Friday, 29 June 2012

कभी अपना साथ न छोड़ें





हम लोग सबका साथ निभाते-निभाते अपना ही साथ छोड़ देते है. आज मैं आपको यही याद दिलाना चाहता हूँ की हमारी सबसे पहली निष्ठा अपने आप से है फिर किसी और से. आप सोच रहे होंगे मैं आपको स्वार्थी और अक्खड़ बनने को प्रेरित कर रहा हूँ. नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है. मैं तो सिर्फ आपको अपनी भी सुनने को कह रहा हूँ.

अपनी सुनने का मतलब है हर क्षण अपनी प्राथमिकताओं को जेहन में रखते हुए नीतिगत आचरण करना. यहाँ मैं अपने आपको अपनी प्रिय पंक्ति दोहराने से नहीं रोक पा रहा हूँ कि हम सब ईश्वर की स्वतंत्र भौतिक अभिव्यक्ति है. हम इस जीवन को जिस तरह जीना चाहते है और जो कुछ भी इससे पाना चाहते है उसके लिए आवश्यक प्रयास ही हमारी प्राथमिकताएँ होनी चाहिए क्योंकि ये ही हमारी अभिव्यक्ति का आधार है. इसके साथ ही जरुरी है कि हमारे प्रयास नीतिगत हों. सरल शब्दों में नीतिगत आचरण यानि कोई ऐसा काम न करना जिए हमारा दिल गवारा न करें. 

प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सोच और अपना नजरिया होता है. अहम् हमें यह मानने पर मजबूर करता है कि सिर्फ हमारी सोच और हमारा नजरिया ही श्रेष्ठ है और इसलिए हम जाने-अनजाने एक-दूसरे पर ये दोनों ही थोपने लगते है. विचारों के इस आक्रमण से अपने आपको बचाना हमारा कर्त्तव्य भी है और अधिकार भी, और यही है अपने प्रति निष्ठा लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं है कि हम किसी की न सुनें और मनमाना व्यवहार करें. यदि किसी की बात हमें ठीक लगती है तो उसे अपने मानदण्डों पर कसें और खरी उतरें तो जरुर अपनायें.

कभी-कभी रास्ते के छोटे-मोटे लालच भी हमें अपनी राह से भटकाते है. अपने सपनों को पूरा करने की राह में ऐसे मोड़ जरुर आते है जहाँ से हमें जीवन ज्यादा आसान, आरामदायक और सुविधाजनक लगता है. ये परीक्षाएँ है अपने प्रति हमारी निष्ठा की. ऐसे समय हमें याद करना होगा कि हम जीवन को किस तरह जीना और इससे क्या पाना चाहते थे? हमारा इतना सोचना भर काफी होगा हमें अपनी राह पर लौटने के लिए. 

यहाँ एक स्वाभाविक सा प्रश्न उठता है कि क्या हम सिर्फ अपनी इच्छाओं को अपना जीवन ध्येय बना लें और किसी के सुख-दुःख से हमें कोई सरोकार न रहे?

मैं इस प्रश्न का जवाब एक प्रश्न से ही दूँगा. क्या किसी डूबते को बचाने के लिए आप साथ डूबते है?  नहीं ना, आप  उसे तैर कर बचाते है. आपकी अपने प्रति निष्ठा आपको समर्थ बनाती है कि आप किसी के काम आ सकें. सच तो यह है कि हम अपनी भावनाओं का आदर कर ही दूसरों कि भावनाओं को समझ पायेंगे, अपनी सोच के साथ सहज होकर ही दूसरों की सोच को स्वीकार कर पायेंगे, अपनी खुशियों को तलाश कर ही दूसरों के दुखों को बाँट पायेंगे.

जीवन को इस तरह जीने में बहुत साहस चाहिए क्योंकि हो सकता है कुछ अपने, आप से नाराज़ हो जाएँ या आपका साथ ही छोड़ दें. आप बिलकुल न घबराएँ, वास्तव में ये कभी आपके अपने थे ही नहीं. आप इनके लिए अपना मतलब निकालने का साधन भर थे. इनका तो साथ छूट जाना ही अच्छा भले ही कुछ दूर अकेला ही क्यूँ न चलना पड़े क्योंकि तब ही तो आप अगले मोड़ पर उन लोगों का हाथ थाम पायेंगे जो आपके सच्चे साथी है.

यह साहस आएगा आपको अपने पर सम्पूर्ण विश्वास से. आपकी दृढ सोच से कि मैं जिस तरह जीना चाहता हूँ व जीवन से जो कुछ भी पाना चाहता हूँ वह सर्वथा उचित है. अपने पर भरोसे से कि यदि अन्तर्मन कुछ कह रहा है तो वो तब ही जब मुझमें उसे कर पाने का सामर्थ्य है.

आइए, अपने होकर सबको अपना बना लें. साथ मिलकर इस जीवन को भरपूर जिएँ और आनंद उठाएँ.

( दैनिक नवज्योति में २४ जून, रविवार को प्रकाशित )

आपका,
राहुल.....   

Friday, 22 June 2012

कभी हाँ कभी ना




दुनिया के सारे धार्मिक और आध्यात्मिक अभ्यास सिखाते है की हमारा आचरण हमारे हाथ है. हमारी अच्छाई हमारे साथ रहती है. हम वो करें जो उचित हो और हमें ठीक लगता हो, सामने वाले ने क्या किया या प्रतुतर में क्या करता है इससे हमें सरोकार नहीं होना चाहिए. साथ ही यह भी की हम किसी व्यक्ति या परिस्थिति के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रसित न हों. उनके बारे में कोई स्थायी धारणा या राय कायम ना करें. हमारा व्यवहार दूसरों के व्यवहार के साथ-साथ भूतकाल से भी अप्रभावित रहे.

इस सब का मतलब हम यह निकाल बैठते है की लोगों की नीयत और घटनाओं की प्रष्टभूमि को अनदेखा कर हर स्थिति में एक से बने रहें.यदि हमने ऐसा किया तब तो चाहे अनजाने ही सही हम लोगों को खुली छुट दे रहे होंगे की वे अपने निजी स्वार्थों के लिए हमारा उपयोग कर लें और हम लोगों के हाथों की कठपुतली भर बन कर रह जाएँ. यही वजह है की हमें ये सारी बातें अव्यावहारिक लगती है.

सच तो यह है की जहाँ अपने आचरण को बाहरी प्रभावों से मुक्त रखना सद्चरित्र होने की निशानी है वहीँ सही और गलत में भेद कर पाना विवेकशील व्यक्ति की पहचान. दोनों ही के बिना व्यक्ति का धार्मिक-आध्यात्मिक विकास संभव नहीं. सीधे शब्दों में यों कह लें की जीवन में आनंद और सफलता 'हाँ' और 'ना' इन दो शब्दों के सही समय पर किए सही प्रयोग पर टिकी है.

वास्तव में हमारा व्यवहार दूसरों के व्यवहार से तब ही स्वतंत्र रह सकता है जब हम व्यक्ति और घटनाओं को अहम् की नजर से न देखें. अहम् के कारण ही हम व्यक्ति को घटनाओं के परे नहीं देख पाते और किसी एक घटना के आधार पर व्यक्ति के बारे में राय कायम कर लेते है. हमारा अहम् हमेशा ही चाहता है की वो अनपेक्षित व अनचाहे परिणामों के लिए किसी और को दोषी ठहरा सकें. ऐसा कर हम अपनों से दूर होते चले जाते है और जीवन को अनावश्यक तनावों से भर जटिल बना लेते है. हमारा व्यवहार अहम् से नियंत्रित न हो यही है आचरण की बाहरी प्रभावों से मुक्ति.

यदि अपने अहम् को दर-किनार कर निष्पक्ष भाव से देखने पर भी हमें व्यक्ति की नीयत ठीक न लगे तो हमारा अधिकार बनता है की हम स्पष्ट लेकिन विनम्र शब्दों में अपनी असहमति जता दें. इसी तरह भूतकाल की किसी घटना के आधार पर व्यक्ति के बारे में कोई स्थायी राय न बनाए लेकिन अपने अनुभवों के आधार पर आपसी व्यवहार में सावधानी जरुर बरतें. यही है विवेकशील होना.

उचित और अनुचित के विवेक के साथ वो साहस भी जरुरी है जिससे हम सही समय पर 'हाँ' और 'ना' का सही उपयोग कर सकें. यह साहस इस अहसास से आयगा की जब हम किसी चीज को 'ना' कह रहे होते है तब उसी में किसी और के लिए 'हाँ' छुपी होती है. यह 'ना' उस 'हाँ' से हजार गुना बेहतर है जो आधे-अधूरे मन से की जाएँ क्योंकि यह 'ना' स्वयं के सम्मान की भावना से निकलती है. विश्वास मानिए ऐसा करने पर उल्टा लोग भी आपको ज्यादा अहमियत देंगे.

दो बातें है जो हमें ऐसा करने से रोकती है. पहली तो हमारा समाज असहमति को आक्रामकता और असभ्यता मानता है क्योंकि कहीं न कहीं हम सब चाहते है की दूसरे हमारे अनुसार जिएँ. दूसरी हमारी यह मानसिकता की किसी को ना कहना अपनी अक्षमता की स्वीकारोक्ति है. इन बातों का अहसास ही हमें ना करने और सुनने के प्रति सहज बनाएगा.

सच तो यह है की अहम् मुक्त होकर अपनी निजता का सम्मान करते हुए विनम्र शब्दों में असहमत होना जीवन की सबसे बड़ी बहादुरी है.

( रविवार, 17 जून को 'पूर्वाग्रह से बचें' शीर्षक के साथ प्रकाशित)
आपका,

Friday, 15 June 2012

सही दिशा में एक कदम





रास्तों के बारे में हम चाहे जितनी बात कर लें, जानकारियाँ इकट्ठी कर लें, उन पर चलना शुरू किए बिना गंतव्य तक नहीं पहुंचा जा सकता. ठीक इसी तरह जीवन में भी हम जो कुछ करना और पाना चाहते है उसे साहस जुटा शुरू कर पायें तो समझ लीजिए आधा काम तो हो गया. काम कि शुरुआत में ही उसकी सफलता छुपी होती है.


हमारा सारा ज्ञान, ध्यान और प्रार्थनाएँ तब तक बेमानी है जब तक पूरे विश्वास के साथ उन्हें जिएँ नहीं. हमारी  समस्या यह है कि हम जानते तो है पर मानते नहीं. हम में से अधिकाँश के दिल में यह बात गहरे पैठी हुई है कि ये सारी बातें कहने-सुनने में तो अच्छी लगती है पर दुनिया ऐसे नहीं चलती. यही कारण है कि हम चाहते कुछ और है करते कुछ और है. बम्बई कि ट्रेन में बैठकर दिल्ली के नहीं आने को कोसते रहते है.

एक मिनट के लिए ठिठक कर अपनी भाग-दौड़ भरी जिन्दगी पर नज़र डालें और देखें कि हमारे दैनिक क्रिया-कलापों और जीवन-उद्देश्यों में कितना सामंजस्य है. हम सब बहुत व्यस्त है लेकिन क्या ये व्यस्तता उन कामों को लेकर है जो हम जिन्दगी से चाहते है या हम सोचते है कि उनसे तो इस सांसारिक जीवन का निर्वहन संभव नहीं इसलिए अपने-आपको उस दिशा में झोंके रहते है जिसे हमारे आस-पास कि दुनिया सफलता कि गारंटी समझती है. जैसे हमारा दिल तो संगीत में लगता है लेकिन यह सोचकर कि इससे तो गुजारा संभव नहीं हम अपने अंतस कि आवाज़ को अनसुनी कर बंधे-बंधाये ढर्रे पर निकल पड़ते है. ये तो अच्छा हुआ पंडित जसराज और उस्ताद बिस्मिल्लाह खां जैसे लोगों ने ऐसे नहीं सोचा. सच तो यह है कि हमारे जीवन में तनाव का कारण हमारी व्यस्तता नहीं हमारे अंतर्मन कि पुकार और दैनिक जीवन का असंतुलन है.

हमारा दायित्व काम कि शुरुआत है शेष जिम्मेदारी प्रकृति की है. कर्म और प्रकृति का यह रिश्ता गणित के प्रश्न की तरह है. यदि फॉर्मूला सही है तो प्रश्न स्वतः ही हल होता चला जाएगा और यदि फॉर्मूला ही गलत है तो आप चाहें जितनी मेहनत कर लें कुछ नहीं होने वाला. हमारी मेहनत फॉर्मूलों को याद रख, सही जगह पर सही फॉर्मूले के प्रयोग कर पाने के अभ्यास में होनी चाहिए ना कि गलत फॉर्मूले से प्रश्न को हल करने में. कर्म और प्रकृति के रिश्ते को इस तरह निभाने मात्र से जीवन में संघर्ष का कोई स्थान नहीं रह जाएगा.

हमारे लिए वे ही काम करने योग्य है जो हमारे स्वभाव और प्रवृतियों से मेल खाते हो शायद इसीलिए कहा जाता है कि व्यक्ति अपने जन्म के साथ अपने कर्म भी लेकर आता है. यही वह फॉर्मूला है जिससे गणित के प्रश्न कि तरह जीवन सुलझता चला जाएगा बस जरुरत है तो पूरे विश्वास के साथ सही दिशा में एक कदम उठाने भर कि. हमारे चारों और ऐसे ढेरों उदाहरण बिखरे पड़े है जैसे नारायण मूर्ति, अब्दुल कलाम, सचिन तेंदुलकर आदि-आदि.

इन सब लोगों ने शुरुआत कि और यही महत्वपूर्ण था. इनमें से किसे मालूम था कि वे जीवन में यह मुकाम हासिल कर पायेंगे लेकिन इन सब ने उस राह पर कदम उठाने का साहस किया जो यह अपने जीवन से चाहते थे  और नतीजा दुनिया के सामने है. 
किसी ने ठीक ही कहा है,....
कौन कहता है सुराख आसमान में हो नहीं सकता,
एक   पत्थर   तो   तबियत   से   उछालों   यारों..... 

( दैनिक नवज्योति में 10 जून, रविवार को प्रकाशित ) 
आपका
राहुल.....

 

Friday, 8 June 2012

अनुभव, जीवन कि कक्षाएँ



जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया तब अंग्रेजी छठी कक्षा से शुरू होती थी. उन सालों पिताजी अंग्रेजी घर पर पढाया करते थे. नए शब्दों को लिखने और बोलने में सहजता रहे इसलिए उन्होंने मुझे रोमन इंग्लिश का जमकर अभ्यास करवाया. रोमन इंग्लिश यानि ढ को डीएच व ख को केएच लिखना. उस समय बड़ी कोफ़्त आती थी और लगता था कि इस सब का इतना अभ्यास अनावश्यक है. समय के साथ बात आई-गई हो गई. अभी साल भर पहले जब मैंने अपने लिखने कि शुरुआत कम्प्यूटर पर ब्लॉग लिखने से कि तब हिंदी टाइपिंग ना आना रह का रोड़ा बनी हुई थी. काफी कोशिशों के बाद मुझे एक सॉफ्टवेयर मिला जो रोमन इंग्लिश को टाइप करने पर हिंदी में लिखता था. उस दिन में पिताजी के करवाए उस अभ्यास को याद कर रहा था जिसकी बदौलत लिखना शुरू कर पाया और आज इस स्तम्भ के जरिए आपसे बात कर पा रहा हूँ.

जीवन का कोई अनुभव निरर्थक और निरुद्देश्य नहीं होता. हो सकता है किसी काम को करते समय हमें वह मज़बूरी या समय कि बरबादी लगे लेकिन सच तो यह है कि प्रकृति हमें अपने तरीके से भविष्य के लिए तैयार कर रही होती है. जो काम आज हमारे हाथ में है उसे अच्छे से अच्छा करने कि कोशिश करें क्योंकि हमें नहीं मालूम यह अनुभव कल हमारे किस काम आएगा.

तितली का जीवन-चक्र इसका जीता-जागता उदाहरण है. एक केटेपिलर को केकून बनते समय इस बात का अंदाजा नहीं होता कि इसका फल तितली  बन पाना है लेकिन वह पूरे समर्पण भाव से केकून होना स्वीकार कर लेता है और समर्पण का यही भाव एक सुन्दर तितली को जन्म देता है.

यह बात उन मुश्किलों, रुकावटों और दुखों पर भी लागू होती है जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता. ये वास्तव में प्रकृति के ट्रेनिंग केम्प है जहाँ वह हमें भविष्य के लिए तैयार कर रही होती है इसलिए इनसे भागने या टालने में हमारा ही अहित है.

दुःख के क्षण किसके जीवन में नहीं आते चाहे वह गंभीर बीमारी हो, आर्थिक नुकसान या फिर रिश्तों में दरार लेकिन ऐसे समय हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि हम भी प्रकृति का एक हिस्सा है और प्रकृति के जीवन में दुर्घटनाओं का कोई स्थान नहीं. प्रकृति संतुलन का पर्याय है और प्रकृति कि नज़र से देखें तो जो कुछ भी घटता है उसे वैसे ही घटना होता है. हम सब ने अपने-अपने जीवन में कई बार महसूस किया है कि जिन बातों पर हम आज शोक मना रहे होते है वे ही कुछ सालों बाद हमें वरदान लगने लगती है. हमने एक दूसरे को यह कहते खूब सुना है कि उस दिन मेरे साथ वह नहीं हुआ होता तो में आज यहाँ नहीं होता.

सच पूछो तो शोक मनाना हमारा परम्परागत आचरण है क्योंकि यह अहम् कि पसंद है. सब का ध्यान अपनी और आकर्षित कर पाना, लोगों से सहानुभूति पाना, अपनी कमियों को दूसरों कि नज़र में सही ठहरा पाना इसके अतिरिक्त लाभ है लेकिन इसकी कीमत चुकानी पड़ती है अपनी मानसिक शान्ति, आत्मिक सुख और व्यक्तिगत विकास को खोकर. अब आप ही बताइए या सौदा लाभ का है या हानि का?  इसका मतलब यह नहीं कि हम अपनी भावनाओं का सम्मान ना करें और असंवेदनशील हो जाएँ. दुःख को दुःख और सुख को सुख महसूस करना ही तो सच्ची अनुभूति और अभिव्यक्ति का आधार है लेकिन दुःख को शोक में बदल लम्बे समय तक उसे मनाते रहना और अपना पर्याय बना लेना स्वेच्छा का विषय है.

जीवन के अनुभव या तो आनंद मनाने के लिए होते है या सीखने के लिए अतः समर्पण भाव से सम्पूर्णता के साथ इन अनुभवों को जीकर ही जीवन को सार्थक और सोद्देश्य बनाया जा सकता है.

(रविवार, ३ जून को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका
राहुल...... 

Saturday, 2 June 2012

आत्म-स्वीकृति ही सच्ची स्वतंत्रता




" जब तक तुम अपने आपको वापस बच्चा नहीं बना लेते, तुम्हे स्वर्ग में आने कि  इजाजत  नहीं. "
  
                                                                                                             -- जीसस

जब भी हम बच्चों के बारे में बात कर रहे होते है यह बात जरुर निकलती है कि बच्चे ईश्वर का रूप होते है. हम ऐसा मानते भी है लेकिन क्या हमने कभी इस सच को उधेडा है? क्या कुछ लोग ही बच्चों के रूप में पैदा हुआ थे? नहीं ना, तब तो हम यह भी मान रहे होते है कि हमने भी अपने जीवन कि शुरुआत ईश्वरीय होने से कि थी. तो फिर रास्ते में क्या हुआ कि हमने अपने होने को भुला दिया.

पैदा होने के साथ ही हम यह सीखने लगते है कि दुनिया में जो कुछ भी है या तो वह अच्छा है या बुरा. ऐसा करेंगे तो अच्छे बनेगे और वसा करेंगे तो बुरे. इस तरह हमारी हर नाकाम कोशिश हमें अपनी ही नज़रों में गिराती चली जाती है और जैसे-जैसे हम बड़े होते है अपनी सीमाएँ तय कर लेते है कि हम क्या कर सकते है क्या नहीं. एक माता-पिता के रूप में हमें चाहिए कि हम बच्चों को क्या अच्छा है और क्या बुरा है बताने कि बजाय उनमे यह समझ पैदा करने कि कोशिश करें कि वे स्वयं तय कर सकें कि उनके लिए क्या उचित है और क्या अनुचित. हमारा कर्त्तव्य बच्चों को हमारी तरह जीना सिखाना नहीं बल्कि उन्हें अपनी तरह जी पाने के लायक बनाना है.

बच्चों कि मासूमियत ही तो है जो उन्हें ईश्वरीय बनाती है. मासूम होना मतलब जल्दी से माफ़ कर देना, अपनी पसंद-नापसंद के बारे में स्पष्ट होना, बिना डर और आलोचना कि परवाह किए बिना वह करना जो दिल कहें, अपने रूप-रंग में त्रुटी नहीं ढूँढना आदि-आदि. ये ही बच्चे बड़े होने के साथ-साथ जीवन के हर पहलू के बारे में अपनी राय बना लेते है. अपनी मासूमियत को वापस पाने का एकमात्र उपाय है आत्म-स्वीकृति. आत्म-स्वीकृति ही सच्ची स्वतंत्रता है. आत्म-स्वीकृति यानी इस क्षण में अपने और अपने जीवन को सम्पूर्णता के साथ स्वीकार करना. यह स्वीकारोक्ति ही हमें वो मानसिक स्पष्टता देगी जो इस क्षण के चुनावों को आसान बना आने वाले कल को कहीं बेहतर और मनचाहा बनाने में मदद करेगी.

गलतियाँ किससे नहीं होती लेकिन यदि उन्हें महसूस कर हम उन्हें नहीं दोहराने कि सीख ले लें तो वे जागृती बन जाती है. जागृत होना एक सुखद घटना है जबकि गलतियों से बिना सीखे स्वयं को दोषी ठहराते जाना और मन को ग्लानि से भर लेना गुनाह है.

हम अपने आपको कितना स्वीकार करते है यह एक छोटे से प्रश्न से जाँच सकते है. क्या में स्वयं के लिए भी वो सब कुछ करने को तत्पर रहता हूँ जिन्हें अपने प्रियजनों के लिए करते हुआ बिलकुल नहीं झिझकता? हमें वो सब कुछ करना चाहिए जिससे भविष्य में इस प्रश्न का जवाब हाँ में दे सकें. स्वयं के बारे में सोचना स्वार्थ नहीं है और अपनी अवहेलना करना प्रेम नहीं है. जहाँ दूसरों के हित-अहित कि परवाह किए बिना अपनी इच्छाएँ पूरी करना स्वार्थ है वहीँ अपने और अपनों में फर्क न करना प्रेम है. हम खुद को स्वीकार कर ही दूसरों को स्वीकार कर सकते है. खुद कि गलतियों और कमियों के प्रति सहजता ही हमें दूसरों के प्रति ऐसा ही व्यवहार कर पाने के सक्षम बनाएगी.

आत्म-स्वीकृति कि यह राह हमारे  मन से असफल होने का डर व  आलोचनाओं कि चिंता मिटा देगी. हम धारणाओं  से मुक्त हो अपने अंतर्मन क़ी आवाज  पर जिएँगे. यह एहसास हमारे इस विश्वास को और पक्का कर देगा कि हम सब की जीवन के इस रंग-मंच पर एक ख़ास भूमिका है  और  हर कलाकार अपने- अपने किरदार को शिद्दत से निभाकर ही नाटक को सफल बना सकता है.  इतने लोग और फिर भी सब क़ी अलग- अलग शक्ल सूरत क्या हमारे अद्वितीय होने क़ी परमात्मा क़ी मंशा जाहिर नहीं करती ?
 
{जैसा कि रविवार, 27 मई को दैनिक  नवज्योति में प्रकाशित }

आपका, 
राहुल.....

 

Friday, 25 May 2012

जीवन, ताश का एक खेल





एक अच्छा नर्तक वही है जो संगीत की लय-ताल के साथ अपना तारतम्य बिठा लें. जब संगीत साज की बजाय उसके पैरों और भाव-भंगिमाओं से फूटता जान पड़े. जीवन जीने की कला भी यही है जब व्यक्ति अपने जीवन की लय के साथ अपनी कदम-ताल मिलाएं, जीवन धारा के साथ एकरूप हो जाए.

जीवन-धारा के साथ बहने का मतलब यह कतई नहीं है की हम समाज द्वारा निर्धारित परम्पराओं, मान्यताओं और रुढियों को ज्यों का त्यों अपना लें या हम क्या करें यह किसी और के जीवन से उधार ले लें. जीवन-धारा के साथ एकरूप होने का यह मतलब भी नहीं है की हम निष्क्रिय हो, अपनी स्वाभाविक रचनात्मकता को छोड़ लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाएँ. अपना जीवन वसे जिएँ जैसा लोग हमसे चाहते है. जीवन-धारा में बहने का मतलब तो है वह करना जो इस क्षण में हमारी समझ से सबसे ज्यादा उपयुक्त है.

हम सब एक सामान्य शिकायत जिसने मुझे आपसे इस विषय पर बात करने के लिए प्रेरित किया कि ' यदि मैं परिस्थितियों के हाथों मजबूर नहीं होता तो इससे कहीं बेहतर होता.' सबसे पहले तो हम जीवन की अधिकांशतः परिस्थितियों के लिए स्वयं जिम्मेदार होते है और दूसरा हमारा अहम् जो हमारे साहसी नहीं होने को परिस्थितियों के गले मढ़ देता है.

हाँ, जीवन मैं कुछ परिस्थतियाँ ऐसी भी होती है जिनके लिए न तो हम जिम्मेदार होते है न ही वे हमारे नियंत्रण मैं होती है.ऐसे समय मैं हो सकता है हमारे लिए वैसा करना ज्यादा ठीक हो जैसा हम साधारण परिस्थितियों में नहीं करते. यही है अपने कर्तव्यों का निर्वहन. मेरे निजी अनुभवों ने यह बात समझाई है की ये परिस्थितियाँ वो संकेत है जिस दिशा मैं प्रकृति हमें ले जाना चाहती है. हमें एक दृश्य का ज्ञान है तो प्रकृति को पूरी पटकथा का. निःसंदेह प्रकृति के इशारे हमारी बुद्धि से ज्यादा भरोसे लायक होते है. हमें भरोसा रखना चाहिए की यदि ऐसा है भी तो प्रकृति ने हमारे लिए हमसे ज्यादा अच्छा सोच रक्खा होगा और इस तरह कर्त्तव्य बोध हमारी इच्छाओं की उपज होगी न की मज़बूरी की. कर्तव्यों को जब हम मजबूरन निभाते है तो जीवन एक बोझ बन जाता है और मज़बूरी समझकर लाख ढंग से निभाए कर्त्तव्य भी जीवन-परिस्थितियों को हमारे अनुकूल नहीं बना पाते. इसी कारण हमें अपनी जीवन-परिस्थितियों से हमेशा शिकायत रहती है. सच्चा कर्त्तव्य वही है जिसे करने को हमारा अंतस भी कहें और बुद्धि भी सही ठहराएँ.

भाग्य और पुरुषार्थ के इस द्वन्द को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक भगवदगीता के परिचय में बिलकुल ठीक समझाया है, " जीवन, ताश का एक खेल है. न तो हमने इसका अविष्कार किया न ही इसके नियम बनाये. पत्तों के बंटवारे पर भी हमारा कोई नियंत्रण नहीं चाहे वे अच्छे है या बुरे. भाग्य का शासन बस यहीं तक है. आगे हम पर है की हम कैसे खेलें. हो सकता है एक कुशल खिलाड़ी खराब पत्तों के बावजूद जीत जाएँ और एक अनाडी अच्छे पत्तों के साथ भी खेल का नाश कर दें." यही है पुरुषार्थ. वे आगे लिखते है, " अपने चुनाव का समुचित प्रयोग करते हुए हम धीरे-धीरे सभी तत्वों पर नियंत्रण कर प्रकृति के नियतिवाद को समाप्त कर सकते है."

आइए, जीवन-धारा के साथ बह प्रकृति से एकरूप हो जाएँ. जीवन-संगीत पर थिरकें और जीवन उत्सव का आनंद उठाये.


( रविवार, 20 मई को नवज्योति में प्रकाशित)

आपका,
राहुल.....  



Friday, 18 May 2012

देने में ही पाना है




रेत को हम जितनी जोर से मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश करते है उतनी ही तेजी से वह फिसलने लगती है.यह बात जीवन के हर पहलू पर ज्यों की त्यों लागू होती है चाहे बीता कल हो, रिश्ते हो या हमारी सांसारिक उपलब्धियाँ. हम अपनी सुखद स्मृतियों को इस क्षण में जीना चाहते है, रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए कोशिश करने लगते है की दूसरे हमारे हिसाब से जिएँ और जीवन में जो कुछ हम हासिल कर पाए उसे बनाये रखने को जीवन जीने का आधार बना लेते है. होता ठीक इसका उलट है; इस तरह हम रिश्तों में घुटन भर लेते है, अपनी स्वाभाविक रचनात्मकता का गला घोंट देते है और इस क्षण को खोकर तो जीवन ही को खो देते है.

हम ऐसा क्यूँ करने लगते है ?

आपने महसूस किया होगा हम हर छोटी - बड़ी बात पर उन दिनों का हवाला देते है जब हम सोचते है की सब कुछ ठीक था. यह और कुछ नहीं हमारी प्रवृति है. कुछ सालों बाद हम 'आज' को भी इसीलिए याद करेंगे. यह प्रवृति है बीते हुए कल में रहने की. हमें वे सुखद स्मृतियाँ इसलिए कचोटती है की सब कुछ ठीक था लेकिन हम उन दिनों को उनकी सम्पूर्णता से नहीं जी पाए, उनका भरपूर आनंद नहीं ले पाए. यह अफ़सोस ही उन दिनों को जिन्दा रखता है और हम उन क्षणों को आज में जीने की कोशिश करने लगते है. कल को आज में तो कोई नहीं जी पाया. हाँ, इतना जरुर है की इस चक्कर में हम आज को भी खो देते है.

यह भी सही है की किसी व्यक्ति के लिए जीवन के हर क्षण को उसकी सम्पूर्णता के साथ जीना संभव नहीं. हमारा यह सारा अभ्यास वहाँ तक पहुँचने भर तक का है. हमें यह मानना होगा की उन दिनों हमने वही किया जितनी हमारी समझ थी. उससे अलग या अच्छा कर पाना हमारे लिए संभव ही नहीं था इसलिए किसी भी प्रकार के अफ़सोस का कोई स्थान नहीं. यही स्पष्टता हमें इस क्षण को भरपूर जीने का उत्साह देगी.

यही गलती हम अपने रिश्तों में भी कर बैठते है. जब रिश्तों में होते है तब एक दूसरे को अपनी ही तरह ढालने की कोशिश में लगे रहते है लेकिन जब रिश्तों की उम्र हो जाती है तब उन्हें पूरी तरह नहीं जी पाने की कसक लिए उन्हें याद करते है. जीवन की सच्ची ख़ुशी इसी में है की हम रिश्तों का आनंद तब लें जब उनमें हों. हम एक-दूसरे को अपनी-अपनी जगह दें. रिश्ते होते ही इसलिए है की एक दूसरे को अपने-अपने तरीके से जीने और अभिव्यक्त करने में सहायता कर सकें.

रही बात सांसारिक उपलब्धियों की तो इन्हें बनाए रखने की जुगत हमें नया कुछ कुछ भी करने से रोकती है. कुछ नया करना यानि जोखिम उठाना यानि जो कुछ है उसके खोने का डर. इस तरह हम खुद ही अपने को जीवन में और अधिक सफलताओं और ऊचाईयों को छूने से रोक लेते है.

जीवन की यही उलटबांसी जो सैंट फ्रांसिस की विश्व - प्रसिद्द प्रार्थना की एक पंक्ति है, " देने में ही पाना है ". हम जिसका जितना मोह छोड़ेंगे उतना ज्यादा उसे अपने जीवन में पायेंगे.

स्मृतियों का सुखद अहसास, रिश्तों में प्रेम की इच्छा या काम में सफलता की इच्छा रखना गलत नहीं है वरन इच्छाओं से आसक्त होना गलत है.' कर्म कर, फल की इच्छा मत रख ' कह कर हम गीता को गलत उद्धृत करते है. गीता तो कहती है, ' कर्म कर,फल की इच्छा भी रख लेकिन इच्छा से आसक्ति मत रख.'  अरे! कर्म-फल की इच्छा तो कर्म की प्रेरणा-शक्ति है लेकिन फल की आसक्ति हमारी समझ पर पर्दा डाल हमारा पथ-भ्रष्ट कर देती है. हम येन-केन-प्रकारेण अपनी इच्छाओं की पूर्ति में लग अपने ही जीवन में जहर घोल देते है. कर्म-फल पर अपना अधिकार छोड़ना ही उसे पाना है, यही कृष्ण का निष्काम कर्म है.

आसक्ति से विरक्ति ही कर्म को सुकर्म बना जीवन के हर क्षण में खुशियों के रंग भरती है.

(नवज्योति में रविवार, 13 मई को प्रकाशित )

आपका 
राहुल....