Friday, 14 March 2014

स्टार्ट फ्रॉम दी एण्ड




बहुत दिनों पहले देखे एक पौराणिक टी.वी. सीरीयल का एक दृश्य - राजकुमार राम अपने गुरुकुल में तीरंदाजी का अभ्यास कर रहें हैं। हर बार निशाना थोडा-सा चूक जाता है। कैलाश पर्वत पर बैठे शिव इस लीला को निहार रहे हैं। वे सोचने लगते है कि चाहे ईश्वर ही क्यूँ न हो, मानव रूप में पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसे भी तप से गुजरना ही पड़ता है। तब वे एक आदिवासी भील का रूप धर वहाँ उपस्थित होते है और विधार्थी राम से कहते है, 'सबसे पहले यह देखो कि बाण लक्ष्य पर लग चूका है, फिर उसे सम्भव होने दो। कर्ता मत बनो, कर्म करो।'

इस अकेले वाक्य के कारण यह दृश्य न जाने कितने दिनों से मेरे जेहन में घर बनाये बैठा था। वाक्य क्या था, सफलता का सूत्र था। कितनी सरलता और सहजता से निर्देशक ने मैंनेजमेंट का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त जिंदगी से जोड़ कर समझा दिया, जिसे वहाँ 'स्टार्ट फ्रॉम दी एण्ड' कहा जाता है। ऐसा सिद्धान्त जिस पर न जाने कितनी किताबें लिखी जा चूकी, न जाने कितने व्याख्यान दिए जा चूके। आइए, इस सूत्र को दो हिस्सों में समझते है। पहला हिस्सा, 'सबसे पहले यह देखो कि बाण लक्ष्य पर लग चूका है ...................।'यह बात ठीक वैसे ही है जैसे आप घर में बैठे है और आपको प्यास लगी है। मटकी में पानी भी है। बस आपको मटकी तक जाना है। मटकी जहाँ पड़ी है उस दिशा में कदम जरुर बढ़ाने है लेकिन इस बात में आपको कोई सन्देह नहीं कि पानी मिलेगा या नहीं। यही आशय हुआ बाण छोड़ने से पहले उसे लक्ष्य पर लगा हुआ देख लेने का, कि हम अपने जीवन में जो कुछ पाना या होना चाहते है उसके लिए जरुरी है सबसे पहले यह मान लें कि वो आपको मिल चूका है, बस हमें एक प्रक्रिया भर से गुजरना है।

सूत्र का दूसरा हिस्सा पहले हिस्से को सहयोग करता है पर है उससे कहीं नाजुक, ' ...........................  फिर उसे सम्भव होने दो। कर्ता मत बनो, कर्म करो।' हम अपनी जिंदगी से जो पाना चाहते है उसे हम ही नहीं होने देते। बुरा मानने की नहीं बल्कि सोचने की बात है कि अधिकतर समय हमारी राह का रोड़ा हम ही होते है। यदि हम चाहते है कि कोई हमारे घर आए तो सबसे पहले अपने घर के दरवाजे खुले रखने होंगे। आप अपनी जिंदगी से जो कुछ भी चाहते है उसे ग्रहण करने के लिए हर क्षण तैयार रहना होगा। तैयारी अपने आपको उस सबके लायक समझने की और अपने विश्वास को दृढ करने की वो सब कुछ मुझे मिलेगा ही। एक बार एक व्यक्ति किसी तरह एक निर्जन टापू पर फंस गया। जब भी उधर से कोई विमान गुजरता वो अपने हाथ हिला-हिलाकर मदद के लिए सन्देश देने की कोशिश करता। आखिर सेना के एक छोटे विमान ने उसे देख लिया। वह नीचे उतरने लगा लेकिन वह व्यक्ति इतना व्यग्र था कि और तेजी से हाथ हिला-हिलाकर तट पर दौड़ने लगा। वह इतनी तेजी से इधर-उधर दौड़ रहा था कि चालक समझ नहीं पा रहा था कि वो विमान को कहाँ उतारे। उपर विमान चक्कर लगा रहा था और नीचे वो व्यक्ति। कुछ समय बाद विमान का ईंधन ख़त्म होने लगा और नहीं चाहते हुए भी चालक को उसे वहीँ छोड़ वापस जाना पड़ा। कहीं हम भी अपने जीवन में ऐसा कुछ तो नहीं कर रहे हैं? मदद चाहिए तो विमान को उतरने देना पड़ेगा। 

यदि हम बाण छोड़ने से पहले उसे लक्ष्य भेदता देख पाएं और उसे सम्भव भी होने दिया तो हम स्वतः ही कर्ता भाव से मुक्त हो, कर्म मार्ग की ओर उद्दृत होंगे। जब हमें यह अहसास होगा कि हम जो चाहते है उसका हो पाना तय है तो यह भाव भला कैसे रह पाएगा कि 'ये सब कुछ मैंने किया है'। सब कुछ हासिल करते हुए हासिल करने के अहंकार से मुक्त हमारा जीवन ठीक उस पथिक कि यात्रा जैसा होगा जिसके सर कोई गठरी नहीं या जैसे एक सुंदर उधान में कोई भ्रमर गीत गा रहा हो।


राहुल हेमराज 
(सैकिंड सन्डे _ रविवार, 9 मार्च को नवज्योति में प्रकाशित)

Saturday, 15 February 2014

तू छुपी है कहाँ


- राहुल हेमराज 



आज हम एक-दूसरे से मिलते वक़्त ऐसे मुस्कराते हैं जैसे होटल की किसी रिसेप्शनिस्ट से बात के रहे हों। मिले, मुस्कराहट आयी; मुलाकात ख़त्म, मुस्कराहट बन्द। एक रस्म अदायगी या अपने मन के संताप और बेचैनी को छुपाने का एक जुगाड़। हमें मुस्कराहट से नवाज़ने के पीछे प्रकृति की तो मंशा थी कि हमारे चेहरे कि मुस्कराहट हमारे दिल का हाल बताए। हमारा चेहरा फ्यूल-मीटर कि तरह काम करे। अंतर में आत्मिक संतोष  का ईंधन, चेहरे पर मुस्कराहट के रूप में दिखे। जब कभी हम अपने चेहरे पर से इस मुस्कराहट को नदारद पाएँ, जिंदगी को देखने के अपने नजरिए को टटोलें और उसे पुनः आत्मिक संतोष के ईंधन से भर लें। 

व्यक्ति के अंतर से निकली मुस्कराहट तो एक ब्लोटिंग पेपर की तरह होती है, चाहे ये सामने वाले के संतापों को न हर पाए किन्तु उनकी ऊष्मा अवश्य कम कर देती है। आपने हर शाम घर लौटते समय इसे जरुर अनुभव किया होगा कि किस तरह बच्चों की एक मुस्कराहट देखकर आपकी दिन भर की थकान न जाने कहाँ काफूर हो जाती है। वही बच्चे जब आप और मैं हो जाते है तो वो मुस्कराहट कहाँ खो देते हैं? क्या प्रकृति ने आदमी को बुद्धि इसलिए दी थी कि वो अपनी मुस्कराहट का भी जुगाड़ ईजाद कर ले?, लेकिन प्रश्न यह भी है कि आखिर व्यक्ति को ऐसा क्यों करना पड़ा ?

इन सवालों से टकराने पर अहसास हुआ कि शायद व्यक्ति ने कहीं न कहीं तनाव और सफल जीवन को मिलाकर देखना शुरू कर दिया। उसने मान लिया की जिन्दगी की गाड़ी को ढंग से चलानी है तो, तनाव तो आएंगे ही। इसी समस्या का जुगाड़ है यह 'रिसेप्शनिस्ट मुस्कान'। तनाव की इस स्वीकारोक्ति के चलते अब उसके मन में खुश रहने, मुस्कराने की बेचैनी भी नहीं उठती और आप तो जानते ही हैं, बिना बेचैनी सुन्दरता का सृजन सम्भव नहीं। आज व्यक्ति है कि बस जिए चला जाता है तनाव की इन लकीरों को बनावटी मुस्कराहट से लुकाते-छिपाते।पर एक बात आपको याद दिला दूँ, तनाव हमारा नैसर्गिक स्वभाव नहीं है, होता तो बच्चे इतना नहीं मुस्कराते। उनका तो हाल यह है कि वे सोते-सोते भी न जाने कितनी बार मुस्कराते है। इस मुस्कराहट को लौटाना है तो बच्चों की तरह अपने आपको घटनाओं, परिस्थितियों और व्यक्तियों से अलग करना होगा। तब ये स्व-स्फूर्त था अब इसे होशपूर्ण हासिल करना होगा। ये हो सकता है, यदि हम अपने जीवन को ऐसे देख पाएँ जैसे पर्दे पर एक फ़िल्म चल रही हो। फ़िल्म, जिसमें हमारा भी एक किरदार है। आप अपने आप को अपनी भूमिका निभाते हुए देख सकें। 

जीवन को हर क्षण इस तरह जी पाना एक आदर्श स्थिति है जिसे आप और मेरे लिए निभा पाना सम्भव नहीं।  हर क्षण इस भाव में बने रहना तो व्यक्ति को कृष्ण बना देता है लेकिन हमारा भी लक्ष्य कौन-सा कृष्ण की वो सदा रहने वाली स्मित मुस्कान है। हमारी कोशिश तो पूरे दिन के 14,400 मिनटों में से दस-पन्द्रह मिनटों के लिए ही सही, जिंदगी को निरपेक्ष भाव से देख पाना है। कह तो रहा हूँ पर जानता हूँ ये भी कोई कम कठिन नहीं। एक दूसरा, थोडा बेतरतीब तरीका है जो मेरे खुद का आजमाया है। पहले चेहरे पर एक मुस्कान लाइए, किसी के लिए नहीं सिर्फ अपने लिए, जब आपके सामने कोई न हो; या हो तो भी ये मुस्कान किसी को कुछ कहने-बताने के लिए नहीं, बस अपने ही किसी भाव की तरह हो। इसे कुछ देर के लिए अपने चेहरे पर रोकिए और अपनी जिन्दगी के बारे में सोचिए। सोचते हुए ध्यान रहे इस मुस्कराहट के बने रहने का। सोचना और मुस्कराना साथ होते ही आपको अपनी जिन्दगी पर्दे पर चल रही एक फ़िल्म की तरह दिखने लगेगी। आप अलग होंगे और आपकी जिन्दगी अलग। ऐसे लगेगा जैसे आपको अपनी निजता वापस मिल गई हो। दौड़ती-भागती दुनिया के बीच आपको अपने वजूद का, अपने होने का अहसास होने लगेगा और तब आपका अंतर फिर आत्मिक संतोष से भर उठेगा और मन की सतह पर तैरता यह संतुष्टि का भाव चेहरे पर मुस्कराहट बन खिल उठेगा। 

मैं मानता हूँ कि इस मुस्कराहट के आ जाने से न तो जिन्दगी के दुःख कम होंगे न ही मुश्किलें; पर हाँ, उनसे निपटना, पार पाना कहीं आसान होगा। वे खालिस स्थितियाँ बनी रहेंगी और हमारा अंतर बच्चों-सा अछूता। 
ग़ालिब इसे अपने अंदाज़ में कुछ यूँ बयाँ करते हैं,-
बाजीचाये अतफाल है दुनिया मेरे आगे 
होता है शबओ रोज़ तमाशा  मेरे आगे 

('सेकंड सन्डे' कॉलम में 9 फरवरी के नवज्योति में प्रकाशित) ​
    


Saturday, 18 January 2014

आस्था का निवेश

- राहुल हेमराज 




ये कहानी न जाने कितनी बार कही-सुनी गयी पर मुझे ये आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है। एक बार की बात है, एक गाँव भयंकर अकाल की चपेट में था। गाँव के लोग दाने-दाने को मोहताज होने लगे। आपको तो मालूम ही है, व्यक्ति को जब कुछ नहीं सूझता तब भगवान् याद आता है। उन्होंने भी तय किया कि गाँव के सारे लोग इकट्ठा होकर सामूहिक प्रार्थना-अर्चना करेंगे। अब शायद प्रार्थनाओं का घनीभूत बल ही घनों को बरसने पर मजबूर करे। नियत समय पर सब लोग पहुँचे लेकिन सिर्फ एक छोटा बच्चा था जो छतरी लेकर आया था। उसके मन में पक्का विश्वास था कि बारिश जरुर होगी। मुझे लगता है आज हम सब को, इस समाज को इसी विश्वास, इसी आस्था को लौटने की जरुरत है। हम सब लगे तो हैं बारिश होने की प्रार्थनाओं में लेकिन यकीं हमारा ये कि ऐसा करने से कोई बारिश तो होने से रही।

आपको नहीं लगता, इस नये साल की शुरुआत अपनी आस्थाओं को टटोलने से बेहतर कुछ हो सकती है? इस समाज में ईमानदारी, सच्चाई और समान-अधिकार चाहते है तो इनमें हमारा विश्वास भी हो। खराब कम्पनी के शेयर में इन्वेस्ट करके अच्छे रिटर्न की आशा करना मूर्खता है तो झूठ में विश्वास कर समाज में सच्चाई की इच्छा रखने को आप क्या कहेंगे? अपने काम को बनाने के लिए बेईमानी, झूठ और पक्षपात का सहारा लेकर एक साफ़-सुथरे सुरक्षित समाज की हम कल्पना भी कैसे कर सकते है? बात सिर्फ इतनी-सी है कि कोई रास्ता हम चाहे कितना भी सुख और आराम से क्यों न काट लें, पहुँचेंगे वहीं जहाँ का टिकट लिया होगा। 

यहाँ सर्वथा उचित है इस प्रश्न का उठ खड़ा होना कि हम तो ठीक थे और ठीक ही हैं लेकिन हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं ने हमारी आस्थाओं को दूषित किया। आदमी को जीना तो पड़ेगा, अब यदि व्यवस्था भ्रष्ट है तो आम-आदमी के पास चारा ही क्या बचता है? कोई कहेगा ये व्यवस्था व्यक्तिगत आस्थाओं से ही तो निकली है, पहले व्यक्ति सुधरे। व्यक्ति बदलेगा तो सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएँ स्वतः ठीक होंगी। ये वैसा ही झगड़ा है जैसा मुर्गी पहले हुई या अण्डा। पहले व्यक्ति की आस्था डिगी या व्यवस्था ने व्यक्ति की आस्थाओं को दूषित होने पर मजबूर किया। ग़ौरतलब सिर्फ यह है कि आज हमें अपने जीवन के परिदृश्य को बदलना है तो उन बातों में विश्वास करना और जीना होगा जैसा हम अपने जीवन में चाहते है। 

आदर्शों की बातों के साथ उनका व्यावहारिक पक्ष देखना भी उतना ही जरुरी है। सारी बातों के बावजूद एक व्यक्ति का पहला दायित्व जीवन की सहजता है और तब लगता है व्यवहार में संतुलन यहाँ भी उतना ही जरुरी है। हम अपना काम-अपना आचरण ठीक रखें लेकिन यदि रोजमर्रा की किसी छोटी-मोटी बात में व्यावहारिक होना भी पड़े तो कोई बात नहीं। उनमें उलझकर अपनी ऊर्जा-अपने उद्देश्यों से भटकने से क्या फायदा? यदि एक बड़ी तादाद में लोगों ने सही मूल्यों में अपनी आस्थाओं को निवेश करने की ठान ली, तो ये खरपतवार तो वैसे ही पैरों के नीचे आकर खतम हो जाएगी। क्यों न हम अपनी आस्था के घन को नैतिक मूल्यों के शेयर्स में इन्वेस्ट करें क्योंकि यही वो कम्पनी है जो सुकून-भरी जिंदगी का गारन्टेड रिटर्न देती है। 


(सैकिंड सन्डे 12, जनवरी को नवज्योति में प्रकाशित)

एक नयी शुरुआत



प्रिय मित्रों,

       नमस्ते,

आप मुझे पढ़ते और सराहते रहे है जिसके लिए में आपका तहे-दिल से आभारी हूँ।

आज तक मैं दैनिक नवज्योति में साप्ताहिक स्तम्भ लिखता था, इसके चलते मुझे लगने लगा था कि मेरा पढ़ना बहुत कम हो गया। ये न तो मेरे लिए अच्छा है न ही मेरे लेखन के लिए। इस वर्ष से मैंने सोचा है कि में इसे मासिक कर दूँ। मैं सोचता हूँ की अब शायद समय आ गया है जब दूसरी पायदान पर पैर रक्खा जाए। पहले मेरा स्तम्भ 'अपनी ज्योति आप' शीर्षक से छपता था जो अब 'सैकिंड सन्डे' के शीर्षक से छपा करेगा, यानि 'थर्ड-वीकेण्ड' को वही मैं आपको पोस्ट करूँगा। 
मेरी कोशिश है कि मैं और जगह भी लिख पाऊँ, ऐसा कर पाया तो पोस्ट कर जैसे भी हो सका सूचित करने कि कोशिश करूँगा।

आपकी शुभकामनाएँ ऐसे ही बनी रहे। 


राहुल ......... 

Friday, 10 January 2014

सूत्या के तो पाड़ा ही जणै


 -राहुल हेमराज


आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अणुव्रत अधिवेशन, दिल्ली में 13 नवम्बर 2005 को सम्बोधित करते हुए यही कहावत और उसकी दंतकथा सुनाई थी। दो किसान थे। वे अपनी भैसों को बेचने के लिए पशु मेले में ले जा रहे थे। दोनों ही भैसों का प्रसव काल नजदीक था। रास्ते में रात्रि विश्राम के लिए वे एक जगह रुके। एक किसान तो चिंता में रात भर जागता रहा लेकिन दूसरा कुछ ही देर बाद सो गया।  मध्य रात्रि पश्चात् दोनों ही भैसों को प्रसव हुआ। जो सो रहा था उसकी भैंस ने पाड़ी को जन्म दिया और जो जाग रहा था उसकी भैंस ने पाड़े को। ऐसा मौका भला कोई जागने वाला कैसे चूकता, उसने पाडा-पाड़ी बदल दिए। रात भर बेफिक्री की नींद सोने वाले किसान ने जब अल-सुबह जागने वाले से पूछा कि उसकी भैंस ने किसे जन्म दिया है तो यही जवाब मिला, 'सूत्या के तो पाड़ा ही जणै।'

अणुव्रत हमें जगाता है। हमें जिम्मेदार बनाता है। नहीं तो, हमारी तो जैसे आदत ही पड गई है जीवन की छोटी से छोटी बात के लिए व्यवस्था को दोषी ठहराने की। क्या कभी हमने एक मिनट के लिए भी यह जानने-समझने की कोशिश की है कि इस व्यवस्था में मेरा स्थान क्या है? क्या मेरा व्यवहार अपेक्षित है? क्या मैं अपने दायित्वों का उचित निर्वाह कर रहा हूँ? इन प्रश्नों का मर्म समझते हुए भी हम यह कहकर अपने आपको फ़ारिग कर लेते है कि कोई भी तो वैसा नहीं कर रहा। 

हमारा ये स्वभाव ही इस आन्दोलन की पृष्ठभूमि है। अणुओं जैसी ये छोटी-छोटी प्रतिज्ञाएँ अपने दायित्वों को निभाने की प्रतिबद्धता के अलावा क्या है? सच मानिए, अपने लिए बिना दायित्वों का निर्वाह किए सुन्दर जीवन की इच्छा रखना ठीक वैसा ही है जैसे बिना खाद-पानी दिए सुन्दर और सुगन्धित फूलों की चाह रखना। एक-एक सुन्दर जीवन ही तो एक खुशहाल परिवार,एक स्वस्थ समाज और अन्ततः सुदृढ़ राष्ट्र में तब्दील होता है। अणुव्रत इसी की नींव बनता है। 

सत्य शाश्वत होता है और किसी भी जगह पहुँचने का सही मार्ग भी हमेशा एक ही होता है। शायद यही कारण रहा होगा इस अनूठे संयोग का कि हमारे संविधान में भी एक नागरिक के लिए ग्यारह कर्तव्यों की प्रेरणा है तो अणुव्रत भी ग्यारह आचारों से प्रतिबद्ध होने की बात करता है। किसी भी राष्ट्र का संविधान वहाँ की शासकीय व्यवस्था का आधार होता है। एक सुदृढ़ लोकतन्त्र के लिए नागरिक कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए हमारा संविधान धर्म,भाषा,प्रदेश या वर्ग से परे भ्रातृत्व भावना की बात करता है, प्राणी-मात्र के प्रति दया भाव,वन्य-जीवों एवं नदियों की रक्षा की जरुरत और शिक्षित समाज की हमसे उम्मीद करता है, हमें सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखने और हिंसा से दूर रहने को कहता है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण,मानववाद और व्यक्ति के सुधार की बात करता है; यही बातें तो अणुव्रत भी करता है। अणुव्रत ही धारण करने योग्य है जो धर्म से परे है। शायद ही विश्व में ऐसा कोई दूसरा आन्दोलन हो जिसका प्रणेता एक धार्मिक गुरु हो लेकिन जिससे जुड़ने के लिए आपको अपने गुरु, अपने धर्म को छोड़ने की जरुरत नहीं। यही विशेष बात अणुव्रत आन्दोलन को और किसी भी धार्मिक आन्दोलन से अलग करती है और व्यक्ति को राष्ट्र निर्माण से जोडती है। आप चाहे जिस भी धर्म से हों, चाहे जिसे अपना गुरु मानते हों, आप अणुव्रती हो सकते है। आपको जैन होना तो छोड़िए आचार्य श्री को भी अपना गुरु स्वीकार करने की दरकार नहीं। कर्त्तव्य-पालना और धर्म-निरपेक्षता यही दो बातें तो है जो एक सफल लोकतन्त्र की प्राण-वायु है। इन्हीं दोनों की बात हमारा संविधान नागरिक कर्तव्यों में करता है तो अणुव्रत अपने आचारों में। 

आज जिन बातों के लिए हम व्यवस्था को दोषी ठहराते है उनका जन्म हमारी अपने नागरिक कर्तव्यों की अनदेखी से ही तो हुआ है। हमारे संविधान निर्मातों ने इसे हमारे विवेक पर छोड़ दिया था और हमने इसका भरपूर नाजायज फायदा उठाया। वर्तमान का ये परिदृश्य अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होकर ही बदल सकता है, एक-दूसरे को दोषी ठहराकर हम कब तक अपना और राष्ट्र का समय बर्बाद करते रहेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने ठीक ही कहा है, " सभी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्थाएँ व्यक्ति की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। कोई राष्ट्र अपनी संसद द्वारा बनाए कानूनों के कारण नहीं वरन अपने नागरिकों की गुणवत्ता के आधार पर महान और श्रेष्ठ होता है। "

यही कारण है कि अणुव्रत की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। हमें अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्ध तो होना ही होगा, समय कब तक हमारा इंतजार करेगा। यदि अब भी हम नहीं जागे तो एक बात ध्यान रखना, कहीं समय से ये न सुनना पड़े कि 'सूत्या के तो पाड़ो ही जणै।'


(अणुव्रत मासिक के दिसम्बर अंक में प्रकाशित)
 (शीर्षक-जागने की वेला है, सोते न रहें) 

Friday, 3 January 2014

दस्वेदानिया




सबसे पहले ये शब्द सुना था 'मेरा नाम जोकर' देखते हुए। रुसी नायिका विदा होते समय नायक से कहती है- दस्वेदानिया। 'दस्वेदानिया' यानि अलविदा। समय आ गया है इस वर्ष को विदा करने का, दस्वेदानिया कहने का। इसी के साथ हम सब लगे है यह तय करने में कि इस नए साल में हम क्या-क्या करेंगे? क्या कुछ नया करेंगे? 'रिजोल्यूशन पास' करने में लगे हैं। इन सब बातों में ही गोते लगा रहा था कि यही  बात करती हुई, इसी नाम 'दस्वेदानिया' से बनी फ़िल्म याद आ गई। फ़िल्म ऐसी कि आपकी सोच को ठिठकने पर मजबूर कर दे। 

फ़िल्म का हीरो रोजाना ऑफिस जाने से पहले 'टू-डू लिस्ट' के पैड पर दिन भर के काम लिखता है। इसके कामों में होते है; बिजली-पानी का बिल, गैस-बुकिंग, किराने का सामान, घर की किसी चीज कि मरम्मत वगैरह-वगैरह। आप समझ ही गए होंगे, हम सब इस जंजाल से भली-भांति परिचित है। ये काम क्या हैं, द्रौपदी का चीर है; न कभी ख़त्म हुए हैं न कभी ख़त्म होंगे। उसकी जिंदगी यूँ ही रटे-रटाए ढर्रे पर चल रही होती है कि उसके पेट में तकलीफ रहने लगती है। अपनी माँ के बहुत कहने पर वह डॉक्टर के पास जाता है। कुछ जाँचे होती है जिसकी रिपोर्टें शाम को आने वाली होती है। आपको अंदाजा लग ही गया है, शाम को निश्चिन्त रिसेप्शन पर बैठा वह अपनी बारी आने पर जैसे ही डॉक्टर के पास पहुँचता है, उस पर गाज गिरती है। उसे मालूम चलता है कि वो अब सिर्फ चंद महीनों का मेहमान है। बड़ी मुश्किल से अपने आप को सम्भालता ही, घर आता है, माँ के सामने सामान्य रह, उसे बताता है कि उसे कुछ ख़ास नहीं हुआ है। दवाईयाँ लिखी है, थोड़े ही दिनों में सब ठीक हो जाएगा। 

दूसरे दिन सुबह उठता है, और आदतन पैड अपने हाथ में लेता है। हमेशा की तरह वैसे ही एक या दो काम लिखता है कि अचानक उसका हाथ और दिमाग़ रुकता है? सोचने लगता है, ये मैं क्या कर रहा हूँ? मेरा अपना भी कोई वजूद है या बस यूँ ही ..........? उसे ध्यान आने लगती है अन्तर्मन कि वे सारी अकुलाहटें जो उसने न जाने कितने वर्षों से इन दुनियादारियों के चलते स्थगित कर रखी है। इतनी लम्बी स्थगित कि वो उन्हें भूलने तक लगा था। उसे लगता है जैसे उसने अपनी जिंदगी को एक होटल समझ लिया है जिसका वह मैनेजर बना बैठा है। उसे एहसास होता है कि वे काम जो उसकी 'टू-डू लिस्ट'में हुआ करते थे, वे जरुरी है जिंदगी की गाडी को आराम से चला पाने के लिए लेकिन वे जिन्दगी नहीं है। वो वापस से अपनी लिस्ट बनाता है, ऐसी कि जिन्हें करने का सोचने भर से उसका मन रोमांच से भर उठता है। उसका नजरिया कि जिंदगी में उसके लिए क्या अहम् है, बदल चूका होता है। 

यही बात है जो आज मैं आपसे करना चाहता हूँ। इस बारे में कोई दो राय नहीं कि हमारी प्राथमिकताएँ तय होनी चाहिए, ये ही हमें सफल बनाती है पर इतना ही जरुरी है यह सोचना-समझना कि इन प्राथमिकताओं का आधार क्या हो? हमारी 'प्रायरटीज़' के 'पैरामीटर' क्या हो? 

हम सब यहाँ अपनी नियति जीने आए हैं। अनुभूति और अभिव्यक्ति हमारे भौतिक स्वरुप की वजह है। हम सब अपने-अपने अंदाज़ में इस संसार को महसूस करने और अपने होने से इसे अधिक सुन्दर बनाने आए हैं। यही तो आनन्द है। किसी को पढ़ना तो किसी को घूमना, किसी को संगीत तो किसी को दूसरों कि मदद करना, किसी को खेलना तो किसी को और कुछ पुकारता है। पग-पग इस ओर बढ़ना ही हमारे काम की सूची होनी चाहिए न कि इस ओर जाने के लिए जरुरी सुविधाओं और सामान की। तो इस बार, जब आप नए साल का 'रिजोल्यूशन' बनाए तो टटोलिए कि कौन से वो काम है जिन्हें करके आप ज्यादा जीवंत महसूस करेंगे?

अपनी अकुलाहटों को शान्त करने की सोचिए, ऐसा करने में दिक्कतें आयीं भी तो निश्चिन्त रहिए, प्रकृति ने ये अकुलाहटें दी हैं तो उसने निपटने की क्षमता भी आपको दी होंगी। शरीर को साँस लेने की जरुरत है तो फेफड़े होंगे ही। जरुरत है तो इस बात की, कि हम अपने अंतर्मन कि सुनें और उसकी पुकार को अपने जीवन में जगह दें। आइए, यह नया वर्ष कुछ यूँ मनाएँ, अपनी फेहरिस्त में उन बातों को शामिल करें जो हमारी उपस्थिति दर्ज़ कराते हों।


(दैनिक नवज्योति में रविवार,29 दिसम्बर को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........... 


Friday, 27 December 2013

फ़ालतू पचड़े में क्यों पड़ना




आज अनदेखी करना शान्त जीवन का गुरु-मंत्र बन गया है। 'फ़ालतू पचड़े में क्यों पड़ना', ये सीख हम रोजमर्रा कि जिन्दगी में लेते-देते रहते है, इसके बावजूद इसके ये 'पचड़े' दिन दौ गुनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे है। शायद ही हमारा सामाजिक जीवन इससे पहले कभी इतना त्रस्त रहा हो। डर ने हमारे जीवन को हर लिया है। इतना कि किसी गलत बात का विरोध करने कि सोचते ही उसके परिणाम हमें डराने आ जाते है। 'मेरे ऐसा करने से क्या होगा, उल्टा अपना ही नुकसान कर बैठूँगा' की भावना इतनी बलवती हो जाती है कि वहाँ से खिसकना ही श्रेयस्कर लगता है। अब तो जैसे ये बात सर्व-स्वीकार्य हो चुकी है और ऐसा नहीं करने वाला यानि फ़ालतू पचड़े में पड़ने वाला तय शुदा 'मूर्ख'।

दिल ही दिल में तो हम सब ही जानते है कि ये बात गलत है। उस दिन ये बात और भी शिद्दत से समझ आती है जब बारी हमारी होती है और, कोई और ऐसे ही अनदेखी कर खिसक रहा होता है। फिर हम ऐसा क्यूँ करते है? यहाँ तक कि अपने साथ ऐसा हो जाने के बाद भी हमारा व्यवहार नहीं बदलता। मन में इस सवाल के साथ जवाब ऐसे ही चला आया जैसे शिव के साथ पार्वती। मन ने कहा ऐसे व्यक्ति से, ऐसी स्थितियों से हम जीत तो सकते नहीं, फिर लड़ने से क्या फायदा? ये जवाब कम और सवाल ज्यादा था, सयाना सवाल। काफी दिनों तक इसे ले लेकर घूमता रहा कि अच्छा घर देखकर इसे ब्याह दूँ, आखिर खोज पूरी हुई, उम्र में मुझसे काफी एक बड़े एक स्नेही लेखक-मित्र की आप-बीती में।

उन्होंने बताया, कई वर्षों पहले कि यह घटना है। मैं ऑफिस से लौट रहा था कि कुछ मनचले चलती सड़क पर एक लड़की के साथ बदतमीजी कर रहे थे। बीस-पच्चीस लोग भी जमा थे पर सब के सब मूक-दर्शक। मैंने ड्राइवर से गाडी रोकने को कहा, पहले तो रोकी नहीं और फिर दृढ़ता से कहने पर रोकी भी तो थोड़ी आगे ले जाकर। कहा, मैं तो पचड़े में नहीं पड़ता, आपको जाना हो तो जाओ। उन्होंने आगे बताया, वे गए और उन लड़कों से भिड़ गए। लड़कों को उलझाकर सबसे पहला काम किया, लड़की को कहा, 'तुम निकलो, घर जाओ'। वे अकेले और सामने दो-चार लड़के, अच्छी खासी मार खानी पड़ी लेकिन वह लड़की जरुर बच निकली। वे कहते है, एक तरफ तो पूरा शरीर दर्द कर रहा था दूसरी तरफ रास्ते भर वो ड्राइवर उपदेश दिए जा रहा था। कहा था न बाबू, फ़ालतू कि तबालत मोल मत लो, अब भुगतो। पता नहीं कैसे, लेकिन उन लड़कों से उलझते मेरा कोई विजिटिंग-कार्ड जेब से गिर गया होगा। दूसरे दिन, जिस स्वर में उस लड़की का फ़ोन आया, उसने मेरे सारे दर्द को हवा कर दिया।

यही था जवाब 'जीत नहीं सकते तो लड़ने से क्या फायदा?' का। गलत का विरोध करना ही पर्याप्त है, विरोध का परिणाम चाहे जो हो, ऐसा कर पाना ही व्यक्ति की जीत है, डर पर जीत और डर से बड़ा व्यक्ति का कोई शत्रु नहीं। कोई हारे न हारे ऐसा कर हम डर को जरुर डरा देते है और इससे बड़ी जीत किसी व्यक्ति के लिए क्या होगी?

हमें अहसास ही नहीं होता पर हमारे ये छोटे-छोटे विरोध एक सामूहिक प्रतिरोध में हिस्सेदारी निभा रहे होते है जो लम्बे समय में व्यवस्था में बदलाव का कारण बनती है। चलिए, लम्बे समय के बाद होने वाले फायदे हमें नहीं लुभाते हों तो भी इतना तो तय है कि हमारा ये आचरण अपनों से छोटों के लिए प्रेरणा जरुर बनता है, जीवन जीने की एक सीख। इससे बढ़कर, श्रेष्ठतम तो यह है कि हमारा यह आचरण हमारे ही आत्म-बल को निखारता है। आत्म-बल की जिस गंगा को हमारे तर्क-वितर्कों ने डर के पत्थर से दबा रखा था, उसे मुक्त कर हमारा ये आचरण हमारा और हमारे अपनों का जीवन सुंदर और सुरक्षित बना देता है।

आपका
राहुल ...........  
(जैसा कि दैनिक नवज्योति में रविवार, 22 दिसम्बर को प्रकाशित)