Friday 11 January 2013

मरे बिना स्वर्ग नहीं




हमने अपनी जिन्दगी को शिकायतों के पुलिंदे में तब्दील कर दिया है। हमें कोई चाहिए जिसे हम दोषी ठहरा सकें। जो कुछ हमारे जीवन में अच्छा हुआ वह हमारी मेहनत का फल था और बाकी के लिए कोई और जिम्मेदार था। 'अगर उसने ऐसा नहीं किया होता तो आज बात ही कुछ और होती'। 'मुझे उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी'। 'उसे तो समझना चाहिए था'। हमारा मन नहीं हो गया 'शिकायत-पेटी' हो गई। 

अरे! आप तो नाराज़ हो गए। नाराज़ मत होइए, मैं तहे-दिल से मानने को तैयार हूँ कि हमारी सारी शिकायतें जायज है और उन लोगों के प्रति हमारा गुस्सा भी वाजिब है लेकिन फिर एक बात समझ नहीं आती, अब जब ऐसे लोगों से हमने दूरी बना ली है तब भी वैसी ही घटनाओं की जीवन में पुनरावृति क्यों होती है? जिन्दगी वैसी ही रहती है, बस चेहरे बदल जाते है। एक बात और जो समझ नहीं आती वह यह कि ऐसा किसी एक-दो या कुछ के साथ नहीं बल्कि यह तो हम सब की व्यथा है। जीवन में सभी को कम अच्छे लोग मिलें हो, ऐसा कैसे हो सकता है? इन्हीं दो बातों ने यह सोचने पर मजबूर किया कि हो न हो हमारी शिकायतों की वजह कोई व्यक्ति या स्थिति नहीं, कोई और ही है?

उस 'और' को पकड़ने के लिए हमें बात के उस सिरे को पकड़ना होगा जहाँ से बात शुरू हुई थी। जीवन के अच्छे और कम अच्छे, दोनों तरह के अनुभवों की जिम्मेदारी हमें उठानी होगी। होता यह है कि हम कोई भी काम करते ही इस तरह है कि यदि उसके परिणाम हमारे मन मुताबिक़ न हों तो, हम किसी और को दोषी ठहरा सकें। ऐसा हम अनजाने करते है और ऐसा हमसे हमारा अहं करवाता है। वह सोचता है कि ऐसा कर वह हममें श्रेष्ठ और सही होने की भावना को बरकरार रख पाएगा लेकिन होता ठीक इसका उलटा है। हमारे मन पर शिकायतों और पछतावों का भार बढ़ता चला जाता है।

इस भार से मुक्ति सिर्फ अपने अनुभवों की जिम्मेदारी उठाकर ही संभव है और तब हमारे लिए उन्हें स्वीकारना चाहे वे कैसे भी हों, कहीं आसन होगा। हमारा यह अहसास कि हम अपने निर्णयों को बदल, अपने अनुभवों को बदल सकते है, उन्हें कहीं पैना बनाएगा।

कहीं आप इसका मतलब यह मत निकाल लेना कि जिन्दगी में हम अकेले है। ऐसा कतई नहीं है। एक-दूसरे की मदद करना जिन्दगी की प्रकृति है। सम्पूर्ण सृष्टि इसी तरह चलायमान है, अतः किसी की मदद लेना कमजोरी नहीं और न ही अपने अनुभवों के लिए जिम्मेदार होने से आशय। हाँ, यदि हम जो कुछ भी कर रहे है उसके हो पाने पर हमें पूरा विश्वास नहीं और हम किसी और को अपने प्रयोजन में इसलिए शामिल कर रहे है कि कोई और हमारे लिए लक्ष्य हासिल कर ले, तो यह संभव नहीं। हो सकता है इस तरह हमारे कुछ काम बन जाएँ लेकिन अधिकांशतः ये शिकायतों में ही तब्दील होंगे। एक पुरानी कहावत है, ' मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता'। जिसे स्वर्ग की चाह हो, मरना उसे ही पड़ता है। यदि किसी की मदद लेनी भी पड़े तो यह उस काम का हिस्सा है, आप उस व्यक्ति के प्रति एहसानमंद हो सकते है लेकिन परिणामों के लिए उसे दोषी नहीं ठहरा सकते।

अपने अनुभवों की जिम्मेदारी उठाइए, शिकायतें तो दूर होंगी ही, आत्मविश्वास की अतिरिक्त भेंट मुफ्त मिलेगी। आपके जीवन पर आपका नियंत्रण होगा और जीवन कहीं खुशहाल और हल्का होगा।


( जैसा कि नवज्योति में रविवार, 6 जनवरी को प्रकाशित )
आपका,
राहुल ............      

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