Friday 27 July 2012

जिएँ उदाहरण बनकर




" थोड़ी बातें कम हों क्योंकि कोरे उपदेश इतने प्रभावी नहीं होते. फिर क्या करें ? झाड़ू उठाइए और किसी का घर साफ़ कर दीजिए, यही सब कह देगा."
                                                                                                                      -- मदर टेरेसा  

इस दुनिया में जिस किसी की भी बात सुनी गई और मानी गई ये वे ही लोग थे जिन्होंने आचरण को अपना सन्देश एवम प्रेम को अपने कहने का माध्यम बनाया. मदर टेरेसा को ही लीजिए उनका नाम ही बच्चों के प्रति बिना शर्त प्रेम का पर्याय है. उन्होंने अपने विश्वास को इस तरह जिया कि आज चाहे वे हमारे बीच नहीं है पर उनका सन्देश आज भी जीवित है. उनका जीवन ही बच्चों के प्रति प्रेम का उदाहरण है. ये ही बात वो बिना जिएँ शब्दों के सहारे कहती तो इतनी प्रभावी होती, अंदाज़ा आप स्वयं लगा सकते है. शब्द एक सीमा के बाद अप्रभावी होने लगते है और फिर वे एक-दूसरे के बीच दूरियाँ ही बढ़ाते है.

घर हो या बाहर हम सब चाहते है कि हमारे कहे का सम्मान हो, हमारी बात मानी जाए. जिनकी हम खुशियाँ चाहते है, जिनके भले के लिए कह रहे होते है वे ही जब हमारी बात पर कान नहीं धरते तो कितनी खिन्नता होती है. ऐसा क्यूँ होता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम कह कुछ रहे होते है और आचरण कुछ और होता है? कहीं हम अपनी बात मनवाने के लिए तर्क-वितर्क और दबाव का सहारा तो नहीं ले रहे होते?

दैनिक जीवन का एक छोटा-सा उदाहरण ले लीजिए. एक तरफ तो हम अपने बच्चों को सच बोलने का उपदेश देते है और दूसरी तरफ उन्ही के सामने मोबाईल पर बात करते हुए ढेरों झूठ बोलते है. यदि हमारा आचरण ऐसा है तो हम लाख कोशिश कर लें हमारे उपदेशों का कोई असर नहीं होने वाला.

यहाँ जहन में एक प्रश्न उठता है कि हमारा आचरण कैसा हो? एक शब्द में कहें तो नीति-संगत. एक तरफ तो हमारे आचरण की नींव जीवन के शाशवत मूल्यों पर आधारित हों तो दूसरी तरफ हमारे निर्णय प्रेक्षण-विश्लेषण के बाद  देश, काल, समय और परिस्थितियों के सापेक्ष हो जिसमें सभी का भला निहित हो.ऐसा जीवन निश्चित ही सुन्दर होगा. जीवन उन अहसासों से लवरेज होगा जिन्हें सामान्यतया हम असंभव कहकर टाल देते है.

हमारे ये अहसास हमें प्रेरित करते है कि यदि हमारे अपने किसी और तरह जीवन जी रहे है तो हम उन्हें किसी तरह रोकें. इस तरह हम उपदेशों, तर्कों, और दबावों का सहारा लेने लगते है. आपने स्वयं अनुभव किया होगा कि ये सब हमेशा ही अप्रभावी रहते है.

हाँ, यदि अपने किसी अनुभव से आनंदित है तो जरुर उसे अपनों के साथ बाँटिए. आवश्यक लगे तो सलाह भी दीजिए और भरोसा भी दिलाइए लेकिन यह सब बिना किसी शर्त के. यदि आप किसी कि उन्नति और भला चाहते है तो आपका प्रेम ही काफी है. प्रेम यानि किसी को उसकी कमियों के साथ स्वीकार करना. प्रेम यानि एक-दूसरे की बात मानने या न मानने कि स्वतंत्रता देना. 

शाशवत मूल्य और नीति-संगत आचरण से निश्चित ही हमारे जीवन में सुख, शांति, संतुष्टि और समृद्धि आएगी. अव्वल तो हमारा सुंदर जीवन ही दूसरों के लिए उदाहरण होगा और उस पर हमारा बिना शर्त प्रेम स्वतः ही उन्हें हमारी बात सुनने और मानने को प्रेरित करेगा.

यहाँ मुझे प्रसिद्द शायर और गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी कि दो पंक्तियाँ याद आ रही है; 
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर,
लोग साथ आते गए  और  कारवां बनता गया.

(रविवार, २२ जुलाई को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल....
mail: rahuldhariwal.vh@gmail.com
  

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