Saturday 28 September 2013

हमारे बच्चे और कठोपनिषद



 
पाण्डवों में जो स्थान अर्जुन का है वही स्थान उपनिषदों में कठोपनिषद का है। एक ख़ास वजह है उसकी, बालक नचिकेता और पिता राजा उद्दालक के बीच इस लम्बे कथा-संवाद के माध्यम से ये उपनिषद परतें खोलता है उस चिर जिज्ञासा की जो मानव मन पर सदियों से छाई है। आखिर क्या होता है व्यक्ति मृत्यु के बाद और जो कुछ भी होता है क्या उसके लिए मरना जरुरी है या कोई विधि है उसे जीते जी भी पा लेने की?

कठोपनिषद को पढना ही शुरू किया था कि आचार्य रजनीश ने एक बात जो उसकी पृष्ठभूमि में कही, उसने मन भर दिया। वे कहते है, ये कोई एक ऋषि होगा जिसने एक बच्चे को अपनी बात अपने पिता से कहते हुए सुन लिया होगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने बच्चों को इतने ही ध्यान और मर्म से सुनना शुरू कर दे तो न जाने कितने कठोपनिषदों का जन्म हो जाए, या फिर किसी कठोपनिषद की जरुरत ही न रहे। कितना सूक्ष्म अन्वेक्षण है लेकिन कितना सुन्दर। सच ही तो है, एक सरल ह्रदय हमेशा ही अपने में वेद-उपनिषदों सा ज्ञान समाए होता है। 

और हम, हम लगे है अपने ही बच्चों की इस सरलता को मिटाने में क्योंकि हम उनसे प्रेम करते है। हमें लगता है यह इस तरह इस दुनिया में कैसे जी पायेंगे और लग जाते है उन्हें पाने जैसा बनाने की जद्दोजहद में। इस मिशन में हम इतने खो जाते है कि ये तक ध्यान नहीं रहता कि हम खुद ही कहाँ खुश और संतुष्ट है अपनी जिन्दगी से,लेकिन हम भी क्या करें? यही हमारे पास है और यही हमें आता है। 

तो क्या करें? मुझे लगता है इसका एक ही इलाज है। हमें इस जबरदस्ती के ओढ़े हुए दायित्व से मुक्त होना होगा की मुझे अपने बच्चों को हर स्थिति में गाइड करना है चाहे स्वयं मुझे पता हो या न हो। मैं हर बात में अपने बच्चों से ज्यादा जानता हूँ, इस दंभ से निजात पानी होगी। निश्चित ही हमारे पास अनुभव है और कुछ चीजों को अनुभव से ही समझा जा सकता है, वहां हम जरुर उनका मार्गदर्शन करें लेकिन जिन बातों का वास्ता सरलता-सहजता से है वहां हमारे बच्चे हमसे ज्यादा जानते है। मानने से आगे बढ़कर जरुरत तो इस बात की है कि इन बातों में हम उनसे सीखें। 

अब ये जो संकरी गली है अनुभव की, हम अनजाने ही सही इसका भी दुरूपयोग करने लग जाते है और हर बात को मनवाने के लिए अपने अनुभवों की दुहाई देने लगते है। जिन्दगी के दस प्रतिशत निर्णय ऐसे होते होंगे जिनमें अनुभव की आवश्यकता हो अन्यथा नब्बे प्रतिशत तो ऐसे ही होते है जो एक सरल ह्रदय के लिए बायें हाथ का खेल होता है लेकिन अपने बच्चों से प्रेम की खोल में ढका हमारा दंभ इस अनुपात को उलट देता है। 

कितना अच्छा हो हम अपने बच्चों की जिन्दगी बनाना छोड़ बच्चों के साथ जीना शुरू कर दें। अपनी कहें, उनकी सुनें। मुझे मालूम है आप क्या कहना चाहते है? आप उनकी सुन कर तो देखिये, वे भी आपकी सुनेगें। इस तरह सबसे पहले तो हम एक दूसरे को जान पाएँगे और तब मिलकर किसी सही निर्णय पर पहुँचना आसान होगा। ऐसा हम कर पाये तो हमारे नाचिकेताओं का जीवन कहीं आसान और हम उद्दलकों का जीवन कहीं खुशहाल होगा। 

आपका,
राहुल ……… 

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