Friday, 18 October 2013

रावण की दुविधा




मेरे शहर में यह एक अनूठी पहल थी, कवि सम्मलेन और मुशायरे का साथ होना। मंच पर हिन्दी और उर्दू के श्रेष्ठ हस्ताक्षर मौजूद थे। मैं उन्हीं में से एक श्री उदय प्रताप सिंह जी की एक कविता के बारे में आज आपसे बात करना चाहता हूँ। कविता की पृष्ठभूमि कुछ यूँ है कि रावण प्रतिदिन नये-नये प्रलोभनों के साथ सीता जी से प्रणय-निवेदन करता है लेकिन माँ उसकी और आँख उठाकर भी नहीं देखती। आखिर थक हार कर एक दिन रावण उनसे कहता है कि तुम एक बार मेरी तरफ आँख उठाकर देख लो, इसके बाद भी तुम इन्कार करोगी तो मैं उसे तुम्हारा अंतिम निर्णय समझूँगा। 

इस पर भी माँ सीता तिनके की ओट लेकर रावण की ओर देखती है। कविता यहीं से शुरू होती है। मंदोदरी रावण से कह रही है, करवा आए अपना अपमान। मैं आपकी जगह होती और प्रेम में इतनी ही व्याकुल होती तो एक ही उपाय करती। राम का रूप धर सीता के सम्मुख प्रस्तुत हो जाती। क्या इतनी सी बात नहीं सूझी आपको। मार्मिक रावण का जवाब है। वह कहता है तू क्या समझती है, मैं दशानन, क्या इतना भी नहीं सोच पाया हूँगा? यह भी करके देख चुका पर क्या बताऊँ, जब-जब यह चाल चलता हूँ, राम का रूप धरता हूँ तब-तब मुझे हर पराई स्त्री माँ का रूप नज़र आती है।

हर व्यक्ति हर बात को अपनी तरह समझता है। मेरे साथ भी ऐसा ही था। कविता सुनकर मुझे तो लगा कि कवि ने स्वयं के परिवर्तन का एक वैज्ञानिक तरीका कितनी सुन्दर कल्पना के साथ कितने कम शब्दों में कितनी सहजता से कह दिया। ऐसा कि हर किसी के ह्रदय में गहरे उतर जाए और जिससे बुद्धि भी सहमत हो। 

जब किसी व्यक्ति को लगे कि उसकी अपनी आदतों ने ही उसे वश में कर लिया है और विचार उसके विमानों की तरह उड़ते है। अब उसका अपने पर कोई नियंत्रण शेष नहीं। अब उसके लिए भीतर से बाहर की यात्रा दुष्कर है तो यही तरीका है बाहर से भीतर की यात्रा का। हम जैसा बनना चाहते है, जैसा होना चाहते है उसका अभिनय शुरू कर दें। ऐसा करते-करते आपको मालूम ही नहीं चलेगा कि कब आप वैसे ही हो गए। और फिर आदतें क्या है, किसी बात का अभ्यस्त होना ही तो है। अभिनय करते-करते कब ये आपकी आदतें बन जाती है और फिर आपका स्वभाव बनकर आपके व्यक्तित्व को ही बदल देती है, आपको अहसास ही नहीं होगा। आपको इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखना हो तो इस बार जब भी आपका मन अशान्त हो - मूड खराब हो, आप शीशे के सामने जाकर खड़े हो जाएँ और दो-चार मिनट तक जबरदस्ती मुस्कुराएँ। पाँचवे मिनट से ही आपका मन ठीक होने लगेगा, क्योंकि यह तो तय है कि राम और रावण कभी साथ नहीं रह सकते।

आप जीवन के जिस भी क्षेत्र में परिवर्तन चाहते है उसमें अपना आदर्श तलाशिए और फिर उसी तरह व्यवहार करना शुरू कीजिए। हो सकता है बीच-बीच में आपकी पुरानी आदतें उभरें। जब भी आपको ऐसा लगने लगे बिना अपने को दोष दिए पुनः अपने रास्ते पर लौट आइए। धीरे-धीरे आप स्वयं भी उसी तरह सोचने-समझने और जीने लगेंगे। आप बाहर से बदलते-बदलते कब अन्दर से भी बदल गए और जैसा बनना और होना आपका सपना था वो कब हकीकत में बदल गया आपको मालूम ही नहीं चलेगा।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 13 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 

Friday, 11 October 2013

युग बदला या हम बदले



विविध-भारती पर सुबह-सुबह आने वाले शास्त्रीय संगीत के प्रोग्राम संगीत-सरिता में उस दिन पंडित हरी प्रसाद चौरसिया बोल रहे थे। संगीत की बातों के साथ उन्होंने हमारे आज के जीवन को लेकर एक गम्भीर सवाल खड़ा किया जिसने मुझे दो दिन पहले अपनी बिटिया से हो रही बातचीत से जोड़ दिया। बिटिया कह रही थी कि आज युवा के सामने जीवन इतना असुरक्षित है कि वो आज ही कल के लिए सारे साधन जुटा लेना चाहता है। उसका कहना था कि आज युवा के मन में असुरक्षा का भाव इतना गहराया है कि उसने अपने कल को सुरक्षित करने के लिए अच्छे-बुरे की तराजू को ताक पर रख दिया है। मैं उसे हर किसी को अपना जीवन मूल्यों पर जीकर ही परिदृश्य बदल सकता है की सलाह तो दे रहा था लेकिन न जाने क्यूँ कहीं न कहीं मैं स्वयं भी उसके सरोकारों से जुड़ता जा रहा था। 

पंडित जी चूँकि फिल्म-संगीत भी देते है तो बात फिल्मों की भी चली। उनसे जब तेज संगीत और कई बार तो संगीत के नाम पर शोर के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बड़े ही अफ़सोस के साथ बताया कि फिल्म की कहानी में कई जगहों पर शान्त संगीत और धीरे स्वरों की गुंजाईश होती है विशेषकर जहां कहानी करुण-रस की अभिव्यक्ति माँगती हो लेकिन वहाँ निर्देशक बैक ग्राउंड म्यूजिक से ही काम चलाना पसंद करते है।उनका तर्क होता है कि इस तरह के गाने आज की पीढ़ी को पसंद नहीं आयेंगे। पंडित जी ने यही वजह बताई जिस कारण आज फिल्म-संगीत से धीरे-धीरे करुण-रस गायब होता चला जा रहा है। वे कह रहे थे कि मैं लाख कोशिशों के बाद भी उन निर्देशकों को ये नहीं समझा पाता हूँ कि जीवन से करुणा कभी आउट ऑफ़ फैशन या आउट डेटेड नहीं हो सकती और न ही ऐसा हो सकता है कि करुण-रस की कोई सुन्दर रचना सुनने वालों के दिल को न छुए। वे कह रहे थे कि ऐसा सब देख मैं कई बार सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि आखिर युग बदला या हम बदले?

मुझे लगता है यही वो प्रश्न है जिस पर हम सब को सोचना चाहिए। यही वो सलाह है जो मुझे अपनी बिटिया को देनी चाहिए। क्या सचमुच ही आज के इस जटिल जीवन के लिए बदला हुआ समय दोषी है या हम ही बदल गए है? क्या हममें से अधिकांश लोग जो कुछ भी कर रहे हैं वो सुरक्षित भविष्य के लिए है या वे विलासिता ही हर सम्भव वस्तु को हासिल कर पाने की क्षमता हासिल करना चाहते है?

यदि बात अपने और अपने परिवार के सम्मानजनक अस्तित्व की हो तो बात अलग है लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? जिन लोगों के साथ यह दुर्भाग्य है भी तो मेरे हिसाब से वे तो समाज का सबसे ईमानदार और मेहनती तबका है। भ्रष्ट आचरण तो वो ही निभा सकता है जिसके पास पद, प्रतिष्ठा या पैसा हो, तो उसे किससे सुरक्षित होना है? मूल्यों को निभाने की असहजता से बचने का ये सुन्दर बहाना ईज़ाद किया है हमने लेकिन हमें ये मालूम नहीं कि जीवन को जटिल बनाकर हम इसकी कीमत चुका रहे है। अपने बच्चों को अच्छे संस्कार न दे पाने के रूप में इसकी कीमत चुका रहे है, और तो और अपनी ही नज़रों में गिर कर इसकी कीमत चुका रहे है। पंडित जी के प्रश्न का जवाब हर व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर ढूँढना होगा और तब हम एक बार फिर युग बदल रहे होंगे।


(जैसा की नवज्योति में 6 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 

Friday, 4 October 2013

ये भी जरुरी है



ये घटना कोई पांच साल पुरानी होगी। मैं अपने कॉलोनी पार्क में सुबह-सुबह टहल रहा था। क्या देखता हूँ, हमारी कॉलोनी के सेक्रेटरी ही खड़े होकर एक हरे-भरे पेड़ को कटवा रहे हैं। पहली बार तो चुप रहा लेकिन दूसरी बार जब उनके पास से गुजरा तो मुझसे रहा न गया। मैंने उनसे पूछा वे ऐसा क्यों कर रहे हैं तो उनका जवाब था, इस पेड़ के पत्तों और छाल को छूने से खुजली हो जाती है और सर्दियों के मौसम में तो इसमें से ऐसी गंध आने लगती है कि पक्षी भी इस पर नहीं बैठते। उनका जवाब सुन, संतुष्टि का भाव लिए मैं आगे बढ़ गया लेकिन मन था कि इसे मथे जा रहा था। 

कई दिनों तक ये बिलौना चलता रहा और जो अंततः बाहर निकला वो यह था कि श्रेष्ठ तो यह है, आपके पत्ते और छाल किसी के लिए औषधि बनें और आप अपनी सुगंध से उधान को महकाएँ। यदि ऐसा न भी हो पाए तो कम से कम ऐसा तो न हो कि कोई आपके पास फटकना भी न चाहे और गलती से छू भी ले तो उस बेचारे को खुजली हो जाए। तो सारांश यह था कि पेड़ हो या व्यक्ति, जिसका होना वातावरण और समाज को दूषित करे और जिसका स्वभाव बदल पाना किसी तरह सम्भव न हो तो उसका नष्ट किया जाना ही शुभ है। ये घटना तब पुनः याद हो आई जब पिछले दिनों कोर्ट ने उन चार दरिंदों को फाँसी की सजा सुनाई। यही शुभ था। 

हमने अहिंसा को हमेशा ही गलत समझा है और यही वजह है की आज अहिंसा कायरता का पर्याय बन गई है। अहिंसा तो वीरता है और वो इसलिए कि करने वाला अन्त तक इसे नहीं करने की कोशिश करता है और वो सारे उपाय करता है जिससे हिंसा से बचा जा सके। हिंसा उसके लिए अन्तिम उपाय होती है। एक वीर के लिए हिंसा अन्तिम उपाय होती है और एक कायर के लिए प्रथम। जब हिंसा अन्तिम उपाय होती है तब वो शुभ हो जाती है, कर्तव्य बन जाती है और कर्ता को महान बना देती है। 

संहार ही सृजन का आधार बनता है और यही इस घटना में भी था। पेड़ दुर्गन्ध और खुजली फैलता हो तो न तो कोई पक्षी उसकी डाल पर बैठता है और न ही कोई व्यक्ति उसकी छाहं में आश्रय लेता है और तब उसे काट देने के अलावा कोई चारा नहीं बचता और इसी तथ्य में जीवन-रस का सृजन छिपा था। यही बात सीखने-समझने की है। समझने की यह कि हम किसी के जीवन में तकलीफों का कारण नहीं बनें नहीं तो उनके पास हमें अपनी जिन्दगी से निकाल देने के अलावा कोई रास्ता न बचेगा। जब इतना कर लें तो यह बात सीखने की है कि हम अपने में ऐसी बात पैदा करें कि सब हमारे समीप रहना चाहें। हम में से वो सुगन्ध आए। 

हम सब एक दूसरे से सबद्ध है। यह बात सही है कि हमारी सुन्दरता और खुशियाँ हम ही में छिपी है लेकिन इसका मोल तब ही होगा जब ये आस-पास के पूरे वातावरण में भी छाई हो, अन्यथा ये वैसी ही बात होगी कि हमारी जेब में तो ढेर सारे पैसे हों लेकिन खरीदने के लिए बाज़ार में कुछ नहीं। यदि आपको अपने जीवन में सुन्दरता और खुशियों की रचना करनी है तो आपको दूसरों के जीवन को उतनी ही सुन्दरता और खुशियों से भरना होगा। यदि आप उधान का सुन्दर वृक्ष है; खिले फूल, अद्भुत सुगन्ध और छायादार। यदि आने वाले आपकी छाया में बैठकर सुकून पाते है, यदि आपके होने से उधान की सुन्दरता है तो निश्चिन्त रहिए आपका आपसे बेहतर ध्यान माली स्वयं रखेगा। 

आपका,
राहुल …………  

Saturday, 28 September 2013

हमारे बच्चे और कठोपनिषद



 
पाण्डवों में जो स्थान अर्जुन का है वही स्थान उपनिषदों में कठोपनिषद का है। एक ख़ास वजह है उसकी, बालक नचिकेता और पिता राजा उद्दालक के बीच इस लम्बे कथा-संवाद के माध्यम से ये उपनिषद परतें खोलता है उस चिर जिज्ञासा की जो मानव मन पर सदियों से छाई है। आखिर क्या होता है व्यक्ति मृत्यु के बाद और जो कुछ भी होता है क्या उसके लिए मरना जरुरी है या कोई विधि है उसे जीते जी भी पा लेने की?

कठोपनिषद को पढना ही शुरू किया था कि आचार्य रजनीश ने एक बात जो उसकी पृष्ठभूमि में कही, उसने मन भर दिया। वे कहते है, ये कोई एक ऋषि होगा जिसने एक बच्चे को अपनी बात अपने पिता से कहते हुए सुन लिया होगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने बच्चों को इतने ही ध्यान और मर्म से सुनना शुरू कर दे तो न जाने कितने कठोपनिषदों का जन्म हो जाए, या फिर किसी कठोपनिषद की जरुरत ही न रहे। कितना सूक्ष्म अन्वेक्षण है लेकिन कितना सुन्दर। सच ही तो है, एक सरल ह्रदय हमेशा ही अपने में वेद-उपनिषदों सा ज्ञान समाए होता है। 

और हम, हम लगे है अपने ही बच्चों की इस सरलता को मिटाने में क्योंकि हम उनसे प्रेम करते है। हमें लगता है यह इस तरह इस दुनिया में कैसे जी पायेंगे और लग जाते है उन्हें पाने जैसा बनाने की जद्दोजहद में। इस मिशन में हम इतने खो जाते है कि ये तक ध्यान नहीं रहता कि हम खुद ही कहाँ खुश और संतुष्ट है अपनी जिन्दगी से,लेकिन हम भी क्या करें? यही हमारे पास है और यही हमें आता है। 

तो क्या करें? मुझे लगता है इसका एक ही इलाज है। हमें इस जबरदस्ती के ओढ़े हुए दायित्व से मुक्त होना होगा की मुझे अपने बच्चों को हर स्थिति में गाइड करना है चाहे स्वयं मुझे पता हो या न हो। मैं हर बात में अपने बच्चों से ज्यादा जानता हूँ, इस दंभ से निजात पानी होगी। निश्चित ही हमारे पास अनुभव है और कुछ चीजों को अनुभव से ही समझा जा सकता है, वहां हम जरुर उनका मार्गदर्शन करें लेकिन जिन बातों का वास्ता सरलता-सहजता से है वहां हमारे बच्चे हमसे ज्यादा जानते है। मानने से आगे बढ़कर जरुरत तो इस बात की है कि इन बातों में हम उनसे सीखें। 

अब ये जो संकरी गली है अनुभव की, हम अनजाने ही सही इसका भी दुरूपयोग करने लग जाते है और हर बात को मनवाने के लिए अपने अनुभवों की दुहाई देने लगते है। जिन्दगी के दस प्रतिशत निर्णय ऐसे होते होंगे जिनमें अनुभव की आवश्यकता हो अन्यथा नब्बे प्रतिशत तो ऐसे ही होते है जो एक सरल ह्रदय के लिए बायें हाथ का खेल होता है लेकिन अपने बच्चों से प्रेम की खोल में ढका हमारा दंभ इस अनुपात को उलट देता है। 

कितना अच्छा हो हम अपने बच्चों की जिन्दगी बनाना छोड़ बच्चों के साथ जीना शुरू कर दें। अपनी कहें, उनकी सुनें। मुझे मालूम है आप क्या कहना चाहते है? आप उनकी सुन कर तो देखिये, वे भी आपकी सुनेगें। इस तरह सबसे पहले तो हम एक दूसरे को जान पाएँगे और तब मिलकर किसी सही निर्णय पर पहुँचना आसान होगा। ऐसा हम कर पाये तो हमारे नाचिकेताओं का जीवन कहीं आसान और हम उद्दलकों का जीवन कहीं खुशहाल होगा। 

आपका,
राहुल ……… 

Friday, 20 September 2013

अपनी झोली फैलाये रखिए



एक बार की बात है। एक गाँव के बाहर एक संत आकर रुके। जब गाँव वालों को इस बात का पता चला तो वे उनके पास इकट्ठा होकर पहुँचे। उनका आग्रह था कि वे गाँव में पधारें और अपने ज्ञान से सभी को लाभान्वित करें। उन संत को इन सब में रूचि नहीं थी। जब देखो वे अपनी ध्यान-साधना में ही लीन मिलते। गाँव वालों के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि मैं आप लोगों से एक प्रश्न पूछूँगा और देखूँगा कि मेरे कुछ कहने की जरुरत भी है या नहीं।

संत ने पूछा,'अच्छा बताओ, ईश्वर है या नहीं?' गाँव वालों को ऐसे प्रश्न की कतई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने सोचा एक संत के सामने इस प्रश्न का जवाब 'हाँ' के अलावा और क्या हो सकता है लेकिन वे बोले, तब तुमको मेरी जरुरत नहीं। निराश गाँव वाले वापस लौट आएँ। उन्होंने सोचा कल वापस चलते है और कहते है 'ईश्वर नहीं है' तब शायद वे मान जाएँ। उन्होंने ऐसा ही किया लेकिन हुआ वही। 'नहीं' सुनकर भी वे यही बोले 'तब तुमको मेरी जरुरत नहीं।' परेशान होकर तीसरे दिन वापस पहुँचे और झुंझला कर बोले, बाबा ! हमें नहीं पता ईश्वर है या नहीं, बाकि आपकी इच्छा। सुनकर उनका चेहरा खिल गया। वे बोले, तब मेरी जरुरत हैं। मैं जरुर चलूँगा तुम्हारे साथ और बताऊंगा मैंने क्या पाया है। 

इस कहानी का मर्म ज्ञान का आधार है। कुछ पाना है तो सबसे पहले खाली होना पड़ेगा, वैसे ही जैसे भरे हुए बर्तन को नहीं भरा जा सकता। ज्ञान की आवक वहीँ रुक जाती है जब व्यक्ति 'मुझे सब पता है' की गुफा में प्रवेश कर जाता है। यही कारण है कि एक अच्छा शिक्षक वही बना रह पाता है जो हमेशा पहले एक विद्ध्यार्थी बना रहे। मुझे तो लगता है शिक्षक वो नहीं होता जो अपने विषय के बारे में सब कुछ जानता है बल्कि वो होता है जो अपने विषय को जानना चाहता है और जो कुछ जान पाता है उसे अपनों के बीच बाँटता है। 

आप किसी की और कोई आपकी मदद भी तब ही कर सकता है जब हम उन्हें ऐसा करने दें। प्रकृति के अपार भंडार में वो सब कुछ है जिसकी आपको जीवन के किसी भी मोड़ पर जरुरत है या हो सकती है बस आपके मनोभावों की झोलों फैली होनी चाहिए। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूँ जो किसी की सुनते ही नहीं लेकिन कोई उन्हें नहीं समझता ये शिकायत उन्हें हमेशा अपनी जिन्दगी से रहती है। मैं ऐसे भी कई विद्वानों से मिला हूँ जो अपनी बात को वेद-वाक्यों की तरह कहते है लेकिन पाता हूँ की तब से वे वहीँ खड़े हैं। 

ये बातें जीवन के दूसरे पहलुओं पर भी जस की तस लागू होती है चाहे समृद्धि,प्रतिष्ठा हो या आपसी रिश्ते। आपके पास जो है उससे संतुष्ट जरुर रहिए लेकिन और के लिए प्रयास हमेशा जारी रखिए। नहीं मांगने से तो देने वाले की ही हेठी लगती है और 'मैं सब जानता हूँ', मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ ' या मेरे पास सब कुछ है' कहकर हम उस देने वाले की हेठी ही तो लगा रहे होते है। आप तो बस झोली फैलाये रखिए, आप सोच भी नहीं सकते उसने आपके लिए क्या-क्या सोच रखा है। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 15 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 
 




Friday, 13 September 2013

कोशिश मत कीजिए


यही बात महसूस हुई जब मैं दो दिनों तक यह सोचता रहा कि अगला विषय क्या होगा जिस पर मैं आपसे बात करूँगा। फिल्म के दृश्यों की तरह एक के बाद एक विषय आते और अगले ही क्षण या यों कह लीजिए साथ ही कोई न कोई तर्क (कु) भी चला आता कि क्यों मुझे उस पर बात नहीं करनी चाहिए। थक कर एक क्षण के लिए आँखें मूँदी और अपना सारा ध्यान साँसों पर ले गया तो बस यही एक विचार कौंधा। 

ये विचार पढ़ा तो पहले भी था लेकिन आज से पहले कभी इसे स्वीकार नहीं कर पाया। लगता था हम कोशिश ही नहीं करेंगे तो सफल कैसे होंगे? जीवन में नई बातें कैसे सीखेंगे? इस परत दर परत दुनिया को कैसे ढूंढ़-जान आनन्दित होंगे? जीवन में और गहरे कैसे उतर पायेंगे? आज लगा, यहाँ भी जीवन की वही उलटबाँसी। जब तक कोशिश करो कुछ दूरी बनी रहती है और जो पाना चाहते हो उसे जीना शुरू कर दो तो लगता है यह तो पहले ही से प्राप्त था, बस इसे काम ही में नहीं लिया था। आपको नहीं लगता, कोशिश शब्द ही अपने आप में इस स्वीकारोक्ति को समाए हुए है कि शायद मुझसे नहीं हो पाएगा या मैं नहीं कर पाऊँगा। एक दबी नकारात्मकता। हम जो पाना चाहते है उसके लिए हम जो है उससे कहीं अधिक होना पड़ेगा। 

अपनी आँखों को मूँद अपना सारा ध्यान साँसों पर ले जाते समय ये विचार शायद इसीलिए मन में कौंधा होगा क्योंकि हम साँस लेने की कोशिश नहीं करते बस लेते है। यह हमारी प्रकृति है अतः कोशिश करने की कभी जरुरत ही नहीं पड़ी। कोशिश तो तब करनी पड़ती है जब आप साँस लेने में पूरी तरह सक्षम न हों यानि साँस की तकलीफ हो। ठीक इसी तरह यदि आपके अंतर्मन में कोई विचार उपजा है तो तय मानिए उसका पाना और होना उतना ही सहज है जैसे साँस लेना बशर्ते यह आपके अंतर्मन की उपज हो न कि अहम् या किसी और जैसा बनने की चाह। वेन डब्लू. डायर ने इसे बहुत ही सुन्दरता से कहा है, उन्हीं के शब्दों में, 'इफ यू केन कन्सीव इट, यू केन क्रिएट इट।'

ये हमारे मन के सन्देह ही तो है जो हमें मानसिक रूप से कमजोर बना देते है और तब हम स्वयं ही रास्ते में आने वाली मुश्किलों को बढ़ा अपने असफल होने की संभावनाओं को बढ़ा लेते है। डगमगाए विश्वास की नीवं पर कभी सफलता की पक्की इमारत खड़ी नहीं हो सकती। इसका मतलब ये कतई नहीं कि अंतर्मन की आवाज़ पर किए किसी काम में हम असफल होंगे ही नहीं। बिल्कुल, जीवन में ऐसा कई बार होगा लेकिन तब वो हमारी मेहनत में कमी और तरीकों में बदलाव की जरुरत का सूचक होगा न कि हमारी अक्षमताओं का परिचायक। किसी भी काम को करने का एक विशेष तरीका और उपयुक्त बल की जरुरत होती है। यदि इसे हम समय-समय पर जाँचते-परखते रहें तो आपके होने को कोई नहीं रोक सकता। 

मैं अपनी बात को वॉरेन बफेट की इन सारगर्भित पंक्तियों के साथ विराम दूँगा, " मैं हमेशा से जानता था कि मैं धनी होऊँगा। मैं नहीं सोचता मैंने एक मिनट के लिए भी इस पर सन्देह किया हो। "



(जैसा की दैनिक नवज्योति में रविवार, 8 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .........    

Friday, 6 September 2013

अपने आपको लौटाएँ



अभी कुछ दिनों पहले मैं अपने पूरे परिवार के साथ मारवाड़ के प्राचीन तीर्थों पर घुमने निकला था। सच है,साथ होने से बड़ा सुख नहीं। जब वापस काम पर लौटा तो ऐसा लगा जैसे रोजमर्रा के जीवन की सफाई हो गई हो, जैसे फालतू चीजों को बुहार कर कूड़े दान में डाल दिया हो। न जाने कितनी बेवजह चीजें करता ही चला जा रहा था। एक तरह से घडी का गुलाम होता जा रहा था और उपर से शिकायत, समय के कमी की। 

ऐसा ही होता है, एक ढर्रे पर चलते-चलते, पर हम भी क्या करें हमारी मज़बूरी होती है और इस चक्कर में ऐसे काम हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन जाते है जो अब बेवजह हो चूके है और उन कामों को अपना समय नहीं दे पाते जिन्हें हमारी प्राथमिकता होना चाहिए। कुल मिलाकर हम भाग रहे होते है और ये भूल जाते है कि हम क्यों भाग रहे थे। इस अहसास ने मुझे महान चित्रकार, गणितज्ञ और पुनर्जागरण के प्रणेताओं में से एक लियोनार्डो डी विंची की एक बहुत सुंदर कविता दिला दी .......

जब कभी निकल लें 
थोडा आराम करें     
और तब 
जब आप लौटेंगे काम पर 
आपके निर्णय होंगे ज्यादा पक्के 
बिना रुके कैसे रहेगा 
आपके निर्णयों में पैनापन

थोडा दूर निकल आएँ 
कम दिखेगा छोटा होकर 
और उससे भी ज्यादा 
दिखेगा पूरा का पूरा 
और तब 
चल जाएगा तुरंत मालूम 
कहाँ अनुपात बिगड़ रहा है 
कहाँ लय टूट रही है। 

इस क्षण में किये गए हमारे चुनाव, हमारे निर्णय ही तय करते है कि हमारा आने वाला क्षण, हमारा भविष्य कैसा होगा और उसके लिए रुकना उतना ही जरुरी है जितना समय-समय पर चाकू के धार लगवाना। जिस तरह लगातार काम में लेने से चाकू भोंतरा हो जाता है उसी तरह रोजमर्रा के जीवन में उलझे रहने से हमारे निर्णय भी दूसरी बातों से प्रभावित होने लगते है। चूँकि हम सामाजिक प्राणी है इसलिए हमारा कोई भी निर्णय चाहे वह कितना भी निजी क्यों न हो, किसी न किसी को प्रभावित जरुर करता है और जिन्हें प्रभावित करता है उनकी प्रतिक्रियाएँ हमारी सोच को पुनः प्रभावित करने लगती है। सोच के इस ऑक्सीकरण यानि जंग लगने से हमारे निर्णयों का पैनापन जाने लगता है। इसे बनाए रखने के लिए जरुरी है हम अपनी सोच की सफाई के लिए समय-समय पर रुकें। 

रुकने का दूसरा फायदा, हमें अपना काम समग्रता से दिखाई देता है ठीक वैसे ही जब हम अपने ही शहर को ऊँचाई से देख रहे होते है। चूँकि जीवन का हर पहलू दुसरे से जुदा है अतः क्या ठीक है क्या नहीं, ये अपने काम-अपने जीवन को एक साथ पूरे का पूरा देखने पर ही पता चल सकता है और तब इसे दुरुस्त करना कहीं आसान हो जाता है। 

इस मंथन से मेरे हाथ दो सूत्र लगे। पहला, समय-समय पर स्वयं एवम जीवन से परे होकर देखने की कोशिश करें। सशरीर कहीं जाना जरुरी नहीं, आप जहाँ हैं वहीँ से ऐसा कर सकते है जिसे हम साक्षी भाव कहते है। आपको जीवन की रुकावटों के बेहतर वैकल्पिक मार्ग नज़र आने लगेंगे। दूसरा, अपने काम को शुरू करने से पहले कम से कम दो-तीन मिनट के लिए इसी भाव में आ जाएँ, ध्यान लगाएँ। आपके सामने आपके काम का खाका स्वतः खींच जाएगा। यही तो कहते है विन्ची, जैसे भी हो बस थोडा निकल लें। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 1 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका 
राहुल .........