Friday, 17 August 2012

थोडा भरोसा रखिए






" तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोय !
  अनहोनी  होनी  नहीं, होनी  हो  सो  होय !! "

कुछ दिनों पहले मैं फिल्म ' अखियों के झरोखों से ' के गाने सुन रहा था. फिल्म में एक सुंदर अन्ताक्षरी है जिसमें कबीर, रहीम और तुलसी के दोहे है. मेरा ध्यान तुलसी के इस दोहे पर अटक गया और कई दिनों तक अटका ही रहा. मैं मन ही मन गुणने लगा कि तुलसीदास जी ने जीवन की सारी परेशानियों का निदान इन दो पंक्तियों में ही कर दिया है.

जीवन में कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती है जिन पर हमारा नियंत्रण होता है और कुछ पर बिल्कुल नहीं. जिन स्थितियों पर हमारा नियंत्रण होता है वहाँ तो हम बेहतर विकल्पों का चुनाव कर परिणामों को बदल सकते है लेकिन जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं वहाँ प्रकृति और परमात्मा के भरोसे रहना ही समझदारी है.

यहाँ मैं आपको भाग्यवादी बनने को बिल्कुल प्रेरित नहीं कर रहा बल्कि याद दिला रहा हूँ कि कुछ स्थितियाँ ऐसी होती है जिनमें खुद हमें मालूम नहीं होता कि हमारा भला किसमें है. आप अपने जीवन के ही बीते दिन याद आएगी जो उस समय तो नाकामी लगी थी पर बाद में वे ही सफलता की नींव का पत्थर साबित हुई.

जब हमें मालूम ही नहीं कि हमारा भला किसमें है तो फिर किसी निश्चित परिणाम के लिए प्रार्थना करना बिल्कुल बेमानी है. गुरु रामदास कहते है कि यदि आपको पक्का मालूम है कि आप जो कुछ माँग रहे है वे आपको और आपके अपनों को किस तरह प्रभावित करेंगे तो निश्चित परिणामों के लिए प्रार्थना सर्वथा उचित है लेकिन विसंगति यह है कि हम में से किसी को नहीं मालूम कि जो हम माँग रहे है उसके सम्पूर्ण प्रभाव क्या होंगे. 

हमारी प्रार्थना जीवन के उन्नत और सम्रद्ध अनुभवों के लिए हों. हम ईश्वर से अपने भले कि कामना करें लेकिन हमारा भला किसमें है यह निर्णय उसी पर छोड़ दें. मुझे याद आती है वह बात जब बचपन में मैं पिताजी के साथ मंदिर जाया करता था. मुझे लगता था कि हम मंदिर जाते ही कुछ माँगने को है. एक दिन मैंने उनसे पूछा कि मैं भगवान से क्या माँगू? पिताजी का जबाव था बेटा! कुछ माँगना ही है तो अपने लिए सदबुद्धि माँगो. आज इसकी गहराई समझ आती है. आप ही बताइए सदबुद्धि माँग ली तो बाकी क्या रह गया? 

रही बात परेशानियों की तो ये किसके जीवन में नहीं आती. ये आती है कुछ सिखाने, कुछ याद दिलाने. इन्हें टालने या दबाने की बजाय यदि हम इनमें से गुजर इनके छिपे संकेतों को समझ अपने जीवन की गाड़ी को दुरुस्त कर लें तो ये स्वतः ही गायब हो जाएंगी. जीवन मैं दुःख अवश्यम्भावी हो सकते है लेकिन उसे पीड़ा बनाना ऐच्छिक होता है. परेशानियों और दुखों का प्रतिरोध उन्हें पीड़ा मैं बदल देता है. पीड़ा या व्यथा यानि दुखों कि स्वीकार्यता में ही उनका निदान छिपा है.

जीवन कि ज्यादातर परेशानियों कि वजह यह होती है कि हमने अपने अवचेतन में जीवन का एक प्रारूप (मॉडल) बना रखा है. हम पहले ही से तय कर बैठे है कि हमारे लिए क्या ठीक है और क्या नहीं. जब भी जीवन में ऐसा कुछ होता है जो इससे मेल नहीं खाता, हम परेशान हो उठते है. हमारे ये पूर्वाग्रह ही हमारी ज्यादातर उलझनों और उद्विग्नताओं के कारण होते है. जीवन के रंगमंच पर हमें सिर्फ अपने किरदार कि जानकारी है पूरा परिदृश्य तो सिर्फ निर्देशक को पता है जिसे आप चाहें तो प्रकृति कह लें चाहें परमात्मा. किसी ने ठीक ही कहा है, " यदि आप ईश्वर को हँसाना चाहते है तो और कुछ करने कि जरुरत नहीं बस उसे अपनी योजनाएँ सुना दीजिए. 

( रविवार, १२ अगस्त को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल.....

Friday, 10 August 2012

संतुष्टि एक भाव है





एक यात्री घूमते-घूमते किसी नगर के द्वार पर पहुँचा. उसने द्वारपाल से पूछा, ' ये नगर कैसा है ?' द्वारपाल ने उलटा सवाल किया, ' जहाँ से तुम आए हो वो नगर कैसा था ?' यात्री ने कहा, ' उसकी तो तुम बात ही मत करो. झगडालू लोग, चारों तरफ गंदगी और ढंग का कोई काम-धंधा नहीं. ये सुनकर द्वारपाल बोला,' अरे ! भाई ये नगर भी बहुत कुछ ऐसा ही है. अब और क्या कहूँ मैं तुमको.' ऐसा सुनते ही वह यात्री तो आगे चलता बना. कुछ दिनों बाद एक दूसरा यात्री नगर के द्वार पर पहुँचा. उसने भी वही सवाल किया. द्वारपाल ने भी वापस उससे उसके पुराने नगर के बारे मैं पूछा. संयोग से यह व्यक्ति भी उसी नगर से था जहाँ से पहला यात्री आया था लेकिन इसका जवाब था, ' क्या बताऊँ दोस्त मैं तो अपने नगर को छोड़ना ही नहीं चाहता था. कुछ निजी मजबूरियाँ हो गई वरना वहाँ के लोगों में तो इतना भाई-चारा, नगर में सफाई-व्यवस्था, और सब के लिए कुछ न कुछ काम था. द्वारपाल बोला, ये नगर भी वैसा ही है भाई. आओ! तुम्हारा स्वागत है.

ठीक ही तो है, हमें वही तो मिलेगा जो हम ढूंढ़ रहे है और रही बात प्रकृति की तो वह हर हालत में हमारा ही साथ देगी. यदि हम असंतुष्ट है यानि हमारा सारा ध्यान जीवन में जो कुछ नहीं मिला पर लगा है तो प्रकृति भी हमारे साथ मिलकर कोशिश करेगी की हमारा जीवन अभावों में गुजरे क्योंकि यही तो हम ढूंढ़ रहे थे. इसी पर तो हमारी दृष्टी थी. यदि हम संतुष्ट है तो प्रकृति भी ध्यान रखेगी कि जीवन में कुछ भी ऐसा न हो जो हमें असंतुष्ट कर दे. संतुष्टि तो एक भाव है अब यह हमारी इच्छा है कि हम इसे स्वाभाव बनते है या नहीं.

संतुष्टि कुछ हासिल कर लेने में नहीं वरन ' जो कुछ है वह पर्याप्त है ' की सोच से मिलती है लेकिन इसका आशय यह नहीं लगाना चाहिए की संतुष्टि का भाव हमें जीवन में आगे बढ़ने से रोकता है. संतुष्टि का भाव तो उलटा हमारी रचनात्मकता के पंख लगा देता है. अब हम कुछ भी करने या न करने का चुनाव संतुष्टि के दबाव में नहीं करते. यह अहसास कि कोई भी बहरी वस्तु हमें संतुष्ट नहीं कर सकती, हमारे निर्णयों को मुक्त कर देती है. इस तरह हम जीवन में अपने आपको कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण व सार्थक प्रयोजनों से जोड़ भी पाते है और उन्हें बेहतर तरीके से अंजाम भी दे पाते है. निश्चित रूप से इस तरह हमें पहले से कहीं बेहतर परिणाम मिलते है. अब परिणाम हमारी अभिव्यक्ति और परिचय होते है जो हमारे लिए वृहत्तर प्रयोजनों से जुड़ने कि प्रेरणा बनते है.

क्वांटम फिजिक्स भी कहती है कि कोई भी प्रयोग कभी शत-प्रतिशत निरपेक्ष हो ही नहीं सकता क्योंकि प्रयोगकर्ता की उपस्थिति मात्र प्रयोग को प्रभावित करती है. ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी निरपेक्ष नहीं होता क्योंकि प्राणी-मात्र की चेतना जीवन के रसायन को प्रभावित कर अनुभवों को बदल देती है. जीवन की एक सी परिस्थितियों में भी अलग-अलग व्यक्ति को अलग-अलग अनुभव होते है. यदि जीवन के अनुभवों को अधिक सुखद और मीठा बनाना है तो वह सिर्फ और सिर्फ अपनी चेतना के स्तर को उठाकर ही संभव है.

एक दिन के लिए एक छोटा-सा अभ्यास आजमाएँ. तय करें की आज का दिन मैं, " मैं ठीक हूँ, मेरे पास पर्याप्त है " की सोच के साथ गुजारूँगा. सुबह पहले जब अपना चेहरा शीशे में देखें तो शीशे में दिख रहे व्यक्ति को पसंद करें. देखकर मुस्कुराएँ. जिस किसी से मिलें तो तय करें कि आपका ध्यान उनकी खूबियों पर रहेगा. आपका काम वही है जो आप जीवन में करना चाहते थे और आपके ग्राहक और संगी-साथी आपकी सफलता के हेतु है.

विश्वास मानिए एक दिन के अनुभव ही आपके जीवन को बदल कर रख देंगे. आप अच्छा महसूस करने लगेंगे और चीजें स्वतः ही आपके पक्ष में घटने लगेंगी. आपको अहसास होने लगेगा कि आपकेपास पर्याप्त नहीं, उससे भी कहीं ज्यादा है. 


( रविवार, ५ अगस्त को नवज्योति में ' स्वाभाव बना लें संतुष्टि को ' शीर्षक के साथ प्रकाशित )
आपका, 
राहुल....   


Friday, 3 August 2012

सहज जीवन से ही सच्चा आनंद






आज मैं अपनी बात कि शुरुआत उन उक्तियों से कर रहा हूँ जिन्हें बचपन से आज तक मैं और आप  सुनते आ रहे है जैसे, ' कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ',  ' जिन्दगी एक दौड़ है ', ' तपकर ही सोना निखरता है ', ' जिन्दगी इम्तिहान लेती है ', आदि-आदि.

उफ़! जिन्दगी नहीं हो गई सश्रम कारावास हो गया. एक मिनट रुकिए और सोचिए क्या हमें जीवन इसलिए मिला होगा? क्या आपको प्रकृति का कोई घटक, मनुष्य के अलावा, संघर्ष करते हुए दिखता है? पेड़-पौधे, नदियाँ-पहाड़, पक्षी-जानवर सभी अपनी सहजता से जीवन जी रहे है. उनके जीवन कि सहजता इतनी आनंददायी है कि जब भी हम इनके पास होते है सुकून महसूस करते है. रोजमर्रा के संघर्षों से थक जाते है तब अपने आपको इकट्ठा करने के लिए इन्ही कि शरण मैं जा पहुँचते है.

यही सच है. संघर्ष हमारी नियति नहीं हमारा दृष्टिकोण है. हमारी सोच है. जीवन मैं आनंद और सफलता संघर्ष से नहीं सहजता से ही संभव है. संघर्ष तो शब्द ही नकारात्मक है. संघर्ष यानि किसी काम के हो पाने पर संदेह होना और इसलिए अतिरिक्त कठिन प्रयासों कि जरुरत महसूस करना जबकि सहजता की सकारात्मकता तो अपनी क्षमताओं की स्वीकार्यता मैं ही निहित है.

यदि हमें अपने जीवन से संघर्ष से निजात पानी है तो नजरिया बदलना होगा. सबसे पहले तो हम कोई काम करें या न करें इसका पैमाना हमारे अंतर्मन की आवाज़ होनी चाहिए. यदि ऐसा है तो हम में वो सब है जो उस काम की सफलता के लिए आवश्यक है. यदि ऐसा कोई काम पूरे प्रयासों के बाद भी नहीं हो पा रहा है तो हम उसी तरह से ज्यादा मेहनत करने की बजाय यह देखें कि यह और कैसे हो सकता है. तरीकों में बदलाव को आजमायें. उसी स्थिति को दूसरे कोण से देखने कि कोशिश करें. आपकी सोच-समझ से उस स्थिति का कोई पहलू छूट तो नहीं रहा है. नजरिये में यह बदलाव संघर्ष को सहज बना देगा.

सहजता को सही आशय में समझना भी उतना ही जरुरी है. सहजता का मतलब अनचाही और मुश्किल स्थितियों से मुहँ चुराना नहीं है. ऐसी किसी भी स्थिति को हम टाल सकते है, भाग नहीं सकते. जब इनसे दुबारा सामना होता है तो ये पहले से कहीं ज्यादा विषम रूप ले चूकी होती है. इन स्थितियों को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हुए पूरी दृढ़ता से इनका सामना करना ही सहजता है.

सहजता आलस्य भी नहीं है. संघर्ष से हमारा प्रेम इतना गहरा है कि हमें लगता है जीने की सहजता हमें आलसी बना देगी. संघर्ष भविष्य में सुख की दिलासा दिलाता है और वर्तमान की तकलीफों को अनिवार्य मानते हुए स्वीकार करता है जबकि सहजता सिर्फ इस क्षण की बात करती है. इस क्षण में बेहतर क्या किया जा सकता है और इसे भरपूर जिया जा सकता है यही जीवन की सहजता है.

बच्चे जब चलना सीख रहे होते है तब वे उठने और चलने की कोशिश में बार-बार गिरते है. गिरना, फिर उठना, फिर थोडा चलना, फिर गिरना उनके लिए खेल है न की संघर्ष. वे गिरकर असफल नहीं चलकर सफल नहीं. उनके लिए तो पूरा प्रयोजन ही आनंद है, एक मजेदार खेल. इसी तरह जीवन के सारे काम हमारे लिए मजेदार खेल हों. खेल मुश्किल हो सकता है, थका भी सकता है लेकिन तकलीफ कभी नहीं देगा. जीवन की यही सहजता हमें आनंद देगी.


( दैनिक नवज्योति में रविवार, २९ जुलाई को प्रकाशित )

आपका,
राहुल....... 


Friday, 27 July 2012

जिएँ उदाहरण बनकर




" थोड़ी बातें कम हों क्योंकि कोरे उपदेश इतने प्रभावी नहीं होते. फिर क्या करें ? झाड़ू उठाइए और किसी का घर साफ़ कर दीजिए, यही सब कह देगा."
                                                                                                                      -- मदर टेरेसा  

इस दुनिया में जिस किसी की भी बात सुनी गई और मानी गई ये वे ही लोग थे जिन्होंने आचरण को अपना सन्देश एवम प्रेम को अपने कहने का माध्यम बनाया. मदर टेरेसा को ही लीजिए उनका नाम ही बच्चों के प्रति बिना शर्त प्रेम का पर्याय है. उन्होंने अपने विश्वास को इस तरह जिया कि आज चाहे वे हमारे बीच नहीं है पर उनका सन्देश आज भी जीवित है. उनका जीवन ही बच्चों के प्रति प्रेम का उदाहरण है. ये ही बात वो बिना जिएँ शब्दों के सहारे कहती तो इतनी प्रभावी होती, अंदाज़ा आप स्वयं लगा सकते है. शब्द एक सीमा के बाद अप्रभावी होने लगते है और फिर वे एक-दूसरे के बीच दूरियाँ ही बढ़ाते है.

घर हो या बाहर हम सब चाहते है कि हमारे कहे का सम्मान हो, हमारी बात मानी जाए. जिनकी हम खुशियाँ चाहते है, जिनके भले के लिए कह रहे होते है वे ही जब हमारी बात पर कान नहीं धरते तो कितनी खिन्नता होती है. ऐसा क्यूँ होता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम कह कुछ रहे होते है और आचरण कुछ और होता है? कहीं हम अपनी बात मनवाने के लिए तर्क-वितर्क और दबाव का सहारा तो नहीं ले रहे होते?

दैनिक जीवन का एक छोटा-सा उदाहरण ले लीजिए. एक तरफ तो हम अपने बच्चों को सच बोलने का उपदेश देते है और दूसरी तरफ उन्ही के सामने मोबाईल पर बात करते हुए ढेरों झूठ बोलते है. यदि हमारा आचरण ऐसा है तो हम लाख कोशिश कर लें हमारे उपदेशों का कोई असर नहीं होने वाला.

यहाँ जहन में एक प्रश्न उठता है कि हमारा आचरण कैसा हो? एक शब्द में कहें तो नीति-संगत. एक तरफ तो हमारे आचरण की नींव जीवन के शाशवत मूल्यों पर आधारित हों तो दूसरी तरफ हमारे निर्णय प्रेक्षण-विश्लेषण के बाद  देश, काल, समय और परिस्थितियों के सापेक्ष हो जिसमें सभी का भला निहित हो.ऐसा जीवन निश्चित ही सुन्दर होगा. जीवन उन अहसासों से लवरेज होगा जिन्हें सामान्यतया हम असंभव कहकर टाल देते है.

हमारे ये अहसास हमें प्रेरित करते है कि यदि हमारे अपने किसी और तरह जीवन जी रहे है तो हम उन्हें किसी तरह रोकें. इस तरह हम उपदेशों, तर्कों, और दबावों का सहारा लेने लगते है. आपने स्वयं अनुभव किया होगा कि ये सब हमेशा ही अप्रभावी रहते है.

हाँ, यदि अपने किसी अनुभव से आनंदित है तो जरुर उसे अपनों के साथ बाँटिए. आवश्यक लगे तो सलाह भी दीजिए और भरोसा भी दिलाइए लेकिन यह सब बिना किसी शर्त के. यदि आप किसी कि उन्नति और भला चाहते है तो आपका प्रेम ही काफी है. प्रेम यानि किसी को उसकी कमियों के साथ स्वीकार करना. प्रेम यानि एक-दूसरे की बात मानने या न मानने कि स्वतंत्रता देना. 

शाशवत मूल्य और नीति-संगत आचरण से निश्चित ही हमारे जीवन में सुख, शांति, संतुष्टि और समृद्धि आएगी. अव्वल तो हमारा सुंदर जीवन ही दूसरों के लिए उदाहरण होगा और उस पर हमारा बिना शर्त प्रेम स्वतः ही उन्हें हमारी बात सुनने और मानने को प्रेरित करेगा.

यहाँ मुझे प्रसिद्द शायर और गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी कि दो पंक्तियाँ याद आ रही है; 
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर,
लोग साथ आते गए  और  कारवां बनता गया.

(रविवार, २२ जुलाई को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल....
mail: rahuldhariwal.vh@gmail.com
  

Friday, 20 July 2012

सराहना, प्रार्थना और आशीर्वाद




यह ठीक ही तो है कि हम सब चाहते है कि हम जीवन में जो कुछ भी करें उसमें हमें सफलता मिले और फिर जीवन के सारे उद्यम सुख, शांति और समृद्धि के लिए ही तो होते है. दूसरी तरफ यह भी सही है कि हम में से अधिकांश लोग अपने-अपने जीवन से संतुष्ट नहीं है. इनके पास हमेशा एक सूची तैयार रहती है जिन्हें हासिल किए बिना इन्हें अपना जीवन अधूरा लगता है.

कहाँ तो हम अपने जीवन पर भौतिक सुख-सुविधाओं का श्रृंगार करने निकले थे और कहाँ हम अपने जीवन को ही अधूरा मानने लगे. हमें क्यों मनचाही सफलता नहीं मिलती? जीवन में इतना सब कुछ हासिल कर लेने के बाद भी मन में संतुष्टि का भाव क्यों नहीं है? 

सच तो यह है कि हम जीवन के इतने अभ्यस्त हो जाते है कि प्रकृति और परमात्मा की नेमतों को भूलने लगते है. हमें इनकी आदत-सी हो जाती है. आप ही बताइए हमारा होना ही क्या किसी चमत्कार से कम है?, लेकिन हमारा सारा ध्यान जीवन में जो कुछ भी करना और पाना चाहते है, पर ही लगा रहता है. धीरे-धीरे हमारी सोच इतनी केन्द्रित हो जाती है कि कल तक जो हमारे लिए प्रेरणा थी वे ही बातें अभावों का अहसास कराने लगती है. हम सोचने लगते लगते है कि जीवन में वो सब कुह नहीं मिला जो मुझे मिलना चाहिए था. हम दरिद्र सोच के साथ जीने लगते है और सफलता-समृद्धि हमसे और दूर होती चली जाती है. किसी ने ठीक ही कहा है, ' जैसी दृष्टी, वैसी सृष्टि.'

प्रकृति का एक सीधा-सरल लेकिन आधारभूत नियम है. ' आप विश्वास के साथ जैसा सोचते है वैसा ही होता है; आप चाहे चाहें, चाहे न चाहें.'  दरिद्र सोच के साथ समृद्धि कैसे आएगी? ये वैसी ही बात है कि हम जाना तो चाहें पूर्व में और रास्ता पूछें पश्चिम का.

सराहना का भाव ही है जो हमारी सोच कि दरिद्रता को मिटाएगा. क्षण भर के लिए रुकिए और अपने चारों ओर नज़र घूमाइए. आपके लिए प्रकृति और परमात्मा की नेमतों को गिन पाना भी मुश्किल हो जायेगा. यह अहसास भर आपको कृतज्ञता के भाव से भर देगा और आपकी सोच समृद्धि के विचारों से उन्नत हो उठेगी. समृद्धि के विचार ही आपके जीवन में समृद्धि लाएगें. सराहिये उन व्यक्तियों को भी जिनके कारण आपका जीवन इतना सुंदर बन पड़ा. सराहना का मतलब ही है धन्यवाद की भावना के साथ व्यक्ति को उसकी अच्छाईयों के बारे में बताना. उसे उसी के ईश्वरीय गुणों से अवगत करना.

आशीर्वाद और प्रार्थना भी सराहना के ही रूप है. आशीर्वाद यानि किसी व्यक्ति की कुछ कर गुजरने की क्षमता को स्वीकार करते हए उसे इसके लिए प्रेरित करना, भरोसा दिलाना. प्रार्थना यानि प्रकृति और परमात्मा के गुणों का बखान कर अपने आपको याद दिलाना कि में भी उन गुणों का ही अंश हूँ अतः असंभव मेरे लिए भी कुछ नहीं. ये तीनों ही हमें हर क्षण याद दिलाते है कि समृद्धि हमारा अधिकार है.

वास्तव में सराहना, प्रार्थना और आशीर्वाद अलग-अलग तरीकों से हमें उस शक्ति से जोड़ते है जिससे यह सृष्टि चलायमान है और फिर हमारे लिए कुछ भी असंभव नहीं रह जाता. 

आपको जीवन में जो कुछ प्रकृति और परमात्मा से मिला है उसे सराहिए, अपने कर्म और व्यवहार से आशीर्वाद कि पूँजी बढाइए औए अपना दृष्टिकोण प्रार्थनामय रखिए; संतुष्टि और समृद्धि दोनों आपके बगल में होगी. 

( रविवार, १५ जुलाई को ' प्रार्थनामय रखिए दृष्टिकोण ' शीर्षक के साथ नवज्योति में प्रकाशित )  
आपका.
राहुल..... 

Friday, 13 July 2012

रिश्तों का ताना- बाना





अस्तित्व की अवधारणा ही सापेक्ष है. आप तब ही है जब कोई ओर भी है. साथ रहना इंसान की जरुरत है इसलिए जीवन में रिश्तों की अनिवार्यता को ठुकराया नहीं जा सकता.
रिश्तों की सबसे अहम् जरुरत है आपसी-सम्मान. हम सब मूल रूप से एक होते हुए भी अनुभूति और अभिव्यक्ति के स्तर पर भिन्न-भिन्न है. हमारी सोच, स्वभाव, तरीकों का एक-दूसरे से अलग होना नितांत स्वाभाविक है और इसलिए किसी व्यक्ति को उसकी विशिष्टताओं के साथ स्वीकार करना ही उसका सच्चा सम्मान है. जिस तरह पौधे को पनपने के लिए क्यारी जरुरी है वैसे ही जीवन की सुन्दरता के लिए एक-दूसरे को जगह देना.

होता यह है की हम अपनी विशिष्टताओं को किसी और के कहने पर अपनी कमियाँ मानने लगते है और इसी कारण अपने जीवन में विपरीत स्वभाव के व्यक्तियों को आकर्षित करते है और होते है. एक कम बोलने वाला व्यक्ति अपने जीवन में ऐसे व्यक्तियों की ओर आकर्षित होता है जो अपनी भावनाओं का इजहार बहुत सुंदर और सलीके से कर पाते हों. सच तो यह है कि हमारे रिश्ते हमारे मन का दर्पण होते है. हम दूसरों में वही देखते है जो हम में होता है इसलिए रिश्तों कि उलझने हमारे जीवन का पाठ्यक्रम होती है. यदि आपको अपनी कमियाँ जाननी है तो इन उलझनों पर एक नज़र डाल लें. यही वो सब कुछ है जो हमें इस जीवन में सीखना है. एक छोटी सी बात पर गौर करें, क्या आप ऐसे व्यक्ति से मिले है जिसके लोगों से रिश्ते बहुत अच्छे हों लेकिन वह जिंदादिल और खुशमिजाज न हो?

विसंगति यह है कि जैसे ही हम रिश्ते बनाते है एक-दूसरे को अपने जैसा बनाने कि कोशिश में जुट जाते है. एक बार फिर हमारा अहम् हमें बेवकूफ बना देता है क्योंकि किसी को गलत सिद्ध कर स्वयं को सही सिद्ध करना अहम् कि पसंद है हमारी नहीं. हम एक-दूसरे कि खूबियों का आनंद लेने कि बजाय एक-दूसरे के सुधारक बन जाते है और यहीं से रिश्तों में संघर्ष शुरू हो जाता है.

असम्पूर्णता सम्पूर्णता का हिस्सा भी है, विशेषता भी और सुन्दरता का कारण भी. चाँद के दाग, पृथ्वी का पूरा गोल न होना और हर इंसान की अलग शक्ल-सूरत प्रकृति कि सुन्दरता के कारण ही है. रिश्तों में भी यही नजरिया अपनाना होगा. यह समझना होगा कि व्यक्ति की सोच, स्वभाव व तरीका तो अलग होगा ही और इसी में साथ होने का आनंद है. जापान में इसे 'वाबी-साबी' कहते है. उनकी सभ्यता-संस्कृति में व्यक्ति कि निजता के सम्मान का इतना महत्व है कि वे इसे कला मानते है जिसका अभ्यास प्रत्येक व्यक्ति के लिए जरुरी है.

रिश्तों की कोई भी चर्चा जीवन-साथी की चर्चा के बिना अधूरी है. 'जीवन-साथी कैसा हो' या 'मैं अच्छा साथी कैसे बनूँ' का जबाव देने से पहले, मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ. आप किन मित्रो के साथ छुट्टियों बिताना पसंद करते है? निश्चित रूप से उनके साथ ही ना, जिनका छुट्टियों और प्रकृति के आनंद लेने का तरीका आपसे मिलता हो. जीवन भी एक उत्सव है अतः ऐसे व्यक्ति के साथ गुजारिए या इस तरह गुजारिए की आप दोनों मिलकर जीवन का भरपूर आनंद ले सकें. अपनी दुनिया एक-दूसरे की आँखों में नहीं ढूंढे वरन अपनी-अपनी आँखों से इस दुनिया को एक ही नज़र से देखें.

एक  माता-पिता के रूप में हमेशा याद रखना चाहिए कि बच्चे हमारे नहीं हमसे है. हमारी भूमिका सिर्फ बगीचे के उस माली की तरह है जिसका काम समय पर खाद-पानी देना, अनचाही खरपतवार हटाना और हर वो जरुरी प्रयास करना है जो पौधे के लिए अपनी तरह से भरपूर खिल पाने में सहायक हो. बच्चों की विशिष्टताओं को स्वीकारना और उनका सम्मान ही उन्हें सही अर्थों में प्यार करना है न की 'उनके भले' के नाम पर अपनी इच्छाओं को लादना.

एक पंक्ति में कहें तो, रिश्ता चाहे कोई भी हो 'आपसी-सम्मान' ही वो रसायन है जो इसे सरल, सहज और आनंदमय बनता है.


( रविवार, ८ जुलाई को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल.... 

Friday, 6 July 2012

प्रेम - एक राम बाण औषधि



जब भी हम बच्चों कि मौजूदगी में ऐसा कुछ करने लगते है जिसमे वे शामिल न हो तो, या तो वे रोने लगते है या अपनी कुछ कहने लगते है या कुछ शरारत करने लगते है. हम सोचते है कि हमारे बच्चों में इतनी भी समझ नहीं है, उनमें ' एटिकेट्स ' नहीं है. नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है. वे तो यह सब कुछ जान-बूझकर कर रहे होते है. उन्हें यह कतई गवारा नहीं होता कि एक क्षण के लिए भी कोई उनकी उपेक्षा करें.

व्यक्ति चाहे किसी भी उम्र का क्यों न हो स्वीकार्य होना उसकी तीव्रतम अभिलाषा और आधारभूत जरुरत है. स्वीकार्य होने का मतलब है प्रेम कि चाहना. व्यक्ति के सारे कर्म और अकर्म यानि वह जो कुछ भी करता है या नहीं करता है वे इसी तथ्य पर टिके होते है. विशुद्ध प्रेम हमारी प्रकृति है और इसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति हमारा जीवन उद्देश्य. यही वह ऊर्जा है जो इंसान को जीवित रखती है और इसीलिए हमें हर क्षण अपने और अपनों के प्रेम कि जरुरत होती है.

बच्चे सम्पूर्णता के साथ जीते है इसलिए जैसे ही वे उपेक्षित महसूस करते है किसी भी तरह हमारा ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश करते है. ऐसे समय जब वे हमसे प्यार की उम्मीद लगाये होते है, हम उन्हें समझा देते है कि उनका व्यवहार ठीक नहीं है. उन्हें 'अच्छा बच्चा' बनना है तो आइन्दा ऐसे पेश न आयें. धीरे-धीरे बच्चों के अवचेतन में यह बात घर करने लगती है कि वे वैसे नहीं है जैसा उन्हें होना चाहिए. इस तरह व्यक्ति अपनी सम्पूर्णता भूलने लगता है ओर फिर जब कभी उसकी अवहेलना होती है तो वह मान लेता है कि उसी में कोई कमी है.

जीवन की सारी समस्याओं कि जड़ यही है. आपने देखा होगा कुछ लोग हमेशा ही किसी छोटी-मोटी बीमारी से परेशान रहते है तो कुछ लोग कितना भी कमा लें जीवन भर धन की कमी महसूस करते है. कुछ लोग सोचते है कि उनकी मेहनत का उन्हें उचित पुरस्कार नहीं मिलता तो कुछ लोग रिश्तों में मिठास नहीं घोल पाते. जीवन कि ये सारी समस्याएँ सिर्फ परिणाम है कारण सिर्फ एक है अपने आपको कमतर समझना.

आप कभी किसी बच्चे को शीशा दिखाकर देखिये. वह अपना चेहरा देखकर विस्मय से आनंदित हो उठेगा, खिलखिलाने लगेगा लेकिन हम में से कितने लोग है जो अपना चेहरा शीशे में देखकर मुस्करा भी पाते है. इस छोटे-से अभ्यास से हमें स्वयं ही अहसास हो जाएगा कि हम अपने आपको कितना स्वीकार करते है, कितना प्रेम करते है.

सच तो यह है कि हमारी कमियाँ दूसरों कि राय भर है जिन्हें बिना जांचे-परखे स्वीकार कर बैठे है. हम क्यूँ भूल जाते है कि हम ईश्वर की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है. एक बगीचे की सुन्दरता पेड़-पौधों के एक दूसरे से भिन्न होने में ही है. कल्पना कीजिए सारे पेड़-पौधे रंग-रूप, आकार-प्रकार, में एक से हो जाएँ तो वो बगीचा कैसा लगेगा? हम सब अद्वितीय है. हमें बच्चों की तरह सम्पूर्णता की भावना के साथ जीने की कोशिश करनी होगी. अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ जीने में ही जीवन की सार्थकता है ओर सारी समस्याओं का समाधान भी.

सिक्के का दूसरा पहलू है स्वीकार करना. जब स्वीकार्य होना ओर प्रेम की चाह हमारी सबसे अहम् जरुरत है तो हम दूसरों को स्वीकार करने से क्यूँ कतराते है? शायद हम सब उपेक्षा की आशंका से इतने भयभीत रहते है की कभी पहल नहीं कर पाते. हम चाहते है की पहले कोई हमें अपनाए फिर हम दूसरा कदम बढाए. कुछ लोग तो इस इंतज़ार में पूरी-पूरी जिन्दगी गुजार देते है हमें एक छोटी-सी बात समझनी होगी की बीज बोकर ही वृक्ष को पाया जा सकता है ओर यह विश्वास तो मन में बनाना ही होगा. हमें स्वीकार होने के लिए स्वीकार करना पड़ेगा ओर प्रेम पाने के लिए प्रेम करना होगा.

विशुद्ध  प्रेम मनुष्य की प्रकृति है इसलिए प्रेम करना मनुष्य के लिए सबसे आसान ओर सहज है. यही वह राम बाण औषधि है जिससे जीवन के किसी भी असंतुलन को ठीक किया जा सकता है.

( रविवार, १ जुलाई को नवज्योति में प्रकाशित )

आपका
राहुल.....