Friday 6 July 2012

प्रेम - एक राम बाण औषधि



जब भी हम बच्चों कि मौजूदगी में ऐसा कुछ करने लगते है जिसमे वे शामिल न हो तो, या तो वे रोने लगते है या अपनी कुछ कहने लगते है या कुछ शरारत करने लगते है. हम सोचते है कि हमारे बच्चों में इतनी भी समझ नहीं है, उनमें ' एटिकेट्स ' नहीं है. नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है. वे तो यह सब कुछ जान-बूझकर कर रहे होते है. उन्हें यह कतई गवारा नहीं होता कि एक क्षण के लिए भी कोई उनकी उपेक्षा करें.

व्यक्ति चाहे किसी भी उम्र का क्यों न हो स्वीकार्य होना उसकी तीव्रतम अभिलाषा और आधारभूत जरुरत है. स्वीकार्य होने का मतलब है प्रेम कि चाहना. व्यक्ति के सारे कर्म और अकर्म यानि वह जो कुछ भी करता है या नहीं करता है वे इसी तथ्य पर टिके होते है. विशुद्ध प्रेम हमारी प्रकृति है और इसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति हमारा जीवन उद्देश्य. यही वह ऊर्जा है जो इंसान को जीवित रखती है और इसीलिए हमें हर क्षण अपने और अपनों के प्रेम कि जरुरत होती है.

बच्चे सम्पूर्णता के साथ जीते है इसलिए जैसे ही वे उपेक्षित महसूस करते है किसी भी तरह हमारा ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश करते है. ऐसे समय जब वे हमसे प्यार की उम्मीद लगाये होते है, हम उन्हें समझा देते है कि उनका व्यवहार ठीक नहीं है. उन्हें 'अच्छा बच्चा' बनना है तो आइन्दा ऐसे पेश न आयें. धीरे-धीरे बच्चों के अवचेतन में यह बात घर करने लगती है कि वे वैसे नहीं है जैसा उन्हें होना चाहिए. इस तरह व्यक्ति अपनी सम्पूर्णता भूलने लगता है ओर फिर जब कभी उसकी अवहेलना होती है तो वह मान लेता है कि उसी में कोई कमी है.

जीवन की सारी समस्याओं कि जड़ यही है. आपने देखा होगा कुछ लोग हमेशा ही किसी छोटी-मोटी बीमारी से परेशान रहते है तो कुछ लोग कितना भी कमा लें जीवन भर धन की कमी महसूस करते है. कुछ लोग सोचते है कि उनकी मेहनत का उन्हें उचित पुरस्कार नहीं मिलता तो कुछ लोग रिश्तों में मिठास नहीं घोल पाते. जीवन कि ये सारी समस्याएँ सिर्फ परिणाम है कारण सिर्फ एक है अपने आपको कमतर समझना.

आप कभी किसी बच्चे को शीशा दिखाकर देखिये. वह अपना चेहरा देखकर विस्मय से आनंदित हो उठेगा, खिलखिलाने लगेगा लेकिन हम में से कितने लोग है जो अपना चेहरा शीशे में देखकर मुस्करा भी पाते है. इस छोटे-से अभ्यास से हमें स्वयं ही अहसास हो जाएगा कि हम अपने आपको कितना स्वीकार करते है, कितना प्रेम करते है.

सच तो यह है कि हमारी कमियाँ दूसरों कि राय भर है जिन्हें बिना जांचे-परखे स्वीकार कर बैठे है. हम क्यूँ भूल जाते है कि हम ईश्वर की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है. एक बगीचे की सुन्दरता पेड़-पौधों के एक दूसरे से भिन्न होने में ही है. कल्पना कीजिए सारे पेड़-पौधे रंग-रूप, आकार-प्रकार, में एक से हो जाएँ तो वो बगीचा कैसा लगेगा? हम सब अद्वितीय है. हमें बच्चों की तरह सम्पूर्णता की भावना के साथ जीने की कोशिश करनी होगी. अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ जीने में ही जीवन की सार्थकता है ओर सारी समस्याओं का समाधान भी.

सिक्के का दूसरा पहलू है स्वीकार करना. जब स्वीकार्य होना ओर प्रेम की चाह हमारी सबसे अहम् जरुरत है तो हम दूसरों को स्वीकार करने से क्यूँ कतराते है? शायद हम सब उपेक्षा की आशंका से इतने भयभीत रहते है की कभी पहल नहीं कर पाते. हम चाहते है की पहले कोई हमें अपनाए फिर हम दूसरा कदम बढाए. कुछ लोग तो इस इंतज़ार में पूरी-पूरी जिन्दगी गुजार देते है हमें एक छोटी-सी बात समझनी होगी की बीज बोकर ही वृक्ष को पाया जा सकता है ओर यह विश्वास तो मन में बनाना ही होगा. हमें स्वीकार होने के लिए स्वीकार करना पड़ेगा ओर प्रेम पाने के लिए प्रेम करना होगा.

विशुद्ध  प्रेम मनुष्य की प्रकृति है इसलिए प्रेम करना मनुष्य के लिए सबसे आसान ओर सहज है. यही वह राम बाण औषधि है जिससे जीवन के किसी भी असंतुलन को ठीक किया जा सकता है.

( रविवार, १ जुलाई को नवज्योति में प्रकाशित )

आपका
राहुल.....

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