Friday, 28 June 2013

क्षमा वीरस्य भूषणम



एक सुन्दर पंक्ति जो बचपन से हमारे संस्कारों में है, क्षमा वीरस्य भूषणम यानि क्षमा वीरों का आभूषण है। इसका अर्थ हम निकालते आए हैं कि क्षमा करने वाला वीर होता है। इसी अर्थ ने क्षमा को बदनाम कर रखा है। क्षमा को उच्चतम आदर्श और सुंदरतम भाव मानते हुए भी अंतस में कहीं न कहीं हम इसे कायरता और अकर्मण्यता से जोड़ कर देखते है। इस विरोधाभास की वजह यह अर्थ है जो कहता है, क्षमा करने वाला वीर होता है। क्षमा वीरस्य भूषणम का सही अर्थ है, क्षमा उसे ही शोभा देती है जो वीर है। आपका वीर होना आपको क्षमा कर सकने के लायक बनाता है। यदि आप प्रतिरोध इसलिए नहीं करते क्योंकि आप प्रतिरोध कर ही नहीं सकते तो यह कायरता है लेकिन चूँकि आप प्रेम को जीवन का आधार मानते है इसलिए प्रतिरोध नहीं करते, तो यह क्षमा है।

क्षमाशील होने की आवश्यक शर्त है, वीरता। वीर होने से यहाँ आशय युद्ध-कौशल से नहीं अपितु कर्मशीलता से है। सीधे शब्दों में वीर वह है जिसका अपने काम पर पूरा नियंत्रण है। अपने काम पर नियंत्रण आपको अपने जीवन पर नियंत्रण देता है और तब किसी बात का विरोध करना या न करना आपकी इच्छा का विषय हो जाता है। आपका काम कुछ भी हो सकता है, व्यवसाय, सेवा या फिर तपस्या ही क्यूँ नहीं? स्वामी विवेकानन्द ने इसे कर्मयोग कहा है। अपने कर्मों का कुशल प्रबन्धन। वे कहते है व्यक्ति के कर्म उसका चरित्र बनाते है और व्यक्ति का सुदृढ चरित्र उसे वीर बनाता है। इसका मतलब यह हुआ कि व्यक्ति को अपने कर्मों से प्रतिरोध कर सकने की वो क्षमता हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए जहां आकर प्रतिरोध करना अनावश्यक जान पड़े या वो अपने प्रतिरोध को नियंत्रित कर सके। ये बिल्कुल वैसे ही है जैसे एक भिखारी को भूखे रहने से उपवास का फल नहीं मिलता क्योंकि भूखा रहना उसकी मज़बूरी है इच्छा नहीं, इसी तरह जो व्यक्ति प्रतिरोध कर ही नहीं सकता वह क्षमा करने से सद्चरित्र या महान नहीं हो जाता। क्षमा का गहना तो कर्मशीलता की घोर अग्नि में तपकर बनता है।

क्षमा अकर्मण्यता या कायरता की झोली में न जा गिरे इसके लिए 'क्षमा की सीमा'भी उतनी ही जरुरी है। महाभारत का शिशुपाल वध तो आपको याद ही होगा। शिशुपाल श्री कृष्ण का भान्जा था और दुर्योधन का मित्र लेकिन वचनों का बड़ा दरिद्र। एक बार उसने अपने कटु वचनों से कृष्ण का इतना अपमान किया कि उन्होंने अपना सुदर्शन-चक्र उठा ही लिया था किन्तु ऐन वक्त पर बहन बीच में आकर खड़ी हो गई। वे करबद्ध होकर शिशुपाल की ओर से क्षमा-याचना करने लगीं। वे रिश्तों की दुहाई दे रही थी तब द्रवित हो, कृष्ण ने अपनी बहन को वचन दिया कि वे शिशुपाल की सौ गलतियों को माफ़ करेंगे। इसके बाद भी उसे अपनी गलतियों का अहसास नहीं हुआ तो इसका परिणाम भुगतना होगा।

आखिर वो समय भी आ ही गया जब शिशुपाल ने क्षमा की सीमा को भी लांघ दिया। अब श्री कृष्ण के पास सुदर्शन-चक्र चलाने के सिवाय चारा ही क्या था? इसी तरह हमें भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि कहीं क्षमा हमारी कमज़ोरी न बन जाए। यही चूक पृथ्वीराज चौहान से हुई थी जो मोहम्मद गजनी को माफ़ करते चले गए। उन्होंने गजनी को सोलह बार माफ़ किया और इसका खामियाज़ा उन्हें और पूरे राष्ट्र को भुगतना पडा।

कर्म से बड़ी कोई शक्ति नहीं। तो आइए, जीवन में अपने कर्मों को साधें, एक दिन स्वतः ही अपने आपको इस मुकाम पर खड़ा पाएँगे जहां प्रतिरोध पर हमारा नियंत्रण होगा। सही मायनों में क्षमा व्यक्ति के कर्मशील होने की अंतिम उपलब्धि है। शायद इसीलिए श्री कृष्ण बार-बार अर्जुन से यही  है, - उठ, युद्ध कर।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 23 जून को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ............  


Friday, 21 June 2013

गर्व का विषय


सायली अगवाने निश्चित ही विशेष है। वे मानसिक रूप से कमजोर बच्चों को नृत्य सिखाती है। इक्कीस वर्षीया सायली स्वयं पिछले तेरह वर्षों से कत्थक का अभ्यास कर रही हैं। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन कुछ दिनों पहले जब उन्हें एक रियलिटी शो में नृत्य करते हुए देखा तब पहले तो मुँह खुला का खुला रह गया और फिर आँखे नम हो उठी, मन श्रद्धा से भर गया। मन में तब से अब तक एक ही सवाल उठता है, हमें गर्व किस बात का है, अपने स्वस्थ पैदा होने का? क्योंकि सायली स्वयं भी उन बच्चों जैसी ही है जिन्हें वे नृत्य सिखाती है।

स्वाभाविक था सायली के बारे में और अधिक जानने की उत्कंठा का पैदा होना और जो मालूम चला वो कहीं अधिक आश्चर्यचकित कर देने वाला था। वे जब पैदा हुई तब उनका वजन 1850 ग्राम था और पैर एकदम सपाट। थोड़े ही दिनों में पता चलने लगा कि वे सामान्य नहीं है। सायली के माता-पिता श्रीमती मनीषा-श्री नंदकिशोर अगवाने ने तय किया कि वे तीनों मिलकर इस जंग को जीतेंगे।

सायली का दाखिला एक सामान्य स्कूल में करवाया जहां उन्होंने चौथे दर्जे तक पढाई की लेकिन आगे की पढाई सामान्य स्कूल में कर पाना उनके लिए संभव नहीं था लेकिन साफ़ दिख रहा था उनमें नृत्य है। अब वे विशेष बच्चों की 'जीवन-ज्योति स्कूल' के साथ-साथ कत्थक सिखने 'रूपक नृत्यालय' जाने लगीं। इस समय उनकी उम्र आठ वर्ष रही होगी। इस बात को तेरह वर्ष बीत गए। आज सायली सुबह 8.30 बजे अपनी स्कूल जाती है जहां से वे 4.30 बजे लौटती है। 6 से 7 कत्थक के अभ्यास के लिए रूपक नृत्यालय व रात 8.30 से 9.30 शामक डावर क्लासेज। इसके बीच वे स्वयं 'सायली डान्स क्लास' चलाती है जहां अपने जैसे बच्चों को नृत्य सिखाती है और अप्रत्यक्ष रोप से जीना। उन्हें अपने नृत्य के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है और शायद ही ऐसा नृत्य का टी.वी. प्रोग्राम होगा जहाँ सायली ने विशेष प्रस्तुति न दी हो।

उनको जानकार एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई कि गर्व का विषय यह नहीं है कि आपको प्रकृति से क्या मिला है अपितु यह कि जो कुछ आपको मिला है उसका आपने क्या किया है। विश्व प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एवम पुनर्जन्म विशेषज्ञ डॉ.ब्रायन विस्स ने यह साबित कर दिया है कि हम हर बार तय करके आते है कि इस बार हमें क्या अनुभव करना है, हाँ उन अनुभवों का जवाब हम कैसे देते है यह हमेशा ही हम पर निर्भर करता है। यहाँ आने के बाद हम भूल जाते है कि हमारा अनुभव हमारा चुनाव है और हम दूसरों के अनुभवों से ईर्ष्या-प्रतिस्पर्द्धा करने लगते है। हम पूरी शिद्दत से जवाब देने की बजाय अपने अनुभवों को बदलने की उधेड़बुन में लगे रहते है और जो हमने ही तय किया था उसका भरपूर आनन्द नहीं उठा पाते। ठीक वैसे ही जैसे किसी रेस्टोरेंट में जाकर आप कुछ खाने का ऑर्डर दें। जब आपका खाना आ जाए तो आप दूसरों का खाना देख-देखकर यह अफ़सोस मनाते रहें कि आपने वही ऑर्डर क्यूँ नहीं किया और इस चक्कर में अपने ऑर्डर किए पसंदीदा खाने का भी लुत्फ़ नहीं उठा पाएँ।

हो सकता है आप पुनर्जन्म और इन सिद्धान्तों में विश्वास न रखते  पर एक बात तो तय है कि दुनिया प्रयासों को याद रखती है परिणामों को नहीं। परिणामों में आपकी प्रतिस्पर्द्धा हो सकती है प्रयासों में नहीं। परिणाम बेहतर हो सकते है प्रयास हमेशा ही अद्वितीय है। परिणाम व्यक्ति को सफल बना सकते है, असाधारण नहीं। सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, दलाई लामा, आन सांग सु की और न जाने कितने ऐसे लोगों का जीवन यह सिद्ध करता है कि व्यक्ति के प्रयास ही व्यक्ति के जीवन को सार्थक बनाते है।

आपको इस जीवन में जो भी मिला है वह बिल्कुल ठीक और पर्याप्त है, उसके लिए जो आपको इस जीवन में हासिल करना है बशर्तें हम पूरे विश्वास के साथ इसे स्वीकारें और इसका सही इस्तेमाल करें।  सायली इस बार यही सीखने-सिखाने आयी है। क्या वे इतना सुन्दर पाठ हमें पढ़ा पाती, यदि वे सामान्य होतीं?


(जैसा कि नवज्योति में रविवार, 16 जून को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ...........                                         

Friday, 14 June 2013

कुछ न कुछ चलता ही रहता है


एक जवाब जो मैंने सबके मुँह से सुना है वह यह कि कुछ न कुछ चलता ही रहता है। हमारी जिन्दगी की शांति इस रोजाना के नए घटने ने छीन रखी है। कई बार तो ऐसा लगता है की हमारी जिन्दगी कोई कम्प्यूटर गेम है, हम उसके हीरो और हमारा टास्क है, चारों ओर से हो रहे हमलों से खुद को बचाना। क्या प्रतिपल इन बदलती परिस्थितियों से लड़ना ही व्यक्ति की नियति है और शांत जीवन एक मृग-मरीचिका। ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन यह भी सत्य है कि हम सब महसूस तो ऐसा ही कुछ करते है।

सोचते-सोचते जिस जगह आकर विचारों की रेल रुकी वह था कि यदि ऐसा सभी के साथ हो रहा है तो निश्चित ही इसकी कोई न कोई सार्थक वजह होगी क्योंकि प्रकृति में कुछ भी निरुद्देश्य नहीं। 'क्यों सबके जीवन में कुछ न कुछ चलता रहता है? का जवाब ही शायद हमें बदलती परिस्थितियों से सहज होने में मदद कर सके। हमारे मन में संतुष्टि और जीवन में शान्ति ला सके।

इसमें कोई दो राय नहीं कि हम सब अपने जीवन को प्रतिक्षण बेहतर बनाने की कोशिश में लगे है, यही पुरुषार्थ है और यही अपेक्षित भी। मुझे लगता है इस बात को थोडा उधेड़ने की जरुरत है। बेहतर जीवन तो तब ही सम्भव है ना, जब वो पहले से बदले और बदलाव होगा तब निश्चित ही जिन्दगी की सतह पर ऐसी चीजें उभरेंगी जिनसे हमें मुक्त होना होगा। यह ठीक वैसे ही है जैसे हम अपने कमरे की सफाई कर रहे हों। कमरे की झाड़ू लगाएंगे तो कोनों में दबा कचरा एक बार तो फर्श के बीचों-बीच आएगा ही, जिसे इकट्ठा कर बाहर फेंकना होगा। कचरे से परहेज करेंगे तो सफाई कैसे होगी। कमरे की सभी चीजों को अपनी जगह से सरकाना और कचरे का फर्श के बीचों-बीच आना, कमरे को साफ़-सुंदर बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा है और यही दृष्टिकोण हमें जिन्दगी की प्रतिपल बदलती परिस्थितियों के प्रति रखना होगा। रोजमर्रा में आने वाले असहज क्षण बेहतर जिन्दगी को पाने की प्रक्रिया का हिस्सा भर है। जिन्दगी में कुछ न कुछ चलते रहना तो बदलाव का शुभ-संकेत है क्योंकि हर बदलाव जीवन को पहले से बेहतर बनाने को ही आता है।

आपसे यह बात करते हुए मुझे तितली का जीवन-चक्र याद आ रहा है। मुझे नहीं लगता बदलाव और बेहतरी का इससे सुन्दर कोई और जीता-जागता उदाहरण हो सकता है। एक केटेपिलर धीरे-धीरे अपने ही भोजन के कारण फूलने लगता है। एक दिन इतना फूल जाता है कि उसकी चमड़ी ही तड़कने लगती है और अपने ही द्रव्य में कैद हो जाता है। इस कैद केटेपिलर को हम केकून कहते है लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह केटेपिलर अपने द्रव्य को काम में ले एक सुंदर तितली बन उस कैद से बाहर निकलता है। हो सकता है कई बार बदलाव ज्यादा तकलीफदेह हो लेकिन यदि हमारी दृष्टि एक केटेपिलर की है तो वह निश्चित ही हमारे जीवन को कहीं अधिक सुन्दर बनाएगा।

इन सारी अच्छी-अच्छी बातों के बीच जो मन में बात रह-रहकर उठती है वह यह कि हमारी जिन्दगी में कई बदलाव ऐसे आए है जिनके परिणाम सुखद नहीं रहे। क्या कहेंगे हम उनके बारे में? अनुभवों को कैसे झुठलाएँ? मैंने जब अपने ही जीवन में आई ऐसी घटनाओं का विश्लेषण किया तो पाया कि ये बदलाव या तो मेरी बुद्धि से या किसी ओर व्यक्ति से निर्देशित थे न कि सहज प्राकृतिक। दोनों ही स्थितियाँ निरपेक्ष नहीं होती इसलिए इस तरह लाए बदलाव  सुखद नहीं होते। बुद्धि और सलाह का उपयोग बदलती परिस्थितियों को समझने और अर्थपूर्ण इस्तेमाल में हों न कि जबरदस्ती बदलाव  में।

बदलाव एक सहज प्राकृतिक घटना है जैसे समुद्र में उठती हुई लहरें। लहरों की दिशा में सर्फिंग कीजिए, सर्फिंग का आनन्द भी आएगा और बड़ी आसानी से किनारे पर पहुँच भी जाएँगे। ये कुछ न कुछ चलते रहना जिन्दगी के समुद्र में उठती हुई लहरें ही तो है, जरुरत है तो इनके साथ सर्फिंग करने की, फिर देखना जिन्दगी वैसे ही संतुष्ट और शांत हो जाएगी जैसे लहरों के नीचे समुद्र।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 9 जून को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ............                 

Friday, 7 June 2013

सोहबत से ही सीरत


यह बात सिद्ध हो चुकी है कि पौधे अपनों पत्तियों से माइक्रोस्कोपिक ध्वनियाँ निकालते है और ये ध्वनि तरंगे आस-पास लगे पौधों को प्रभावित करती है। यदि तुलसी के पौधे के बिल्कुल पास हम सौंफ का पौधा लगा दें, तो तुलसी के पौधे का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। इसके विपरीत यदि दो पूरक ध्वनियों के पौधों को पास-पास लगा दिया जाए तो दोनों ही सामान्य से जल्दी और बेहतर फलने-फूलने लगेंगे।

अब ये तो हुई पौधों की बात। आइए, इस सन्दर्भ में कुछ हमारी बात भी कर लें। हम सब क्या है, ऊर्जा-पुंज ही तो है। हमारा जीवित होना ही हमारे ऊर्जा-पुंज होने का प्रमाण है। ऊर्जा, हमारे या किसी के भी सक्रिय होने की वजह और यह भी निश्चित है कि जो सक्रिय है उसकी एक तरंगीय आवृति यानी वाइबरेशनल फ्रीक्वेंसी भी होगी। जिसकी जितनी और जैसी सक्रियता उसकी उतनी और वैसी फ्रीक्वेंसी, और वैसा ही उसका प्रभाव। आपने देखा, किस तरह और किस हद तक हम एक-दूसरे को प्रभावित करते है और प्रभावित होते है। निश्चित ही, हम सब जानते है कि हम किन लोगों के बीच रहते है यह बहुत मायने रखता है लेकिन क्या हमने कभी समझा है कि यह मामला इतना गंभीर है?

कुछ लोग तर्क देते है कि, आप दुनिया को नहीं बदल सकते, आपको अपना ध्यान रखना है। आप अपना काम कीजिए और निकल लीजिए, कोई क्या करता है इससे आपको क्या लेना-देना। व्यावहारिक  जगत में इस बात की अपनी अहमियत है और कुछ हद तक ऐसा करना भी पड़ता है लेकिन याद रखने की जरुरत यह है कि ये सिर्फ उन स्थितियों के लिए है जिन्हें हम टाल नहीं सकते। इसका कतई ये मतलब नहीं है कि हम चाहे जैसे लोगों के बीच रहें, हमारा तो बस काम होना चाहिए। आप चाहे जितना सतर्क रह लें, यदि आप लगातार ऐसे लोगों के साथ है जैसा होना आप नहीं चाहते तो आप कभी सफल नहीं हो पाएँगे। हो सकता है आप उन जैसे होने से बच जाएँ परन्तु वैसे तो निश्चित ही नहीं बन पाएँगे जैसा आप बनना चाहते थे और इसमें आपकी कोई गलती भी नहीं होगी क्योंकि ये उनकी, हमारी सोच पर जबरदस्ती है, हमारी इच्छा नहीं। रहीम इसे यूँ कहते है,-
काजर की कोठरी में, कैसो हू सयानो जाए 
एक लीक काजर की, लागिहै  पे लागि है।

यदि आप अपनी सोहबत को लेकर सजग है, ऐसी स्थितियाँ आपको बेचैन करती है जहाँ आपको मन मारकर ऐसे लोगों के साथ व्यवहार करना पड़ता है जिनकी ' वेव-लेन्थ' आपसे नहीं मिलती और आप अपने स्तर पर उन्हें बदलने के लिए थोड़े भी प्रयासरत है तो समझ लीजिए आपका काम हो गया। ये प्रकृति का 'आकर्षण-नियम' है कि सामान गुणों वाली चीजें एक-दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करती है। इस तरह, धीरे-धीरे स्वतः ही स्थितियाँ बदलने लगेंगी और आप अपने आपको सही लोगों के बीच पाएँगे।

आप जब ऐसे लोगों के बीच होंगे तो उनका जीवन आपको प्रेरित ही नहीं करेगा, दुविधा की स्थिति में आपको रास्ता भी दिखाएगा। ऐसे लोग आपको सही अर्थों में समझेंगे तो सही ही, हर अच्छे प्रयास पर उनकी हौसला अफजाई ईधन का काम करेगी। जिस तरह काजल की कोठरी में कालिख से नहीं बचा जा सकता वैसे ही पारस के पास रखे लोहे को सोने बनने से नहीं रोका जा सकता। अच्छी सोहबत से आपके व्यक्तित्व में कई सुंदर गुण स्वतः ही चले आएँगे जिनके बारे में न तो आपने कभी सोचा था और न ही कभी कोई प्रयास किया था। अपनी सोहबत को सम्भालिए आपकी सीरत स्वतः ही निखरती चली जाएगी।


(जैसा की नवज्योति में रविवार, 2 जून को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ..........  

Friday, 31 May 2013

ये सिस्टम ही ऐसा है


       ........ और आख़िरकार संजय दत्त को जेल जाना पड़ा। जब ये फैसला आया था कि उन्हें अपनी बाकि बची सज़ा भी काटनी पड़ेगी; सारे अखबारों, न्यूज़ चैनल्स पर ये खबर सुर्ख़ियों में छाई थी। कहीं उनके इंटरव्यू तो कहीं उस घटना से लेकर आज तक का सिलसिलेवार विवरण तो कहीं आमजन की प्रतिक्रियाएँ, फिर उनकी दया याचिका और फिर उसका खारिज होना। मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता कि उन्हें 'दया' मिलनी चाहिए थी या नहीं। हाँ, एक बात जो उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कही, का जिक्र जरुर करना चाहूँगा।

जब उनसे पूछा कि आप ऐसी कोई बात श्रोताओं के साथ बाँटना चाहेंगे जो आपने अपनी पिछली डेढ़ साल की सजा के दौरान शिद्दत से महसूस की हो तो वे बोले, 'फ्रीडम'।  जिन्दगी में सबसे महत्वपूर्ण कोई चीज है तो वह है - आज़ादी। आज़ादी, अपने तरीके से हक़ के साथ जीने की। उस डेढ़ साल में अहसास हुआ कि आज़ादी से बढ़कर कुछ नहीं।

वास्तव में, सच ही तो है हम अपनी जिन्दगी के, इस आज़ादी के इतने अभ्यस्त हो जाते है कि इसकी सही क़द्र नहीं कर पाते। पता तब चलता है जब ये हमारे पास नहीं होती। कहीं भी आ-जा सकना, किसी से भी मिलना, अपने विचारों को जस के तस प्रकट कर पाना, यहाँ तक कि अपनी पसंद के कपडे पहनना या अपनी पसंद और सुविधा से खा पाना और न जाने क्या-क्या, अनगनित। ये सब भूल जाते है और फिर करने लगते है इस आज़ादी का दुरूपयोग। वैसे इस आज़ादी के बदले हमें देना ही क्या होता है, सिर्फ एक अच्छा नागरिक आचरण किन्तु न जाने क्यूँ हम वो सीमा भी लाँघ जाते है। शायद छोटे-मोटे लालच या ये सिद्ध करने का अहं कि मैं इस व्यवस्था से ऊपर हूँ।

ये सारी बात हमारी इसी मनोवृति को उजागर करती है कि जो कुछ हमें प्राप्त है हम उसकी इज्ज़त नहीं करते। मन में कृतज्ञता का भाव हो तो निश्चित ही वो हमें गलत रास्तों पर जाने से रोके। अपने तरीके से जीने की आज़ादी ही की तरह जिन्दगी की न जाने कितनी नियामतें है जिनकी हम वाज़िब क़द्र नहीं करते।क़द्र नहीं करते वहाँ तक तो ठीक है, कभी-कभी बेइज्जती भी कर बैठते है तब वे रूठ कर चली जाती है। अब भला प्रकृति क्यूँ अपमान सहन करेगी और तब हमें अहसास होता है कि हमारे पास क्या था और हमने क्या खोया है? शायद संजय दत्त भी कुछ ऐसे ही अहसास साझा कर रहे थे।

आज देश और समाज की जो हालत है उसके पीछे, आपको नहीं लगता, आज़ादी की बेकद्री ही अहम् वजह है। जो कुछ आज हमें सहज-सुलभ है पहले उसकी कल्पना कर पाना ही मुश्किल था। हम सबने इस आज़ादी का दुरूपयोग अपने-अपने छोटे फायदों के लिए किया, ये सोचकर की मेरे अकेले के कुछ करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है। ऐसा सभी ने सोचा और आज फर्क हमारे सामने है। आज जो कुछ हम झेल रहे हैं, उसके जिम्मेवार हम सब हैं।

इन सब के बीच एक बात जो मन में उम्मीद की लौ जलाए है वो ये कि यदि एक अकेला व्यक्ति व्यवस्था बिगाड़ सकता है तो सुधार भी सकता है। अपने निजी-स्वार्थों के लिए आज़ादी का दुरूपयोग करते समय क्या हमने चिंता की थी कि कोई और हमारा साथ देगा या नहीं। अब उसका तो परिणाम अच्छा निकला नहीं। आज जब अपनी जिन्दगी की बेहतरी के लिए एक अच्छे नागरिक धर्म को निभाने की दरकार है तो हमें किसी और का साथ क्यूँ चाहिए? 
अरे! लोग तो जैसे पहले जुड़े थे अब भी जुड़ जाएँगे।

आज जरुरत है अपनी क्षमताओं को आँकने की। इस बात को सोचने औए समझने की, कि मेरे अकेले के कुछ करने या न करने से ही सारा फर्क पड़ता है। मैं अपने जीवन की बेहतरी चाहता हूँ तो बेहतर आचरण की शुरुआत मुझे ही करनी होगी, मुझे किस की प्रतीक्षा है और क्यों? फिर शायद कोई किसी से नहीं कहेगा 'ये सिस्टम ही ऐसा है'।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 26 मई को प्रकाशित )
आपका 
राहुल ..............

Friday, 24 May 2013

ईश्वर की कृपा है, अल्लाह का करम है.


कई सालों पहले 'श्रद्धांजलि' के नाम से लता जी का दो भागों में संगीत-संकलन आया था। इसमें उन्होंने अतीत के महान गायकों का परिचय देते हुए अपनी पसंद का उनका एक-एक गाना अपनी आवाज़ में गाया था। बहुत सुंदर और अदभुत संकलन था वो। उसी में लता जी जोहरा बाई का परिचय देते हुए एक वाकया सुनाती है, "मैं एक गाने की रिहर्सल कर रही थी। जोहरा बाई वहाँ बैठी थी। उन्होंने कहा, लता बेटी माशा अल्लाह बहुत अच्छा गा रही हो।" मैंने कहा, "नहीं-नहीं, मैं क्या ........ आप ऐसे ही कह रही है. तब वो बोलीं, नहीं बेटी, जब कोई तुम्हारे गाने की तारीफ़ करे तो कहना चाहिए, अल्लाह की मेहरबानी है। उसका करम है।"

इतनी जहीन और महीन बात जोहरा बाई जैसी महान गायिका ही कह सकती थी और अरसा बीत जाने के बाद 'ऐसे लोग अब कहाँ' कहते हुए लता जी जैसे लोग ही ऐसी मर्मस्पर्शी बात को याद रख सकते है। मर्मस्पर्शी इसलिए क्योंकि मुझे लगता है ये सीख मात्र किसी भी व्यक्ति की पात्रता या काबिलियत बढ़ा सकती है।

अपनी तारीफ़ के जवाब में यह कहना कि ईश्वर की कृपा है या अल्लाह का करम है, में दो महत्वपूर्ण बातों का समावेश है। पहली, अपनी प्रशंसा को स्वीकार करना यानि पूरे विश्वास के साथ अपने आपको उस लायक समझना और दूसरी, इस बात का ध्यान रखना कि ये स्वीकारोक्ति मन में कृतज्ञता का भाव लाए न कि अहंकार का। आज मुझे फिर मौका मिला है अपनी पसंदीदा पंक्ति को दोहराने का और मैं इसे बिल्कुल नहीं छोडूँगा। ' हम ईश्वर की स्वतन्त्र भौतिक अभिव्यक्ति हैं '- और जब हम इस बात को आत्मसात कर लेते है तो बड़ी आसानी से एक हाथ से अपनी प्रशंसा को ले दूसरे हाथ से उसे परमात्मा के चरणों में समर्पित कर पाते है।

प्रशंसा की विनम्र स्वीकारोक्ति हमारी ग्रहण करने की शक्ति को बढाती है और हम वह सब और बेहतर करने में समर्थ एवम सहज पाते है जिस कारण हमारी प्रशंसा हुई है।  तरह हम अपने क्षेत्र में निपुण होते चले जाते है और एक दिन अपने-अपने क्षेत्र में लता मंगेशकर बनने की राह पर होते है। समस्या तो तब पैदा होती है जब हमारी प्रशंसा हमारा अहंकार तुष्ट करने लगती है। हमें ये ग़लतफ़हमी हो जाती है कि मेरे बिना तो ये सम्भव नहीं । मैं नहीं होता तो ये कौन कर पाता? इस तरह हम स्वयं ही अपनी बेहतरी के रास्ते में खड़े हो जाते है और फिर तो ईश्वर भी चाहे तो हमारी मदद नहीं कर सकता।

आपकी प्रशंसा आपकी पहचान है, आप में ईश्वर होने का प्रमाण-पत्र। इसे स्वीकार कीजिए और धन्यवाद दीजिए उस ईश्वर को जिसने आपको इस लायक समझा। आप साज़ है, साजिन्दे नहीं। साजिन्दे को साज़ बजाने की खुली छूट दीजिए, फिर देखिए ये मधुर-संगीत किस तरह आपके जीवन में रस घोल देता है।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 19 मई को प्रकाशित )
आपका,
राहुल ..............                            

Friday, 17 May 2013

कहिए जब कोई सुनना चाहे



'ज्ञानी से कहिए कहा, कहत कबीर लजाए 
अन्धे  आगे  नाचते  कला  अकारथ जाए।'              - कबीर 


आप कहना चाहे पर जरुरी है कि अगला सुनना भी चाहे। आप की नज़र में आप जो कह रहे है वह कितना ही महत्वपूर्ण या अच्छा क्यूँ न हो, वह तब तक निरर्थक है जब तक सुनने वाला भी ऐसा ही नहीं सोचता हो। कबीर यही तो कह रहे है कि, अन्यथा सारा ज्ञान व्यर्थ जाएगा।

कौन नहीं चाहता कि उसकी बात को गम्भीरता से लिया जाए? लेकिन ऐसा होता बहुत कम बार, बहुत कम लोगों के साथ है। आइए, सबसे पहले पड़ताल करते है कि व्यक्ति बोलता ही क्यूँ है? क्योंकि इसे जाने बिना ये नहीं समझा जा सकता कि व्यक्ति को कब, किसे और कितना कहना है? व्यक्ति के बोलने की मोटा-मोटी तीन वजहें होती है। पहली, जब भावनाओं का अतिरेक अभिव्यक्ति चाहे; दूसरी, किसी को राह दिखाना आपका दायित्व हो और तीसरी, जरुरी सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए।

भावनाओं का अतिरेक, चाहे वे ख़ुशी की हों या दुःख की, उनके साथ साझा कीजिए जिन्हें आपके सुख-दुःख से सरोकार हो। हो सकता है ऐसे लोग आपसे सहमत न हो, लेकिन इनका इरादा नेक होता है। इनकी असहमति में भी आपके भले की सोच ही छिपी है परन्तु हम चुनते है ऐसे लोगों को जो हमारी हाँ में हाँ मिलाते है क्योंकि इनसे हमें अपनी भावनाओं की तयशुदा स्वीकृति मिलती है। ऐसे लोग हमें क्षणिक ख़ुशी जरुर दे सकते है लेकिन हमारे जीवन को कभी उन्नत नहीं बना सकते। ऐसे लोगों, जिन्हें आपके सुख-दुःख से सरोकार है, से भी तब बात कीजिए जब वे स्वयं भावनात्मक स्तर पर आप से जुड़ पाने की स्थिति में हों, सम-स्थिति में हों और तब तक कीजिए जब तक उन्हें भी रस आए। यदि आप ध्यान रखेंगे तो उनका चेहरा आपको इशारा कर देगा।

सबसे नाजुक है ऐसे लोगों तक अपनी बात सही अर्थों में पहुँचा पाना जिन्हें राह दिखाना हमारा कर्त्तव्य हो। नाजुक इसलिए क्योंकि यहाँ हमारे कहे शब्द आपसी रिश्तों को खट्ठा या मीठा बना सकते है, खास तौर से हमारे बच्चों से हमारे रिश्तों को। मैंने अनुभव किया कि एक तरफ तो कुछ कहना नितांत जरुरी होता है तो दूसरी तरफ उन्हें ऐसी बातें सुनना कतई गवारा नहीं होता। इस तरह बात हमेशा नाराजगी पर ख़त्म हो जाया करती थी। मैंने जो पाया वह यह कि यदि ऐसी स्थिति है तो सबसे पहले हमें हमारे कहे कि जरुरत पैदा करनी होगी, फिर चाहे वो हमारे बात करने के तरीके से हो या हमारे आचरण से। उनके स्तर पर जाकर उनके मन के दरवाजों को खोलना होगा, शब्दों की बजाए उनके छिपे अर्थों को पकड़ने की कोशिश करनी होगी और यह सब तब ही होगा जब उन्हें पक्का विश्वास हो की उनकी बात आपकी नज़र में गलत हो या सही, बात नकारी जा सकती है वे नहीं। आपका प्रेम अखंडित रहेगा। मैंने कोशिश शुरू कर दी है और मजा आने लगा है।

बोलने की आखिरी वजह, सूचनाओं का आदान-प्रदान। वैसे तो यह जीने की जरुरत है लेकिन 'फर्स्ट-इनफॉर्मर' नाम की बीमारी से तो, तो भी बचना होगा। इस बीमारी में हम लोगों को कोई बात सिर्फ इसलिए बताते फिरते है जिससे हम सिद्ध कर सकें कि सबसे पहले ये हमें मालूम चली है। ऐसी हालत हमें सिर्फ हँसी का पात्र ही बनाती है। 

मेरे सबसे प्रिय लेखक श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' अपनी पुस्तक 'बाजे पायलिया के घुंघरू' के प्राक्कथन में लिखते है कि जो कहें, ह्रदय से कहें न कि बुद्धि से। ह्रदय विश्वासी और बुद्धि अविश्वासी। ह्रदय से कही बात ह्रदय में उतरती है जबकि बुद्धि से कही बात बुद्धि से टकराकर लौट आती है। वे आगे लिखते है कि आपके शब्द किसी को निरुत्तर करने के लिए नहीं बल्कि एक-दूसरे के मन को शांत करने के लिए हों। मुझे नहीं लगता की अपनी बात को प्रभावी बनाने का इससे सहज-सुन्दर कोई और गुरु-मंत्र हो सकता है।


(जैसा कि नवज्योति में रविवार, 12 मई को प्रकाशित)
आपका 
राहुल.......