Monday, 11 May 2015

पिक्चर अभी बाकि है मेरे दोस्त!



ऐसी कहानी मेरे सामने पहली बार आयी थी, बिल्कुल अद्भुत। एक परफेक्ट उदाहरण मुश्किलों से अपने आपको उबारने का। बात है सिंगापुर की क्रिस्टल की जिसकी दुनिया सुर और ताल है और एक अच्छी गायिका बनना उसकी मंजिल। पर दो साल पहले एक सुबह वो उठी तो न जाने क्या हुआ उसके गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी। सोयी तब तक तो सब ठीक था, उसे कुछ समझ नहीं आया। वो डॉक्टर के पास भागी और जो कुछ सुना वो उसकी दुनिया को तहस-नहस करने के लिए काफी था। लाखों में किसी एक के साथ ऐसा होता होगा जब आवाज की नली यूँ अचानक बेवजह सिकुड़ जाती है। इसका कोई इलाज नहीं, आवाज आनी हो तो किसी दिन ये नली बेवजह वैसे ही फैल भी जाती है। जब उम्मीद ही न हो तो व्यक्ति का टूटना लाजमी है। दिन-ब-दिन वो अकेली होने लगी, अवसाद से घिरने लगी थी कि दो साल बाद वैसे ही आवाज ने फिर गले पर दस्तक दी। उसे आवाज तो क्या कहेंगे बस हल्की-सी फुसफुसाहट भर थी पर हाँ, उसने क्रिस्टल के मन में उम्मीद का दीया जरूर रौशन कर दिया था। 

डॉक्टर्स और दूसरे लोगों का मानना था कि इसका यह कतई मतलब नहीं था कि वो कभी पहले की तरह गा पाएगी लेकिन क्रिस्टल को कुदरत पर शक करने की बजाय साथ निभाना ज्यादा ठीक लगा। उसे कोई कारण नजर नहीं आता था कि जब इतनी आ सकती है तो पूरी क्यों नहीं आ सकती। उम्मीद के दीये को जलता रखने उसने अपने लिए एक गीत लिखा। गीत के बोल भी हौसला रखने की ही बात करते थे, और वो रोज ये गीत अपने लिए गाती, अपने को सुनाती। धीरे-धीरे अपना ही गीत सुन-सुन उसका विश्वास पक्का हो गया कि उसकी आवाज तो लौटेगी ही, बस इस दौर से गुजरना भर है, और सच ऐसा ही हुआ। वो फिर गाने लगी, बिलकुल पहले की ही तरह। उनकी ये कहानी सुन मुझे गीता के छठें अध्याय का पाँचवा, अपना पसंदीदा श्लोक याद हो आया जिसका भावार्थ है,- आप ही अपना सहारा बनिए, आप ही अपने को उठाइए। अपने आप को दोष मत दीजिए क्योंकि आप ही अपने मित्र हैं और आप ही अपने दुश्मन। 

ये संयोग तो नहीं होगा, निश्चित ही प्रकृति मुझे इसके अर्थों में गहरे उतारना चाहती थी कि उसी शाम को टी.वी. ऑन करते ही देखा जावेद अख्तर साहब 'दोहे मोहे सोहे' में फैज अहमद फैज का एक बहुत खूबसूरत शेर समझा रहे थे। शेर कुछ यूँ था,-
दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है 
लम्बी है गम की शाम मगर, शाम ही तो है 
अब आप शेर की बारीकी देखिए, नाकाम होना सफर का हिस्सा है, एक पड़ाव है। असफलता हार नहीं होती। ये बस शाम की तरह होती है जिसके बाद सुबह का आना तय होता है। किसी लम्बी उदास शाम की तरह नाकामी का, असफलता का दौर चाहे जितनी देर रहे आखिर उसे ढलना ही होता है, खत्म होना ही पड़ता है। हारता व्यक्ति तब है जब वो अपनी उम्मीद खो देता है, जब वो रुक जाता है। जब तक आप खेलते है जीतने की सम्भावना बनी रहती है लेकिन यदि आप खेलना बन्द कर दें तो फिर आपको हार से कोई नहीं बचा सकता। और फिर जिन्दगी तो ऐसा खेल है जिसमें रेफरी प्रकृति आपकी तरफ है, वो खेल के खत्म होने की सीटी तब तक नहीं बजाती जब तक आप जीत न जाएँ बशर्ते आप खेलते रहें। 

क्रिस्टल नाकाम हुई थी पर नाउम्मीद नहीं थी। उम्मीद का दीया रौशन कुदरत ने किया तो जिलाये उसने रखा। अपना सहारा खुद बनी, अपने लिए लिखा, अपने लिए गाया, अपने से अपने को उठाया। इस कहानी का सामने आना, फिर गीता का श्लोक जेहन में घूमना और उस पर फैज साहब का शेर यही समझा रहे थे कि चाहे जो हो जाए, हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना है। उम्मीद जिन्दा है तो पिक्चर अभी बाकि है मेरे दोस्त। 

Monday, 13 April 2015

देखो,​ ​मैं खिल रही हूँ।






खान मार्केट दिल्ली में वो बस स्टॉप पर खड़ी थी कि अचानक किसी ने धक्का दिया और मुँह पर हाथ रख नीचे गिरा दिया। वो गुड्डू ही था, एक ग्लास में एसिड भर कर लाया था। उसने वो एसिड पहले लक्ष्मी के चेहरे और फिर हाथों पर डाल दिया और वहाँ से भाग छूटा। लक्ष्मी कहती है, उसे लग रहा था जैसे वो जल रही थी, कुछ ही मिनटों में उसके मुँह और हाथ का माँस लटकने ​लगा।​​​ ​वो सड़क पर पड़ी तड़प रही थी लेकिन ​हमेशा की तरह ​कोई ​उसे ​बचाने नहीं आया। ये बात है 2005 की जब वो मात्र 15 साल की थी, बहुत सुन्दर​-मासूम ​ और उसने 32 साल के गुड्डू का ​प्रेम-निवेदन​ ठुकरा दिया था। 

कुछ ही दिनों पहले तो उसने 'इंडियास गॉट टेलेंट' में भाग लिया था लेकिन उस दिन के बाद वो कई सालों तक अपने घर से बाहर नहीं निकली। उसका तन नहीं मन भी बिखर चूका था लेकिन ​जिस तरह ​उसके पिता ने उसे सम्भाला​ और​ हिम्मत बंधाई​, शायद कम ही पिता ऐसा कर पाते होंगे। कुछ ही दिनों में उसे मानसिक रूप से इतना तैयार कर लिया था​ कि वो अपनी ही तरह पीड़ित लड़की रूपा के साथ सुप्रीम कोर्ट में एसिड ​की खुली बिक्री​ के विरोध में जनहित याचिका दायर करने को तैयार हो गयी। ​पिता आर्थिक रूप से बहुत कमजोर थे, न​ होते तो क्यूँ इतनी छोटी उम्र में उसे किसी किताबों की दुकान पर काम करना पड़ता और क्यूँ वो उस दिन बस स्टॉप पर खड़े उस दरिंदे को ​मिलती। इसके बावजूद उन्होंने ​गुड्डू और हमले में उसकी साथिन राखी को 10 और 7 साल की सजा दिलवायी और अपनी प्यारी बिटिया लक्ष्मी की एक के बाद एक सात सर्जरी करवाई कि वो सर उठा कर जी सके। ये सब किया उन्होंने अपने दम पर, न कोई सरकारी मदद न कोई सहायता। 

लेकिन ​इन सब के बीच वे भी अन्दर के अन्दर कहीं टूट रहे थे और आखिर 2012 में दिल का ऐसा दौरा पड़ा कि वे बच नहीं पाए। अब घर में कोई कमाने वाला नहीं बचा ​था। विसंगति यह कि हम जिस समाज में रहते है वहाँ व्यक्ति की सूरत देखी जाती ​है सीरत नहीं। लक्ष्मी को कोई नौकरी देने को तैयार नहीं था। ठीक भी था,​ हर इन्सान को अपनी नियति जीनी होती है ​शायद ​लक्ष्मी को भी अपनी जीनी थी। कुछ ही दिनों बाद एक पत्रकार उपनिता उससे मिलने आयी। उसने लक्ष्मी को खबर बना दिया, साथ ही अलोक दीक्षित से मिलवाया जो इन्हीं मुद्दों पर काम कर रहे थे। बाद में मालूम चला वे तो खुद लक्ष्मी को पिछले चार सालों से ढूँढ रहे थे। उन्होंने लक्ष्मी को अपनी संस्था 'स्टॉप एसिड अटैक' के कैंपेन कोर्डिनेटर का प्रस्ताव रखा। इसी दौरान लक्ष्मी सुप्रीम कोर्ट में केस जीत गई। 

आज एसिड की खुली बिक्री पर पाबन्दी है और वे एसिड अटैक की खिलाफत का चेहरा। ​स्टॉप एसिड अटैक कैंपेन के तहत आलोक और लक्ष्मी ने दिल्ली में 'छाँव' नाम से एक पुनर्वास केन्द्र शुरू किया है। यहाँ एसिड अटैक पीड़ित लड़कियों की कॉउंसलिंग की जाती है, मानसिक रूप से मजबूत बनाया जाता है और जरुरत हो तो उन्हें ठीक होने तक वहाँ रखा भी जाता है। वे कहतीं है हम विक्टिम नहीं फाइटर्स हैं। आज वे हर ऐसी लड़की तक हर सम्भव तरीके से पहुँचने की कोशिश कर रही है, उन्हें टूटने से बचा रहीं हैं। वे उन सब लड़कियों की आवाज बन चुकी हैं जो चीख-चीख कर कह रहीं है कि कोई एक दरिंदा हमसे हमारी जिन्दगी नहीं छिन सकता। ​​ 

साथ काम करते-करते आलोक लक्ष्मी की हिम्मत और सुन्दर मन कायल ​होने लगे ​तो लक्ष्मी को जिन्दगी में पहली बार लग ​रहा था ​ कि कोई उसके दर्द को समझ रहा है, इसी बात ने उन्हें दोस्त से जीवन-साथी बनने पर मजबूर कर दिया। आजकल वे टी.वी. पर 'उड़ान' सीरियल कर रही है, अपने उसी चेहरे के साथ, बड़े ही गर्व से। मार्च, 14 में मिशेल ओबामा के हाथों बहादुरी का पुरस्कार मिला। सभी पुरस्कृत महिलाओं की तरफ से उन्हें धन्यवाद के दो शब्द कहने बुलाया, उन्होंने कुछ कहने की बजाए अपनी लिखी कविता सुनाई जिस पर पूरे हॉल को खड़े होकर तालियाँ बजानी पड़ी, -

चेहरा जो तुमने जला दिया,
वो चेहरा जिससे मुझे प्रेम था,
पर देखो,
मैं खिल रही हूँ।​ 

राहुल हेमराज ​........

Saturday, 21 March 2015

जो है सो काफी है







इन दिनों रोज एक घटना लिखनी होती है जो हमें अपने पर और अपनों पर विश्वास करने को प्रेरित करे। ये मैं अपने फेसबुक पेज 'दिल से' के लिए करता हूँ। मैं सोचता था, रोज की एक पॉजिटिव स्टोरी, ये शायद नहीं हो पाएगा। पर मैं अचम्भित भी हूँ और प्रेरित भी, साथ में ये भी साफ़ होता जा रहा है कि आखिर ये दुनिया किसके भरोसे चल रही है। इसी दौरान मेरी मुठभेड़ एक ऐसी कहानी से हुई जिसने मेरे इस विश्वास को पक्का कर दिया कि जीवन में हमारे पास हमेशा ही पर्याप्त होता है। उतना जो हमारे जीवन को सार्थक कर दें, हम अपने बारे में अच्छा महसूस करें और लोगों के दिलों में थोड़ी जगह बना सकें। 

इसके पहले मुझे तो नहीं मालूम था कि हम आर्म-रेसलिंग के वर्ल्ड-चैम्पियन हैं। ये गर्व करवाते है हमें केरल के जॉबी मैथ्यू। आप कहेंगे अच्छा है लेकिन इसमें खास क्या है? खास बात ये है कि उनके पैर 40% ही विकसित है, यानि यों समझ लीजिए वे पैरों के सहारे सीढ़ियाँ भी नहीं उतर पाते और वे मेडल दिलाते है जनरल केटेगरी में। वे कहते हैं, "स्कूल के दिनों मेंमैं जब और बच्चों को साइकिल पर स्कूल आते देखता तब मुझे अपने लिए बहुत बुरा लगता था। मैं जानता था मैं ऐसा कभी नहीं कर पाऊँगा लेकिन फिर भी मैंने कोशिश की, कि मैं इस बात पर ध्यान दूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ बजाय इसके कि क्या नहीं कर सकता।" 

उन्होंने स्कूल में दोस्तों के साथ वॉलीबाल और बैडमिंटन खेलना शुरू किया। खेल तो पाते, लोग उनके हौसलों की दाद भी देते पर वे टक्कर नहीं दे पातेजीत नहीं पाते और मन में एक कमतरी का अहसास बना रहता। उन्होंने नोटिस किया, खेल के बाद दोस्त जब आपस में पन्जा लड़ाते है तो वे अच्छे-अच्छों को पछाड़ देते है। वो एक समय, एक बात होती थी जब उन्हें अपने लिए अच्छा लगता है उन्होंने तय किया कि वे आर्म-रेसलिंग को ही चुनेगें और इसी में महारत हासिल करेंगे। वो दिन है और आज का दिन, उन्होंने अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को इतना फौलादी कर लिया है कि दुनिया भर के रेस्लर उनसे घबराते है। 

आज भी एक घन्टा जिम, 45 मिनट पेरियार नदी में तैराकी से उनका दिन शुरू होता है। वे अपने हाथों से सीढ़ियाँ ही नहीं उतर लेते बल्कि एक हाथ पर अपने पूरे शरीर का वजन ले सिट-अप लगाना उनके अभ्यास का हिस्सा है। इसके बाद वे स्वयं कार चला नौकरी पर पहुँचते है। वे एक पेट्रोलियम कम्पनी में स्पोर्ट्स ट्रेनर है। नौ स्पोर्ट्स के कोच, देश के पहले मल्टीपर्सन स्पोर्ट्समैन। हाल ही में ईश्वर ने उन्हें ढेर सारे मेडलों के बाद एक पुत्र-रत्न से नवाजा है। उनकी पत्नी स्वयं एक क्लासिकल डांसर है। सामान्य से बेहतर उनकी जिन्दगी का राज यह है कि उन्होंने इस बात पर ध्यान दिया कि उनके पास क्या है न की इस पर कि क्या नहीं। जो है उसे तराशा। उसी कच्ची मिट्टी से घड़ा बनाया जो आज उनकी जिन्दगी के मीठेपन को सहेजे है। सच, हमारे पास हर क्षण पर्याप्त होता है बस जरुरत होती है तो अपने ध्यान को जो नहीं है कि बजाय जो है उस पर लगाने की। 

राहुल हेमराज ........... 


Thursday, 26 February 2015

दिल की अपनी वजहें




आज हम विश्वास खोते जा रहे हैं; विश्वास अपने पर, अपनों पर। नाउम्मीदी ने हमें घेर रखा है। विश्वास है तो सिर्फ एक बात का कि कुछ नहीं हो सकता। और यही कारण है कि कुछ नहीं होता। आपको याद होगा, पिछली बार हमने बात की थी कि जैसा हम देखते-सुनते है वैसा ही मानने लगते है और धीरे-धीरे उसी में विश्वास करने लगते है, इसलिए जरुरी है इस बात के लिए सतर्क रहना कि हम क्या देखते और सुनते हैं। जब इस बात का होश रहने लगता है तो एक दूसरी मुश्किल आन खड़ी होती है, ऐसा देखने-सुनने को मिलता ही नहीं जो उम्मीदों में हमारे विश्वास को जमा सके। तो क्यूँ न इस स्तम्भ में हम हर बार किसी ऐसी सच्ची घटना की बात करें जो ये काम करती हो। 

बात अमेरिका की है, ऐन कार्ल से बहुत प्यार करती थी। वे एक-दूसरे को लम्बे अरसे से जानते थे पर जब भी बात शादी की आती वो टाल जाती। वास्तव में उसके अवचेतन में माँ की एक बात बैठी थी जो उन्होंने उसे बचपन में कभी कही थी। माँ ने कहा था, दुनिया में हर चीज का एक दिन अन्त हो जाता है और यह बात रिश्तों पर भी लागू होती है। ऐन कार्ल को किसी हालत में खोना नहीं चाहती थीं इसलिए शायद सोच लेती थी कि मैं रिश्ता बनाऊँगी ही नहीं तो उसका अन्त कैसे होगा। वो अनजाने ही किस्मत को छकाने में लगी थी और इस तरह 11 साल बीत गए। समय के साथ उम्र भी तो बढ़ जाती है, इन दिनों कार्ल की तबियत कुछ गड़बड़ रहने लगी थी। चलते-चलते हाँफना, पसीना आना, सीने में हल्का-हल्का दर्द। दोनों को अंदेशा हुआ कहीं कोई हार्ट-प्रॉब्लम तो नहीं? डॉक्टर को दिखाया, उन्होंने कुछ टेस्ट लिख दिए। रिपोर्ट आयी, कोई ब्लॉकेज नहीं। डॉक्टर ने फिर आगे के कुछ टेस्ट लिखे तो मालूम चला कि कार्ल के हार्ट की आधी से ज्यादा कोशिकाएँ मर चुकी हैं। ऐन ने जब पूछा कि क्या इन्हें दवाइयों या और किसी तरह पुनर्जीवित किया जा सकता है? डॉक्टर्स ने बड़ी मायूसी से कहा,'नहीं।' बस एक विशेष दवाई लिख दी और कहा अगर कोशिकाएँ इसी तरह ख़त्म होती हैं तो हार्ट-ट्रांसप्लांट एक मात्र रास्ता बचेगा।  

अस्पताल से घर जाते हुए ऐन को लगा जैसे कार्ल उसकी जिन्दगी से छूटा जा रहा है। वो अचानक कह उठी, 'कार्ल, अब हमें शादी कर लेनी चाहिए।'कार्ल ने इतना ही कहा,'हाँ'। अगले ही हफ्ते बड़े ही सादे समारोह में घरवालों और ख़ास मित्रों की उपस्थिति में उनकी शादी हो गयी। शादी के कुछ ही दिनों में उसे अहसास होने लगा कि जितना वो सोचती थी कार्ल उससे कहीं अधिक उससे मोहब्बत करता है। यहाँ तक कि अब तक उसने घर की हर जगह कुछ जगह खाली छोड़ रखी थी जैसे किसी और के आने का इन्तजार हो। इधर वो दवाई कार्ल को मानसिक और शारीरिक रूप से और कमजोर कर रही थी। कुछ महिनों बाद उसने दवाई लेना बन्द कर दिया। धीरे-धीरे उसकी तबियत ठीक रहने लगी थी। ऐन बहुत खुश थी, उसने सोचा ये दवाई का कमाल है पर जब उसे सच्चाई मालूम चली तो मन ही मन डरने लगी। वापस टेस्ट्स करवा लेना ही इस शंका का एकमात्र निवारण था।  

टेस्ट के रिजल्ट्स हैरतअंगेज थे और डॉक्टर्स परेशान। कार्ल की ह्रदय-कोशिकाएँ पुनर्जीवित हो चुकी थीं। ये मेडिकल हिस्ट्री में पहला केस था, थ्योरीज़ के विपरीत। पूरी दुनिया की मेडिकल कॉन्फ्रेंसेस और डॉक्टर्स के बीच ये केस डिस्कस हुआ और आखिर वे केवल इस निष्कर्ष पर पहुँच पाये की कार्ल ऐन से इतना प्यार करता था, इतनी शिद्दत से उसके साथ रहना चाहता था कि उसके दिल ने एक तरकीब खेली जिसे उसका दिमाग भी नहीं जानता था। वो तरकीब ये थी की ह्रदय की कोशिकाओं ने कुछ समय के लिए अपनी साँस रोक ली, अपने आपको लकवा ग्रस्त कर लिया और ऐन कह उठी, अब हमें शादी कर लेनी चाहिए। कहाँ वो किस्मत को छकाने निकली थी कहाँ प्रकृति ने उसे छका दिया। 

देखा आपने, अपनी बात कहने के दिल के अपने तरीकें होते है जिसकी अपनी वजहें होती है जिसे वही जानता है। हम सही-गलत के तर्क-वितर्कों में उलझ दिल को नकारते है। शायद हमारी आदत पड़ चुकी कि हम किसी काम को तब ही करते है जब तक यह तय न हो जाए की इसे करने से होगा क्या? क्या सोच हम ऐसा करते है ? क्या किसी व्यक्ति के लिए प्रकृति की योजनाओं को पहले से जान पाना सम्भव है? नहीं ना, पर वे सारी योजनाएँ हमारे दिल में दर्ज है, उन्हें हमारा अन्तस जानता है। तो बेहतर है हम अपने अंदर से आ रही आवाज को सुने, उस पर भरोसा करें और उस ओर कदम बढ़ाएँ। हमारा ऐसा करना उस प्रकृति के साथ सहयोग करना होगा जो रात-दिन हमारा भला करने में लगी है। विश्वास और उम्मीद की ये यात्रा अपनी मान अपने से ही शुरू करनी होगी तब ही ये एक दिन अपनों तक पहुँचेगी।      

राहुल हेमराज ...........


घर-वापसी

मित्रों,
नए साल में कुछ उलझन रही, वजह थी नये फेसबुक पेज की व्यस्तता। अखबार के लिए भी नहीं लिखा लेकिन मजा नहीं आया। खुला हाथ जो यहाँ मिलता है और कहीं नहीं। फरवरी से अखबार में लिखना शुरू किया और आज से फिर आपके सामने हाजिर हूँ। 
सेकंड सन्डे को दैनिक नवज्योति में मेरा कॉलम छपता है, कॉलम का नाम भी यही है, उसी को मैं अगले दिन यहाँ पोस्ट कर दूँगा। 
एक शिकायत, आपके कमेंट नहीं आते, आशा करता हूँ अब ये सहयोग भी मिलेगा।
धन्यवाद,
राहुल_

Friday, 19 December 2014

तीन बन्दरों का विज्ञान




जापान के डॉ सुमोटो ने एक अचम्भित करने वाला प्रयोग किया। उन्होंने तीन बीकर लिए, हर बीकर में आधा मुट्ठी चावल को पानी में भिगो दिया। डॉ सुमोटो रोजाना एक बार पहले बीकर के चावलों को 'थैंक यू', दूसरे बीकर के चावलों को 'इडियट' कहते और तीसरे बीकर के चावलों पर ध्यान ही न देते। एक महीने बाद  क्या देखते हैं? पहले बीकर के चावल खमीर उठने के कारण महक उठे थे जबकि दूसरे बीकर के चावल काले पड़ चुके थे और जिनकी कोई परवाह ही न की थी वे तो बुरी तरह सड़ चुके थे।

उन निर्जीव चावलों का ये हाल हुआ तो हमारे मन-मस्तिष्क का क्या हाल होता होगा? फिर सोच-समझ पाना तो प्रकृति की इन्सान को सबसे कीमती भेंट है। कीमती है तो उतनी ही सावधानी की जरुरत भी। उन चावलों के तो हाथ में तो नहीं था कि उनका क्या होगा लेकिन हमारे हाथ में तो है। हम 'थैंक यू' सुनेगें या 'इडियट' ये हमारा चुनाव है इसलिए जीवन में महक उठेंगे या काले पड़ जाएंगे यह पूरी तरह हमारे हाथ में है। यही तो है गाँधी जी के उन तीन बंदरों का विज्ञानं जिसकी प्रमेय है; बुरा मत देखो, बुरा म,मत सुनो, बुरा मत कहो। 

होता यूँ है कि जैसा हम देखते-सुनते हैं वैसे ही विचार हमारे मन में बनने लगते हैं। एक जैसा देखते-सुनते हम उन विचारों के सही होने पर विश्वास करने लगते हैं। विसंगति ये कि जिन विचारों पर हम विश्वास करने लगते है ठीक वैसा ही हमारे जीवन में घटने लगता है चाहे हम चाहें या न चाहें। आपने शायद गौर नहीं किया होगा, रोजाना की ख़बरें कि आज फिर किसी ने झूठ और बेईमानी से फलाँ चीज या मुकाम हासिल कर लिया, हमारे मन में उन तरीकों के प्रति विश्वास जगाने लगता है। हम मानने लगते है कि जीवन में कुछ हो सकता है तो ऐसे ही और तब अनजाने ही हम भी उस राह पर निकल पड़ते हैं। इस तरह हम तथाकथित रूप से सफल भी हो जाते है लेकिन अन्दर से खुश नहीं होते क्योंकि झूठ और बेईमानी का ये जहर हमारे व्यक्तित्व से लेकर परिवार और बच्चों तक फ़ैल रहा होता है। यही कारण है कि यह सफलता 'तथाकथित' हो जाती है। भला कोई उपलब्धि हमारे जीवन में खुशियाँ ही न लाए तो वह सफलता कैसे हो सकती है ?

तो तीनों बंदरों की इस प्रमेय को दोहराता हूँ; बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो। मैंने कई बार बातों-बातों में सुना है कि 'कहना' तो हमारे हाथ में है लेकिन 'देखने-सुनने' का हम क्या कर सकते हैं? जैसा देश-समाज में घटेगा वैसा ही तो देखेंगे-सुनेगें।  मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि ऐसा कतई नहीं है। इस दुनिया में बुरा घट रहा है तो उतना ही अच्छा भी, बस फर्क इतना है कि नालायक जरा ऊधम ज्यादा करते हैं, शोर अधिक मचाते हैं इसलिए वही देखने-सुनने में आते हैं। हम चाहें तो हमेशा ही ऐसा देख-सुन सकते हैं जो मन को सुकून देता हो, जो हमें नई ऊर्जा से भर दे। 

एक बात विशेष ध्यान रखने की है कि हम सभी के जीवन में ऐसे लोग होते ही हैं जो हमारी भलाई के नाम पर बात-बात पर हमारी आलोचना, हमें हतोत्साहित करते रहते हैं। इनसे दूरी बनाना सबसे जरुरी है। इनकी बातों को मान लेना ठीक वैसा ही है जैसे पैर में रस्सी बाँध दौड़ने की कोशिश करना। अपने जीवन में अच्छा देखने और सुनने की भला इससे बढ़िया शुरुआत क्या हो सकती है? तो आइए, नए वर्ष पर इस संकल्प के साथ अपने जीवन की गाडी को खुशियों की राह पर मोड़ लेते है कि अच्छा देखेंगे, अच्छा सुनेगें और अच्छा कहेंगे। 

(रविवार, 14 दिसम्बर को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित)
राहुल हेमराज ...........

Saturday, 29 November 2014

विश्वास के बीज, खुशियों की फसल



एक व्यक्ति अपने जीवन में जहाँ कहीं है वह अपने विचारों की बदौलत है और ये विचार, ये बनते हैं हमारे देखने-सुनने से। जैसा हम देखते-सुनते है वैसे ही विचार हमारे मन में बनने लगते है और फिर धीरे-धीरे उन पर यकीं होने लगता है। जिन विचारों पर हम यकीं करने लगते वे ज्यों के त्यों हमारे जीवन में घटने लगते है चाहे हम चाहें या न चाहें। 

कितना महत्वपूर्ण होता है हमारा देखना और सुनना, इस बात का और भी शिद्दत से अहसास हुआ जब मैंने डॉ. सुमोटो का चावल पर किए प्रयोग का वीडियो देखा। तब मैंने अपने चारों ओर नजर घुमाई तो पाया कि हम शायद ही ऐसा कुछ देख-सुन रहे हैं जो मन को सुकून पहुँचाने वाला हो। अब भला रोज ही झूठ-बेईमानी की कहानियों से घिरे रहेंगे तो अछाई पर यकीं भला क्यों कर होने लगा? हम इन लोगों को सफल मानने लगते है पर ऐसा है नहीं। हासिल इन्होंने चाहे जो कर लिया हो ये खुश नहीं हो सकते वैसे ही जैसे नमक डालने से हलवा कभी मीठा नहीं हो सकता। 

हमारे मन की बदहाली की वजह हमारे अपने विचार है जो हमने अविश्वास के बीजों को बोकर पाए हैं। मैंने सोचा क्यों न मैं रोजाना किसी ऐसी सच्ची घटना को आपके साथ साझा करूँ जी मन में विश्वास जगाती हो, कम शब्दों में उस लिंक के साथ जहाँ से मैंने उसे उठाया हो पर विश्वास बड़ा जगाती हो। विश्वास इस बात का कि अन्ततः अच्छा सिर्फ उनके साथ है अच्छाई को चुनते है। तब हमारे होने या न होने से फर्क पड़ने लगता है। 

तो आइए, facebook.com/dilsebyrahul पर, वहीं खुशियों की फसल के लिए विश्वास के बीज बोते हैं। 
(डॉ सुमोटो का वीडियो भी आप आज की पोस्ट में देख सकते हैं)

इंतजार में,
राहुल हेमराज ........