Friday, 25 May 2012

जीवन, ताश का एक खेल





एक अच्छा नर्तक वही है जो संगीत की लय-ताल के साथ अपना तारतम्य बिठा लें. जब संगीत साज की बजाय उसके पैरों और भाव-भंगिमाओं से फूटता जान पड़े. जीवन जीने की कला भी यही है जब व्यक्ति अपने जीवन की लय के साथ अपनी कदम-ताल मिलाएं, जीवन धारा के साथ एकरूप हो जाए.

जीवन-धारा के साथ बहने का मतलब यह कतई नहीं है की हम समाज द्वारा निर्धारित परम्पराओं, मान्यताओं और रुढियों को ज्यों का त्यों अपना लें या हम क्या करें यह किसी और के जीवन से उधार ले लें. जीवन-धारा के साथ एकरूप होने का यह मतलब भी नहीं है की हम निष्क्रिय हो, अपनी स्वाभाविक रचनात्मकता को छोड़ लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाएँ. अपना जीवन वसे जिएँ जैसा लोग हमसे चाहते है. जीवन-धारा में बहने का मतलब तो है वह करना जो इस क्षण में हमारी समझ से सबसे ज्यादा उपयुक्त है.

हम सब एक सामान्य शिकायत जिसने मुझे आपसे इस विषय पर बात करने के लिए प्रेरित किया कि ' यदि मैं परिस्थितियों के हाथों मजबूर नहीं होता तो इससे कहीं बेहतर होता.' सबसे पहले तो हम जीवन की अधिकांशतः परिस्थितियों के लिए स्वयं जिम्मेदार होते है और दूसरा हमारा अहम् जो हमारे साहसी नहीं होने को परिस्थितियों के गले मढ़ देता है.

हाँ, जीवन मैं कुछ परिस्थतियाँ ऐसी भी होती है जिनके लिए न तो हम जिम्मेदार होते है न ही वे हमारे नियंत्रण मैं होती है.ऐसे समय मैं हो सकता है हमारे लिए वैसा करना ज्यादा ठीक हो जैसा हम साधारण परिस्थितियों में नहीं करते. यही है अपने कर्तव्यों का निर्वहन. मेरे निजी अनुभवों ने यह बात समझाई है की ये परिस्थितियाँ वो संकेत है जिस दिशा मैं प्रकृति हमें ले जाना चाहती है. हमें एक दृश्य का ज्ञान है तो प्रकृति को पूरी पटकथा का. निःसंदेह प्रकृति के इशारे हमारी बुद्धि से ज्यादा भरोसे लायक होते है. हमें भरोसा रखना चाहिए की यदि ऐसा है भी तो प्रकृति ने हमारे लिए हमसे ज्यादा अच्छा सोच रक्खा होगा और इस तरह कर्त्तव्य बोध हमारी इच्छाओं की उपज होगी न की मज़बूरी की. कर्तव्यों को जब हम मजबूरन निभाते है तो जीवन एक बोझ बन जाता है और मज़बूरी समझकर लाख ढंग से निभाए कर्त्तव्य भी जीवन-परिस्थितियों को हमारे अनुकूल नहीं बना पाते. इसी कारण हमें अपनी जीवन-परिस्थितियों से हमेशा शिकायत रहती है. सच्चा कर्त्तव्य वही है जिसे करने को हमारा अंतस भी कहें और बुद्धि भी सही ठहराएँ.

भाग्य और पुरुषार्थ के इस द्वन्द को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक भगवदगीता के परिचय में बिलकुल ठीक समझाया है, " जीवन, ताश का एक खेल है. न तो हमने इसका अविष्कार किया न ही इसके नियम बनाये. पत्तों के बंटवारे पर भी हमारा कोई नियंत्रण नहीं चाहे वे अच्छे है या बुरे. भाग्य का शासन बस यहीं तक है. आगे हम पर है की हम कैसे खेलें. हो सकता है एक कुशल खिलाड़ी खराब पत्तों के बावजूद जीत जाएँ और एक अनाडी अच्छे पत्तों के साथ भी खेल का नाश कर दें." यही है पुरुषार्थ. वे आगे लिखते है, " अपने चुनाव का समुचित प्रयोग करते हुए हम धीरे-धीरे सभी तत्वों पर नियंत्रण कर प्रकृति के नियतिवाद को समाप्त कर सकते है."

आइए, जीवन-धारा के साथ बह प्रकृति से एकरूप हो जाएँ. जीवन-संगीत पर थिरकें और जीवन उत्सव का आनंद उठाये.


( रविवार, 20 मई को नवज्योति में प्रकाशित)

आपका,
राहुल.....  



Friday, 18 May 2012

देने में ही पाना है




रेत को हम जितनी जोर से मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश करते है उतनी ही तेजी से वह फिसलने लगती है.यह बात जीवन के हर पहलू पर ज्यों की त्यों लागू होती है चाहे बीता कल हो, रिश्ते हो या हमारी सांसारिक उपलब्धियाँ. हम अपनी सुखद स्मृतियों को इस क्षण में जीना चाहते है, रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए कोशिश करने लगते है की दूसरे हमारे हिसाब से जिएँ और जीवन में जो कुछ हम हासिल कर पाए उसे बनाये रखने को जीवन जीने का आधार बना लेते है. होता ठीक इसका उलट है; इस तरह हम रिश्तों में घुटन भर लेते है, अपनी स्वाभाविक रचनात्मकता का गला घोंट देते है और इस क्षण को खोकर तो जीवन ही को खो देते है.

हम ऐसा क्यूँ करने लगते है ?

आपने महसूस किया होगा हम हर छोटी - बड़ी बात पर उन दिनों का हवाला देते है जब हम सोचते है की सब कुछ ठीक था. यह और कुछ नहीं हमारी प्रवृति है. कुछ सालों बाद हम 'आज' को भी इसीलिए याद करेंगे. यह प्रवृति है बीते हुए कल में रहने की. हमें वे सुखद स्मृतियाँ इसलिए कचोटती है की सब कुछ ठीक था लेकिन हम उन दिनों को उनकी सम्पूर्णता से नहीं जी पाए, उनका भरपूर आनंद नहीं ले पाए. यह अफ़सोस ही उन दिनों को जिन्दा रखता है और हम उन क्षणों को आज में जीने की कोशिश करने लगते है. कल को आज में तो कोई नहीं जी पाया. हाँ, इतना जरुर है की इस चक्कर में हम आज को भी खो देते है.

यह भी सही है की किसी व्यक्ति के लिए जीवन के हर क्षण को उसकी सम्पूर्णता के साथ जीना संभव नहीं. हमारा यह सारा अभ्यास वहाँ तक पहुँचने भर तक का है. हमें यह मानना होगा की उन दिनों हमने वही किया जितनी हमारी समझ थी. उससे अलग या अच्छा कर पाना हमारे लिए संभव ही नहीं था इसलिए किसी भी प्रकार के अफ़सोस का कोई स्थान नहीं. यही स्पष्टता हमें इस क्षण को भरपूर जीने का उत्साह देगी.

यही गलती हम अपने रिश्तों में भी कर बैठते है. जब रिश्तों में होते है तब एक दूसरे को अपनी ही तरह ढालने की कोशिश में लगे रहते है लेकिन जब रिश्तों की उम्र हो जाती है तब उन्हें पूरी तरह नहीं जी पाने की कसक लिए उन्हें याद करते है. जीवन की सच्ची ख़ुशी इसी में है की हम रिश्तों का आनंद तब लें जब उनमें हों. हम एक-दूसरे को अपनी-अपनी जगह दें. रिश्ते होते ही इसलिए है की एक दूसरे को अपने-अपने तरीके से जीने और अभिव्यक्त करने में सहायता कर सकें.

रही बात सांसारिक उपलब्धियों की तो इन्हें बनाए रखने की जुगत हमें नया कुछ कुछ भी करने से रोकती है. कुछ नया करना यानि जोखिम उठाना यानि जो कुछ है उसके खोने का डर. इस तरह हम खुद ही अपने को जीवन में और अधिक सफलताओं और ऊचाईयों को छूने से रोक लेते है.

जीवन की यही उलटबांसी जो सैंट फ्रांसिस की विश्व - प्रसिद्द प्रार्थना की एक पंक्ति है, " देने में ही पाना है ". हम जिसका जितना मोह छोड़ेंगे उतना ज्यादा उसे अपने जीवन में पायेंगे.

स्मृतियों का सुखद अहसास, रिश्तों में प्रेम की इच्छा या काम में सफलता की इच्छा रखना गलत नहीं है वरन इच्छाओं से आसक्त होना गलत है.' कर्म कर, फल की इच्छा मत रख ' कह कर हम गीता को गलत उद्धृत करते है. गीता तो कहती है, ' कर्म कर,फल की इच्छा भी रख लेकिन इच्छा से आसक्ति मत रख.'  अरे! कर्म-फल की इच्छा तो कर्म की प्रेरणा-शक्ति है लेकिन फल की आसक्ति हमारी समझ पर पर्दा डाल हमारा पथ-भ्रष्ट कर देती है. हम येन-केन-प्रकारेण अपनी इच्छाओं की पूर्ति में लग अपने ही जीवन में जहर घोल देते है. कर्म-फल पर अपना अधिकार छोड़ना ही उसे पाना है, यही कृष्ण का निष्काम कर्म है.

आसक्ति से विरक्ति ही कर्म को सुकर्म बना जीवन के हर क्षण में खुशियों के रंग भरती है.

(नवज्योति में रविवार, 13 मई को प्रकाशित )

आपका 
राहुल....

Saturday, 12 May 2012

क्रोध को ख़त्म नहीं काबू में करें



हमारी भावनाएँ हमारी आत्मिक भूख को पोषित करती है. जिस तरह खाना, पीना, सोना हमारी शारीरिक और सोचना हमारी बौद्धिक भूख है उसी तरह भावनामय होना हमारी आत्मिक जरुरत है. वो व्यक्ति ही क्या जिसे भूखे को देख दया, घायल को देख करुणा, बच्चों को देख प्रेम, प्रकृति को देख आनंद - आश्चर्य न आये. आध्यात्मिक होने का मतलब भावनाशून्य होना कतई नहीं है.

भावनाओं के समुद्र में डुबकी लगाने से पहले तैरना सिखाना बहुत जरुरी है वरना डूबने का डर है. भावनाओं में बह हम अपने जीवन की लय - ताल बिगाड़ लेते है. भावनाओं का अतिरेक हमेशा ही विनाश का कारण बना है चाहे वह ध्रतराष्ट्र का पुत्र- प्रेम हो या हिटलर की घ्रणा. भावनाओं का अतिरेक उत्तेजना पैदा कर हमारे कर्मों को अपने अधीन कर लेता है और तब बुद्धि हमारा साथ छोड़ देती है. यदि अपनों को बीमार देख हम खुद ही रोने बैठ जायेंगे तो उनकी सेवा कैसे कर पायेंगे. करुणा का भाव हमें सेवा के लिए उद्धत करें वहाँ तक सुंदर है लेकिन इससे आगे यह हमें ही अपाहिज बना देगा.

क्रोध सबसे तीव्रतम भाव है. जीवन में क्रोध पर काबू पा लेने से बड़ी कोई विजय नहीं हो सकती. इसके लिए सबसे पहले तो यह जानना जरुरी है की क्रोध आता ही क्यूँ है? हम बारीकी से पड़ताल करें तो पायेंगे की जब किसी का व्यवहार हमारा मनचाहा नहीं होता तो हमें क्रोध दिलाता है. हम सब जानते है पर मानते नहीं या भूल बैठते है की जिस तरह हमें अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का अधिकार है किसी और को भी है. दूसरों की स्वतंत्रता के सम्मान में ही हमारी स्वतंत्रता निहित है. सम्मान रिश्तों की क्यारी में खाद - पानी का कम करता है. रिश्ते यदि बनते भावनाओं से है तो उन्हें उम्र मिलती है आपसी सम्मान से. एक दुसरे को सम्पूर्णता के साथ स्वीकार करना ही सम्मान करना है. हमारी यही समझ हमें ऐसे समय में विचलित होने से बचाती है जब स्थितियां मन के अनुकूल न हों.

इस सारी समझ के बावजूद भी जीवन में कई मौकों पर व्यक्ति अहम् के अधीन हो क्रोध कर ही बैठता है. सबसे जटिल प्रश्न तो यह है की यदि व्यक्ति को क्रोध आ ही जाएँ तब वो क्या करें? कुछ लोगों का मानना है की क्रोध को व्यक्त कर देने से मन साफ़ हो जाता है लेकिन ऐसे समय हम यह भूल जाते है की ऐसा करना हमारे रिश्तों में कडवाहट भर देगा. हम अपने अपने घर को साफ़ रखने के लिए पडोसी के घर के सामने कचरा नहीं फेंक सकते. ऐसे समय तो हम दूसरों के उन गुणों पर अपना ध्यान ले जाने की कोशिश करें जिनके कारण हम उन्हें अपना मानते है. उन व्यवहारों को याद करें जिनसे हमें जीवन में कभी संबल मिला था. क्रोध को इस तरह काबू कर हम सार्थक संवाद की स्थिति में आ पाएंगे. हमारा स्वर और शब्दों पर नियंत्रण रहेगा. स्पष्ट लेकिन आहत न करने वाले स्वर और शब्दों में व्यक्त की गई अपनी असहमति और नाराजगी हमारे रिश्तों को और मजबूत बनाएगी.

क्रोध का आना नहीं वरन उसका बेकाबू हो जाना गलत है. क्रोध यदि काबू में रहे तो इससे बड़ी कोई रचनात्मक शक्ति नहीं हो सकती. ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकल फेंकने पर आया गाँधी जी का क्रोध ही था जिसने देश को आज़ादी दिलाई. धनानंद के अपमानजनक व्यवहार के प्रति चाणक्य का क्रोध ही था जो देश को एक सूत्र में पिरोने की प्रेरणा - शक्ति बना. क्रोध को घटना नहीं वरन घटना के पीछे के कारणों के विरुद्ध इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

इसी तरह सारी भावनाएँ हमारे जीवन की चाशनी होती है. इन्ही से हमारे जीवन में रस भी है और मिठास भी; लेकिन ध्यान रहें बावनाओं का अतिरेक जीवन को उसी तरह दुखदायी बना देता है जिस तरह चीनी की अधिकता चाशनी को कड़वा बना देती है.

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 6 मई को 'भावनाओं का अतिरेक-विनाश का कारण' शीर्षक के साथ प्रकाशित)

आपका 
राहुल.

Friday, 4 May 2012

हमारा सही परिचय




मनुष्य को परमात्मा की सुंदरतम भेंट है उसका मस्तिष्क जिसे बोलचाल की भाषा में दिमाग भी कहते है. मस्तिष्क के सही उपयोग से जन्म लेती है बुद्धि ; बुद्धि यानि अच्छे और बुरे में भेद करने की समझ इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो अपने दिमाग का सही उपयोग करें. हम सब यहाँ अपने अपने तरीके से संसार को अनुभव करने और अपने आपको व्यक्त करने आते है अतः स्वस्थ मस्तिष्क के बिना तो हमारा जन्म लेना भी सार्थक नहीं. कुल मिलाकर एक अच्छे जीवन की कल्पना एक स्वस्थ मस्तिष्क के बिना नहीं की जा सकती.


हर क्षण उपलब्ध विकल्पों में से बेहतर का चुनाव ही हमारे जीवन को सुंदर बनता है. इस क्षण हम क्या चुनते है यह ही निश्चित करेगा की हमारे आने वाला क्षण कैसा होगा. बेहतर विकल्प का चुनाव हम बुद्धि के सहारे करते है जो हमें सफल बनाती है. समस्या तो तब पैदा होती है जब हम इसी बुद्धि के सहारे हासिल की गई सफलताओं को अपना परिचय समझने लगते है. इस तरह हमारा मस्तिष्क अनियंत्रित हो पद, पैसा और ज्ञान के ईंट -गारे से हमारी एक छवि गढ़ लेता है और हम अपनी ही बनायीं छवि में कैद होकर रह जाते है. हम जीवन भर अपने -आपको भूल, आत्मिक आनंद को छोड़ अपनी ही बनायीं इस झूठी छवि के बचाव में जुटे रहते है. आप ही बताइए, एक ख़ाली जेल के जेलर की हालत एक कैदी से कम बदतर होती है ? स्वयं का झूठा परिचय ही अहम् है. इस तरह जब भी हमें लगता है की कोई व्यक्ति, घटना या स्थिति हमारी छवि को यानि हमारे अहम् को चोट पहुंचा रही है हम विचलित हो उठते है और हमारी खुशियाँ पराधीन हो जाती है. इपिकटीट्स ने ठीक ही कहा है, ' हमारी परेशानियों का सबब घटनाएँ नहीं अपितु घटनाओं के बारे में हमारी सोच है.'

मस्तिष्क की क्षमताओं और संभावनाओं का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की वैज्ञानिकों के अनुसार आइन्स्टाइन भी अपने मस्तिष्क का 5% ही उपयोग कर पायें. जितना शक्तिशाली साधन होगा उतनी ही सावधानी बरतनी होगी चाहे वह परमाणु - उर्जा हो या हमारा मस्तिष्क. आंकड़े कहते है की एक सामान्य व्यक्ति के मस्तिष्क में औसतन 60,000 विचार आते है और इनमे से अधिकांशतः वे ही होते है जो कल भी आये थे और परसों भी. यहाँ हमें ठिठक कर यह सोचना होगा की हम मस्तिष्क का उपयोग कर रहे है या मस्तिष्क हमारा. नियंत्रित मस्तिष्क और सदबुद्धि व्यक्ति को राम बना सकती है और विकृत मस्तिष्क और अहंकारी बुद्धि रावण.


हम सभी ईश्वर की स्वतंत्र भौतिक अभिव्यक्ति है. मूलतः एक होते हुए भी अनुभूति और अभिव्यक्ति के स्तर पर भिन्न है और हमारी इसी निजता को सहेजता है हमारा मस्तिष्क. अब जहाँ निजता होगी वहाँ अहम् भी होगा इसलिए यह भी अनुचित होगा की हमारा अहम् शून्य हो जाएँ. हर व्यक्ति की अपनी नज़र है और अपना संसार. हर व्यक्ति की उचित और अनुचित की अपनी - अपनी परिभाषा है इसलिए अहम् उतना भर जरुरी भी है की हम उपलब्ध जानकारियों का अपने परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण कर सकें.


हम अपने पद, पैसे और ज्ञान को भूलें नहीं, इनका भरपूर आनंद लें आख़िरकार इन्हें हमने हासिल किया है लेकिन याद रखें यह ' हम ' नहीं है. हम इसका आनंद लेने वाले है. मस्तिष्क का हम उपयोग करें मस्तिष्क हमारा नहीं. अहम् को ' स्व की पहचान ' की सीमाओं में रखें उसे अहंकार न बनने दें. जीवन आनद का यही रहस्य है.



( दैनिक नवज्योति में रविवार, 29 अप्रैल को शीर्षक 'स्वयं के झूठे परिचय से दुरी ही अच्छी ' के साथ प्रकाशित ) 

आपका 
राहुल.... 





Friday, 27 April 2012

मन का विज्ञान




जिस दिन हमारा मन ठीक होता है उस दिन सारे कम कम प्रयासों में भी समय पर होने लगते है. वे लोग भी अनायास मिल जाते है जिन्हें ढूंढ़ पाना और मिल पाना पिछले काफी समय से मुश्किल हो रहा था. यहाँ तक कि उस दिन ट्रैफिक भी कम मिलता है, सिग्नल भी खुले और पार्किंग भी आसानी से. 

क्या आपने कभी गौर किया है ऐसा क्यूँ होता है? 
हमारा मन विचारों से बनता है. हमारे विचार उर्जा - पुंज होते है जिनकी अपनी तरंगीय आवृतियाँ (वाइबरेशनल फ्रिक्वेन्सी) होती है. भौतिकी के अनुसार समान तरंगीय आवृतियाँ ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होती है. यही कारण है कि हमारी दुनिया भी वैसी ही होती है जैसी हमारी सोच होती है.हम अपने जीवन में उन व्यक्तियों, घटनाओं और स्थितियों यहाँ तक कि वस्तुओं को ही अपनी और आकर्षित करते है जो हमारे वैचारिक स्तर से मेल खाती है. दूसरे शब्दों में, हमारे आस - पास कि दुनिया हमारे विचारों का ही प्रतिबिम्ब होती है.

जब कभी हम व्यक्ति, घटना या स्थिति से नाखुश होते है तो अधिकांशतः उनमें अपनी ही किसी कमजोरी का प्रतिबिम्ब देख रहे होते है. हमारा अहम् हमारी कमजोरियों को दूसरे पर लाद देता है हर बात में अपने आपको बेहतर सिद्ध करना ही अहम् कि प्राण - वायु है. इस तरह हम अपने को सही सिद्ध करने के लिए अपनों से तर्क - वितर्को में उलझ रिश्तों में कडवाहट भर लेते है. क्रोध इसीलिए हमारी कमजोरी होता है. यदि हम पूरी ईमानदारी से सूची बनाएँ कि हमें दूसरों में क्या - क्या अच्छा लगता है और क्या - क्या बुरा तो पाएंगे कि जो - जो हमें बुरा लगता है अधिकांशतः वे हमारी ही कमज़ोरियाँ है. ऐसी कमज़ोरियाँ जिन्हें हम  इतना नापसंद करते है कि उनका हममें होना हम स्वीकार नहीं कर पाते और इसलिए दूसरों पर लाद देते है. 

इसका कतई यह मतलब नहीं है कि हर बात के लिए स्वयं को दोषी ठहरा अपने आपको ग्लानी से भर लें. हमेशा दूसरों कि गलतियों को नजर अंदाज कर स्वयं को दोषी ठहराना तो उस ईश्वरीय भेंट का अपमान करना होगा जो हमें अच्छे - बुरे के भेद कर पाने कि समझ के रूप में मिली है. तो फिर यह पकड़ में कैसे आए कि कहाँ हमें अपने विचारों को संभालना है और कहाँ दूसरों से दूरी बना लेनी है? 
इसके लिए थोडा निष्ठुर हो अपनी ही मनः स्थिति कि जांच - पड़ताल करनी होगी.यदि हमारा मन इसलिए विचलित है कि हम किसी व्यक्ति से बेहतर सिद्ध होने कि उत्तेजना से भरे है या इसलिए कि कोई घटना - स्थिति हमारी मनचाही नहीं है तो निश्चित रूप से हमें अपने विचारों को सँभालने कि जरुरत है. यही है दूसरों अपनी कमियों का प्रतिबिम्ब देखना. यदि हम किसी व्यक्ति, घटना या स्थिति को निरपेक्ष भाव से देखते है और अनुचित पाते है तो हमारी कम ठीक मनः स्थिति जायज है. 

इस तरह हम सभी अपने विचारों से एक दूसरे को प्रभावित करते भी है और होते भी है. कई बार किसी व्यक्ति कि उपस्थिति मात्र से हम अपने आपको ज्यादा शांत और स्थिर महसूस करने लगते है जबकि कुछ लोगो का साथ हमें नकारात्मकता से भर देता है और हम ऐसा व्यवहार करने लगते है जैसी वे हमसे अपेक्षा रखते है. यह उन लोगो से प्रवाहित होने वाली ऊर्जा है जो हमें शांत और अशांत कर देती है और इसीलिए सत्संग का महत्व है. सत्संग यानि सत का संग. श्रेष्ठ का संग. अपने आप को अच्छी सोच वाले लोगो के बीच रखना ही सत्संग है.

अच्छी सोच रखना और अच्छी सोच वाले लोगो के बीच रहना ही बेहतर जिन्दगी का मूलमंत्र है.


(रविवार, 22 अप्रैल को दैनिक नवज्योति में ' बेहतर जिन्दगी का मूलमंत्र - अच्छी सोच के लोगो का साथ' शीर्षक के साथ प्रकाशित)



आपका 
राहुल..




Saturday, 21 April 2012

विचारों का रास्ता मंजिल का पता



हमारे विचार शब्द बनाते है
हमारे शब्दों से कर्म बनते है
        कर्म   से   आदतें   बनती   है
         आदतें हमारा चरित्र बनती है 
       और 
हमारा चरित्र हमारी मंजिल तय करता है.


दुनिया में जो कुछ भी दिख रहा है वह किसी न किसी के विचारों का ही परिणाम है. विचारों की प्रकृति और शक्ति पर बात करने से पहले अहम् बात यह है की हम विचारों के अस्तित्व को स्वीकारें. हमारे विचार भी दूसरी वस्तुओं की तरह होते है जिनके अपने गुण - धर्म होते है लेकिन ये तब तक अप्रभावी रहते है जब तक इनसे हमारी भावनाएं नहीं जुड़ जाएँ. भावनाएं विचारों को गति देती है जिससे हमारी जीवन - परिस्थितियों का निर्माण होता है. हमारी परिस्थितियाँ हमारे भावपूर्ण विचारों की देन होती है.

हमने कई बार आपस की बात में एक दूसरे से कहते सुना है, ' तू, ऐसा मत सोच, सोचते है जो सही हो जाता है.'  यह धारणा हमें हमेशा डराए रखती है. एक तरफ तो हम धर्म, समाज और संस्कारों से पैदा भय के वातावरण में रहते है जिस कारण मन में हमेशा अनिष्ट की आशंका बनी रहती है दूसरी तरफ यह डर की ऐसा कुछ सोच भी लिया तो सच हो जायेगा. यह बात सही है लेकिन अधूरी. यदि हम कुछ सोचे जिसका होना हमारा अंतस स्वीकार कर ले और हम उसके लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाएँ तब ही हम सोचे वह होता है. मन का कोई ख्याल जो डर से जन्मा है और हम अपनी पूरी इच्छा - शक्ति से उसे नहीं होने देना चाहते तो वह ख्याल शक्ति - हीन है और उसके हो जाने की कोई सम्भावना भी नहीं. आप ही बताइये कौन - सा विधार्थी होगा जिसका परीक्षा - भवन में जाने से पहले जी न घबराता होगा ?

हम अपनी असफलताओं का घड़ा परिस्थितियों के माथे फोड़ खुद को बरी कर लेते है जबकि किसी भी परिस्थिति के पीछे की घटनाओं की बारीकी से जांच - पड़ताल करें तो पायेंगे की ये हमारे भावपूर्ण विचार ही थे जिन्होंने हमें इन परिस्थितियों में ला खड़ा किया. परिस्थितियों के निर्माता होने का यह अहसास हमें नयी उर्जा से भर देगा. अब हम केवल उन विचारों को भाव देंगे जिन परिस्थितियों को हम अपने जीवन में चाहते है. इस तरह भाग्य पुरुषार्थ का अनुसरण करेगा. यह सच है की हम वर्तमान की किसी परिस्थिति को बदल ता नहीं सकते लेकिन वर्तमान में विचारों को चुन भविष्य में मनचाही परिस्थितियाँ जरुर पा सकते है.

एक महिला अपने दोनों बच्चों के साथ कार से कहीं जा रही थी की रास्ते में कार का टायर पंचर हो गया. महिला स्टेपनी बदलने लगी और बच्चे आस - पास खेलने लगे. सब कुछ हो गया था और वह जैक उतार ही रही थी की खेलते - खेलते एक बच्चा उसके पास आ गया. इधर तो उसका जैक उतारना हुआ और उधर उस बच्चे का टायर के नीचे पैर रखना. उस महिला को कुछ समझ नहीं आया बस उसने तो आव देखा न ताव कार के आगे गयी और कार को छः इंच ऊपर उठा लिया. ऐसा कार लेने के बाद तो वह स्वयं भी भौंचक्की राह गयी की वह ऐसा कैसे कर पायी.

यह होती है भावपूर्ण विचार की ताकत जिसे हमारे अंतस और मानस ने इस तरह स्वीकार कर लिया है की जिसके नहीं हो पाने की तनिक भी आशंका नहीं. हम अपने अंतस से जुड़ उस शक्ति से जुड़ जाते है जिससे यह स्रष्टि चलायमान है और फिर कुछ भी असंभव नहीं रह जाता.

आइए, हम अपने विचारों को दुरुस्त करें मंजिल अपने आप मिल जायेगी.


( दैनिक नवज्योति रविवार, 15 अप्रैल में प्रकाशित)
आपका
राहुल....

Saturday, 14 April 2012

खुद ही को बुलंद कर इतना





यह एक डाकू का ही दृढ - निश्चय ही था कि वो रामायण लिख पाया, वाल्मीकि ; और यह भी एक शिक्षक का दृढ - निश्चय ही था कि वह पूरे भारत - वर्ष को एक सूत्र में पिरो पाया, चाणक्य ; दृढ - निश्चय का एक और जीता - जागता उदाहरण मिसाइल मैंन और आज तक के सबसे चहेते राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जिन्होंने अखबार बेचकर अपनी पढाई को जारी रखा.

ये वे जीवन है जो हमें रास्ते कि मुश्किलों और अडचनों के समय अपने सपनो पर भरोसा करना सिखाते है और मंजिल कि याद दिलाते है. मंजिल से तुलना करते ही हमें इन बाधाओं कि लघुता और अस्थायी होने का अहसास हो जाता है. किसी भी व्यक्ति कि सबसे बड़ी ताकत उसके सपनो और लक्ष्यो का अहसास होती है और यही अहसास हमें सारी बाधाओं को पार कर अपने सपनो को पूरा करने कि हिम्मत देता है. यह अहसास हममें जीवन के हर क्षण बने रहना चाहिए.

निश्चय को अनुशासन बनाए रखता है. हम रोजमर्रा कि किसी आदत का ही उदाहरण लें जैसे सुबह कि सैर तो पायेंगे कि यदि एक बार क्रम टूट जाएँ तो उसे नियमित करना बहुत मुश्किल हो जाता है. इसका यही उपाय है कि जिस दिन सैर का मन न करें या कोई और कारण हो तो घर के बाहर ही जरा सी देर टहल लें. एक - दो दिन बाद अपने आप ही हमारी सैर पर जाने कि इच्छा होने लगेगी वरना हो सकता है सैर कि आदत यानी स्वस्थ रहने का निश्चय टूट जाएँ. किसी भी काम कि नियमितता ही जीवन को अनुशासित रखती है और इस तरह हमारे निश्चय और अधिक दृढ होते चले जाते है.

सबसे महत्वपूर्ण और नाजुक पहलू जहाँ हम सभी चुक कर बैठते है वह है दृढ निश्चय और हठ में फर्क करना. दृढ निश्चय अंतस कि आवाज़ के प्रति हमारी निष्ठा है तो हठ हमारे अहम् कि उपज. यदि जीवन में कभी ऐसा लगे कि हमारी योजनाएं प्रकृति की योजनाओं से भिन्न है. प्रकृति हमारे जीवन को किसी और रूप में लहलहाना चाहती है, किसी और सुगंध से महकाना चाहती है तो हमें बिना किसी ग्लानि के पूरे आत्म - विश्वास के साथ प्रकृति से ताल मिला लेनी चाहिए. यह समय होता है निश्चयों को पुनर्भाषित कर नयी राह चुनने का. सोचिये यदि गाँधी जी वकील और अब्राहम लिंकन व्यापारी ही बने रहते तो क्या होता ? सच तो यह है की हमारी पहली वचनबद्धता अपने आप से है फिर किसी और से, चाहे वह कोई विचार हो या व्यक्ति.

इसका मतलब यह कतई नहीं है की हम अपनी मनः स्थिति यानी मूड को प्रकृति के इशारे का नाम देकर रास्ते की बाधाओं से पीछा छुडा लें और अपने जीवन को भाग्य भरोसे कर दें. अनुकरणीय व्यक्तित्व वही है जो शुरूआती आनंद के बाद भी अपने काम में उसी जोश के साथ लगा रहे जो उसमें सपनो को देखते समय था. जीवन को भाग्य भरोसे करना मतलब अवसरों का इंतज़ार करना. जीवन को इस तरह जी कर भी हम कई बार सफल होंगे और कई बार असफल लेकिन हर बार अपने आपको और कमजोर बनाएँगे लेकिन यदि हमारे जीवन का मूलमंत्र दृढ निश्चय है तो ज्यादा बार सफल होंगे, कुछ बार असफल भी लेकिन हर बार और अधिक मजबूत होकर उभरेंगे. अवसर गुलामी है तो दृढ निश्चय पुरुषार्थ. वास्तव में हमारा जीवन ईश्वर का निश्चय है और हमारा निश्चय ईश्वर को हमारी भेंट. 


(दैनिक नवज्योति - 8 अप्रैल ; स्तम्भ - अपनी ज्योति आप)

आपका
राहुल.....