोले, बाबा ! हमें नहीं पता ईश्वर है या नहीं, बाकि आपकी इच्छा। सुनकर उनका चेहरा खिल गया। वे बोले, तब मेरी जरुरत हैं। मैं जरुर चलूँगा तुम्हारे साथ और बताऊंगा मैंने क्या पाया है। 

इस कहानी का मर्म ज्ञान का आधार है। कुछ पाना है तो सबसे पहले खाली होना पड़ेगा, वैसे ही जैसे भरे हुए बर्तन को नहीं भरा जा सकता। ज्ञान की आवक वहीँ रुक जाती है जब व्यक्ति 'मुझे सब पता है' की गुफा में प्रवेश कर जाता है। यही कारण है कि एक अच्छा शिक्षक वही बना रह पाता है जो हमेशा पहले एक विद्ध्यार्थी बना रहे। मुझे तो लगता है शिक्षक वो नहीं होता जो अपने विषय के बारे में सब कुछ जानता है बल्कि वो होता है जो अपने विषय को जानना चाहता है और जो कुछ जान पाता है उसे अपनों के बीच बाँटता है। 

आप किसी की और कोई आपकी मदद भी तब ही कर सकता है जब हम उन्हें ऐसा करने दें। प्रकृति के अपार भंडार में वो सब कुछ है जिसकी आपको जीवन के किसी भी मोड़ पर जरुरत है या हो सकती है बस आपके मनोभावों की झोलों फैली होनी चाहिए। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूँ जो किसी की सुनते ही नहीं लेकिन कोई उन्हें नहीं समझता ये शिकायत उन्हें हमेशा अपनी जिन्दगी से रहती है। मैं ऐसे भी कई विद्वानों से मिला हूँ जो अपनी बात को वेद-वाक्यों की तरह कहते है लेकिन पाता हूँ की तब से वे वहीँ खड़े हैं। 

ये बातें जीवन के दूसरे पहलुओं पर भी जस की तस लागू होती है चाहे समृद्धि,प्रतिष्ठा हो या आपसी रिश्ते। आपके पास जो है उससे संतुष्ट जरुर रहिए लेकिन और के लिए प्रयास हमेशा जारी रखिए। नहीं मांगने से तो देने वाले की ही हेठी लगती है और 'मैं सब जानता हूँ', मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ ' या मेरे पास सब कुछ है' कहकर हम उस देने वाले की हेठी ही तो लगा रहे होते है। आप तो बस झोली फैलाये रखिए, आप सोच भी नहीं सकते उसने आपके लिए क्या-क्या सोच रखा है। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 15 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 
 




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