Friday 6 September 2013

अपने आपको लौटाएँ



अभी कुछ दिनों पहले मैं अपने पूरे परिवार के साथ मारवाड़ के प्राचीन तीर्थों पर घुमने निकला था। सच है,साथ होने से बड़ा सुख नहीं। जब वापस काम पर लौटा तो ऐसा लगा जैसे रोजमर्रा के जीवन की सफाई हो गई हो, जैसे फालतू चीजों को बुहार कर कूड़े दान में डाल दिया हो। न जाने कितनी बेवजह चीजें करता ही चला जा रहा था। एक तरह से घडी का गुलाम होता जा रहा था और उपर से शिकायत, समय के कमी की। 

ऐसा ही होता है, एक ढर्रे पर चलते-चलते, पर हम भी क्या करें हमारी मज़बूरी होती है और इस चक्कर में ऐसे काम हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन जाते है जो अब बेवजह हो चूके है और उन कामों को अपना समय नहीं दे पाते जिन्हें हमारी प्राथमिकता होना चाहिए। कुल मिलाकर हम भाग रहे होते है और ये भूल जाते है कि हम क्यों भाग रहे थे। इस अहसास ने मुझे महान चित्रकार, गणितज्ञ और पुनर्जागरण के प्रणेताओं में से एक लियोनार्डो डी विंची की एक बहुत सुंदर कविता दिला दी .......

जब कभी निकल लें 
थोडा आराम करें     
और तब 
जब आप लौटेंगे काम पर 
आपके निर्णय होंगे ज्यादा पक्के 
बिना रुके कैसे रहेगा 
आपके निर्णयों में पैनापन

थोडा दूर निकल आएँ 
कम दिखेगा छोटा होकर 
और उससे भी ज्यादा 
दिखेगा पूरा का पूरा 
और तब 
चल जाएगा तुरंत मालूम 
कहाँ अनुपात बिगड़ रहा है 
कहाँ लय टूट रही है। 

इस क्षण में किये गए हमारे चुनाव, हमारे निर्णय ही तय करते है कि हमारा आने वाला क्षण, हमारा भविष्य कैसा होगा और उसके लिए रुकना उतना ही जरुरी है जितना समय-समय पर चाकू के धार लगवाना। जिस तरह लगातार काम में लेने से चाकू भोंतरा हो जाता है उसी तरह रोजमर्रा के जीवन में उलझे रहने से हमारे निर्णय भी दूसरी बातों से प्रभावित होने लगते है। चूँकि हम सामाजिक प्राणी है इसलिए हमारा कोई भी निर्णय चाहे वह कितना भी निजी क्यों न हो, किसी न किसी को प्रभावित जरुर करता है और जिन्हें प्रभावित करता है उनकी प्रतिक्रियाएँ हमारी सोच को पुनः प्रभावित करने लगती है। सोच के इस ऑक्सीकरण यानि जंग लगने से हमारे निर्णयों का पैनापन जाने लगता है। इसे बनाए रखने के लिए जरुरी है हम अपनी सोच की सफाई के लिए समय-समय पर रुकें। 

रुकने का दूसरा फायदा, हमें अपना काम समग्रता से दिखाई देता है ठीक वैसे ही जब हम अपने ही शहर को ऊँचाई से देख रहे होते है। चूँकि जीवन का हर पहलू दुसरे से जुदा है अतः क्या ठीक है क्या नहीं, ये अपने काम-अपने जीवन को एक साथ पूरे का पूरा देखने पर ही पता चल सकता है और तब इसे दुरुस्त करना कहीं आसान हो जाता है। 

इस मंथन से मेरे हाथ दो सूत्र लगे। पहला, समय-समय पर स्वयं एवम जीवन से परे होकर देखने की कोशिश करें। सशरीर कहीं जाना जरुरी नहीं, आप जहाँ हैं वहीँ से ऐसा कर सकते है जिसे हम साक्षी भाव कहते है। आपको जीवन की रुकावटों के बेहतर वैकल्पिक मार्ग नज़र आने लगेंगे। दूसरा, अपने काम को शुरू करने से पहले कम से कम दो-तीन मिनट के लिए इसी भाव में आ जाएँ, ध्यान लगाएँ। आपके सामने आपके काम का खाका स्वतः खींच जाएगा। यही तो कहते है विन्ची, जैसे भी हो बस थोडा निकल लें। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 1 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका 
राहुल .........    

2 comments:

  1. Very good thoughts.
    Your writings are full of wisdom.
    Thanks Pl keep it up.
    Dr M R Jain

    PROF. DR M. R. JAIN FICS, FAMS

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  2. Thank you uncle for such a profound appreciation.

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