Sunday, 18 August 2013

जंगली बेर, नदी और परमात्मा


हमारी संस्कृति में ये महीने वर्ष के सबसे पावन होते है। हिन्दुओं में श्रावण तो मुसलमानों में रमजान। प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने-अपने तरीकों से उस परम पिता परमेश्वर की आराधना में जुटे होते है। जगह-जगह धार्मिक गोष्ठियाँ, कथा-वाचन और प्रवचन-व्याख्यान चलते है, ये चौमासा होता ही ऐसा है। 

ये धार्मिक अनुष्ठान तब ही सार्थक सिद्ध होंगे जब हम कर्मकाण्डों से ऊपर उठकर धर्म के मर्म को समझें। आज हमारा समाज जिस तरह धर्म के नाम पर बँटता ही चला जा रहा है उस सन्दर्भ में यह और भी प्रासंगिक हो जाता है। आपको याद है न वो चरवाहा जो अपने काम से थककर नदी के किनारे बैठ जाया करता था। ऐसा ही एक दिन था; वह नदी के किनारे जंगली बेर खाते, सूर्यास्त होते देख अपने तन-मन की थकन उतार रहा था। अचानक वह कहीं खो गया। उसे लगा ये आकाश नहीं कोई अदभूत चित्र है जिसमें प्रकृति ने सारे रंगों को आजमाया है। पक्षी अपने घोंसलों की और ऐसे लौट रहे है जैसे वे अपने जीवन के सबसे खुबसूरत दिन का उत्सव मना रहे हों। नदी शान्त लेकिन ऐसे बहे जा रही है जैसे कृष्ण-मिलन को आतुर मीरा भजन गा रही हो। एक ही क्षण में वो रूपांतरित हो चुका था। उसका चेहरा सूर्य की मानिंद दमक रहा था तो चित्त चन्द्रमा की तरह निर्मल था। 

थोड़ी ही देर बाद वो ऐवड के साथ गाँव लौटा और हमेशा की तरह घर-घर जाकर अपने पशु लौटा रहा था लेकिन आज जिससे मिलता वही विस्मित। पूछने पर वो सहज भाव से अपना अनुभव बताता। थोड़ी ही देर में ये बात गाँव में आग की तरह फ़ैल गई। 

रोजाना की तरह वो सुबह उठकर अपने पशुओं को इकट्ठा करने निकला। एक घर बंद मिला, दूसरा ......,तीसरा .......और थोड़ी देर में उसे अहसास हुआ कि गाँव तो खाली हो चुका है।  उसे कुछ समझ नहीं आया, जोर-जोर से आवाजें दी, गली-गली घूमा, करते-करते दोपहर हो आयी। वो हैरान-परेशान अपने चहेते ठौर पहुँचा। वहाँ पहुँच कर क्या देखता है, नदी किनारे गोल पत्थरों पर एक-एक करके पूरा गाँव बैठा है और सब के सब जंगली बेर खा रहे है। 

यही बात हम सब को समझनी है। नदी किनारे बैठकर जंगली बेर खाने से सत्य की अनुभूति नहीं होती। यह उस चरवाहे की नियति थी, हमें अपनी ढूंढनी है। अहम् बात है यह आत्मसात करना कि उस अनुभूति में ही सच्चा आनन्द है। वह किसी को भी हो सकती है। वह कभी भी हो सकती है। बस जरुरत है उस क्षण की जब आपका ह्रदय विशुद्ध प्रेम से लबालब हो। जब आप प्रकृति के हर घटक के साथ अपने आपको एकाकार पाएँ। जब आप सृष्टि से एक होकर उस एक को महसूस कर लें और वो अहसास आपको आपका परिचय करवा दे। आपका ये क्षण खाना खाते हुए, अपने बच्चों के साथ खेलते हुए, अपना काम करते हुए या कोई और भी हो सकता है।

इसका मतलब यह नहीं कि ईश्वर आराधना की सारी विधियाँ फिजूल है। निश्चित ही उनका महत्व है लेकिन इतना कि वे हमारे चित्त को शान्त कर हमारे क्षण को ढूंढने में मदद करती है। हमें आध्यात्मिक अभ्यासों के लिए अनुशासित करती है। वे हमें दिखाती है कि एक व्यक्ति के लिए क्या संभाव्य है। यह बात ठीक वैसे ही है कि हम अपने माता-पिता-शिक्षक से लिखना सीख सकते है लेकिन लिखावट हमारी अपनी ही होगी। इस बार चौमासे को इस नज़र से मना कर देखिए, मुझे विश्वास है आपको अधिक आनन्द आएगा।


(जैसा की दैनिक नवज्योति में रविवार, 11अगस्त को प्रकाशित)
आपका,
राहुल........                

Friday, 9 August 2013

आप कहाँ रहते है?


पिछले सोमवार को जापान के मिनामी उरावा स्टेशन पर ट्रेन और प्लेटफ़ॉर्म के बीच के गैप में एक 30 वर्षीय महिला फंस गयी। जैसे ही यात्रियों को मालूम चला उन्होंने मिलकर एक साथ उस 32 हजार किलो की बोगी को धक्का दिया और बोगी को हल्का सा झुका दिया। बस फिर क्या था, महिला को सुरक्षित निकाल लिया गया। उन्हें हल्की सी  खरोंचे भर आयी और वह ट्रेन, आठ मिनट की देरी से अपने गंतव्य के लिए रवाना हो गयी।

इस घटना से मुझे एक छोटी सी कहानी याद हो आयी। एक व्यक्ति मृत्यु पश्चात् यमराज के सामने पहुँचा। चित्रगुप्त से उसकी जिन्दगी का लेखा-जोखा सुनने के बाद यमराज ने खुश होकर उसे स्वर्ग दिया। उस पुण्यात्मा ने इच्छा जाहिर की, कि वो स्वर्ग जाने से पहले एक बार नर्क भी देखना चाहता है। सबसे पहले उसे नर्क ले जाया गया। दूर से लोगों के रोने की आवाजें आ रही थी। उसे लगा, जरुर उन पर भयंकर अत्याचार हो रहे होंगे। पास जाने पर मालूम चला, वे सब तो भूख से बिलख रहे थे। अरे ! ये क्या उनके सामने स्वादिष्ट भोजन भी पड़ा था लेकिन उनके हाथ में अपने हाथों से भी लम्बे चम्मच पकड़ा रखे थे और वे चाहकर भी नहीं खा पा रहे थे। इसके बाद वो स्वर्ग पहुंचा; उन्हें देखकर उसकी आँखे खुली की खुली रह गयी। स्वर्ग और नर्क एक जैसे ही थे। यहाँ भी चम्मच उतने ही लम्बे थे लेकिन बस फर्क इतना था कि वे एक-दूसरे को खिला रहे थे और स्वादिष्ट भोजन का आनन्द ले रहे थे। 

स्पष्ट है, ये हम पर निर्भर करता है कि हम अपने जीवन को स्वर्ग जैसा बनाते है या नर्क जैसा। यदि हम सोचें कि एक ट्रेन को धक्के से झुकाया जा सकता है, यदि हमारे मन में विश्वास हो कि और लोग भी इसमें मेरा साथ देंगे, एक-दुसरे पर इतना भरोसा हो कि बिना तर्क-वितर्क सभी इस काम में जुट जाएँ, तो भला स्वर्ग और क्या होगा? अपने जीवन को स्वर्ग सा बनाने का एकमात्र तरीका है एक-दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहना। ये दुनिया यदि एकाकी जीवन जीने के लिए बनी होती तो व्यक्ति के ह्रदय में दया, करुणा और प्रेम की भावनाएँ ही क्यूँ होती?

इस सब के बीच जरुरी है इस बात का ध्यान रखना कि ये दुनिया आपकी या मेरी भलाई पर नहीं टिकी है। किसी भ्रम में रहकर अहंकार पालने की कोई जरुरत नहीं। स्वामी विवेकाननद कहते है, हम किसी की भलाई करके वास्तव में अपना ही भला कर रहे होते है। हम कुछ करें या न करें, ये दुनिया बड़े आराम से वैसे ही चलती रहेगी। हाँ,  इतना अवश्य है कि ये हमारी भलाई ही है जो हमें सच्चे आनन्द की अनुभूति करवा सकती है।  आप ही देखिए, जापान वाली घटना में बात उन लोगों की हो रही है जिन्होंने उस महिला को बचाया न कि उस महिला की। 

कितना सुन्दर गीत है फिल्म 'अनाड़ी' का, जो इस जज्बे को कितने खुबसूरत अंदाज में बयाँ करता है,-
किसी की  मुस्कराहटों पे हो  निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार,
जीना इसी का नाम है....... 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 4 अगस्त को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ........             

Friday, 2 August 2013

बराबरी करें, लेकिन किससे?


आपने कभी गौर किया है, हमारे खाली वक़्त बिताने का पसंदीदा शगल क्या है? हम निश्चित ही अपनी रुचियों का जिक्र करेंगे लेकिन मेरी समझ से तो ये कुछ और ही है। आपको नहीं लगता हमारा पसंदीदा शगल तो है जिन बातों का हमें बुरा लगा है उन्हें संभालना, ये सोचना कि उसने ऐसा क्यूँ किया या कहा जबकि कम से कम उसे तो ऐसा नहीं करना चाहिए था और अब मैं क्या करूं कि उसे साफ-साफ समझ आ जाए कि ये सब अब और नहीं चलेगा।

समझ ने कहा तो फिर क्या हम अपने आत्म-सम्मान की रक्षा भी न करें? बात तो ठीक लगी लेकिन जब चित्त शान्त हुआ तो उसने एक प्रश्न किया कि क्या ये बातें वास्तव में आत्म-सम्मान की है या हम अनजाने ही अपनी सोच-समझ की डोर अहं के हाथों में दे बैठते है? प्रश्न का जवाब न मिले तो ही ठीक है लेकिन मिल जाए तो वह दूसरा प्रश्न खड़ा कर देता है। अब प्रश्न ये था कि किसे आत्म-सम्मान की रक्षा कहें और किसे अहं की तुष्टि? अंततः जो सूत्र मिला वह यह था कि 'प्रत्येक व्यक्ति सजगता की अलग-अलग पायदानों पर खड़ा है। जो नीचे खड़े व्यक्ति से बराबरी करे वह अपने अहं से नियंत्रित होता है, जो अपने बरबरों से बराबरी करे वह अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए ऐसा करता है और जो अपने से ऊँचे पायदान पर खड़े व्यक्ति के साथ ऐसा करे वह तो वास्तव में जीवन के ऊँचे आदर्शों को छूना चाहता है।'

अपने से नीचे खड़े कम सजग व्यक्तियों को जवाब देने में तो हमें भी उनके जैसे ही सोचना और व्यवहार करना पड़ेगा और इस तरह हम अनजाने ही अपने आपको वैसा बनाने की कोशिश में लग जाते है जैसा किसी और का होना भी हमें पसंद नहीं। ऐसे समय तो अपने आप से सिर्फ एक ही प्रश्न करने की जरुरत है, आखिर हम किसे बदल रहे है? खुद को या उनको।

साधारणतया व्यक्ति सिर्फ अपने से कम सजग, कमजोर व्यक्ति को ही जवाब देता है क्योंकि वह निश्चिन्त होता है कि यहाँ प्रतिवाद की कोई गुंजाईश नहीं। अपने आपको सही और श्रेष्ठ सिद्ध कर पाने का ये उसका अपना जुगाड़ होता है। वो सफल भी हो जाता है क्योंकि बाकि की दुनिया भी तो अहं से ही संचालित होती है। समस्या सिर्फ यह है कि ये मामला ज्यादा लम्बा टिकता नहीं है। उससे ऊँची पायदान पर खड़ा व्यक्ति उसे धक्का दे देता है और वही ढाक के तीन पात। मजेदार बात यह है कि ऐसा सब कुछ व्यक्ति करता बड़े ही पावन उद्देश्य के लिए है। लोगो की नज़रों में इज्ज़त पाना, उनके दिलों में जगह बनाना क्योकि व्यक्ति की आधारभूत जरुरत है - प्रेम, बस रास्ता गलत अख्तियार कर लेता है। 

आत्म-सम्मान व्यक्ति का पहला धर्म है। कोई व्यक्ति अपने निजी उद्देश्यों या अहं की तुष्टि के लिए आपके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाने की कोशिश करे तो उसे रोकना अपने धर्म की रक्षा करने के बराबर है। अपने प्रति ऐसा व्यवहार सहन कर हम उस परमात्मा का अपमान कर बैठते है जो हम सब में मौजूद है। जो हम सब के होने की वजह है।

पहली स्थिति में तो बराबरी करनी ही नहीं चाहिए, दूसरी में रक्षात्मक- अपनी निजता को बनाए रखने के लिए लेकिन सर्वश्रेष्ठ है वह स्थिति जब व्यक्ति अपने से ऊँची पायदान पर खड़े व्यक्ति से बराबरी करने की कोशिश करे। जो हम से कहीं ज्यादा सजग है। व्यक्ति जब ऐसा करता है तो वास्तव में वह ऊँचे आदर्शों को छूने की कोशिश कर रहा होता है।

आप पहाड़ों पर तो घूमने जरुर गए होंगे। कठिन चढ़ाई के समय आप किसका हाथ थामते है? जो आपके आगे चल रहा होता है उसका या जो आपके पीछे चल रहा होता है। जीवन भी कुछ ऐसा ही है, सजग हो पाने का एक तरीका यह भी है। जिन लोगों के बारे में आप सोचते है कि उन्होंने आपसे भी ऊँचे आदर्शों को अपनाया है उनसे बराबरी कीजिए, अपने जीवन को वैसे गुजारने की कोशिश कीजिए और फिर अपने आपको उनसे श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोशिश कीजिए। इस खेल में मजा भी आएगा और पुरस्कार में मिलेगी सुन्दर-खुशहाल-संतुष्ट जिन्दगी।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 28 जुलाई को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........

Friday, 26 July 2013

जाँकि रही भावना जैसी



अख़बार में एक अभिनेत्री का साक्षात्कार पढ़ रहा था। प्रश्नकर्ता ने पूछा, आपका 'गिल्ट प्लेजर' क्या है? एकदम झटका लगा, अरे! ये क्या होता है। दो विपरीत शब्द। जवाब पढ़ा तो समझ आया कि इसका कुछ कुछ मतलब तलब से है। ऐसा काम जिसे करने से पहले आप जानते है कि यह आपको नहीं करना चाहिए लेकिन उससे मिलने वाले क्षणिक आनन्द के कारण आप अपने आपको रोक नहीं पाते, ऐसा काम 'गिल्ट प्लेजर' हुआ। ऐसा आनन्द जो हलक से उतरते ही अपराध-बोध में तब्दील हो जाए। 

ऐसा नहीं है कि ऐसी कमजोरियाँ हम सब में नहीं होती लेकिन जिस बात ने परेशान किया वह यह कि हम कितनी सहजता से इसे स्वीकार करने लगे है, अपनी जिन्दगी में जगह देने लगे है। आज ये आदतें हमें बेचैन नहीं करती बल्कि हमारे व्यक्तित्व की एक विशेषता बन गयी है। अब आपकी फटी शर्ट आप ही को चलती है तो अपने आप से तो बदलने से रही। 

गिल्ट प्लेजर में प्लेजर आनन्द नहीं लत है, मजा है। आनन्द की उम्र कभी इतनी छोटी नहीं होती। उसका जायका तो खाने के बाद भी पहले तो मुहँ में और फिर सदा के लिए यादों में बना रहता है। आनंद कभी ख़त्म नहीं होता और जो ख़त्म हो वो आनन्द ही नहीं होता। आपकी स्कूल, स्कूल के दोस्त, कॉलेज के दिन, आपकी शादी, पहली कमाई ............ क्या इनसे मिला आनन्द कभी ख़त्म हो सकता है?

दूसरा शब्द गिल्ट, गिल्ट यानि अपराध-बोध। जब आप ही का मन आपको अपने किए के लिए अपराधी घोषित कर दे और फिर हर क्षण कुछ भी करते या न करते इसका बोध बना रहे। जीने का भाव जब ये हो जाता है तब हम अनजाने ही प्रकृति और ईश्वर से मिली नियामतों से दूर रखकर अपने आपको सज़ा देने लगते है। यहाँ तक कि वे हमारे सामने होतीं है पर नज़र नहीं आती। कहीं न कहीं हम यह समझने लगते है कि मैं इस लायक ही नहीं। मेरा इन सब पर कोई हक़ नहीं। कमतरी की इसी भावना ही को तो हम डिप्रेशन कहते है, और डिप्रेशन अकेला ही काफी है किसी भी अच्छे भले व्यक्ति की जिन्दगी को बरबाद करने को। 

बहुत जरुरी है हमारा यह ध्यान रखना कि हम अपनी जिन्दगी में किन चीजों को जगह देते है, स्वीकारतें है। जब आप कुछ कहते है और वैसा मानते भी है तो आप उन्हें बदल पाना तो छोडिए, उन आदतों को फलने-फूलने की जगह और दे देते है। यदि आपने कुछ वैसे ही कहा है जिसमें आपका यकीन नहीं, तो घबराने की कोई बात नहीं लेकिन यदि उससे आपकी भावनाएँ जुडी हैं तो समझ लीजिए आपने गलत तार जोड़ दिए। भाव हमारी ऊर्जा है, व्यक्तिक ऊर्जा अतः जैसे हमारे भाव होंगे वैसी ही ऊर्जा को हम अपने जीवन में आमंत्रित करेंगे, आकर्षित करेंगे। जैसा भाव वैसा जीवन। तुलसीदास जी ने शायद इसीलिए कहा है,
जाँकि  रही  भावना  जैसी,
प्रभु मूरत तिन देखि तैसी।

फिर शब्द क्या है? हमारी भावनाओं को प्रकट करने का साधन ही तो। इस प्रकार जिन शब्दों को हमारी भावनाओं का बल मिल जाता है वैसी ही परिस्थितियों को हम अपने जीवन में पाते है। जिन चीजों के बारे में आपको पता है कि वे ठीक नहीं है फिर भी आप अपने को रोक नहीं पाते, वास्तव में ये वे क्षेत्र है जिन पर इस जीवन में आपको काम करना है। यही पाठशाला जिसका नाम जिन्दगी है, का पाठ्यक्रम है। यही भाग्य, यही पुरुषार्थ।

अपने जीवन के उद्यान में उन पेड़-पौधों को जगह मत दीजिए जो दुर्गन्ध-बीमारी फैलाते हों। उद्यान में ऐसी वनस्पति का स्वतः उग आना भी स्वाभाविक है लेकिन बागबान होने के नाते ये आपका दायित्व है कि आप समय-समय पर सफाई करते रहें। उनका उगते रहना आपके साफ़-सफाई न करने की वजह नहीं हो सकती। ईश्वर करे हमारे जीवन का उद्यान हमेशा हँसता-मुस्कराता रहे।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 21 जुलाई को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......   

Friday, 19 July 2013

काम, तनाव और सफलता


जिन्दगी का पहिया अर्थ के ईधन के बिना नहीं घूमता। अर्थ यानि पैसा, और पैसा मिलता है काम से इसलिए जरुरी है हमारा काम ऐसा हो जो हमारी स्वाभाविक इच्छाओं और घर-परिवार की जरूरतों को पूरा कर सके। हमारी ये सोच जाकर ठहरती है हमारी ही पहचान के उन व्यक्तियों पर जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में सफलता पाई है। इस तरह हमारे सफलता के तैयार फॉर्मूले होते है, उनमें से कोई एक हम पसंद कर लेते है। इससे एक तरफ तो हम जोखिम को कम कर लेते है तो दूसरी तरफ हमारे पास उस काम को करने की तैयार रेसीपी होती है।

प्रतिस्पर्धा और बाज़ार-युग के इस दौर में सफल होने के लिए काम करना क्या, स्वयं को काम में झोंकना पड़ता है। जैसे-जैसे हम सफल होते जाते है हमारी जिन्दगी तनावों से भरती चली जाती है। इसका निष्कर्ष हम यह निकालते है कि तनाव, काम और सफलता का हिस्सा है और यदि तनावमुक्त जिन्दगी चाहिए तो काम कम करो और थोड़े में संतोष करो। शायद इसीलिए यह समझा जाता है कि संतुष्ट वह है जिसे और की चाह नहीं।

जिन्दगी की इन व्यावहारिकताओं के चलते हम जानते हुए भी उन कामों से किनारा कर लेते है जिन्हें सोचने मात्र से मन को सुकून मिलता है। शायद ठीक ही करते है हम, जिन्दगी निभायें या मन की इन फालतू बातों को हवा दें।

कई दिनों से मन में यही सब कुछ चल रहा था लेकिन जो गाँठ नहीं खुल पा रही थी वह यह कि जब सफलता हमारे हाथ में है तो तनाव क्यूँ होता है? सफलता की संगिनी तो खुशियाँ होनी चाहिए। आखिर हम सफल ही क्यूँ होना चाहते थे, खुशियों के लिए ही तो? और अव्वल तो ये कि क्या ये सफलता भी है जो अपने साथ तनाव लायी है? यहाँ मेरा तनाव से आशय अपने काम को अच्छे से अच्छा कर पाने की स्वाभाविक चिंता या फिक्र से नहीं बल्कि उससे है जो दबाव हमें उस काम को करने के लिए अपने उपर डालना पड़ता है और जो हमारे मन, स्वास्थय और रिश्तों को कसैला कर रहा है। जवाब मुझे डॉ. वेन डब्लू.डायर से मिला। वे लिखते है कि जो बात आपके मन को सुकून देती है, उससे सम्बन्धित ऐसा क्या है जो आपको धन भी दिला सकता है, जैसे आपको संगीत सुनना अच्छा लगता है तो आप संगीतज्ञ के अलावा समीक्षक-लेखक भी हो सकते है। यदि आपको ड्राईंग करना अच्छा लगता है तो जरुरी नहीं आप पेन्टर ही बनें, आप आर्किटेक्ट या डिजाइनर बनना भी चुन सकते है और यदि आपको सिर्फ क्रिकेट देखना अच्छा लगता है तो आप कमेन्टेटर भी बन सकते है। यदि आपको अपने काम में पूरा विश्वास है तो सफलता की गारंटी है।

हो सकता है आप जीवन के इस मोड़ से आगे  निकल आये हों तो आज आप जिस काम में है और जो कुछ आप करना चाहते है उसे जोड़कर देखिए। जैसे, आप एक डॉक्टर है लेकिन संगीत आपको सारे दिन दूसरी ओर खींचता है तो अपने वर्तमान काम के साथ दिन का कुछ समय 'म्यूजिक-थेरेपी' को सीखने और उससे इलाज करने में लगाइए। ये भी हो सकता है कि आप जिस काम में है यह कभी आपका सबसे पसंदीदा था लेकिन समय के साथ आपको कुछ और भाने लगा है। अपने आपको दोष मत दीजिए। अपने काम के साथ कुछ समय अपने नये झुकाव को भी दीजिए। उसे महज शौक नहीं, इस दृष्टी से देखिए कि इससे भी मैं क्या कर सकता हूँ जो मानसिक संतुष्टि के साथ मेरी जिन्दगी की जरूरतों को भी पूरा कर सके। यदि सच ही बदलाव का समय आ गया है तो वह हो कर रहेगा।

स्ट्रेस को 'मैनेज' मत कीजिए, इसे जिन्दगी से 'वाइप-आउट' कीजिए। 'स्ट्रेस मैनेजमेंट' का अर्थ ही 'स्ट्रेस'को अपनी जिन्दगी में जगह देना है। बात ही गलत है। मैनेज करने लायक कुछ है तो वह है 'हैप्पीनेस'; आप इसे 'हैप्पीनेस-मैनेजमेंट' भी कह सकते है।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 14 जुलाई को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........... 

Friday, 12 July 2013

तलाश एक गुरु की


कबीर ने गुरु की महिमा को कुछ इस तरह गाया है,-
गुरु  गोविन्द दोउ खडे, काके  लागूँ    पाय 
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
सारे विश्व में चाहे वह कोई सभ्यता-संस्कृति हो, एक शिक्षक का स्थान सबसे ऊँचा है और हमारे यहाँ तो गुरु का स्थान गोविन्द यानि ईश्वर से भी पहले आता है और यही हमारे संस्कारों में है। गुरु शब्द भी तो दो शब्दों से मिलकर बना है, गु और रु। गु का अर्थ अन्धकार और रु का अर्थ प्रकाश, यानि वह जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाए।

हमारे इन्हीं संस्कारों का फायदा आजकल के तथाकथित गुरु उठा रहे हैं। आज तो जैसे गुरुओं की बाढ़ आई हुई है, जो जहाँ-तहाँ हमारी श्रद्धा को भुनाते हुए दिख जाएँगे। आप कहेंगे, मैं सही कह रहा हूँ, ज्यादातर ऐसा ही है लेकिन मेरे गुरु तो सच्चे है। देखिए आप बुरा मत मानिए, निश्चित ही ऐसा ही होगा, मैं तो बस आपके साथ यह चर्चा करना चाहता हूँ की जिन्हें हम अपने जीवन में ईश्वर से भी प्रथम स्थान देना चाहते है उन्हें पहचाने-परखें कैसे?

चलिए इस बात की तह तक एक उदाहरण के जरिए पहुँचने की कोशिश करते है। हम सभी को जब-तब डॉक्टर के यहाँ तो जाना ही पड़ता है। हमें वही डॉक्टर ठीक लगता है जो हमें ठीक तरह से देखें, उचित दवाई दे और जल्दी से पूरा ठीक कर दे। यों कह लें, डॉक्टर वह अच्छा जो पहले दिन से चाहे कि हमें उसकी जरुरत न रहे। आप बिल्कुल ठीक समझ रहे है, मैं क्या कहना चाहता हूँ। गुरु भी वही अच्छा जो अपने शिष्य के जीवन से अपनी जरुरत मिटाता चला जाए। हमें सक्षम बनाए, हमें रास्ता दिखाए, - प्रकाश की ओर। ऐसे गुरु कैसे सच्चे हो सकते है जो ये चाहे कि हम जीवन का एक पग भी उनके सहारे के बिना न धर सकें। आशीर्वाद होना अलग बात है और आश्रित होना अलग। 

मेरे जेहन में जो उभर कर आ रहे हैं, वे हैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस। उन्होंने कभी नरेन यानि स्वामी विवेकानन्द को अपनी बात मानने से मजबूर नहीं किया। नरेन् पूछते चले गए, वे बताते चले गए और एक दिन बोले; "नरेन! मैं तो रीता हो गया रे।" यानि अब मेरे पास और बताने को कुछ नहीं, अब आगे का रास्ता तुझे स्वयं करना है। उन्होंने वही किया। सच है, रामकृष्ण परमहंस  गुरु हों तब ही नरेन के लिए स्वामी विवेकानन्द बनना सम्भव होता है। गुरु वो जो हमें मुक्त करें न कि वो जकड़े रखे।

आप इसलिए तो परेशान नहीं कि आपका तो कोई गुरु ही नहीं। ये परेशानी इसलिए क्योंकि हम गुरु को सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में देखते है। गुरु कोई भी हो सकता है; एक किताब, एक रिश्ता या एक संयोग ही क्यूँ नहीं। बेहतर है हम गुरु ढूंढने की बजाय शिष्य बनने की तैयारी में लग जाएँ। यदि हम सीखने को तैयार है तो सिखाने वाला मिल जाएगा और यदि हम जानने को तैयार है तो बताने वाला भी मिल जाएगा। जरुरत है अन्धकार के प्रति मन में कोफ़्त पैदा करने की, प्रकाश का रास्ता कोई दिखा ही देगा। एक पुरानी कहावत है, 'यदि शिष्य तैयार है तो गुरु स्वतः मिलेगें।


( दैनिक नवज्योति में रविवार, जुलाई को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .........                             

Friday, 5 July 2013

समय-समय की बात



आज आप से बात करते हुए मुझे अपना बचपन याद आ रहा है। याद आ रहा है वह दिन जब मेरे पिता मुझे साईकिल  चलाना सीखा रहे थे। वे बराबर मेरे साथ चल रहे थे। सामने देखना, हैण्डल सीधा पकड़ना और साथ में पैंडल मारना, तीनों में से कोई एक मुझसे छूट जाता और उन्हें संभालना पड़ता। कोई आधे घन्टे तक ये सब चलता रहा। अब मैं साईकिल को सम्भाल पा रहा था और वे मुझसे दूरी बनाने लगे। कुछ मिनटों बाद जब मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वे ख़ुशी से मुस्कराते हुए हाथ हिला रहे थे।

ऐसा ही हमारे साथ स्कूल में भी होता था, हम अगली कक्षा में पहुँचते और हमारे शिक्षक बदल जाते, कितना बुरा लगता था। थोड़े दिन बीतते और उन नये शिक्षकों से भी रिश्ते उतने ही प्रगाढ़ हो जाते। जैसे-जैसे हम बड़ी कक्षाओं में आते गए,ये बात समझ आने लगी कि वे ही शिक्षक हमें पढ़ा पाएँ, ये सम्भव ही नहीं था लेकिन उनके बिना यहाँ तक पहुँच पाना भी सम्भव नहीं था।

आगे बढ़ने के लिए पीछे छोड़ना पड़ता है। हम सब इस कटु सत्य को जानते है, फिर क्यों हम अपनी पुरानी मान्यताओं से इतना जकड़े हुए हैं? उन्हें जकड़े है और अन्ततः वे हमें जकड़े है। क्यों नहीं हम उन्हें समय, काल, देश और परिस्थिति की कसौटी पर कसना चाहते? क्यों हमें अपनी अप्रासंगिक हो चुकी मान्यताओं, रीती-रिवाजों और परम्पराओं को अलविदा कहने से इतना परहेज है?

अपने ही अवचेतन में झाँक कर देखा तो पाया कि हमने अपने माता-पिता और बड़े-बूढों को इन्हें बड़ी श्रद्धा से निभाते देखा है। ये मान्यताएँ उनके जीवन का आधार थीं। जब इनको जाँचने की बात आती है या इन पर कोई सवाल उठता है तो हमें लगता है हम उनकी अवहेलना कर रहे है, उनका निरादर कर रहे है।

एक मिनट के लिए ठिठक कर हमें सोचना चाहिए कि उन्होंने जिन मान्यताओं को अपने जीवन का आधार बनाया, उसकी क्या वजह रही होगी? उन मान्यताओं से लगाव या जीवन का सुख और खुशियाँ। प्रश्न ही अपना जवाब स्वयं दे रहा है साथ ही इस ओर भी ध्यान दिला रहा है कि पुराने का विरोध महज विरोध करने के लिए न हो, उसकी वजह व्यक्ति की वृहत्तर सुख और खुशियाँ हो। ऐसा कोई भी काम जो हमारे जीवन को अधिक सुंदर बनाए, हमारे बड़ों की इच्छाओं को पूरा ही करेगा।

आपका ध्यान एक ताज़ा घटना की तरफ ले जाना चाहता हूँ। आपने टेलीग्राम सेवाओं के 15 जुलाई से बन्द होने का समाचार तो जरुर पढ़ा होगा। इस तरह का ख़बरें हमारे मन में एक टीस जरुर पैदा करती है, सच में ये अतीत के प्रति हमारी आदरांजलि है लेकिन इंटरनेट और मोबाईल वर्तमान की हकीकत। हमें आगे तो बढ़ना ही होगा। यही हमारे जीवन को अधिक सुन्दर बनाएगा।

मैं ऐसी किसी मान्यता, परम्परा या रीती-रिवाज़ का उल्लेख तो नहीं करना चाहता क्योंकि निजी श्रद्धा का विषय है लेकिन हाँ, इतना जरुर कहना चाहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति को समय-समय पर निजी स्तर पर इसका आकलन अवश्य करना चाहिए। ये जीवन की साफ़-सफाई है। जीवन में किसी भी बात से ज्यादा खुशियों को तरजीह मिलनी चाहिए।
महात्मा गाँधी कहते है, " मेरी प्रतिबद्धता सत्य से है, निर्वाह करने से नहीं।"


(जैसा की नवज्योति में रविवार, 30 जून को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........