Friday 6 April 2012

सार-सार को गहि रहै


सार-सार को गहि रहै,
थोथा    देई     उड़ाय.


हम अपनी दैनिक दिनचर्या से अभ्यस्त हो काम से ज्यादा काम करने के तरीको को तरजीह देने लग जाते है.निश्चित रूप से तरीको का अपना महत्व होता है लेकिन वे कभी उनके पीछे की मूल भावना से बड़े नहीं हो सकते. सुबह उठकर ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए याद करना अच्छी आदत है और निश्चित रूप से इसका भी एक तरीका होना चाहिए लेकिन अहम् बात है ईश्वर को याद करना. होता यह है की हम आसन, मुद्रा और दिशा को इतना महत्त्व देने लगते है की ईश्वर को याद करना एक औपचारिकता बन कर रह जाती है.

कालांतर में तरीको की यह तरजीह ही रीती - रिवाजों को जन्म देती है जिन्हें हमारे संगठित धर्म हवा देते है. हम सभी लोग चाहे किसी धर्म - विशेष के क्यों न हो अपने - अपने पवित्र ग्रंथों में कही बातों के पीछे छिपी मूल - भावना की बजाय सुझाए तरीको को अपना जीवन - आधार बना लेते है ; जैसे उपवास के लिए सुझाए सात्विक और कम भोजन का उद्देश्य मन और शरीर को शांत रखना है जिससे अंदर देख पाना और ईश्वर को महसूस कर पाना आसान हो लेकिन हमारा सारा ध्यान क्या खा सकते है और क्या नहीं खा सकते है पर ही लगा रहता है. यहाँ तक की अनजाने भी कोई तामसिक चीज खाने में आ जाए तो हमारा उपवास टूट जाता है और ईश्वर रूठ जाता है.

ठीक उसी तरह हम अपनी जिन्दगी में जीने की बजाय जीने के तौर - तरीको को ज्यादा अहमियत देने लगते है. हर व्यक्ति अपनी जिन्दगी मे सुख, शान्ति  और सफलता पाना चाहता है लेकिन दूसरों की तरह ; यही है हमारी भ्रमित समझ. किसी ओर का जीवन हमारे लिए प्रेरणा हो सकता है पर हमें अपना रास्ता खुद तलाशना होगा. हिमालय पर जाने से भगवान नहीं मिलते भगवान मिलते है सच्ची भक्ति से . हाँ , हिमालय की शान्ति एकाग्र होने मे सहायक जरुर हो सकती है. यदि किसी को वही एकाग्रता लोकल ट्रेन के डिब्बे में मिलती है तो उसके लिए वही ठीक है. हमें अपनी सुख - शान्ति और सफलता के मायने खुद ढूंढने होंगे. हम अपनी तरह जी कर ही उन्हें पा सकते है किसी और की तरह जी कर नहीं. तौर - तरीकों की बजाय सार - तत्व को महत्व देना होगा. जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों और पहलूओं के लिए दूसरों के जीवन का उदाहरण नहीं बल्कि अपने अंतस की आवाज़ का सहारा लेना होगा.

अपने  आपको एवम अपने जीवन को सही अर्थों में समझने की शुरुआत हम अपने परिचय की भाषा को ठीक कर कर सकते है. में व्यापारी हूँ की बजाय यह कहें  की में व्यापार करता हूँ, मैंने इंजीनियरिंग की है न की मैं इंजिनियर हूँ. मेरा नाम राहुल है मैं राहुल ही नहीं हूँ. हमारी यह छोटी सी पहल हमारी समझ पर पड़े भ्रम के बादलों को हटाने मैं मदद करेगी.यहाँ मुझे कबीर याद आ रहे है. जुलाहे का काम करने से कोई कबीर नहीं बन जाता लेकिन कबीर हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे आप जुलाहे का ही काम क्यूँ न करते हो.
उन्ही के शब्दों में,
साधु  ऐसा चाहिए  जैसा  सूप  सुहाय,
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय.

(दैनिक नवज्योति - रविवार,1अप्रैल)
आपका, 
राहुल......

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