Saturday, 26 January 2013

सब कुछ ठीक है




" हम यहाँ दुनिया को बदलने नहीं, अपने-आपको अभिव्यक्त करने आए है। "            -गोयथे 


आज अपनी बात कहने के लिए मुझे एक पुरानी फिल्म का दृश्य याद आ रहा है जिसमें हीरोईन अच्छे-खासे रोमांटिक मूड में हीरो से पूछती है, 'तुम्हें मेरे चेहरे पर क्या दिखाई देता है।' हीरो तपाक से जवाब देता है, 'हीमोग्लोबिन की कमी।' हीरो डॉक्टर था। तकरीबन हम सब की दृष्टी ऐसी ही तो है। हीरो है हम और हीरोईन है हमारी जिन्दगी। हम जिन्दगी को इसी दृष्टी से देखते है कि इसमें क्या कमी है और मैं इसे कैसे ठीक कर दूँ? हमें लगता है, यही तो मेरा काम है। बस, एक बार जिन्दगी के हर पहलू को अपने हिसाब से ठीक कर लें, फिर आराम से जियेंगे। हम लगे रहते है पर, वो दिन कभी आता नहीं और ऐसा कभी होता नहीं। हम सब कहीं न कहीं यह जानते भी है, फिर ऐसा क्यूँ करते है? 

प्राणी-मात्र की बड़ी जरुरत होती है औरों के द्वारा स्वीकार किया जाना और इसके लिए वह अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने की जुगत में लगा रहता है। हर संभव कोशिश में कि, उसके पास हर बात का जवाब है, अपने और अपनों पर आयी हर मुसीबत का हल उसके पास है और और अपने सामने आयी हर स्थिति को वह जीत सकता है। धीरे-धीरे जीतना और अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करना हमारी लत पड़ जाती है। इसका प्रत्यक्ष छोटा-सा उदाहरण मोबाईल और कम्प्यूटर गेम्स है। बच्चों से लगाकर बड़ों तक इस लत के शिकार है। कारण है, ये दोनों ही 'मैं कर सकता हूँ' और 'जीतने' की भावना को पुष्ट करते है।

हमारी यही आदत हमें 'सब कुछ ठीक कर देने' के प्रयोजन में लगाए रखती है। ऑफिस हो या घर, दोनों ही जगह हमारा सुधार-आंदोलन चलता रहता है। सच तो यह है कि इससे संतुष्टि नहीं अहं की तुष्टि जरुर होती है।

हद तो तब हो जाती है जब हम रिश्तों को भी इसी तरह जीने लगते है। हम अपने रहने-जीने के तरीकों को ही सही मानते है और एक-दूसरे को वैसे ही रहने-जीने के लिए बाध्य करने लगते है। शायद इसीलिए हम सभी को एक ही शिकायत है कि हमें कोई समझता नहीं। हम भूल जाते है कि एक गुलदस्ते की सुन्दरता उसके अलग-अलग रंगों के फूल और पत्तियों के कारण ही है। मज़ा तो तब आयें, जब हम एक-दूसरे की मदद करने को तो तत्पर हों लेकिन अतिक्रमण कभी न करें।

हम सब यहाँ क्या करने आए थे और ये क्या करने लग गए? हमें अपना काम करना है, अपना किरदार निभाना है। यह जिन्दगी उस परमात्मा की है, पहली बात तो हमें वैसी ही मिली है जैसी हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है, इसके बावजूद उसे ठीक करने की जरुरत है भी तो ये उसका काम है।

इस सबका मतलब आप यह मत निकाल लेना कि मैं व्यावहारिक जगत के दैनिक कार्यों या परिवार में एक-दूसरे की मदद से आँखें मूंद, आलसी और निर्मोही होने के लिए प्रेरित कर रहा हूँ। वे जरुरी भी है और हमारा कर्त्तव्य भी; बस आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि ये सब एक सार्थक और सुन्दर जीवन में सहायक हो सकते है लेकिन यह जीवन नहीं है। जीवन है अपनी अन्तरात्मा की सुनना और वो जो कहे उसमें अपने आपको पूरी शिद्दत से झोंक देना। चिंता मत कीजिए, आगे बढिए, यहाँ सब कुछ ठीक है।


( रविवार, 20 जनवरी को नवज्योति मैं प्रकाशित)
आपका,
राहुल......... 

    


Friday, 18 January 2013

आपका राजसिक योग



दशरथ मांजी का जन्म 1934 में एक गरीब मजदूर परिवार में हुआ था। यह बात है गया, बिहार के पास पहाड़ियों के बीच बसे गाँव गेलोर की। शादी के कुछ वर्षों बाद एक दिन उसकी पत्नी बीमार पड़ गयी। गाँव से अस्पताल की दूरी 70 कि.मी. थी क्योंकि पहाड़ियों से घूमकर जाना पड़ता था। समय पर अस्पताल नहीं पहुँच पाने के कारण वह अपनी पत्नी को नहीं बचा पाया। उसे बहुत बुरा लगा। उसे लगा कि काश! ये पहाड़ियाँ बीच में न होती तो मैं अपनी पत्नी को बचा लेता। क्या मालुम उसे क्या सूझी, उसने पहाड़ काटना शुरू किया ये बात है 1960 की। लगातार 22 वर्षों तक वो अपनी इस धुन में लगा रहा औए 1982 को अरती और वजीरगंज के बीच की दूरी 75 कि.मी. से घटकर 1 कि.मी. रह गयी। ये क्या था, खालिस जुनून।

यह घटना बताती है कि इन्सानी मंसूबों के सामने कुछ भी नामुमकिन नहीं बशर्ते हममें उन्हें पूरा करने का जुनून हो।

अन्तरात्मा की आवाज़ पर अखण्ड विश्वास हो, मन में दृढ़ संकल्प हो तो काम जुनून में तब्दील हो जाता है और फिर उसके नहीं हो पाने की कोई गुंजाइश नहीं बचती। संक्षेप में, पागलपन की हद तक चाहना ही जुनून है। जब आपका अपने ध्येय के प्रति प्रेम आपके जेहन से समय और भूख के भाव को मिटा दे। जब आपको कोई किन्तु-परन्तु सुनाई न दे। जब ऐसा हो जाए तो समझ लीजिए आपको धुन लग गयी, लगन लग गयी और लगन से तो मीरा को गिरधर नागर मिल गए तो बाकी क्या बचा? सच पूछिए तो, जुनून कोई गुण नहीं, जीने का एक तरीका है जहां कोई अफ़सोस नहीं, कोई चिन्ता नहीं, कोई डर नहीं, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं; है तो सिर्फ सन्तोष और आनन्द।

आप कहेंगे, फिर तो अपराधी और आतंकवादी सबसे पहले जुनूनी हुए? अपराध और आतंकवाद के इस बुरे दौर में आपका ऐसा सोचना गलत भी नहीं। ये बात भी सही है कि वे जो कुछ भी कर रहे होते है उस पर उन्हें पूरा विश्वास होता है और खैर संकल्प तो उनका दृढ़ होता ही है लेकिन एक बात जो आप भूल रहे है, वह है 'अन्तरात्मा की आवाज़'। किसी को नुकसान पहुँचाना किसी के अन्तरात्मा की आवाज़ नहीं हो सकती। ये विचार अंतर्मन की नहीं बुद्धि की पैदावार होते है। व्यक्ति अपराधी या आतंकवादी बनता है ऐसी संगत के कारण जो उसकी बुद्धि को इतना विकृत कर देती है कि अंततः उसकी विकृत बुद्धि उसके अंतर्मन को हर लेती है। क्या करें इसका फैसला अंतर्मन करे और कैसे करें, ये बुद्धि बताए, ये ही उत्तम है।

शास्त्र भी कहते है प्रकृति त्रिगुणात्मक है यानि सृष्टि की रचना तीन गुणों के विभिन्न संयोगों से हुई है; सत, रज और तम। भौतिकी ने जिन्हें न्यूट्रोन, प्रोटोन और इलेक्ट्रान का नाम दिया है। जिस व्यक्ति के जीवन में सात्विक गुणों की प्रबलता होती है उसका जीवन साधुओं जैसा होता है, जिसमें तामसिक गुणों की प्रबलता होती है उसका जीवन निष्क्रिय यानी आलसी, व्यसनी या व्यभिचारियों जैसा होता है लेकिन जिसमें राजसिक गुणों की प्रबलता होती है उसका जीवन राजाओं जैसा होता है। 'राजा' शब्द ही एक छवि गढ़ता है, ऐसे व्यक्ति की जो अपने दिल की सुनने एवम पूरे विश्वास-संकल्प के साथ आगे बढ़ने के लिए मानसिक रूप से स्वतन्त्र हो। जो अपना जीवन पूरे जुनून के साथ जिएँ। एक गृहस्थ के लिए यही रास्ता उपयुक्त है। यदि आपको अपना राजसिक योग  सफल करना है तो जुनून धारण करना होगा।


(रविवार, 13 जनवरी को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका,
राहुल ..............        

Friday, 11 January 2013

मरे बिना स्वर्ग नहीं




हमने अपनी जिन्दगी को शिकायतों के पुलिंदे में तब्दील कर दिया है। हमें कोई चाहिए जिसे हम दोषी ठहरा सकें। जो कुछ हमारे जीवन में अच्छा हुआ वह हमारी मेहनत का फल था और बाकी के लिए कोई और जिम्मेदार था। 'अगर उसने ऐसा नहीं किया होता तो आज बात ही कुछ और होती'। 'मुझे उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी'। 'उसे तो समझना चाहिए था'। हमारा मन नहीं हो गया 'शिकायत-पेटी' हो गई। 

अरे! आप तो नाराज़ हो गए। नाराज़ मत होइए, मैं तहे-दिल से मानने को तैयार हूँ कि हमारी सारी शिकायतें जायज है और उन लोगों के प्रति हमारा गुस्सा भी वाजिब है लेकिन फिर एक बात समझ नहीं आती, अब जब ऐसे लोगों से हमने दूरी बना ली है तब भी वैसी ही घटनाओं की जीवन में पुनरावृति क्यों होती है? जिन्दगी वैसी ही रहती है, बस चेहरे बदल जाते है। एक बात और जो समझ नहीं आती वह यह कि ऐसा किसी एक-दो या कुछ के साथ नहीं बल्कि यह तो हम सब की व्यथा है। जीवन में सभी को कम अच्छे लोग मिलें हो, ऐसा कैसे हो सकता है? इन्हीं दो बातों ने यह सोचने पर मजबूर किया कि हो न हो हमारी शिकायतों की वजह कोई व्यक्ति या स्थिति नहीं, कोई और ही है?

उस 'और' को पकड़ने के लिए हमें बात के उस सिरे को पकड़ना होगा जहाँ से बात शुरू हुई थी। जीवन के अच्छे और कम अच्छे, दोनों तरह के अनुभवों की जिम्मेदारी हमें उठानी होगी। होता यह है कि हम कोई भी काम करते ही इस तरह है कि यदि उसके परिणाम हमारे मन मुताबिक़ न हों तो, हम किसी और को दोषी ठहरा सकें। ऐसा हम अनजाने करते है और ऐसा हमसे हमारा अहं करवाता है। वह सोचता है कि ऐसा कर वह हममें श्रेष्ठ और सही होने की भावना को बरकरार रख पाएगा लेकिन होता ठीक इसका उलटा है। हमारे मन पर शिकायतों और पछतावों का भार बढ़ता चला जाता है।

इस भार से मुक्ति सिर्फ अपने अनुभवों की जिम्मेदारी उठाकर ही संभव है और तब हमारे लिए उन्हें स्वीकारना चाहे वे कैसे भी हों, कहीं आसन होगा। हमारा यह अहसास कि हम अपने निर्णयों को बदल, अपने अनुभवों को बदल सकते है, उन्हें कहीं पैना बनाएगा।

कहीं आप इसका मतलब यह मत निकाल लेना कि जिन्दगी में हम अकेले है। ऐसा कतई नहीं है। एक-दूसरे की मदद करना जिन्दगी की प्रकृति है। सम्पूर्ण सृष्टि इसी तरह चलायमान है, अतः किसी की मदद लेना कमजोरी नहीं और न ही अपने अनुभवों के लिए जिम्मेदार होने से आशय। हाँ, यदि हम जो कुछ भी कर रहे है उसके हो पाने पर हमें पूरा विश्वास नहीं और हम किसी और को अपने प्रयोजन में इसलिए शामिल कर रहे है कि कोई और हमारे लिए लक्ष्य हासिल कर ले, तो यह संभव नहीं। हो सकता है इस तरह हमारे कुछ काम बन जाएँ लेकिन अधिकांशतः ये शिकायतों में ही तब्दील होंगे। एक पुरानी कहावत है, ' मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता'। जिसे स्वर्ग की चाह हो, मरना उसे ही पड़ता है। यदि किसी की मदद लेनी भी पड़े तो यह उस काम का हिस्सा है, आप उस व्यक्ति के प्रति एहसानमंद हो सकते है लेकिन परिणामों के लिए उसे दोषी नहीं ठहरा सकते।

अपने अनुभवों की जिम्मेदारी उठाइए, शिकायतें तो दूर होंगी ही, आत्मविश्वास की अतिरिक्त भेंट मुफ्त मिलेगी। आपके जीवन पर आपका नियंत्रण होगा और जीवन कहीं खुशहाल और हल्का होगा।


( जैसा कि नवज्योति में रविवार, 6 जनवरी को प्रकाशित )
आपका,
राहुल ............      

Friday, 4 January 2013

खिड़कियाँ खुली रखें



हम सब पुराने मित्र बहुत सालों बाद एक शादी में मिले। हम अपनी यादों को ताज़ा भी कर रहे थे और सभी आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से भरे हुए भी थे, ये देखकर कि हम सब अपनी-अपनी जिन्दगी में कहाँ-कहाँ पहुँच गए। हमारा एक मित्र हम सभी को लुभा रहा था, ऐसा लगता था कि वो बिल्कुल नहीं बदला। उसके बात करने का अंदाज़, उसकी भाव-भंगिमाएँ, सभी कुछ कॉलेज के दिनों की याद दिला रही थी लेकिन थोड़ी ही देर बाद उसकी बातों से सभी को उकताहट होने लगी। खुद ही को अच्छा नहीं लग रहा था कि मुझे ऐसा क्यों हो रहा है? आखिरकार दो दिनों बाद हम अपनी-अपनी जगहों को लौट गए। मैं भी लौट आया लेकिन मन में एक दुःख भरा सवाल लिए।

सवाल होता है तो उसका जवाब भी होता है बस उसे ढूँढना पड़ता है और जो मुझे मिला वह यह था कि मेरे उस दोस्त की बातों का मर्म भी वही था। शायद हम सब को ऐसा लग रहा था जैसे हम कॉलेज के ही किसी लड़के से बात कर रहे है। जैसे उसने अपनी मानसिकता को रोक लिया था, बाँध लिया था। जैसे उसने अपनी उन दिनों की सोच को ही अपना परिचय बना लिया था। इन सारे विचारों से यह सूत्र निकला कि जिस तरह कमरे की घुटन मिटानी हो तो कमरे की खिड़कियाँ खोलनी पड़ेंगी, उसी तरह खिले हुए व्यक्तित्व के लिए अपने दिल और दिमाग के दरवाजे खुले रखने होंगे।

आपको याद है दूसरी कक्षा में जब हमने पहली बार जोड़ लगाना सीखा था तब हम कैसे लगाते थे? जिसको जिससे जोड़ना होता, उतनी ही लाइनें बनाते और फिर उन्हें गिनते। वो सीखने का तरीका था जो हमारी उम्र के लिहाज से बिल्कुल ठीक भी था। धीरे-धीरे हमने अभ्यास किया फिर 'हासिल' लिखने लगे और फिर सीधे ही जोड़ने लगे। व्यक्ति को हर क्षण अपने आपको मांजने की कोशिश करनी चाहिए। जो कल का सच था वो आज का सच नहीं हो सकता। कोई भी साधन साध्य तक पहुँचने का जरिया भर होता है। पहली पायदान चाहे कितनी भी सुंदर हो उसकी उपयोगिता दूसरी पायदान पर पहुँचने तक ही सीमित होती है।

जिन्दगी से अच्छी कोई पाठशाला नहीं बशर्ते हम कक्षा में उपस्थित रहें। व्यक्तित्व निर्माण की पहली सीढ़ी है कि हम जिन्दगी के अनुभवों का प्रेक्षण करें, सोचें और चिंतन-मनन करें। ऐसा कर हम उन अनुभवों में छिपी सीख को जाने और आगे बढ़ जाएँ। नए विचारों को प्रवेश की अनुमति दें, उन्हें जानें और अपने परिप्रेक्ष्य में देखें-समझें फिर यदि ठीक लगे तो उन्हें आत्मसात करें; यही है अपने दिल और दिमाग के दरवाज़ों को खुला रखना।

इस सारे सन्दर्भ में मुझे महात्मा बुद्ध का वो सावधान करने वाला कथन याद आता है, "यदि कोई विचार सावधानीपूर्वक अन्वेषण के बाद उपयोगी लगता है और उसमें सभी का भला निहित है तब ही उसे स्वीकारें एवम अपनाएँ।" कोई भी विचार नया है सिर्फ इससे वह अपनाने लायक नहीं हो जाता। यदि वो जीवन के कारणों को संतुष्ट करता है याने उपयोगी है और जिसको अपनाने से कोई आहत न हो उसे ही थामे अन्यथा जैसे वह आया था वैसे ही उसे जाने दें।

नए वर्ष की शुभ वेला पर मैं कामना करता हूँ कि नए विचारों के झोंके हमारे आत्मिक जगत को समृद्ध करें और हमारे जीवन हमेशा ताज़ा-तरीन और महकता रहे।


( रविवार, 30 दिसम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका,
राहुल .........         

Friday, 28 December 2012

उतावली नहीं तैयारी करें



हम सब अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ एवम सफल होना चाहते हैं और क्यों न हो यही तो जीवन-पुरुषार्थ है। जीने का यही वो ज़ज्बा है जो आत्म-संतुष्टि भी देता है तो जीने को आसान भी बनाता है। यों कहने को हम सब अपने-अपने कामों में इतने व्यस्त है की हमें साँस तक लेने की फुर्सत नहीं, बावजूद इसके न तो हमारा काम हमारी सफलता की कहानी कहता है और न उसमें श्रेष्ठ होने की ललक दिखाई पड़ती है। येन-केन-प्रकारेण भौतिक सुविधाओं का संग्रह सफलता होती तो फिर सहज सरल जीवन और आत्म-संतुष्टि हमारी जिन्दगी से ऐसे गायब न होते जैसे गधे के सिर से सींग। 

जीवन की इस क्लिष्टता और मन के इस खालीपन की वजह जो मुझे नज़र आती है वह यह कि हमें अपने सफल होने की उतावली तो बहुत है पर उसकी तैयारी को हम तैयार नहीं। इसके लिए जिम्मेदार एक तरफ तो अहंकार का आवरण लिए हमारी अकर्मण्यता है तो दूसरी ओर अवचेतन में गहरी पैठी हुई मान्यताएँ और आखिर में काम को करने के तरीकों के प्रति हमारा नजरिया।

कोई भी बदलाव तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरे बिना सम्भव नहीं चाहे वह व्यक्ति का हो या स्थिति का। हम अपने सुरक्षा घेरे से बाहर निकल रास्ते की अडचनों से दो-दो हाथ करने से कतराते है और हमारा अहम् इसके लिए इन जुल्मों का सहारा लेता है जैसे, 'मुझे सब मालूम है', 'तक़दीर ही साथ नहीं देती' आदि-आदि। हमें इस छलावे से छुटकारा पाकर यह समझना होगा कि यदि काम हमारे मन का है तो छोटी-छोटी असफलताएँ ये नहीं बताती कि वो काम हम कर सकते है या नहीं या हमारे तक़दीर में है या नहीं बल्कि सिर्फ हमें चेताती है कि अभी हमें और तैयारी की जरुरत है। वास्तव में ये असफलताएँ नहीं रास्ते की अडचनें है जो हमें जीवन के वे पाठ पढ़ने आती है जिसके बिना सफल हो पाना मुमकिन नहीं।

सफल होने की राह का इससे भी बड़ा रोड़ा हमारी वो मान्यता है जो कहती है कि समय से पहले कुछ नहीं मिलता चाहे हम कुछ भी कर लें। इसकी तह तक जाने के लिए मैं आपके साथ एक छोटी सी घटना साझा करना चाहता हूँ। एक राहगीर एक गाँव गुजर रहा था। उसने गाँव ही के एक आदमी से पूछा कि उसे पास के गाँव तक पहुँचने में कितना समय लगेगा। वह कुछ न बोला। उसने वापस पूछा, तब भी वही बात। ऐसा दो-तीन बार हुआ। आखिर झुंझला  वह अपनी राह हो लिया। मुश्किल से दस कदम चला होगा कि पीछे से आवाज़ आई, 'दो घंटे लगेंगे'। राहगीर  उस ग्रामीण के पास वापस आकर पूछा,'मैं तुम्हें इतनी देर से यही बात पूछ रहा था, तब तो तुमने कोई जवाब नहीं दिया, अब क्यों बता रहे हो?' ग्रामीण बोला, 'जब तक मैं तुम्हारी चाल नहीं देख लेता, कैसे बताता कि कितना  लगेगा।' यदि उस राहगीर को जल्दी पहुँचना है तो अपनी बढानी होगी। यदि समय की गणना हम दिन-महिनों-वर्षों से नहीं बल्कि तैयारी से करें तो यह बात सोलह आने सच है कि समय से पहले कुछ नहीं मिलता। अपनी तैयारियों को दुरुस्त कीजिए, समय आपकी मुट्ठी में होगा।

हमारी उतावली तब भी झलकती है जब हम कह  होते है कि 'किसी भी तरह मुझे वह करना है'। कोई भी काम कभी किसी तरह नहीं होता सिर्फ और सिर्फ एक तरह से ही हो सकता है। किसी भी काम को गलत करने के हज़ार तरीके हो सकते है, सही करने का सिर्फ एक तरीका होता है। सही तरीका हमेशा लम्बा,  मेहनत भरा और थकाऊ होता है पर इस कीमत को चुकाए बिना श्रेष्ठ एवम सफल हो पाना संभव नहीं।

अपने-अपने क्षेत्रों में श्रेष्ठ होने की ललक ही आपको सच्चे अर्थों में सफल बनाएगी क्योंकि ये सफलता, सहज-सरल जीवन और आत्म-संतुष्टि के साथ आएगी। यदि सफलता को जिन्दगी का स्थायी रस बनाना है तो उतावली नहीं तैयारी करें।


(रविवार, 23 दिसम्बर को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित)
आपका
राहुल ..........        

Saturday, 22 December 2012

छोटी चाबी बड़ा खजाना




" जो रुकना जानता है वही खतरों से बचता हुआ लम्बा चल पाता है। "                                 -- लाओत्से 
                                                                                                           ( ताओ ते चिंग - सूत्र 44 से )


चढना,उठाना, बढ़ना इंसान की प्रकृति है, यही सिखाया भी जाता है और ठीक भी माना जाता है लेकिन उतरना चूँकि उसकी प्रकृति के विरुद्ध है और लोक-जीवन में इसे असफलता का पर्याय समझा जाता है इसलिए न तो व्यक्ति सीखना चाहता है और न ही इसे ठीक माना जाता है, लेकिन क्या ये सचमुच इतना गैर-जरुरी है? हम अपने चारों ओर नज़र घूमाकर देखें तो ऐसे कई महान खिलाडी, अभिनेता, राजनीतिज्ञ वगैरह मिल जायेंगे जिन्हें रुकना नहीं आया और उनकी विदाई उतने सम्मानजनक ढंग से नहीं हो पाई जिसके वे सचमुच हकदार थे। यहाँ तक कि उनका अपने आपको थोपना उनकी उपलब्धियों को कम कर गया।

एक पर्वतारोही की सफलता पर्वत के शिखर तक पहुँचने में होती है लेकिन क्या तब वो सिर्फ पहाड़ पर चढ़ना ही सीखें। कल्पना कीजिए उसने ऐसा ही किया तो क्या होगा? वह चोटी पर पहुँच तो पाएगा लेकिन वहीँ रह जाएगा, जिन्दगी से बहुत दूर। हकीकत तो यह है कि एक पर्वतारोही को चढ़ने की बजाए उतरने की ज्यादा तैयारी करनी होती है क्यांकि उतरना ज्यादा जोखिम भरा होता है। एक तो चढने की थकान दूसरी लक्ष्य-हीनता और ऊपर से फिसलने का डर।

मेरी ही एक कमजोरी ने इस सच से मेरा वास्ता करवाया; सभी कहते थे कि मैं अच्छा बोलता हूँ लेकिन मुझे दुःख होता था कि फिर मेरी बात उतनी प्रभावी क्यों नहीं होती? धीरे-धीरे समझ आया कि मुझे सही समय पर अपनी बात ख़त्म करना नहीं आता था। आज भी श्रम जारी है। अब लगता है यह बात तो जीवन के हर पहलू पर जस की तस लागू होती है चाहे वह हमारी सफलता-समृद्धि जैसी महत्वपूर्ण बातें हो या फिर रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें जैसे 'पसंद का खाना हो तो भी कितना खाएँ' या 'कितने घंटे काम करें' या फिर 'घूमने ही कितने दिनों के लिए जाएँ' वगैरह-वगैरह। किसी भी चीज का आनन्द भी तभी आता है जब हमें सही समय पर रुकना आता हो।

अब सफलता को ही ले लीजिए। कौन नहीं चाहता कि उसकी सफलता का ग्राफ ऊपर उठता ही चला जाए लेकिन क्या कभी ऐसा हुआ है? हर व्यक्ति का एक दौर और हर विचार का एक समय होता है उसके बाद उसकी जगह नए व्यक्ति और नए विचार लेते है। इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह व्यक्ति चूक गया है। यह तो प्रकृति का आधारभूत नियम है इसलिए वह किसी भी तरह अपने आपको दोषी ठहराए या मन में हताशा का कोई भाव लाए इसका तो कोई कारण ही नहीं बनता। उल्टा वे व्यक्ति जो अपनी असफलता के दौर में ही इस बात को समझ लेते है और अपने थमने की तैयारी रखते है वे ही लम्बे समय तक याद रखे जाते है। अच्छा रहता है, हम जाएँ तो कोई हमें रोके, हमारे जाने के बाद हमारी कमी महसूस करे बनिस्पत इसके कि कोई ये सोचे कि हम जाते क्यूँ नहीं?

इससे दीगर सबसे अहम् बात यह है कि आप सफल ही होते चले गए तो सफलता का आनन्द कब लेंगे। यह तो ठीक वैसी बात है कि स्वादिष्ट खाने को इतने जतन से बनाया कि जब खाने की बारी आई तब थक कर नींद आ गई।

अपनी प्रकृति और अहं के विरुद्ध इस गुण को अपनाने की शुरुआत हम रोजमर्रा की छोटी-छोटी कोशिशों जैसे कितना खाएँ, बोलें या काम करें, से कर सकते है। इस तरह सही समय और सही जगह पर रुक पाना हमारे स्वाभाव में शामिल हो जाएगा और हम सफलता और समृद्धि जैसे जीवन के महत्वपूर्ण एवम नाजुक विषयों को भी कुशलता से संभल पाएँगे। ये उस बड़े खजाने की छोटी सी चाबी है जिसमें प्रभावशाली और आनन्दमय जीवन का राज छुपा है।


( रविवार, 16 दिसम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल .......... 

Friday, 14 December 2012

आम आदमी और ईमानदारी



आज इस समय जब देश में सबसे अहम् मुददा भ्रष्टाचार बना हुआ है तब सबसे ज्यादा दुविधा में है तो वह है आम-आदमी। उसकी स्थिति बिल्कुल 'एक तरफ कुआँ और एक तरफ खाई' जैसी है। यहाँ तक कि वो ईमानदारी की परिभाषा को लेकर भी भ्रमित है। यह भी सच है कि भ्रष्ट कोई होना और कहलाना नहीं चाहता क्योंकि भ्रष्ट कोई पैदा नहीं होता। हमारी ही व्यवस्था के कुछ नियम-कानून इतने अव्यावहारिक और कुछ इतने अप्रासंगिक हो चले है कि उन्हें निभाते हुए एक आम-आदमी के लिए अपनी जिन्दगी की गाड़ी ढंग से चला पाना लोहे के चने चबाने से कम नहीं, खासतौर से वे नियम-कानून जो उसके जीविकोपार्जन से जुड़े है।

यही उसकी दुविधा है कि यदि वह नियमों की व्यावहारिक अवहेलना करता है तो भी वह बेईमानों की उस श्रेणी में शामिल हो जाता है जो अपने पद और अधिकारों का नाजायज फायदा उठा देश और समाज को खोखला कर रहे है तो उसके लिए अपने पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को सम्मानपूर्वक निभा पाना संभव नहीं। अब हर किसी व्यक्ति का जिन्दगी के प्रति नजरिया एक समाज-सुधारक का हो यह न तो संभव है और न ही उचित, और फिर यह व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कि वह स्वयं चुने कि वह अपनी जिन्दगी कैसे जिएगा?

सबसे पहले तो यह विचार करना होगा कि नियम-कानून बनाए ही क्यूँ जाते है? नियम-कानून देश और समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना और रक्षा के लिए बनाए जाते है ठीक उसी तरह जिस तरह माता-पिता अपने बच्चों में अच्छे संस्कारों के लिए घर में अनुशासन का वातावरण बनाते है। साफ़ जाहिर है कि नियम परक होने से ज्यादा अहम् है नीति-संगत होना। नीति-संगत वही है जिसके कर्म उसके प्राकृतिक गुणों यानी दया, प्रेम, करुणा और समानता के रंगों में रंगे हो या सीधे-सच्चे शब्दों में जो किसी का बुरा न चाहे। व्यक्ति कुछ भी करे तो उसे अपने हित के साथ यह भी ध्यान रहे कि इसमें किसी और का अहित तो नहीं। इस तरह नियमों को नैतिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में समझते हुए हमें ईमानदारी की नई परिभाषा गढ़नी होगी। अपने जीवन में मूल्यों को नियमों के ऊपर रखना होगा। ईमानदार व्यक्ति वह है जिसका आचरण नीति-संगत है चाहे पूरी तरह नियम-परक न हो।

मैं अपने इस दृष्टिकोण के पक्ष में आपसे इतना पूछना चाहता हूँ की क्या नमक कानून तोड़ने वाले गाँधी से, गुलामी प्रथा का विरोध करने वाले अब्राहम लिंकन से और म्यांमार की सरकार को सरकार ही न मानने वाली आन सानं सू की से सद्चरित्र और ईमानदार भला कोई हो सकता है? लेकिन यह भी सच है कि हर व्यक्ति के लिए व्यवस्था के विरोध में खड़े हो पाना सम्भव नहीं इसलिए आपको एक बात विशेष रूप ध्यान रखनी होगी कि आप अपनी मान्यताओं का अनावश्यक प्रचार न करें। ऐसी मान्यताएँ जो नीति-संगत तो है लेकिन पूरी तरह नियम-परक नहीं वरना आप अपने और अपने परिवार के लिए मुसीबतें खड़ी कर लेंगे और आपका जीना दूभर हो जाएगा।

आपका जीवन मूल्यों पर आधारित हों और कर्म प्राकृतिक गुणों से रंगे। यदि आपका आचरण नीति-संगत है चाहे पूरी तरह नियम-परक नहीं तो भी आप शत-प्रतिशत ईमानदार है। कोई कारण नहीं बनता कि आप अपने मन में किसी तरह का ग्लानि-भाव रखें। ऐसा जीवन जी कर आप महापुरुषों के बताए रास्ते पर ही चल रहे होंगे।


( जैसा कि रविवार, 9 दिसम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल ........