Sunday, 19 February 2012

Ease Works



जीवन  - संगीत




इस सप्ताहांत तक में तय नहीं कर पाया था की मैं आपसे किस विषय पर बात करूँगा. हर बार तो जो कुछ पढ़ा, समझा, जाना होता है उसमे से ही कोई विषय जो दिल को छूने वाला और मन को उद्वेलित करने वाला होता है के बारे मैं सोचकर, मननकर और कुछ इधर-उधर से जानकारियां इकट्ठी कर आपसे रूबरू हो जाता हूँ. इससे मुझे लगने लगा था की मेरा नया पढ़ना और जानना छुट रहा है और तब सोचा की कुछ नया पढना शुरू करूँगा और उसी में से कुछ निकालूँगा.
मैंने एक किताब शुरू की लेकिन मेरा सारा ध्यान विषय-चुनाव पर लगा था और मैं न तो पढ़ाने का रस ले पा रहा था और न ही लिखे को अपनी सोच का हिस्सा बना पा रहा था. मैं आदतन धीरे पढता हूँ पर इस बार दुगुना पढ़ गया. मुझे कोई बात अच्छी भी लगती तो सोचता आगे कुछ और ज्यादा अच्छा मिलेगा, और पूरा सप्ताह गुजर गया.
 
प्रकृति हमारे हर सवाल का जवाब देती है पर जरा अपने ढंग से. पढ़ते-पढ़ते मैं उस अध्याय पर पहुँच चुका था जिसका शीर्षक था ' Take it easy '. मैं ठिठका, होश आया, अपने आपको स्थिर किया तब दो बातें वापस समझ आई.

पहली, मंजिल पर पहुंचना उत्सव तब ही है जब यात्रा का आनंद आये. यात्रा मैं हर पग को महसूस किया हो, हर नज़ारे का लुफ्त उठाया हो तब ही मंजिल सुनहरी लगती है अन्यथा यदि यात्रा को हम सिर्फ काम मन लेंगे तो मंजिल बन जायेगी काम का निपटारा और खुशियाँ बनी रहेंगी मृग-मरीचिका.

दूसरी, संघर्ष हमारी नियति नहीं हमारा द्रष्टिकोण है. यदि हम मानते है की जो कुछ हम चाहते है वह बिना संघर्ष के मिल ही नहीं सकता तो विश्वास मानिए ऐसा ही होगा क्योंकि प्रकृति तो हर हाल में हमारा साथ निभाएगी. संघर्ष शब्द ही नकारात्मक है जिसे महसूस करें तो पाएंगे की उसमे कंही यह भावना छुपी है की ' हम जो कुछ पाना चाहते है उसके लायक नहीं है और इसलिए अतिरिक्त कठिन प्रयासों की जरुरत है.'
हमारे इस द्रष्टिकोण के लिए कुछ हद तक हमारे संस्कार (belief-system) जिम्मेदार है जहाँ हम बचपन से सुनते आये है, ' कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ' , ' संघर्ष ही जीवन है' , ' तप कर ही सोना निखरता है', ' जीवन एक दौड़ है.'  आदि, आदि. हमारी यह सोच हमारी दृष्टी को धुंधला देती है, अंतस की आवाज़ हम तक नहीं पहुँच पाती, हम अच्छे - बुरे का भेद नहीं कर पाते और खुद ही अपने जीवन को संघर्षमय बना लेते है. 

वास्तव मैं ऐसा नहीं है, हो ही नहीं सकता. प्रकृति तो बाहें फैलाए है, हर वो चीज देने को आतुर है जो हम पाना चाहते है. जरुरत है हमें अपना द्रष्टिकोण बदलने की. हमारा निश्चिन्त भाव हमें अपनी रचनात्मक ऊर्जा से जोड़ देता है जिससे हमारे कदम प्रभावी हो उठते है. रास्ते की थकान नहीं आती. यात्रा के हर क्षण का आनंद ले पाते है. मंजिल आसान लगने लगती है.

सच तो यह है की हम चाहते भी वहीँ है जो वास्तव में हमें पहले से मिला हुआ है और हमारा जीवन - उद्देश्य , हमारे प्रयास उसे पाने के लिए नहीं महसूस करने के लिए है.
जीवन - स्पर्श से उपजी इन्ही मधुर तरंगो के साथ अपनी बात को यहीं विराम देना चाहूँगा.
दिल से, आपका;
राहुल.....

Saturday, 11 February 2012

Appreciation is Blessing


Count your blessings,
Count them one by one.
Count your blessings,
See what god has done.


सराहना ही आशीर्वाद है. सराहना का मतलब है जीवन में जो कुछ भी उपलब्ध है उसे पहचानना और उसके प्रति कृतज्ञ होना. आशीर्वाद का मतलब है ईश्वर की कृपा को आगे पहुंचाना.
अब इन शाब्दिक अर्थों के परे जाकर गौर करें तो हम पायेंगे की हम किसी भी व्यक्ति या वस्तु को और अधिक धन्य नहीं कर सकते क्योंकि प्रकृति का  हर घटक परमात्मा की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है.यदि ईश्वर कण-कण में है तो हमारे शुभ-वचन उसकी उपस्थिति को बढ़ा कैसे सकते है? तो क्या आशीर्वाद के कोई माने नहीं?
नहीं, ऐसा नहीं है. आशीर्वाद हमारी प्रेरणा-शक्ति होते है. आशीर्वाद देने वाला अपने अंदर के ईश्वर तत्व को पहचान पाता है तब ही तो वह अपने आपको किसी और को धन्य कर पाने के लायक समझता है. ऐसा व्यक्ति उस व्यक्ति में भी मौजूद ईश्वरीय तत्वों को महसूस कर पाता है जिसे वह आशीर्वाद दे रहा होता है. वह अपने शुभवचनो से उसे यह भरोसा दिलाता है की वो जीवन की सारी संभव अच्छाइयों का हकदार है.

इसी तरह जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु को सराहते है तब हम उनके गुणों को पहचान कर स्वीकार कर रहे होते है जो उनमें पहले से मौजूद थे और हम अपने शब्दों द्वारा हमारे जीवन में उनकी मौजूदगी के लिए धन्यवाद दे रहे होते है, कृतज्ञ हो रहे होते है. किसी भी व्यक्ति या वस्तु के वो गुण जो हमें कृतज्ञता की भावना से भर दे ईश्वरीय ही तो है. हम सराहना कर उनमें ईश्वरीय तत्वों को पहचानते है, स्वीकार करते है और ऐसा कर हम अपने अन्दर क ईश्वरीय तत्वों को महसूस कर पाते है. वास्तव में सराहना और आशीर्वाद एक दुसरे के ईश्वरीय गुणों को पहचानने , स्वीकार करने और उनके  प्रति कृतज्ञ होने की प्रक्रिया भर है.

हम में से ज्यादातर लोग किसी न किसी प्रार्थना के नियम को पालते है. कोई भी प्रार्थना हो उसमें हम उस सृष्टिकर्ता के गुणों का बखान ही तो करते है. यह सराहना नहीं तो क्या है? यह प्रार्थना हमें हमारे अंदर पहले ही से मौजूद सृष्टिकर्ता के उन गुणों से जोड़ देती है और हम अपने इच्छित को प़ा लेने के प्रति आशावान हो उठते है. सराहना न केवल आशीर्वाद है बल्कि प्रार्थना भी है. यदि प्रार्थना का पारम्परिक स्वरुप नहीं भाता है तो कोई बात नहीं बस अपने जीवन को जो कुछ मिला है उसे सराहते गुजारिये; यही सच्ची प्रार्थना है. करते हम इसका बिलकुल उलट है. ईश्वर में तो आस्था रखते है लेकिन उससे मिले जीवन और जीवन में मिली नेमतो को कभी नहीं सराहते. जिस तरह एक गृहिणी के अच्छे खाने की प्रशंसा कर ही उसे और अच्छा बनाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है उसी तरह जीवन में जो कुछ अच्छा प्राप्त है उसकी सराहना कर ही जीवन के उन द्वारो को खोला जा सकता है जहाँ से ईश्वर के आशीर्वाद बरस सकें.

जीवन के प्रति यह दृष्टिकोण अपना कर हम इसे और बेहतर बना पायें, दिल से इन्ही शुभकामनाओं के साथ,

आपका,
राहुल....

Sunday, 8 January 2012

BE EFFECTIVE

आपका सम्मान आपके हाथ 
 

            " थोड़ी बातें कम हों, कोरे उपदेशो से मन नहीं मिलते.
               तो क्या करें ? झाड़ू उठाइये और किसी का घर साफ़ कर दीजिये. आप सही अर्थों में कह पायेंगे. "
                                                                                                                       -- मदर टेरेसा
अपनी बात को कहने का प्रभावी तरीका हमारे शब्द नहीं हमारा आचरण होता है. निश्चित रूप से आपसी संवाद बहुत जरुरी है लेकिन कारगर तब है जब अगला समझना चाहे. आप जिन भावनाओ से कह रहे है उसमे उसे पूरा विश्वास और श्रद्दा हो. वह आपके संवाद को आपकी कमजोरी न समझे.

सामान्यतया घर हो या बाहर लोग हमारी बात अपने मतलब जितनी और अपने मतलब के हिसाब से सुनते और समझते है. जब इन्हें विश्वास हो जाता है की हमारी असहमति सिर्फ शब्दों से बंधी है जिसे हम व्यवहार में कभी नहीं लायेंगे तो ये लोग जाने - अनजाने अपनी इच्छा की करने के लिए इसे काम में लेने लगते है. हमारा जीवन अनचाहे दायित्वों से लद जाता है जिसका नियंत्रण किसी और के हाथ होता है. हमारी बात के इस तरह अप्रभावी होने से हर वक़्त झुंझलाहट से भरे रहते है और धीरे - धीरे अपने आपको कमतर मानने लगते है.

यह उन सब गहरे पैठे हुआ संस्कारों के कारण होता है जिसमें अपनी असहमति को स्पष्ट और ठोस शब्दों में कहना ध्रष्टता ( जबान लड़ाना ) होती है और अपने मन की कही करना अपमान होती है जो हमसे कुछ और चाहते है. वास्तव में यह न तो ध्रष्टता है और न ही अपमान बल्कि यह तो आत्म - सम्मान है. सच तो यह है की हमारा आचरण ही लोगों को हमारे साथ उचित व्यवहार करना सिखाता है.

बच्चों को प्रलोभन देकर खाना खिलाने की बजाय कुछ देर भूख महसूस होने दीजिये. पत्नियाँ यदि आपके काम के बीच गृहस्थी के छोटे - मोटे कामों में घसीटती है तो उन पर कान न धरिये. पति बार - बार आपके साथ अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते है तो पहली बार वहां से हट कर और दूसरी बार कड़े शब्दों में जता दीजिये की आप इसे सहन नहीं करेंगी. रिश्तेदार आपकी भलमानसता का फायदा उठाये तो उन्हें साफ़ लेकिन विनम्र शब्दों में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दीजिये.आप देखेंगे की आपका आचरण आपको अधिक सम्मान दिलाएगा और लोग आपको ज्यादा गंभीरता से लेंगे.

एक पुरानी कहावत कहावत के साथ अपनी बात यही विराम देता हूँ.
                           
                              मैं सुनता हूँ, भूल जाता हूँ
                              मैं  देखता हूँ, मुझे याद रहता है
                              लेकिन
                              जब मैं स्वयं करता हूँ,
                              तब मुझे समझ आता है.
आपका,
राहुल....

पुनश्चः घर मैं शादी का उत्सव है और जयपुर मे लिटरेरी फेस्टिवल इसलिए आपसे फरवरी के पहले सप्ताहांत मैं वापस रु -बरु हो पाऊंगा, धन्यवाद.

Saturday, 31 December 2011

Success is within



सफल होना तय है


एक नन्ही चिड़िया पैदा होने के बाद जब पहली बार उड़ने की कोशिश करती है और उड़ नहीं पाती तब भी उसका उड़ पाना तय होता है. एक चिड़िया में ' उड़ना ' होता है. चिड़िया उड़ने की कोशिश न तो किसी के कहने पर करती है, न किसी से जीतने के लिए. उड़ना उसका स्वाभाव है. अंतर्मन की प्रेरणा से वह उड़ने की कोशिश करती है और कुछ ही दिनों में अपने चिड़िया होने को साबित कर देती है.

यदि हम अंतर्मन की प्रेरणा से कुछ करें तो उसके नहीं हो सकने की कोई गुंजाइश ही नहीं होती. अंतर्मन हमें उसी ओर प्रेरित करता है जिसका हो पाना हममें पहले ही दिन से होता है.
इसमें संदेह तब पैदा होता है जब माता-पिता के रूप में हम अपने बच्चों के लिए सफलता के मायने तय करने लगते है. हम ' उनकी भलाई ' के नाम पर यह बताते है की उनके लिए क्या ठीक है क्या नहीं जबकि होना तो यह चाहिए की हम उनमें अच्छे (उचित) और बुरे (अनुचित) में भेद करने की समझ पैदा करने में मदद करें और उनके लिए क्या ठीक है यह उन्हें तय करने दें. इस तरह ये बच्चे धीरे-धीरे मानने लगते है की जीवन एक संघर्ष है और जिस दिन अपने पैरों पर खड़े होते है तो अपनी सफलता के मायने बाहरी दुनिया से उधार ले लेते है. ऐसे में इनकी हालत बिलकुल ताँगे के उस घोड़े-सी हो जाती है जिसे हमेशा ही कोई और हांक रहा होता है.

जब शुरू से जीवन - पर्यंत (आज तक) हम ' क्या करें ' और हम ' क्या हों ' यह कोई और व्यक्ति या परिस्थिति तय करते है तो हमारे मन में असहाय होने की धारणा ( Helplessness ) घर करने लगती है. इस धारणा के साथ जीते - जीते बेचारगी की, दूसरों की सहानुभूति पर जीने की और भाग्य व परिस्थितियों को दोष देकर पल्ला झाड़कर हर क्षण अपने आपको सही सिद्ध करने की कोशिश करते रहने की आदत सी पड जाती है.यह वैसे ही है जैसे एक चिड़िया हिरन के कहे अनुसार तेज दौड़ने को अपना जीवन - ध्येय बना ले.

जिस तरह एक चिड़िया में उड़ पाना होता है वसे ही हममें वो सब कुछ है जो हमारे हो पाने के लिए जरुरी है. जो हमारे काम - हमारी सफलता के लिए जरुरी है बस इतनी भर जरुरत है की हम हमारे स्वाभाव को पहचाने एवमं अंतर्मन की आवाज़ को सुनें. हम बिलकुल ठीक है, हमें अपने आपको बदलना नहीं विस्तार देना है. यदि हम जीवन को सच्ची अभिव्यक्ति देते है तो बदले में जीवन से सच्चा आनंद और संतुस्ठी निश्चित मिलेगी.

आइए इस वर्ष हम अपने से एक वादा करें की हम अपने जीवन की डोर अपने अंतर्मन के हाथों सौंप अपना और अपनों का जीवन खुशहाल बनाने की कोशिश करेंगे.
नए वर्ष पर दिल से इन्हीं शुभकामनाओं के साथ;

आपका,
राहुल......

Saturday, 24 December 2011

Just Keep On

 लगे रहो......भाई




इस विषय पर बात करते हुए मुझे याद आते है मेल फिशर जिन्हें कंही से मालूम चला था कि कई सालों पहले खजाने से लदा स्पेनिश जहाज फ्लोरिडा के छोटे-छोटे द्वीपों के पास डूब गया था. उन्होंने अपने स्तर पर खोज-बीन की और जैसे-जैसे वे पता करते गए उनका विश्वास पक्का होता गया और तब उन्होंने उस जहाज को ढूँढना अपना लक्ष्य बना लिया और जुट गए. उन्होंने इस काम के लिए अपनी अरबो रुपये की जमा-पूंजी और हजारों कर्मचारी लगा दिए. मेल फिशर ने अपने गोताखोरों और कर्मचारियों की टी-शर्ट पर लिखवा रखा था 'Today's the day'. उन्होंने चौदह साल तक हर दिन 'आज ही वो दिन है' समझ कर उस जहाज को ढूंढा और आखिर एक दिन वो दिन आ ही गया और उन्हें जो मिला वो उन चौदह साल की मेहनत की तुलना में कंही ज्यादा था.

यदि मन को पक्का विश्वास हो, लक्ष्य स्पष्ट हो एवम हम कृतसंकल्प हो तो असफल होने की गुंजाईश ही नहीं बचती.

सामान्यतया जब हम कोई काम शुरू करते है तो बहुत उत्साहित होते है क्योंकि हमने उसे अपनी पसंदगी और परिणामों के आधार पर चुना होता है जो निश्चित रूप से बहुत ही लुभावने और सुनहरे होते है लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते है उस काम के लिए आवश्यक मेहनत, अनुशासन और लगन के कारण अपने उत्साह को, अपने जज्बे को कायम नहीं रख पाते. खजाना पाना है तो मेल फिशर की तरह ऐसे जुटना होगा जैसे आज ही वो दिन है.

किसी काम में सच्चे दिल से जुट जाना ही हमारी निष्ठां है और हमारी निष्ठां स्वतः ही प्रकृति की उन शक्तियों को अपनी और आकर्षित कर लेती है जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण करती है.

संस्कारवश हम हर काम को एक उम्र-विशेष से बाँध लेते है. यह सही है कि जीवन के अधिकतर काम एक उम्र-विशेष में ही करने में आते है लेकिन यह सिर्फ हमारी सुविधा के लिए एक व्यवस्था है. कोई भी काम उम्र के किसी दौर में किया जाए इसका न तो उसकी उचितता से लेना-देना है और न ही सफलता से. जिस प्रकार नाश्ते, सुबह के खाने और रात के खाने का एक लगभग समय होता है क्योंकि सामान्यतया उस समय हर व्यक्ति को भूख लगती है लेकिन खाने कि पहली शर्त भूख है न कि खाने का समय.

मन में पक्का विश्वास और दृढ निश्चय हो तो न समय से कोई फर्क पड़ता है न लक्ष्य कि उंचाई से; खजाना मिलता ही है. फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' का शीर्षक कितना सार्थक है; यदि लगे रहो तो गाँधी जी भी दिखने लग जाते है.

इसी विश्वास के साथ कि हमें अपना-अपना खजाना मिलें.

आपका,
राहुल....

Saturday, 17 December 2011

Go Wholeheartedly




जीवन की कोई राह ऐसी नहीं होती जिसमें मुश्किलें नहीं होती फिर भी मंजिल को पाने के लिए किसी एक राह पर तो निकलना ही होता है. हम इस जीवन में क्या करना चाहते है यह बहुत जरुरी है जीवन की राह को चुनने के लिए लेकिन हम जो कुछ भी करना चाहते है उसकी सफलता के लिए इतना भर काफी नहीं है. हमें अपनी पसंद से, अपने आप से वचनबद्ध होना होगा. हमारी वचनबद्धता ही हमें रास्ते की मुश्किलों का सामना करने की शक्ति देगी.

जब भी हम किसी काम को पसंद तो करते है लेकिन उससे वचनबद्ध नहीं होते तो जैसे ही मुश्किलें आने लगती है हम अपने चुनाव पर ही संदेह करने लगते है. हम रास्ते की रूकावटो को अपनी सुविधा के लिए अपनी असफलता मानने लगते है और फिर या तो आधे-अधूरे मन से आगे बढ़ते है या रास्ता ही बदल लेते है और इन सब का दोष भाग्य या परिस्थितियों पर मढ़ देते है.

वास्तव में ये मुश्किलें हमें जीवन के वो पाठ पढ़ाने आती है जिन्हें सीखे बिना जीवन में वो नहीं पाया जा सकता जो हम चाहते है. यदि किसी काम के परिणाम वैसे नहीं आते जैसे हमने सोचे थे और ऐसा एक या दो से ज्यादा बार होता है तो हमें अपनी वचनबद्धता को टटोलना चाहिए, अपने इरादों की गंभीरता को जांचना चाहिए; हो सकता है कुछ कमी राह गयी हो. कमी याने हमारे काम की आर्कित्रकचरल ड्राइंग उतनी स्पष्ट नहीं हो जितनी सफलता की इमारत के लिए जरुरी हो.
परिणामों के आधार पर अपनी वचनबद्धता को जांचने में हमें यह ख़ास तौर पर ध्यान देना होगा की कंही अहम् बीच में न आ जाए. परिणामों को स्वीकार करना अहम् को कभी मंजूर नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करने से तो उसका वजूद ही खतरे में पड जाएगा इसलिए हमारा अहम् मनचाहे परिणामों के नहीं मिलने का दोष भाग्य और परिस्थितियों पर मढ़ने के लिए भांति-भांति के तर्क देने लगता है और हम कभी सही कारणों को जान ही नहीं पाते.

इस सारी बात का कतई यह मतलब नहीं है की यदि हमने कोई निर्णय क्षणिक भावावेश में ले लिया था या वह हमारा स्व-भाव नहीं है या समय, काल और परिस्थितियों के कारण अप्रासंगिक हो चुका है तो भी 'प्रतिज्ञा' के नाम पर उसे ढ़ोते रहें और जीवन भर इस अफ़सोस के साथ जियें की मैंने ऐसा किया ही क्यूँ?
ऐसी स्थिति में हमें पूरा-पूरा अधिकार है की हम अपनी राह बदल लें. ऐसा कर हम न केवल अपनी निजता का सम्मान कर रहे होंगे वरन उन लोगों के जीवन को भी सुन्दर और बेहतर राहों की तरफ प्रेरित कर रहे होंगे जो हमारे निर्णय से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित है और इसलिए एक क्षण के लिए भी अपने मन में ग्लानि या अपराध-बोध को जगह देने की जरुरत नहीं है.

हमारी पहली वचनबद्धता अपने आप से है फिर किसी और से, यदि हम अपने आप से वचनबद्ध नहीं हो सकते तो कभी किसी और से भी नहीं हो सकते. किसी ने ठीक ही कहा है.  'You cannot have a half hearted intentions and a whole hearted results.' 
 
हम जो भो करें पूरे दिल से करें, बढ़ते जाएँ, मंजिल हमारा इन्तजार कर रही होगी.
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ, 
आपका,
राहुल......





Saturday, 10 December 2011

Come Out




हम प्रतिदिन अपने जीवन को और अच्छा एवं बेहतर बनाने की कोशिश में लगे है और इसके लिए भविष्य में आ सकने वाली तकलीफों - मुश्किलों का पहले से ही इंतजाम कर लेना चाहते है. इन तकलीफों और मुश्किलों का आकलन हम अपने भूतकाल,परिवेश,प्रचलित धारणाओं और हमारे प्रियजनों के भूतकाल के आधार पर कर लेते है. यह भी सच है की हर व्यक्ति के जीवन में कुछ न कुछ जरुर अप्रिय घटता है ; इसी का नाम माया है लेकिन इस चक्कर में किसी के भी साथ में जो कुछ अप्रिय घटित हो चूका है उन सब से अपने आपको सुरक्षित करने की कोशिश में जुट हम अपने जीवन को बेहतर बनने की बजाय और तनावमय एवं डरा हुआ बना लेते है.

डा. वेन डब्लू डायर ने FEAR को बिलकुल ठीक विस्तारित किया है. False Evidences Appearing Real.

हम भूतकाल में हो चुके को भविष्य में हो सकने वाली धटनाओं का प्रमाण मान लेते है और अपना वर्तमान खराब कर लेते है. वास्तव में डर भूत या भविष्य में रहता है वर्तमान में इसका कोई स्थान नहीं होता.

इस पूरी आप - धापी में हम यह भूल जाते है की हम ईश्वर की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है और हमारी असीमित संभावनाओं को अहम् सुरक्षा के नाम पर सीमित कर देता है.
सर्कस में हाथी को इसी तरह ट्रेन किया जाता है. बचपन से ही उसके पिछले पैर को रस्सी से बाँध देते है और इसीलिए वो एक घेरे में ही घूम पाता है. कुछ सालों बाद जब उसकी रस्सी खोल दी जाती है तब भी वह अपने घेरे से नहीं निकल पाता. डर वास्तव में हमारे दिमाग की उपज है इसका हकीकत से कोई लेना देना नहीं.

जाने - अनजाने हम सब अपने लिए कोई न कोई घेरा बना ही लेते है और अपनी ही बनाई धारणाओं में कैद होकर रह जाते है. जीवन का आनंद लेने के लिए हमें सुरक्षा घेरे को तोड़ इस क्षण को सम्पूर्णता के साथ जीने की कोशिश करनी चाहिए. हमारी सच्ची अभिव्यक्ति दिल की आवाज़ पर चलने में है और ये अनजानी राहें घेरे के बाहर है.

कुछ नया करने से पहले हमारे मन में घबराहट या उद्विग्नता (Nervousness) का उपजना लाजमी है. यदि किसी काम को करने से पहले हमारे मन में हल्की सी घबराहट, थोड़ी सी उद्विग्नता भी नहीं है इसका साफ़ मतलब है की ये वो काम नहीं है जो हमें करने चाहिए. ये भावनाएं संकेत है इस बात का की जीवन में इस बार हम यही सब कुछ सीखने आये है.

पहले डर कर और फिर सुरक्षा के नाम पर स्वयं को कैद करने की बजाय लाख गुना बेहतर है जीवन-धारा के साथ बहें और आहत हो जाने के लिए तैयार रहें. रास्ते की ठोकरों से बचने के लिए चलना बंद कर देना कितना बेवकूफी भरा होगा.

भूतों को भविष्य के लिए छोड़ दे और वर्तमान में रहें; दिल की सुने और दिल से जियें.

आपका,
राहुल....