Saturday 2 June 2012

आत्म-स्वीकृति ही सच्ची स्वतंत्रता




" जब तक तुम अपने आपको वापस बच्चा नहीं बना लेते, तुम्हे स्वर्ग में आने कि  इजाजत  नहीं. "
  
                                                                                                             -- जीसस

जब भी हम बच्चों के बारे में बात कर रहे होते है यह बात जरुर निकलती है कि बच्चे ईश्वर का रूप होते है. हम ऐसा मानते भी है लेकिन क्या हमने कभी इस सच को उधेडा है? क्या कुछ लोग ही बच्चों के रूप में पैदा हुआ थे? नहीं ना, तब तो हम यह भी मान रहे होते है कि हमने भी अपने जीवन कि शुरुआत ईश्वरीय होने से कि थी. तो फिर रास्ते में क्या हुआ कि हमने अपने होने को भुला दिया.

पैदा होने के साथ ही हम यह सीखने लगते है कि दुनिया में जो कुछ भी है या तो वह अच्छा है या बुरा. ऐसा करेंगे तो अच्छे बनेगे और वसा करेंगे तो बुरे. इस तरह हमारी हर नाकाम कोशिश हमें अपनी ही नज़रों में गिराती चली जाती है और जैसे-जैसे हम बड़े होते है अपनी सीमाएँ तय कर लेते है कि हम क्या कर सकते है क्या नहीं. एक माता-पिता के रूप में हमें चाहिए कि हम बच्चों को क्या अच्छा है और क्या बुरा है बताने कि बजाय उनमे यह समझ पैदा करने कि कोशिश करें कि वे स्वयं तय कर सकें कि उनके लिए क्या उचित है और क्या अनुचित. हमारा कर्त्तव्य बच्चों को हमारी तरह जीना सिखाना नहीं बल्कि उन्हें अपनी तरह जी पाने के लायक बनाना है.

बच्चों कि मासूमियत ही तो है जो उन्हें ईश्वरीय बनाती है. मासूम होना मतलब जल्दी से माफ़ कर देना, अपनी पसंद-नापसंद के बारे में स्पष्ट होना, बिना डर और आलोचना कि परवाह किए बिना वह करना जो दिल कहें, अपने रूप-रंग में त्रुटी नहीं ढूँढना आदि-आदि. ये ही बच्चे बड़े होने के साथ-साथ जीवन के हर पहलू के बारे में अपनी राय बना लेते है. अपनी मासूमियत को वापस पाने का एकमात्र उपाय है आत्म-स्वीकृति. आत्म-स्वीकृति ही सच्ची स्वतंत्रता है. आत्म-स्वीकृति यानी इस क्षण में अपने और अपने जीवन को सम्पूर्णता के साथ स्वीकार करना. यह स्वीकारोक्ति ही हमें वो मानसिक स्पष्टता देगी जो इस क्षण के चुनावों को आसान बना आने वाले कल को कहीं बेहतर और मनचाहा बनाने में मदद करेगी.

गलतियाँ किससे नहीं होती लेकिन यदि उन्हें महसूस कर हम उन्हें नहीं दोहराने कि सीख ले लें तो वे जागृती बन जाती है. जागृत होना एक सुखद घटना है जबकि गलतियों से बिना सीखे स्वयं को दोषी ठहराते जाना और मन को ग्लानि से भर लेना गुनाह है.

हम अपने आपको कितना स्वीकार करते है यह एक छोटे से प्रश्न से जाँच सकते है. क्या में स्वयं के लिए भी वो सब कुछ करने को तत्पर रहता हूँ जिन्हें अपने प्रियजनों के लिए करते हुआ बिलकुल नहीं झिझकता? हमें वो सब कुछ करना चाहिए जिससे भविष्य में इस प्रश्न का जवाब हाँ में दे सकें. स्वयं के बारे में सोचना स्वार्थ नहीं है और अपनी अवहेलना करना प्रेम नहीं है. जहाँ दूसरों के हित-अहित कि परवाह किए बिना अपनी इच्छाएँ पूरी करना स्वार्थ है वहीँ अपने और अपनों में फर्क न करना प्रेम है. हम खुद को स्वीकार कर ही दूसरों को स्वीकार कर सकते है. खुद कि गलतियों और कमियों के प्रति सहजता ही हमें दूसरों के प्रति ऐसा ही व्यवहार कर पाने के सक्षम बनाएगी.

आत्म-स्वीकृति कि यह राह हमारे  मन से असफल होने का डर व  आलोचनाओं कि चिंता मिटा देगी. हम धारणाओं  से मुक्त हो अपने अंतर्मन क़ी आवाज  पर जिएँगे. यह एहसास हमारे इस विश्वास को और पक्का कर देगा कि हम सब की जीवन के इस रंग-मंच पर एक ख़ास भूमिका है  और  हर कलाकार अपने- अपने किरदार को शिद्दत से निभाकर ही नाटक को सफल बना सकता है.  इतने लोग और फिर भी सब क़ी अलग- अलग शक्ल सूरत क्या हमारे अद्वितीय होने क़ी परमात्मा क़ी मंशा जाहिर नहीं करती ?
 
{जैसा कि रविवार, 27 मई को दैनिक  नवज्योति में प्रकाशित }

आपका, 
राहुल.....

 

3 comments:

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    1. super like...!! PERFECT!!! Rahul bhai! well well well done... SALUTE... HONESTLY!!

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