Friday 13 July 2012

रिश्तों का ताना- बाना





अस्तित्व की अवधारणा ही सापेक्ष है. आप तब ही है जब कोई ओर भी है. साथ रहना इंसान की जरुरत है इसलिए जीवन में रिश्तों की अनिवार्यता को ठुकराया नहीं जा सकता.
रिश्तों की सबसे अहम् जरुरत है आपसी-सम्मान. हम सब मूल रूप से एक होते हुए भी अनुभूति और अभिव्यक्ति के स्तर पर भिन्न-भिन्न है. हमारी सोच, स्वभाव, तरीकों का एक-दूसरे से अलग होना नितांत स्वाभाविक है और इसलिए किसी व्यक्ति को उसकी विशिष्टताओं के साथ स्वीकार करना ही उसका सच्चा सम्मान है. जिस तरह पौधे को पनपने के लिए क्यारी जरुरी है वैसे ही जीवन की सुन्दरता के लिए एक-दूसरे को जगह देना.

होता यह है की हम अपनी विशिष्टताओं को किसी और के कहने पर अपनी कमियाँ मानने लगते है और इसी कारण अपने जीवन में विपरीत स्वभाव के व्यक्तियों को आकर्षित करते है और होते है. एक कम बोलने वाला व्यक्ति अपने जीवन में ऐसे व्यक्तियों की ओर आकर्षित होता है जो अपनी भावनाओं का इजहार बहुत सुंदर और सलीके से कर पाते हों. सच तो यह है कि हमारे रिश्ते हमारे मन का दर्पण होते है. हम दूसरों में वही देखते है जो हम में होता है इसलिए रिश्तों कि उलझने हमारे जीवन का पाठ्यक्रम होती है. यदि आपको अपनी कमियाँ जाननी है तो इन उलझनों पर एक नज़र डाल लें. यही वो सब कुछ है जो हमें इस जीवन में सीखना है. एक छोटी सी बात पर गौर करें, क्या आप ऐसे व्यक्ति से मिले है जिसके लोगों से रिश्ते बहुत अच्छे हों लेकिन वह जिंदादिल और खुशमिजाज न हो?

विसंगति यह है कि जैसे ही हम रिश्ते बनाते है एक-दूसरे को अपने जैसा बनाने कि कोशिश में जुट जाते है. एक बार फिर हमारा अहम् हमें बेवकूफ बना देता है क्योंकि किसी को गलत सिद्ध कर स्वयं को सही सिद्ध करना अहम् कि पसंद है हमारी नहीं. हम एक-दूसरे कि खूबियों का आनंद लेने कि बजाय एक-दूसरे के सुधारक बन जाते है और यहीं से रिश्तों में संघर्ष शुरू हो जाता है.

असम्पूर्णता सम्पूर्णता का हिस्सा भी है, विशेषता भी और सुन्दरता का कारण भी. चाँद के दाग, पृथ्वी का पूरा गोल न होना और हर इंसान की अलग शक्ल-सूरत प्रकृति कि सुन्दरता के कारण ही है. रिश्तों में भी यही नजरिया अपनाना होगा. यह समझना होगा कि व्यक्ति की सोच, स्वभाव व तरीका तो अलग होगा ही और इसी में साथ होने का आनंद है. जापान में इसे 'वाबी-साबी' कहते है. उनकी सभ्यता-संस्कृति में व्यक्ति कि निजता के सम्मान का इतना महत्व है कि वे इसे कला मानते है जिसका अभ्यास प्रत्येक व्यक्ति के लिए जरुरी है.

रिश्तों की कोई भी चर्चा जीवन-साथी की चर्चा के बिना अधूरी है. 'जीवन-साथी कैसा हो' या 'मैं अच्छा साथी कैसे बनूँ' का जबाव देने से पहले, मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ. आप किन मित्रो के साथ छुट्टियों बिताना पसंद करते है? निश्चित रूप से उनके साथ ही ना, जिनका छुट्टियों और प्रकृति के आनंद लेने का तरीका आपसे मिलता हो. जीवन भी एक उत्सव है अतः ऐसे व्यक्ति के साथ गुजारिए या इस तरह गुजारिए की आप दोनों मिलकर जीवन का भरपूर आनंद ले सकें. अपनी दुनिया एक-दूसरे की आँखों में नहीं ढूंढे वरन अपनी-अपनी आँखों से इस दुनिया को एक ही नज़र से देखें.

एक  माता-पिता के रूप में हमेशा याद रखना चाहिए कि बच्चे हमारे नहीं हमसे है. हमारी भूमिका सिर्फ बगीचे के उस माली की तरह है जिसका काम समय पर खाद-पानी देना, अनचाही खरपतवार हटाना और हर वो जरुरी प्रयास करना है जो पौधे के लिए अपनी तरह से भरपूर खिल पाने में सहायक हो. बच्चों की विशिष्टताओं को स्वीकारना और उनका सम्मान ही उन्हें सही अर्थों में प्यार करना है न की 'उनके भले' के नाम पर अपनी इच्छाओं को लादना.

एक पंक्ति में कहें तो, रिश्ता चाहे कोई भी हो 'आपसी-सम्मान' ही वो रसायन है जो इसे सरल, सहज और आनंदमय बनता है.


( रविवार, ८ जुलाई को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल.... 

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