Friday, 15 February 2013

तुम्हें याद दिला दूँ



हजारों साल पुरानी बात है जब ईसाई धर्म अपने शैशव काल में था। इन दिनों उन लोगों को तरह-तरह से कुचला और रौंदा जा रहा था जो ईसाई धर्म की शिक्षाओं में विश्वास करने लगे थे। ऐसे ही एक व्यक्ति थे वेलेन्टीनस, जिन्हें ईश्वर के प्रेम पर अटूट विश्वास था। उन्हें लोगो को भड़काने के जुर्म में कैद कर लिया गया, उन पर मुकदमा चला और पहले से तय फाँसी की सजा सुना दी गई।

कैद के दौरान जेल के चौकीदार ने भांप लिया था कि यह व्यक्ति साधारण नहीं है। वह रोज अपनी अंधी बेटी जूलिया को शिक्षा-संस्कार के लिए उनके पास लाने लगा एक दिन जूलिया ने वेलेन्टीनस से पूछा, " क्या मैं कभी देख पाऊँगी?" वेलेन्टीनस ने जवाब दिया "बेटा ! दिल में प्रेम और परमात्मा में विश्वास हो तो सब कुछ संभव है।" वेलेन्टीनस की प्रेरणा पाकर उस क्षण जूलिया का ह्रदय परम और विश्वास से लबालब हो गया, जहां किसी आशंका की कोई गुंजाईश नहीं थी। उसी क्षण कुछ हुआ, और जूलिया के आँखों की रोशनी वापस लौट आयी। 

दूसरे दिन जब जूलिया वापस अपने गुरु से मिलने पहुँची तब तक उन्हें फाँसी के लिए ले जाया जा चुका था। हाँ, उसे अपने नाम एक पत्र जरुर मिला,-

         मेरी प्रिय जूलिया,

                   शायद हम वापस कभी न मिलें लेकिन एक बात हमेशा ध्यान रखना, मैं तुम्हें हमेशा 
                   प्रेम करता रहूँगा। तुम मुझे बहुत प्रिय हो। मैं हमेशा तुम्हारे पास हूँ, तुम्हारे दिल में 
                   ही तो रहता हूँ। मुझे तुम में पूरा विश्वास है। 

                                                                                                            तुम्हारा,
                                                                                                            वेलेन्टाईन

           .......... और ह्रदय के असीमित प्रेम ने वेलेन्टीनस को 'सेंट वेलेन्टाईन' बना दिया और जिस तरह उन्होंने अपने प्रेम और विश्वास का इज़हार जूलिया से किया वही याद रखने और उन्हें आदरांजलि देने के लिए हम हर साल यह दिन 'वेलेन्टाईन डे' के रूप में मनाने लगे।

यह दिन है एक-दूसरे को याद दिलाने का कि आपका प्रेम बिना शर्त है, यह विश्वास दिलाने का कि हर स्थिति में आप उनके साथ है और यह भरोसा दिलाने का कि आपको उनमें पूरा विश्वास है। आपको नहीं लगता यह अहसास ही काफी है व्यक्ति के लिए वह सब कर गुजरने के लिए जो साधारण स्थितियों में उसके लिए सम्भव ही नहीं। इसीलिए इस दिन की महत्ता और बढ़ जाती है। यह दिन उन लोगों को स्वयं से परिचय कराने का है जिनसे आप प्रेम करते है। आप अपनी भावनाओं का इजहार कर अपने प्रिय की मुलाकात उसकी असाधारणता से करवाते है।

अनाश्रित प्रेम और अखंडित विश्वास से अधिक पवित्र इस दुनिया में और कुछ नहीं। परमात्मा के प्रति इसी प्रेम और विश्वास ने जूलिया के आँखों की रोशनी लौटा दी। यदि हम अपने जीवन में अपने प्रियजनों को इसी प्रेम और विश्वास के लिए प्रेरित कर सकें, तो यह दुनिया निश्चित ही स्वर्ग से बेहतर होगी।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 10 फरवरी को प्रकाशित) 
आपका 
राहुल .............

Friday, 8 February 2013

अर्थ, कर्म और जीवन



वॉरेन बफ़ेट, दुनिया के तीसरे सबसे धनी व्यक्ति, 2012 में 'टाइम' मैग्जीन द्वारा प्रमाणित दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति। जिनकी कुल सम्पत्ति 46 बिलियन डॉलर यानि करीब 2,53,000 करोड़ रुपये। जिन्होंने अपनी सम्पति का 99% भाग 'बिल एंड मेलिंदा फाउंडेशन' को दान कर दिया। जिन्होंने दुनिया के 20 सबसे अमीर व्यक्तियों को इकट्ठा कर यह समझाने की कोशिश की, कि उन्हें अपनी सम्पति का आधा हिस्सा परोपकार में लगा देना चाहिए। जो आज भी अपने उसी पुराने घर में रहते है जो उन्होंने आज से 50 साल पहले ख़रीदा था। अमेरिका के नेबरस्का के पास ओहामा में उनका तीन कमरों का निवास बिल्कुल सामान्य पड़ोस की तरह जान पड़ता है। इन सारी बातों में यही वो बात थी जिसने मेरे मन को आन्दोलित किया। उनके रहन-सहन के बारे में और जानकारी जुटाने की कोशिश की तो आश्चर्य हुआ कि न तो वे अपने साथ मोबाइल रखते है और न ही उनकी ऑफिस टेबल पर कोई कम्प्यूटर ही है।

वॉरेन बफेट मुझे जीता-जागता उदाहरण लगे जो धन का उपयोग कर रहे है धन उनका उपयोग नहीं कर रहा। चीजें हमारे जीवन को नहीं चलाए, जीवन को चलाने के लिए हम चीजों को उपयोग में लें। आजकल हमारी हालत तो ऐसी है कि किसी कारण से कुछ घंटों मोबाइल न बजे तो बेचैनी-सी होने लगती है। लगता है हमारी कहीं जरुरत ही नहीं या हमारे पास कोई काम ही नहीं। बच्चे कहीं ऐसी जगह चले जाएँ जहां टी.वी. नहीं हो तो उन्हें ऑक्सीजन की कमी महसूस होने लगती है और महिलाएँ यदि फैशन या चलन की जानकारी न रख पाएँ तो उन्हें लगता है, वे पिछड़ गयी है, कहीं उनका आकर्षण कम न हो जाएँ। 

ये छोटी-छोटी बातें यहीं तक सीमित नहीं है, ये हमारी पूरी मनोदशा को रेखांकित करती है। आप कहेंगे, हमने मेहनत से पैसा कमाया है तो हमारा हक़ बनता है कि हम उसका भरपूर आनन्द लें। दूसरी तरफ, ये भी ठीक है कि कम और ज्यादा का कोई मापदण्ड नहीं होता जो आपके लिए कम है वही किसी के लिए बहुत ज्यादा है। अनावश्यक है, फिजूल है। आपकी दोनों बातें बिल्कुल ठीक है लेकिन जरुरत है इन दोनों को उधेड़ने की। पहली बात तो 'धन का आनंद', वो तब ही संभव है जब तक धन, आप जैसी जिन्दगी चाहते है उसे पाने में आपका सहयोग करें न कि उसकी मात्रा यह निश्चित करे कि आप कैसा जीवन जिएँगे। दूसरी बात, 'कम या ज्यादा', तो ये पैमाना सिर्फ आपका अपना होगा आप जिन और जितनी चीजों के साथ सहज है वही आपके लिए बिल्कुल ठीक है, उचित है, न कम न ज्यादा।

जीवन की आधारभूत जरूरतें हमारे कर्म की प्रेरणा हो सकती है लेकिन उसके बाद यह हमारी रचनात्मकता की अभिव्यक्ति ही है। हमारा पुरुषार्थ, हमारी उद्यमशीलता ही है। आप कितना कमाते है और आप कैसे रहते है, ये दोनों अलग-अलग बातें है।  आपकी रचनात्मकता आपको अधिक से पुरुस्कृत करती है तो यह ख़ुशी और संतुष्टि का प्रसंग है। यह प्रकृति ओर से दी आपको दी गई शाबासी है, लेकिन यहाँ एक अहम् प्रश्न स्वतः पैदा होता है कि फिर व्यक्ति सहज जीवन से अतिरक्त धन का क्या करें? इसका उत्तर चाणक्य देते है। वे कहते है, धन की केवल तीन गतियाँ होती है; उपभोग, दान एवं विनाश। उचित उपभोग के बाद शेष बचे धन को दान, यानि परोपकार में लगाना ही श्रेष्ठ है वरन उसका विनाश निश्चित है। आप इस सृष्टि के ताने-बाने का एक तागा है, और वस्त्र की सुन्दरता भी आप ही की जिम्मेदारी है।

यही वॉरेन बफेट ने किया। जीवन के साथ अपनी सहजता को बनाए रखा वरना क्या जरुरत थी कि एक प्राइवेट विमान कम्पनी का मालिक, यात्री विमान के इकॉनोमी क्लास में सफ़र करें। आप भी उस बिन्दु को तलाशें जहां आपका रहन-सहन और सहज-जीवन आपस में मिलते हों। यहाँ जिन्दगी की डोर आपके हाथ में होगी और आपकी समृद्धि आपके जीवन में आनन्द की सहायक होगी।


( रविवार, 3फरवरी को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका 
राहुल ..........  

Saturday, 2 February 2013

प्रेरणा




प्रिय दोस्तों,
        नमस्ते,

                26 जनवरी के अवकाश के कारण 27, रविवार को अख़बार नहीं छपे और मुझे मौका मिल गया कि मैं आपसे कुछ विशेष, कुछ अलग हट के साझा कर सकूँ।

रूस के प्रसिद्द कवि वसिली सुखोम्लीन्सकी की यह कविता मुझे एक पेंटिंग एक्जीबिशन में मिली। पोस्टकार्ड साइज में छपी यह रचना पेंटर बतौर अपने विजिटिंग कार्ड इतेमाल कर रहा था। मुझे इतनी भायी की कुछ दिनों बाद मैंने इसे फ्रेम करवा अपने स्टडी टेबल की दीवार पर लगा लिया। मुझे इस कविता ने हमेशा ही प्रेरणा दी है, शायद आपको भी पसंद आए;  


प्रेक्षण करना, सोचना,
चिंतन मनन करना,
श्रम से ख़ुशी पाना 
और अपने कार्य पर गर्व करना,
लोगों के लिए सुन्दरता 
और ख़ुशी की रचना करना 
और उसमें सुख पाना,
प्रकृति,संगीत और कला के सौंदर्य 
पर विमुग्ध होना 
और इस सौंदर्य से 
अपने आत्मिक जगत को समृद्ध बनाना,
लोगों के दुःख-सुख में 
हाथ बंटाना --

यही है 
चरित्र निर्माण का 
मेरा आदर्श 


अगले सप्ताह फिर से नवज्योति के स्थायी स्तम्भ के जरिये आपसे फिर मुलाक़ात होगी,  

आपका 
राहुल ......  

Saturday, 26 January 2013

सब कुछ ठीक है




" हम यहाँ दुनिया को बदलने नहीं, अपने-आपको अभिव्यक्त करने आए है। "            -गोयथे 


आज अपनी बात कहने के लिए मुझे एक पुरानी फिल्म का दृश्य याद आ रहा है जिसमें हीरोईन अच्छे-खासे रोमांटिक मूड में हीरो से पूछती है, 'तुम्हें मेरे चेहरे पर क्या दिखाई देता है।' हीरो तपाक से जवाब देता है, 'हीमोग्लोबिन की कमी।' हीरो डॉक्टर था। तकरीबन हम सब की दृष्टी ऐसी ही तो है। हीरो है हम और हीरोईन है हमारी जिन्दगी। हम जिन्दगी को इसी दृष्टी से देखते है कि इसमें क्या कमी है और मैं इसे कैसे ठीक कर दूँ? हमें लगता है, यही तो मेरा काम है। बस, एक बार जिन्दगी के हर पहलू को अपने हिसाब से ठीक कर लें, फिर आराम से जियेंगे। हम लगे रहते है पर, वो दिन कभी आता नहीं और ऐसा कभी होता नहीं। हम सब कहीं न कहीं यह जानते भी है, फिर ऐसा क्यूँ करते है? 

प्राणी-मात्र की बड़ी जरुरत होती है औरों के द्वारा स्वीकार किया जाना और इसके लिए वह अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने की जुगत में लगा रहता है। हर संभव कोशिश में कि, उसके पास हर बात का जवाब है, अपने और अपनों पर आयी हर मुसीबत का हल उसके पास है और और अपने सामने आयी हर स्थिति को वह जीत सकता है। धीरे-धीरे जीतना और अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करना हमारी लत पड़ जाती है। इसका प्रत्यक्ष छोटा-सा उदाहरण मोबाईल और कम्प्यूटर गेम्स है। बच्चों से लगाकर बड़ों तक इस लत के शिकार है। कारण है, ये दोनों ही 'मैं कर सकता हूँ' और 'जीतने' की भावना को पुष्ट करते है।

हमारी यही आदत हमें 'सब कुछ ठीक कर देने' के प्रयोजन में लगाए रखती है। ऑफिस हो या घर, दोनों ही जगह हमारा सुधार-आंदोलन चलता रहता है। सच तो यह है कि इससे संतुष्टि नहीं अहं की तुष्टि जरुर होती है।

हद तो तब हो जाती है जब हम रिश्तों को भी इसी तरह जीने लगते है। हम अपने रहने-जीने के तरीकों को ही सही मानते है और एक-दूसरे को वैसे ही रहने-जीने के लिए बाध्य करने लगते है। शायद इसीलिए हम सभी को एक ही शिकायत है कि हमें कोई समझता नहीं। हम भूल जाते है कि एक गुलदस्ते की सुन्दरता उसके अलग-अलग रंगों के फूल और पत्तियों के कारण ही है। मज़ा तो तब आयें, जब हम एक-दूसरे की मदद करने को तो तत्पर हों लेकिन अतिक्रमण कभी न करें।

हम सब यहाँ क्या करने आए थे और ये क्या करने लग गए? हमें अपना काम करना है, अपना किरदार निभाना है। यह जिन्दगी उस परमात्मा की है, पहली बात तो हमें वैसी ही मिली है जैसी हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है, इसके बावजूद उसे ठीक करने की जरुरत है भी तो ये उसका काम है।

इस सबका मतलब आप यह मत निकाल लेना कि मैं व्यावहारिक जगत के दैनिक कार्यों या परिवार में एक-दूसरे की मदद से आँखें मूंद, आलसी और निर्मोही होने के लिए प्रेरित कर रहा हूँ। वे जरुरी भी है और हमारा कर्त्तव्य भी; बस आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि ये सब एक सार्थक और सुन्दर जीवन में सहायक हो सकते है लेकिन यह जीवन नहीं है। जीवन है अपनी अन्तरात्मा की सुनना और वो जो कहे उसमें अपने आपको पूरी शिद्दत से झोंक देना। चिंता मत कीजिए, आगे बढिए, यहाँ सब कुछ ठीक है।


( रविवार, 20 जनवरी को नवज्योति मैं प्रकाशित)
आपका,
राहुल......... 

    


Friday, 18 January 2013

आपका राजसिक योग



दशरथ मांजी का जन्म 1934 में एक गरीब मजदूर परिवार में हुआ था। यह बात है गया, बिहार के पास पहाड़ियों के बीच बसे गाँव गेलोर की। शादी के कुछ वर्षों बाद एक दिन उसकी पत्नी बीमार पड़ गयी। गाँव से अस्पताल की दूरी 70 कि.मी. थी क्योंकि पहाड़ियों से घूमकर जाना पड़ता था। समय पर अस्पताल नहीं पहुँच पाने के कारण वह अपनी पत्नी को नहीं बचा पाया। उसे बहुत बुरा लगा। उसे लगा कि काश! ये पहाड़ियाँ बीच में न होती तो मैं अपनी पत्नी को बचा लेता। क्या मालुम उसे क्या सूझी, उसने पहाड़ काटना शुरू किया ये बात है 1960 की। लगातार 22 वर्षों तक वो अपनी इस धुन में लगा रहा औए 1982 को अरती और वजीरगंज के बीच की दूरी 75 कि.मी. से घटकर 1 कि.मी. रह गयी। ये क्या था, खालिस जुनून।

यह घटना बताती है कि इन्सानी मंसूबों के सामने कुछ भी नामुमकिन नहीं बशर्ते हममें उन्हें पूरा करने का जुनून हो।

अन्तरात्मा की आवाज़ पर अखण्ड विश्वास हो, मन में दृढ़ संकल्प हो तो काम जुनून में तब्दील हो जाता है और फिर उसके नहीं हो पाने की कोई गुंजाइश नहीं बचती। संक्षेप में, पागलपन की हद तक चाहना ही जुनून है। जब आपका अपने ध्येय के प्रति प्रेम आपके जेहन से समय और भूख के भाव को मिटा दे। जब आपको कोई किन्तु-परन्तु सुनाई न दे। जब ऐसा हो जाए तो समझ लीजिए आपको धुन लग गयी, लगन लग गयी और लगन से तो मीरा को गिरधर नागर मिल गए तो बाकी क्या बचा? सच पूछिए तो, जुनून कोई गुण नहीं, जीने का एक तरीका है जहां कोई अफ़सोस नहीं, कोई चिन्ता नहीं, कोई डर नहीं, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं; है तो सिर्फ सन्तोष और आनन्द।

आप कहेंगे, फिर तो अपराधी और आतंकवादी सबसे पहले जुनूनी हुए? अपराध और आतंकवाद के इस बुरे दौर में आपका ऐसा सोचना गलत भी नहीं। ये बात भी सही है कि वे जो कुछ भी कर रहे होते है उस पर उन्हें पूरा विश्वास होता है और खैर संकल्प तो उनका दृढ़ होता ही है लेकिन एक बात जो आप भूल रहे है, वह है 'अन्तरात्मा की आवाज़'। किसी को नुकसान पहुँचाना किसी के अन्तरात्मा की आवाज़ नहीं हो सकती। ये विचार अंतर्मन की नहीं बुद्धि की पैदावार होते है। व्यक्ति अपराधी या आतंकवादी बनता है ऐसी संगत के कारण जो उसकी बुद्धि को इतना विकृत कर देती है कि अंततः उसकी विकृत बुद्धि उसके अंतर्मन को हर लेती है। क्या करें इसका फैसला अंतर्मन करे और कैसे करें, ये बुद्धि बताए, ये ही उत्तम है।

शास्त्र भी कहते है प्रकृति त्रिगुणात्मक है यानि सृष्टि की रचना तीन गुणों के विभिन्न संयोगों से हुई है; सत, रज और तम। भौतिकी ने जिन्हें न्यूट्रोन, प्रोटोन और इलेक्ट्रान का नाम दिया है। जिस व्यक्ति के जीवन में सात्विक गुणों की प्रबलता होती है उसका जीवन साधुओं जैसा होता है, जिसमें तामसिक गुणों की प्रबलता होती है उसका जीवन निष्क्रिय यानी आलसी, व्यसनी या व्यभिचारियों जैसा होता है लेकिन जिसमें राजसिक गुणों की प्रबलता होती है उसका जीवन राजाओं जैसा होता है। 'राजा' शब्द ही एक छवि गढ़ता है, ऐसे व्यक्ति की जो अपने दिल की सुनने एवम पूरे विश्वास-संकल्प के साथ आगे बढ़ने के लिए मानसिक रूप से स्वतन्त्र हो। जो अपना जीवन पूरे जुनून के साथ जिएँ। एक गृहस्थ के लिए यही रास्ता उपयुक्त है। यदि आपको अपना राजसिक योग  सफल करना है तो जुनून धारण करना होगा।


(रविवार, 13 जनवरी को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका,
राहुल ..............        

Friday, 11 January 2013

मरे बिना स्वर्ग नहीं




हमने अपनी जिन्दगी को शिकायतों के पुलिंदे में तब्दील कर दिया है। हमें कोई चाहिए जिसे हम दोषी ठहरा सकें। जो कुछ हमारे जीवन में अच्छा हुआ वह हमारी मेहनत का फल था और बाकी के लिए कोई और जिम्मेदार था। 'अगर उसने ऐसा नहीं किया होता तो आज बात ही कुछ और होती'। 'मुझे उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी'। 'उसे तो समझना चाहिए था'। हमारा मन नहीं हो गया 'शिकायत-पेटी' हो गई। 

अरे! आप तो नाराज़ हो गए। नाराज़ मत होइए, मैं तहे-दिल से मानने को तैयार हूँ कि हमारी सारी शिकायतें जायज है और उन लोगों के प्रति हमारा गुस्सा भी वाजिब है लेकिन फिर एक बात समझ नहीं आती, अब जब ऐसे लोगों से हमने दूरी बना ली है तब भी वैसी ही घटनाओं की जीवन में पुनरावृति क्यों होती है? जिन्दगी वैसी ही रहती है, बस चेहरे बदल जाते है। एक बात और जो समझ नहीं आती वह यह कि ऐसा किसी एक-दो या कुछ के साथ नहीं बल्कि यह तो हम सब की व्यथा है। जीवन में सभी को कम अच्छे लोग मिलें हो, ऐसा कैसे हो सकता है? इन्हीं दो बातों ने यह सोचने पर मजबूर किया कि हो न हो हमारी शिकायतों की वजह कोई व्यक्ति या स्थिति नहीं, कोई और ही है?

उस 'और' को पकड़ने के लिए हमें बात के उस सिरे को पकड़ना होगा जहाँ से बात शुरू हुई थी। जीवन के अच्छे और कम अच्छे, दोनों तरह के अनुभवों की जिम्मेदारी हमें उठानी होगी। होता यह है कि हम कोई भी काम करते ही इस तरह है कि यदि उसके परिणाम हमारे मन मुताबिक़ न हों तो, हम किसी और को दोषी ठहरा सकें। ऐसा हम अनजाने करते है और ऐसा हमसे हमारा अहं करवाता है। वह सोचता है कि ऐसा कर वह हममें श्रेष्ठ और सही होने की भावना को बरकरार रख पाएगा लेकिन होता ठीक इसका उलटा है। हमारे मन पर शिकायतों और पछतावों का भार बढ़ता चला जाता है।

इस भार से मुक्ति सिर्फ अपने अनुभवों की जिम्मेदारी उठाकर ही संभव है और तब हमारे लिए उन्हें स्वीकारना चाहे वे कैसे भी हों, कहीं आसन होगा। हमारा यह अहसास कि हम अपने निर्णयों को बदल, अपने अनुभवों को बदल सकते है, उन्हें कहीं पैना बनाएगा।

कहीं आप इसका मतलब यह मत निकाल लेना कि जिन्दगी में हम अकेले है। ऐसा कतई नहीं है। एक-दूसरे की मदद करना जिन्दगी की प्रकृति है। सम्पूर्ण सृष्टि इसी तरह चलायमान है, अतः किसी की मदद लेना कमजोरी नहीं और न ही अपने अनुभवों के लिए जिम्मेदार होने से आशय। हाँ, यदि हम जो कुछ भी कर रहे है उसके हो पाने पर हमें पूरा विश्वास नहीं और हम किसी और को अपने प्रयोजन में इसलिए शामिल कर रहे है कि कोई और हमारे लिए लक्ष्य हासिल कर ले, तो यह संभव नहीं। हो सकता है इस तरह हमारे कुछ काम बन जाएँ लेकिन अधिकांशतः ये शिकायतों में ही तब्दील होंगे। एक पुरानी कहावत है, ' मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता'। जिसे स्वर्ग की चाह हो, मरना उसे ही पड़ता है। यदि किसी की मदद लेनी भी पड़े तो यह उस काम का हिस्सा है, आप उस व्यक्ति के प्रति एहसानमंद हो सकते है लेकिन परिणामों के लिए उसे दोषी नहीं ठहरा सकते।

अपने अनुभवों की जिम्मेदारी उठाइए, शिकायतें तो दूर होंगी ही, आत्मविश्वास की अतिरिक्त भेंट मुफ्त मिलेगी। आपके जीवन पर आपका नियंत्रण होगा और जीवन कहीं खुशहाल और हल्का होगा।


( जैसा कि नवज्योति में रविवार, 6 जनवरी को प्रकाशित )
आपका,
राहुल ............      

Friday, 4 January 2013

खिड़कियाँ खुली रखें



हम सब पुराने मित्र बहुत सालों बाद एक शादी में मिले। हम अपनी यादों को ताज़ा भी कर रहे थे और सभी आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से भरे हुए भी थे, ये देखकर कि हम सब अपनी-अपनी जिन्दगी में कहाँ-कहाँ पहुँच गए। हमारा एक मित्र हम सभी को लुभा रहा था, ऐसा लगता था कि वो बिल्कुल नहीं बदला। उसके बात करने का अंदाज़, उसकी भाव-भंगिमाएँ, सभी कुछ कॉलेज के दिनों की याद दिला रही थी लेकिन थोड़ी ही देर बाद उसकी बातों से सभी को उकताहट होने लगी। खुद ही को अच्छा नहीं लग रहा था कि मुझे ऐसा क्यों हो रहा है? आखिरकार दो दिनों बाद हम अपनी-अपनी जगहों को लौट गए। मैं भी लौट आया लेकिन मन में एक दुःख भरा सवाल लिए।

सवाल होता है तो उसका जवाब भी होता है बस उसे ढूँढना पड़ता है और जो मुझे मिला वह यह था कि मेरे उस दोस्त की बातों का मर्म भी वही था। शायद हम सब को ऐसा लग रहा था जैसे हम कॉलेज के ही किसी लड़के से बात कर रहे है। जैसे उसने अपनी मानसिकता को रोक लिया था, बाँध लिया था। जैसे उसने अपनी उन दिनों की सोच को ही अपना परिचय बना लिया था। इन सारे विचारों से यह सूत्र निकला कि जिस तरह कमरे की घुटन मिटानी हो तो कमरे की खिड़कियाँ खोलनी पड़ेंगी, उसी तरह खिले हुए व्यक्तित्व के लिए अपने दिल और दिमाग के दरवाजे खुले रखने होंगे।

आपको याद है दूसरी कक्षा में जब हमने पहली बार जोड़ लगाना सीखा था तब हम कैसे लगाते थे? जिसको जिससे जोड़ना होता, उतनी ही लाइनें बनाते और फिर उन्हें गिनते। वो सीखने का तरीका था जो हमारी उम्र के लिहाज से बिल्कुल ठीक भी था। धीरे-धीरे हमने अभ्यास किया फिर 'हासिल' लिखने लगे और फिर सीधे ही जोड़ने लगे। व्यक्ति को हर क्षण अपने आपको मांजने की कोशिश करनी चाहिए। जो कल का सच था वो आज का सच नहीं हो सकता। कोई भी साधन साध्य तक पहुँचने का जरिया भर होता है। पहली पायदान चाहे कितनी भी सुंदर हो उसकी उपयोगिता दूसरी पायदान पर पहुँचने तक ही सीमित होती है।

जिन्दगी से अच्छी कोई पाठशाला नहीं बशर्ते हम कक्षा में उपस्थित रहें। व्यक्तित्व निर्माण की पहली सीढ़ी है कि हम जिन्दगी के अनुभवों का प्रेक्षण करें, सोचें और चिंतन-मनन करें। ऐसा कर हम उन अनुभवों में छिपी सीख को जाने और आगे बढ़ जाएँ। नए विचारों को प्रवेश की अनुमति दें, उन्हें जानें और अपने परिप्रेक्ष्य में देखें-समझें फिर यदि ठीक लगे तो उन्हें आत्मसात करें; यही है अपने दिल और दिमाग के दरवाज़ों को खुला रखना।

इस सारे सन्दर्भ में मुझे महात्मा बुद्ध का वो सावधान करने वाला कथन याद आता है, "यदि कोई विचार सावधानीपूर्वक अन्वेषण के बाद उपयोगी लगता है और उसमें सभी का भला निहित है तब ही उसे स्वीकारें एवम अपनाएँ।" कोई भी विचार नया है सिर्फ इससे वह अपनाने लायक नहीं हो जाता। यदि वो जीवन के कारणों को संतुष्ट करता है याने उपयोगी है और जिसको अपनाने से कोई आहत न हो उसे ही थामे अन्यथा जैसे वह आया था वैसे ही उसे जाने दें।

नए वर्ष की शुभ वेला पर मैं कामना करता हूँ कि नए विचारों के झोंके हमारे आत्मिक जगत को समृद्ध करें और हमारे जीवन हमेशा ताज़ा-तरीन और महकता रहे।


( रविवार, 30 दिसम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका,
राहुल .........