Saturday, 19 July 2014

संस्कारों का बदलता दायरा






करीब दो महीने पहले की यह घटना होगी जब स्कूली बच्चों को ले जा रहे एक कोरियाई ज़हाज के डूबने की खबर आयी थी। ये बच्चे स्कूल की और से पास ही के एक टापू के लिए विनोद-यात्रा पर निकले थे। अचानक, न जाने क्या गड़बड़ी हुई कि ज़हाज में पानी भरने लगा। कुछ ही समय में यह जहाज डूब गया और इसमें क़रीब 300 बच्चों की जानें गई। तीन सौ बच्चे ......................... इसे बयाँ नहीं किया जा सकता। 

कुछ ही दिनों बाद बच्चों के मोबाइल में लिए उन दुख़द क्षणों के विडियोज़ सोशल मीडिया पर वायरल होने लगे। इनमें जो कुछ भी था वो संस्कारों को पुनर्भाषित करने की माँग करता लग रहा था। मैं आपको बता दूँ, कोरियाई समाज पर कन्फ़यूशियस की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव है। समाज का ताना-बाना उनके सिखाए मूल्यों से बुना है। जब जहाज में गड़बड़ी होना शुरू हुई तब उद्घोषणा हूई कि सभी यात्री लाइफ जैकेट पहन लें और अपने-अपने स्थानों पर बने रहें। अफरा-तफरी मचने से मुश्किलें बढ सकती है और हमारी अगली उद्घोषणा का इंतज़ार करे। विडियोज में साफ़ दिख रहा था कि बच्चे पहले अपने मित्रों को लाइफ जैकेट पकड़ा रहे थे, उसे पहनने में उनकी मदद कर रहे थे और फिर मुस्तैद हो, अगली घोषणा का इंतज़ार करने लगे। 

और 'बड़े', चाहे वे चालक दल के सदस्य हों, स्कुल के वरिष्ठ अध्यापक या अन्य सहयात्री; उन्होंने क्या किया? जहाज में पानी भरना शुरू होने के कुछ ही मिनटों बाद सब भूल-भालकर अपनी-अपनी जान बचाने की जुगाड़ में जुट गए। वे दूसरी उद्घोषणा करना ही भूल गए और बच्चे इंतज़ार ही करते रह गए। बच्चे तब भी बने रहे अपने-अपने केबिन में, लाइफ जैकेट पहने हुए। उनकी मूल्यों में आस्था इतनी अटूट थी कि वे सोच ही नहीं पाए कि ऐसा भी हो सकता है। जीवन के प्रश्न के समय भी व मूल्यों को, संस्कारों को निभाते रहे और नतीज़ा हुआ -- बहुत बुरा, लोमहर्षक। 

इस घटना ने दिल को दुःख से तो भर ही दिया पर साथ ही यह प्रश्न भी खडा कर दिया कि क्या आज के बदलते सामाजिक परिदृश्य में संस्कारो को भी पुर्नसंतुलित और पुर्नपरिभाषित करने की जरुरत नहीं है? जब मानवीय रिश्तों और सम्बन्धों का स्वरुप इतना बदल गया हो तब संस्कार भी वैसी ही अनुरूपता क्यों न लें? 'बड़ों का कहना मानना चाहिए' - ये बात हमेशा ही खरी रहेगी लेकिन समय के साथ कौन 'बड़े' इस दायरे में शेष रह गए है और कौन बाहर निकल गए हैं,- यह विवेक तो हमें अपने बच्चों को देना ही होगा। बच्चों को शिष्ट और अनुशासित बनाना एक बात हैं ओर उन्हें समय से पीछे रखना दूसरी बात। जीवन के अधिकांश भाग का व्यवसायीकरण एक वीभत्स सच्चाई है और इस वीभत्सतता से अपने बच्चों को दूर रखना हमारा प्रेम लेकिन क्या हम ऐसा कर बहुत बड़ी जोखिम नहीं उठा रहे हैं? इस घटना से तो ऐसा ही लगता है। 

अपने चारों ओर भी नज़र घूमाकर देखें तो भी कुछ-कुछ ऐसा ही नज़र आता है। इन बच्चों को अधिकांशतः वे ही नुकसान पहुँचा रहे हैं जिन्हें ये बहुत आदर और सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। निश्चित ही, संस्कार हमेशा ही अनुकरणीय रहेंगे लेकिन इन्हें बदलते दायरों के सन्दर्भों में समझना और तब उन्हें भावी पीढ़ी को सौंपना होगा। आप कह सकते हैं कि इस तरह बच्चों की मासूमियत छीनने की बजाए हमें समाज में अंधाधुंध बढते व्यवसायीकरण को रोकने की कोशिश करनी चाहिए। शायद आप ठीक कहते हैं। हमें ऐसा ही करना चाहिए था लेकिन आज जो समाज का चित्र है वो इतना बिगड़ चूका हैं कि उसे रातों-रात ठीक कर पाना भी तो सम्भव नहीं। निश्चित ही हमें इस ओर भी काम शुरु कर देना चाहिए। इस व्यवसायीकरण ने हमारे जीवन का रस-सुगन्ध छीन लिया है जिसे लौटाना एक लम्बी प्रक्रिया है लेकिन तब तक हम अपने बच्चों को बीहड़ में अकेला तो नहीं छोङ सकते? आप ही बताइए, क्या कोई संस्कार, शिक्षा, मूल्य या धर्म अपने मूल स्वरुप में रह पाएगा यदि वह जीवन को अधिक सुन्दर न बनाता हो? यदि उसमें सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् की आत्मा न हो? 


(दैनिक नवज्योति में 13 जुलाई को 'सेकंड सन्डे' कॉलम में प्रकाशित)
राहुल हेमराज ........

Friday, 13 June 2014

पार्टी विद द भूतनाथ






एक फिल्म देखी थी, 'भूतनाथ' ; पुरानी वाली। इसका एक दृश्य रह-रहकर मेरे जेहन में कौंधता रहा है। फिल्म में केंद्रीय पात्र कैलाशनाथ एक भूत हैं जिनके घर में एक नौ-दस वर्षीय नटखट बंकू और उसका परिवार किराए पर रहने आते हैं। बंकू के पिता नेवी में काम करते हैं इसलिए विदेश यात्रा पर हैं। घर में बचे; बंकू, उसकी मम्मी और कैलाशनाथ। कैलाशनाथ नहीं चाहते कि उनके घर में कोई और रहे इसलिए पहले ही दिन से वे उन्हें डराने की कोशिश करते है लेकिन हो इसका उलटा जाता है। बंकू उनके दिल में बस जाता है, वे उसे अपने पोते की तरह प्यार करने लगते है; इतना कि वे तय कर लेते हैं कि अब बंकू यहीं रहेगा, कहीं नहीं जाएगा और कहानी आगे बढने लगती है ........... ।

जिस दृश्य की मैं बात कर रहा हूँ, वो कुछ इस तरह है कि बंकू का पैर सीढ़ियों पर से फिसल जाता है। उस समय कैलाशनाथ उसके साथ होते है। वे उसे थामने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाते है, उनका हाथ वहाँ तक पहुँच भी जाता है लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाते। वे भूत जो ठहरे, उनका होना-उनकी आकृति महज आभासी होती है। सामने होते हुए कुछ न कर पाने की विवशता। यह विवशता-यह असहायपन इतना बखूबी कैलाशनाथ के चेहरे पर आता है कि दृश्य से जुड़ जाओ तो आपको अंदर तक झकझोर देता है। मुझे लगा, हर किसी के जीवन में ऐसे क्षण जरूर आते है जिनका अफ़सोस ता-जिंदगी बना रहता है कि काश! मैं कुछ कर पाता।

यह अहसास जब गहरे उतरा तो लगा कि साधारण सी दिखने वाली बात कितनी असाधारण थी। हम अपने मूल स्वरुप में भूतनाथ की तरह ही होंगे। हमारी कोई इच्छा ही रही होगी जो इतनी घनीभूत हो गई कि उसने भौतिक आकार ले लिया वैसे ही जैसे मीठा पानी धागे से लिपट मिसरी बन जाता है। यही वजह रही होगी हमारे होने की, मानव के जन्म की जिसे हर धर्म और अध्यात्म ने अलग-अलग तरीकों से यह कह कर पुष्ट किया है कि प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है और वह कुछ विशेष करने आता जिसे उसके सिवाय कोई नहीं कर सकता।

प्रश्न उठता है, क्या हम उस इच्छा-उस भावना के प्रति सजग है? क्या हमने कभी जानने की कोशिश की है कि वो कौन-सी बात है जिसे करने मैं आया हूँ? कौन-सी ऐसी बात है जिसे  अपनी आँखों के सामने होते या नहीं होते नहीं देख सकता? क्या है जो मैं कहना चाहता हूँ? ऐसे ही प्रश्नों से मुठभेड़ ने फिल्म के उस दृश्य को इतने वर्षों तक मेरे जेहन में जिन्दा रखा। मुझे लगता है हम में से अधिकांश लोगों की हालत उस भुलक्कड़ व्यक्ति जैसी है जो अपने घर से कुछ सामान लेने निकलता है और कहीं भूल न जाए इसलिए रास्ते भर दोहराता है। रास्ते में दो-तीन परिचित उसे टोक देते है और जब वो दुकान पहुँचता है वो सामान क्या से क्या हो चुका होता है। दूसरों को देख, उनकी राय सुन या सुख-सुविधाओं के लालच की टोका-टोकी के चलते यह बिसरा बैठे है कि हम यहां आए किसलिए थे? 

मुझे मालूम है, आप क्या कह रहे है? यही ना, कि कहने-सुनने में ये बात ठीक लगती है लेकिन मालूम कैसे चले कि व्यक्ति यहाँ आया क्यों है? ये मुश्किल वास्तव में जितनी बड़ी दिखती है उतनी है नहीं। आप बस इस टोका-टोकी से अपने आपको अलग कर लीजिए। सुनिए सबकी करिये अपने मन की; अपने अंतर्मन की। आप जैसे-जैसे अपनी सुनने की कोशिश करने लगेंगे, आपके सामने साफ़ होता चला जाएगा, उस भूतनाथ की ही तरह कि कौन-सा ऐसा काम है जिसे आप अपने सामने होते या नहीं होते नहीं देख सकते और तब आपको जीवन का मक़सद मिल जाएगा, जीने का सच्चा आनन्द आने लगेगा। 
सो, लेट्स पार्टी विद द भूतनाथ एण्ड एन्जॉय योरसेल्फ।

 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 8 जून को कॉलम 'सेकंड सन्डे' में प्रकाशित) 
राहुल हेमराज 

Friday, 16 May 2014

लोकतन्त्र, आस और विश्वास का ताना-बाना




चुनाव ही तो है जो व्यक्ति के हाथ में है। इस क्षण में उपलब्ध विकल्पों में से आप क्या चुनते हैं, यही तो तय करता है कि आपका अगला क्षण कैसा होगा और जब आप इस 'अगले-क्षण' को जी रहे होते है तब यह एक बार फ़िर आपके सामने ढेरों विकल्पो के साथ प्रस्तुत होता है। एक बार फिर इन में से किसी एक का चुनाव आने वाले क्षण को तय करता है। क्षण दर क्षण मनुष्य का जीवन इसी तरह बहता है जिसकी दिशा वह स्वयं हर क्षण उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक का चुनाव कर करता है। 

राष्ट्र-निर्माण भी जीवन-निर्माण भी से कहाँ अलग है? इन दिनों हमारा लोकतन्त्र अपने होने का उत्सव मना रहा है। एक बार फिर हम तय करेंगे कि आने वाले पाँच वर्षों के लिए हमारे देश की दिशा क्या होगी? यहाँ मेरा मंतव्य किसी दल का पक्ष या विपक्ष नहीं बल्कि हमारे निर्णय लेने के मानदण्डों पर बात करने का है। कुछ जुमले जो मुझे इन चुनावों के दौरान अलग-अलग लोगों के मुँह से सुनने को मिले, उसी ने मुझे इसके लिए प्रेरित किया, जैसे-
- मैंने अपना मत जीतने वाले प्रत्याक्षी को दिया अन्यथा मेरा मत व्यर्थ हो जाता। 
- वो तो कुछ ज्यादा ही ईमानदार है, ईमानदारी से राजनीति थोड़े ही चलती है। 
-क्या फर्क पड़ता है वह थोड़ा-बहुत गलत काम करता है,कम से कम उसमें काम करने का माद्दा तो है 
और ऐसे ही न जाने क्या-क्या?

हर बार ऐसी ही कोई प्रतिक्रिया मुझे अन्दर तक विचलित कर देती। यदि हम चाहते कुछ और है और हमारा विश्वास कहीं और है तो यकीन मानिए, इस व्यवस्था के लिए हम और सिर्फ़ हम जिम्मेदार हैं। हम चाहते तो हैं कि हमारा काम बिना रिश्वत के हो, बेहतर सामाजिक-सुरक्षा का वातावरण हो, हम किसी गलत बात का विरोध बिना ड़र के कर सकें, हमारे बच्चे,वृद्ध और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित हों लेकिन इन्हीं बेढ़ब पैमानों के चलते हम उन लोगों को चुन लेते हैं जिनका आचरण ठीक इसके विपरीत होता है। कितनी बातें करते है हम राजनीति के अपराधीकरण को लेकर। यदि हम महज़ इतना भर तय कर लें कि चाहे उम्मीदवार किसी भी दल का क्यों न हो, हम उसे अपना मत नहीं देंगे जिस पर न्यायालय बलात्कार, हत्या और अपहरण जैसे संगीन मामले तय कर चूका हो तो बात बन जाएगी। यदि सभी सांसद साफ़-सुथरी पृष्ठभूमि के होंगे तो चाहे सरकार किसी भी दल की क्यूँ न बने व्यवस्था स्वयं बेहतर होने पर मजबूर होगी। 

हमारे निजी-जीवन में भी तो हम यही करते हैं। हम किसी और को सुन-देख या अहं-तुष्टि के आधार पर निर्णय लेते हैं और अपनी अस्त-व्यस्त जिन्दगी के लिए दोष देते है भाग्य को। बात समझने की सिर्फ इतनी भर है कि चाहे जीवन-निर्माण हो या राष्ट्र-निर्माण, हमारा विश्वास भी उनमें हो जो हम चाहते हैं। यदि हम संतुष्ट जीवन चाहते हैं तो निर्णयों में लोभ से बचना होगा और यदि हम भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र चाहते है तो ईमानदारी में आस्था रखनी होगी। व्यक्ति को वही और उतना ही मिलता है जिसमें और जितनी उसकी आस्था होती है। हम उन मूल्यों में विश्वास करें जिन्हें हम अपने जीवन और राष्ट्र में फलित होते देखना चाहते हैं।

आपने कभी 'मतदान' शब्द पर ध्यान दिया है। किसी भी लोकतन्त्र में नागरिक के मत को इतना कीमती समझा गया है कि वह दान के योग्य होता है और आप तो जानते ही है कि दान यदि सुपात्र को न दिए जाए तो वह अपना पुण्य खो देता है। आपका मत, आपकी राय लोकतन्त्र की प्राण-वायु है और संसद आत्मा। हम इसकी प्राण-वायु को प्रदूषित और आत्मा को कलुषित कैसे होने दे सकते हैं? हमें अपने निर्णयों के पैमानों के प्रति सजग होना होगा। जैसे जीवन और राष्ट्र की हमें आस है, विश्वास का निवेश भी वैसे ही मूल्यों में करना होगा।

 
(दैनिक नवज्योति के कॉलम 'सेकंड संडे' में रविवार, 9 मई को प्रकाशित) 
राहुल हेमराज 

Friday, 18 April 2014

ये हमने क्या कर दिया ?



आजकल मैं अपने मित्र के साथ वर्कशॉपस की एक श्रृंखला कर रहा हूँ, इममें ज्यादातर इंजीनियरिंग के छात्र हैं। दो-चार कार्यशालाओं जैसे 'यही सही वक़्त है', 'सफलता आप ही में निहित',' क्षण की स्वीकार्यता' के होते-होते एक चौकाने वाला तथ्य उभरकर सामने आने लगा। वो यह था कि हम तो सपनों और उन्हें कैसे पूरा करें, के बारे में बात कर रहे थे वहीं उन्हें तो सन्देह था कि उनके कोई सपने हैं भी। ऐसे में अपने सपनों को पूरा करने की बात तो उनके लिए न जाने कौन-सी दुनिया की थी। हम तो बात कर रहे थे अन्तर्मन की पुकार और उसकी और कैसे कदम बढ़ाने की और उन्हें तो कोई आवाज़ ही नहीं आ रही थी। 

किसी ने बताया कि मैकेनिकल की बजाय उसने कम्प्यूटर साइन्स को इसलिए पसन्द किया कि सारे दिन हाथ गन्दे करने की बजाय वातानुकूलित कमरों में पढ़ाई करना बेहतर है तो किसी ने फलाँ ब्राँच इसलिए ली थी क्योंकि उसके दोस्त ऐसा कर रहे थे और ऐसे न जाने कितने कारण। तब मुझे लगा कि इन सब बातों को करने से पहले जरुरी है यह बात करना कि सपने होते ही क्या हैं? क्या ये कुछ सफल-होशियारों का ही अधिकार है या ये सभी के होते है? अगली वर्कशॉप का शीर्षक रखा, 'सपने-हमारी अभिव्यक्ति का संसार' और पाया कि सपनों का अर्थ है व्यक्ति का वह हो पाना जहाँ व्यक्ति अपने आपको पूरी तरह से अभिव्यक्त कर सके। आखिर में बात यहाँ तक पहुँची कि सपने ही हमारे जीवन की दिशा तय करते है और अन्ततः हमारे जीवन का उद्देश्य बनते हैं। 

ये सारी बातें करते हुए मन में आश्चर्यमिश्रित पछतावा हो रहा था कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे हुआ? ध्यान चारों ओर घूमकर जहाँ रुका वह थी हमारी शिक्षा-पद्धति। मैंने इसका जिक्र वर्कशॉप में नहीं किया। मैं नहीं चाहता था कि मैं किसी को दोष देने का सन्देश दूँ लेकिन हकीकत यही थी। शिक्षा-पद्धति पर बात करने से पहले जरुरी है 'शिक्षा' के शाब्दिक अर्थ को समझना। इंग्लिश मीडियम के दौर में इसे उसी ओर से समझते हैं। 'एज्युकेशन' शब्द आया है लेटिन भाषा के 'एड्यूकेयर' से जिसका अर्थ है, सामने लाना। इस तरह 'एज्युकेशन-सिस्टम' का अर्थ हुआ ऐसा सिस्टम जो बच्चों के अन्दर जो कुछ भी है उसे सामने लाने, बाहर निकालने में मदद करे। ऐसी पद्धति जो व्यक्ति का स्वयं से परिचय कराने में सहायक बने। जिससे गुजर कर बच्चों को सहज ही पता चल जाए कि वो जीवन में क्या करें जहाँ वे अपने आपको पूर्ण रूप से अभिव्यक्त कर पाएँगे। 

लेकिन हुआ क्या? बाहर तो कुछ निकला नहीं, सामने तो कुछ आया नहीं उल्टा बच्चों के अन्दर हमने जाने क्या-क्या ठूँस दिया। ठूँस दिया वो सब कुछ जो हम ठीक समझते थे, जो हमारे लिए सुविधाजनक था या वो सब कुछ जिससे ये बच्चे आगे चलकर हमारे काम आ सकें, हमारे बनाये सिस्टम को चला सकें। हम जब भी शिक्षा-पद्धति की बात करते हैं तो पाठ्यक्रम, परीक्षा देने के तौर-तरीकों, विद्ध्यार्थियों के परीक्षा-तनाव व दिशा-निर्देशों की बात करते हैं। मैं मानता हूँ, इनकी अपनी अहमियत है लेकिन क्या कभी किसी ने शिक्षा के उद्देश्यों को लेकर कोई बात, कोई चर्चा की है? क्या किसी ने शिक्षित करने के उद्देश्यों को स्पष्ट और परिभाषित करने कि जेहमत उठायी है? ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे आप अपने वाहन से कहीं जा रहे हैं, आपका ध्यान वाहन की सुन्दरता,ईंधन,रफ़्तार और यातायात-नियमों पर तो हैं बस रास्ते के बारे में मालूमात करना ही कहीं भूल गए हैं। 

आज देश में कोई राजनैतिक,सांस्कृतिक या सामाजिक बात हो, हम 'युवा'शब्द उससे जोड़ देते हैं। उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर अपने अभियान को सफल बनाने के लिए लेकिन भूल जाते है कि कोई शक्ति कितनी भी बड़ी क्यूँ न हो यदि वह भ्रमित है तो किसी काम की नहीं। न अपने न किसी और के। भटका तीर कहीं नहीं लगता। आज हमारी युवा-शक्ति भ्रमित है, एक ओर उनका अन्तर्मन खींचता है तो दूसरी ओर हमारी ठूँसी हुई जानकारियाँ। जानकारियाँ जिन्हें हम अपनी अहं-तुष्टि के लिए 'ज्ञान' कह देते है। 
ये हमने अपने ही बच्चों के साथ क्या कर दिया?

हमारे लिए यह गर्व की बात है कि हमारा देश दुनिया की सबसे बड़ी युवा-शक्ति बनता जा रहा है पर साथ ही याद रखना होगा कि शक्ति जितनी बड़ी हो उसकी सम्भाल उतनी ही करनी पड़ती है। अब समय आ गया जब हमें अपनी युवा-शक्ति को भ्रमित होने से बचाना होगा। उनके साथ मिलकर उन्हें अपनी दिशा पकड़ने में मदद करनी होगी। यदि हम ऐसा कर पाए तो हमें अपने राष्ट्र-उत्थान के लिए किसी और की दरक़ार नहीं। 



(जैसा कि नवज्योति में सेकिंड संडे 13 अप्रैल को प्रकाशित) 
राहुल हेमराज 

Friday, 14 March 2014

स्टार्ट फ्रॉम दी एण्ड




बहुत दिनों पहले देखे एक पौराणिक टी.वी. सीरीयल का एक दृश्य - राजकुमार राम अपने गुरुकुल में तीरंदाजी का अभ्यास कर रहें हैं। हर बार निशाना थोडा-सा चूक जाता है। कैलाश पर्वत पर बैठे शिव इस लीला को निहार रहे हैं। वे सोचने लगते है कि चाहे ईश्वर ही क्यूँ न हो, मानव रूप में पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसे भी तप से गुजरना ही पड़ता है। तब वे एक आदिवासी भील का रूप धर वहाँ उपस्थित होते है और विधार्थी राम से कहते है, 'सबसे पहले यह देखो कि बाण लक्ष्य पर लग चूका है, फिर उसे सम्भव होने दो। कर्ता मत बनो, कर्म करो।'

इस अकेले वाक्य के कारण यह दृश्य न जाने कितने दिनों से मेरे जेहन में घर बनाये बैठा था। वाक्य क्या था, सफलता का सूत्र था। कितनी सरलता और सहजता से निर्देशक ने मैंनेजमेंट का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त जिंदगी से जोड़ कर समझा दिया, जिसे वहाँ 'स्टार्ट फ्रॉम दी एण्ड' कहा जाता है। ऐसा सिद्धान्त जिस पर न जाने कितनी किताबें लिखी जा चूकी, न जाने कितने व्याख्यान दिए जा चूके। आइए, इस सूत्र को दो हिस्सों में समझते है। पहला हिस्सा, 'सबसे पहले यह देखो कि बाण लक्ष्य पर लग चूका है ...................।'यह बात ठीक वैसे ही है जैसे आप घर में बैठे है और आपको प्यास लगी है। मटकी में पानी भी है। बस आपको मटकी तक जाना है। मटकी जहाँ पड़ी है उस दिशा में कदम जरुर बढ़ाने है लेकिन इस बात में आपको कोई सन्देह नहीं कि पानी मिलेगा या नहीं। यही आशय हुआ बाण छोड़ने से पहले उसे लक्ष्य पर लगा हुआ देख लेने का, कि हम अपने जीवन में जो कुछ पाना या होना चाहते है उसके लिए जरुरी है सबसे पहले यह मान लें कि वो आपको मिल चूका है, बस हमें एक प्रक्रिया भर से गुजरना है।

सूत्र का दूसरा हिस्सा पहले हिस्से को सहयोग करता है पर है उससे कहीं नाजुक, ' ...........................  फिर उसे सम्भव होने दो। कर्ता मत बनो, कर्म करो।' हम अपनी जिंदगी से जो पाना चाहते है उसे हम ही नहीं होने देते। बुरा मानने की नहीं बल्कि सोचने की बात है कि अधिकतर समय हमारी राह का रोड़ा हम ही होते है। यदि हम चाहते है कि कोई हमारे घर आए तो सबसे पहले अपने घर के दरवाजे खुले रखने होंगे। आप अपनी जिंदगी से जो कुछ भी चाहते है उसे ग्रहण करने के लिए हर क्षण तैयार रहना होगा। तैयारी अपने आपको उस सबके लायक समझने की और अपने विश्वास को दृढ करने की वो सब कुछ मुझे मिलेगा ही। एक बार एक व्यक्ति किसी तरह एक निर्जन टापू पर फंस गया। जब भी उधर से कोई विमान गुजरता वो अपने हाथ हिला-हिलाकर मदद के लिए सन्देश देने की कोशिश करता। आखिर सेना के एक छोटे विमान ने उसे देख लिया। वह नीचे उतरने लगा लेकिन वह व्यक्ति इतना व्यग्र था कि और तेजी से हाथ हिला-हिलाकर तट पर दौड़ने लगा। वह इतनी तेजी से इधर-उधर दौड़ रहा था कि चालक समझ नहीं पा रहा था कि वो विमान को कहाँ उतारे। उपर विमान चक्कर लगा रहा था और नीचे वो व्यक्ति। कुछ समय बाद विमान का ईंधन ख़त्म होने लगा और नहीं चाहते हुए भी चालक को उसे वहीँ छोड़ वापस जाना पड़ा। कहीं हम भी अपने जीवन में ऐसा कुछ तो नहीं कर रहे हैं? मदद चाहिए तो विमान को उतरने देना पड़ेगा। 

यदि हम बाण छोड़ने से पहले उसे लक्ष्य भेदता देख पाएं और उसे सम्भव भी होने दिया तो हम स्वतः ही कर्ता भाव से मुक्त हो, कर्म मार्ग की ओर उद्दृत होंगे। जब हमें यह अहसास होगा कि हम जो चाहते है उसका हो पाना तय है तो यह भाव भला कैसे रह पाएगा कि 'ये सब कुछ मैंने किया है'। सब कुछ हासिल करते हुए हासिल करने के अहंकार से मुक्त हमारा जीवन ठीक उस पथिक कि यात्रा जैसा होगा जिसके सर कोई गठरी नहीं या जैसे एक सुंदर उधान में कोई भ्रमर गीत गा रहा हो।


राहुल हेमराज 
(सैकिंड सन्डे _ रविवार, 9 मार्च को नवज्योति में प्रकाशित)

Saturday, 15 February 2014

तू छुपी है कहाँ


- राहुल हेमराज 



आज हम एक-दूसरे से मिलते वक़्त ऐसे मुस्कराते हैं जैसे होटल की किसी रिसेप्शनिस्ट से बात के रहे हों। मिले, मुस्कराहट आयी; मुलाकात ख़त्म, मुस्कराहट बन्द। एक रस्म अदायगी या अपने मन के संताप और बेचैनी को छुपाने का एक जुगाड़। हमें मुस्कराहट से नवाज़ने के पीछे प्रकृति की तो मंशा थी कि हमारे चेहरे कि मुस्कराहट हमारे दिल का हाल बताए। हमारा चेहरा फ्यूल-मीटर कि तरह काम करे। अंतर में आत्मिक संतोष  का ईंधन, चेहरे पर मुस्कराहट के रूप में दिखे। जब कभी हम अपने चेहरे पर से इस मुस्कराहट को नदारद पाएँ, जिंदगी को देखने के अपने नजरिए को टटोलें और उसे पुनः आत्मिक संतोष के ईंधन से भर लें। 

व्यक्ति के अंतर से निकली मुस्कराहट तो एक ब्लोटिंग पेपर की तरह होती है, चाहे ये सामने वाले के संतापों को न हर पाए किन्तु उनकी ऊष्मा अवश्य कम कर देती है। आपने हर शाम घर लौटते समय इसे जरुर अनुभव किया होगा कि किस तरह बच्चों की एक मुस्कराहट देखकर आपकी दिन भर की थकान न जाने कहाँ काफूर हो जाती है। वही बच्चे जब आप और मैं हो जाते है तो वो मुस्कराहट कहाँ खो देते हैं? क्या प्रकृति ने आदमी को बुद्धि इसलिए दी थी कि वो अपनी मुस्कराहट का भी जुगाड़ ईजाद कर ले?, लेकिन प्रश्न यह भी है कि आखिर व्यक्ति को ऐसा क्यों करना पड़ा ?

इन सवालों से टकराने पर अहसास हुआ कि शायद व्यक्ति ने कहीं न कहीं तनाव और सफल जीवन को मिलाकर देखना शुरू कर दिया। उसने मान लिया की जिन्दगी की गाड़ी को ढंग से चलानी है तो, तनाव तो आएंगे ही। इसी समस्या का जुगाड़ है यह 'रिसेप्शनिस्ट मुस्कान'। तनाव की इस स्वीकारोक्ति के चलते अब उसके मन में खुश रहने, मुस्कराने की बेचैनी भी नहीं उठती और आप तो जानते ही हैं, बिना बेचैनी सुन्दरता का सृजन सम्भव नहीं। आज व्यक्ति है कि बस जिए चला जाता है तनाव की इन लकीरों को बनावटी मुस्कराहट से लुकाते-छिपाते।पर एक बात आपको याद दिला दूँ, तनाव हमारा नैसर्गिक स्वभाव नहीं है, होता तो बच्चे इतना नहीं मुस्कराते। उनका तो हाल यह है कि वे सोते-सोते भी न जाने कितनी बार मुस्कराते है। इस मुस्कराहट को लौटाना है तो बच्चों की तरह अपने आपको घटनाओं, परिस्थितियों और व्यक्तियों से अलग करना होगा। तब ये स्व-स्फूर्त था अब इसे होशपूर्ण हासिल करना होगा। ये हो सकता है, यदि हम अपने जीवन को ऐसे देख पाएँ जैसे पर्दे पर एक फ़िल्म चल रही हो। फ़िल्म, जिसमें हमारा भी एक किरदार है। आप अपने आप को अपनी भूमिका निभाते हुए देख सकें। 

जीवन को हर क्षण इस तरह जी पाना एक आदर्श स्थिति है जिसे आप और मेरे लिए निभा पाना सम्भव नहीं।  हर क्षण इस भाव में बने रहना तो व्यक्ति को कृष्ण बना देता है लेकिन हमारा भी लक्ष्य कौन-सा कृष्ण की वो सदा रहने वाली स्मित मुस्कान है। हमारी कोशिश तो पूरे दिन के 14,400 मिनटों में से दस-पन्द्रह मिनटों के लिए ही सही, जिंदगी को निरपेक्ष भाव से देख पाना है। कह तो रहा हूँ पर जानता हूँ ये भी कोई कम कठिन नहीं। एक दूसरा, थोडा बेतरतीब तरीका है जो मेरे खुद का आजमाया है। पहले चेहरे पर एक मुस्कान लाइए, किसी के लिए नहीं सिर्फ अपने लिए, जब आपके सामने कोई न हो; या हो तो भी ये मुस्कान किसी को कुछ कहने-बताने के लिए नहीं, बस अपने ही किसी भाव की तरह हो। इसे कुछ देर के लिए अपने चेहरे पर रोकिए और अपनी जिन्दगी के बारे में सोचिए। सोचते हुए ध्यान रहे इस मुस्कराहट के बने रहने का। सोचना और मुस्कराना साथ होते ही आपको अपनी जिन्दगी पर्दे पर चल रही एक फ़िल्म की तरह दिखने लगेगी। आप अलग होंगे और आपकी जिन्दगी अलग। ऐसे लगेगा जैसे आपको अपनी निजता वापस मिल गई हो। दौड़ती-भागती दुनिया के बीच आपको अपने वजूद का, अपने होने का अहसास होने लगेगा और तब आपका अंतर फिर आत्मिक संतोष से भर उठेगा और मन की सतह पर तैरता यह संतुष्टि का भाव चेहरे पर मुस्कराहट बन खिल उठेगा। 

मैं मानता हूँ कि इस मुस्कराहट के आ जाने से न तो जिन्दगी के दुःख कम होंगे न ही मुश्किलें; पर हाँ, उनसे निपटना, पार पाना कहीं आसान होगा। वे खालिस स्थितियाँ बनी रहेंगी और हमारा अंतर बच्चों-सा अछूता। 
ग़ालिब इसे अपने अंदाज़ में कुछ यूँ बयाँ करते हैं,-
बाजीचाये अतफाल है दुनिया मेरे आगे 
होता है शबओ रोज़ तमाशा  मेरे आगे 

('सेकंड सन्डे' कॉलम में 9 फरवरी के नवज्योति में प्रकाशित) ​
    


Saturday, 18 January 2014

आस्था का निवेश

- राहुल हेमराज 




ये कहानी न जाने कितनी बार कही-सुनी गयी पर मुझे ये आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है। एक बार की बात है, एक गाँव भयंकर अकाल की चपेट में था। गाँव के लोग दाने-दाने को मोहताज होने लगे। आपको तो मालूम ही है, व्यक्ति को जब कुछ नहीं सूझता तब भगवान् याद आता है। उन्होंने भी तय किया कि गाँव के सारे लोग इकट्ठा होकर सामूहिक प्रार्थना-अर्चना करेंगे। अब शायद प्रार्थनाओं का घनीभूत बल ही घनों को बरसने पर मजबूर करे। नियत समय पर सब लोग पहुँचे लेकिन सिर्फ एक छोटा बच्चा था जो छतरी लेकर आया था। उसके मन में पक्का विश्वास था कि बारिश जरुर होगी। मुझे लगता है आज हम सब को, इस समाज को इसी विश्वास, इसी आस्था को लौटने की जरुरत है। हम सब लगे तो हैं बारिश होने की प्रार्थनाओं में लेकिन यकीं हमारा ये कि ऐसा करने से कोई बारिश तो होने से रही।

आपको नहीं लगता, इस नये साल की शुरुआत अपनी आस्थाओं को टटोलने से बेहतर कुछ हो सकती है? इस समाज में ईमानदारी, सच्चाई और समान-अधिकार चाहते है तो इनमें हमारा विश्वास भी हो। खराब कम्पनी के शेयर में इन्वेस्ट करके अच्छे रिटर्न की आशा करना मूर्खता है तो झूठ में विश्वास कर समाज में सच्चाई की इच्छा रखने को आप क्या कहेंगे? अपने काम को बनाने के लिए बेईमानी, झूठ और पक्षपात का सहारा लेकर एक साफ़-सुथरे सुरक्षित समाज की हम कल्पना भी कैसे कर सकते है? बात सिर्फ इतनी-सी है कि कोई रास्ता हम चाहे कितना भी सुख और आराम से क्यों न काट लें, पहुँचेंगे वहीं जहाँ का टिकट लिया होगा। 

यहाँ सर्वथा उचित है इस प्रश्न का उठ खड़ा होना कि हम तो ठीक थे और ठीक ही हैं लेकिन हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं ने हमारी आस्थाओं को दूषित किया। आदमी को जीना तो पड़ेगा, अब यदि व्यवस्था भ्रष्ट है तो आम-आदमी के पास चारा ही क्या बचता है? कोई कहेगा ये व्यवस्था व्यक्तिगत आस्थाओं से ही तो निकली है, पहले व्यक्ति सुधरे। व्यक्ति बदलेगा तो सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएँ स्वतः ठीक होंगी। ये वैसा ही झगड़ा है जैसा मुर्गी पहले हुई या अण्डा। पहले व्यक्ति की आस्था डिगी या व्यवस्था ने व्यक्ति की आस्थाओं को दूषित होने पर मजबूर किया। ग़ौरतलब सिर्फ यह है कि आज हमें अपने जीवन के परिदृश्य को बदलना है तो उन बातों में विश्वास करना और जीना होगा जैसा हम अपने जीवन में चाहते है। 

आदर्शों की बातों के साथ उनका व्यावहारिक पक्ष देखना भी उतना ही जरुरी है। सारी बातों के बावजूद एक व्यक्ति का पहला दायित्व जीवन की सहजता है और तब लगता है व्यवहार में संतुलन यहाँ भी उतना ही जरुरी है। हम अपना काम-अपना आचरण ठीक रखें लेकिन यदि रोजमर्रा की किसी छोटी-मोटी बात में व्यावहारिक होना भी पड़े तो कोई बात नहीं। उनमें उलझकर अपनी ऊर्जा-अपने उद्देश्यों से भटकने से क्या फायदा? यदि एक बड़ी तादाद में लोगों ने सही मूल्यों में अपनी आस्थाओं को निवेश करने की ठान ली, तो ये खरपतवार तो वैसे ही पैरों के नीचे आकर खतम हो जाएगी। क्यों न हम अपनी आस्था के घन को नैतिक मूल्यों के शेयर्स में इन्वेस्ट करें क्योंकि यही वो कम्पनी है जो सुकून-भरी जिंदगी का गारन्टेड रिटर्न देती है। 


(सैकिंड सन्डे 12, जनवरी को नवज्योति में प्रकाशित)