Friday, 15 March 2013

खट्ठी-मिट्ठी जिन्दगी




दिल की सुनें-दिल की सुनें, सुन-सुनकर कई बार झुंझलाहट होने लगती है, वाजिब भी है। कितनी सारी बातें होती है जो तय करती है की हम अपनी जिन्दगी को कैसे जिएँगे। जिन्दगी के हर क्षण की कुछ जरूरतें होती है। अपने परिवार और प्रियजनों के प्रति हमारे कुछ जरुरी फर्ज होते है। इन्हें निभाने के ज़ज्बे के साथ जरुरी होता है पर्याप्त धन। दिल की आवाज के साथ इस बात का भी उतना ही ध्यान रखना होता है। यहाँ आकर जिन्दगी खट्ठी-मिट्ठी हो जाती है। आप खुश तो होते है कि आप वो सब कर पाए जो आपको करना चाहिए था लेकिन अपने मन की न कर पाने के कारण संतुष्टि का भाव नदारद होता है।

आप खुश है पर संतुष्ट नहीं। आप जैसे दिखते है वैसे है नहीं। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे इनमें दूरियाँ बढती है, मन का खालीपन गहराता चला जाता है। इस खाई को पाटने के लिए जरुरी है यह समझना कि आपने अपने दायित्वों के चलते अपने दिल की आवाज को मुल्तवी किया था, नकारा नहीं था। होता यह है कि हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते दूसरों की अपेक्षाओं पर जीने लगते है। हमारे परिवार और प्रियजन जो निस्संदेह हमसे प्रेम करते है, हमारा भला चाहते है, हमें अपने तरह से जीने के लिए मजबूर करने लगते है। वे समझते है, जीने का उनका तरीका ही ठीक है और ऐसा करना उनका नैतिक कर्त्तव्य है। और हम, उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने को अपना दायित्व समझ लेते है।

आपका फर्ज क्या है, यह आप तय करेंगे। कई बार ऐसा भी होता है कि जो व्यक्ति अपने दायित्वों के प्रति सचेत होता है उससे सबकी अपेक्षाएँ तो अधिक होती ही है, लोग अपने काम भी उसकी झोली में डाल देते है। आप उसे भी अपना दायित्व लेते है और लगे रहते है। उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने की आपको ख़ुशी तो होती है पर मन के किसी कोने में लगता है आपका उपयोग किया गया और एक असंतुष्टि का भाव तैर जाता है। अपने दायित्व निभाना धर्म है लेकिन अपने आपको उपयोग में लिए जाने की अनुमति देना, अपने प्रति दुर्व्यवहार। इन दोनों के बीच आपको स्पष्ट सीमा-रेखा खींचनी होगी।

हो सकता है आपने अपने काम के साथ समझौते किए हों, करने भी पड़ते है। व्यावहारिक जीवन में धन के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता लेकिन आप इन समझौतों से अपनी जिम्मेदारियों के पूरा होते ही बाहर आ सकते है। आपको आना ही चाहिए, पर यह तब ही सम्भव होगा जब आप जिस काम में आज है उसे बेहतर से बेहतर करने की कोशिश करें। आपकी यही कोशिश आपके पसंद के काम की सीढ़ी बनेगी। आपकी पात्रता, आपकी लायकियत बढ़ाएगी। अवसरों और आशीर्वादों की तो बारिश हो रही है, हमें तो बस समेटने की क्षमता बढ़ानी है।

यदि आप अपने काम में बदलाव को उम्र से जोड़कर देखते है तो मैं कहूँगा, यह बिल्कुल बेमानी है। कितने ही उदाहरण हमारे आस-पास बिखरे पड़े है जो इसे झुठलाते है। बोमन ईरानी को हो लीजिए, चालीस की उम्र में अभिनय शुरू किया और आज वे फिल्म जगत के मंजे हुए चरित्र अभिनेता है।

दिल और दिमाग का सही संतुलन ही ख़ुशी और संतुष्टि को एकरूप करेगा । जिन्हें आपने अपनी जिम्मेदारी समझा और निभाया वह भी आपके ही दिल की आवाज थी और आज आप अपने जीवन को किसी और तरह जीना चाहते है तो यह भी आपकी अपने प्रति जिम्मेदारी और आपके दिल की आवाज ही है। यदि खुश होने का कारण संतुष्टि नहीं है तो निश्चित है कि आपने अपनी जिन्दगी को दुसरे खुश लोगों के पैमाने पर कसा है। संतुष्टि अनुभूति है तो ख़ुशी अभिव्यक्ति, पर है दोनों निजी। आप तो जिन्दगी की गाड़ी को संतुष्टि की राह पर मोड़ दीजिए, खुशियाँ अपने आप पीछे खींची चली आएँगी।


(जैसा कि नवज्योति में रविवार, 10 मार्च को प्रकाशित)
आपका 
राहुल .......... 

Friday, 8 March 2013

यात्रा के अनुभव



आज एक वर्ष हो जाएगा मेरे लेखन की शुरुआत को, समय कैसे गुजर जाता है, मालुम ही नहीं चलता। 2004 से जब इस विषय को पढना-गुणना शुरू किया था तब कहाँ मालुम था कि यात्रा में एक पड़ाव यह भी आएगा। इस यात्रा ने मुझे सिखाया कि अपने सपनों को पूरा करने के लिए तीन बातें जरुरी होती है,-

1.काम की शुरुआत 
2.लगे रहें 
3.सपनों को हमेशा जेहन में बनाए रखें 

- प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक 'शुरूआती हिचक' होती है। इस हिचक का कारण चाहे जो हो लेकिन इससे पार पा लेने भर में काम की आधी सफलता छुपी होती है। हेनरी फोर्ड जब अपनी कार की वी-8 श्रन्खला निकालने की सोच रहे थे, जिसमें एक ही ब्लॉक में आठ सिलेंडर होने थे और ऐसा उस समय एक भी कार में नहीं था, तब उनका एक भी इंजीनियर उनके इस विचार से सहमत नहीं था। यहाँ तक कि इस मॉडल के नक़्शे तक बन गए पर इंजीनियर्स का मत था कि ऐसा मॉडल सड़क पर सफल नहीं हो पायेगा। उनके तर्क सुन-सुनकर वे परेशान हो चले थे, आख़िरकार एक दिन वे फैक्ट्री पहुंचे और एक कार मंगवायी। खड़े रह कर वहाँ से उसे काटने को कहा जहां से उसमें बदलाव लाने थे और फिर इंजीनियर्स से बोले, बातें करना बंद कीजिए और नए मॉडल पर काम शुरू कीजिए। आचरण की यही बेबाकी व्यक्ति से आश्चर्यचकित कर देने वाले काम करवा देती है। 

- काम की शुरुआत में तो सभी का मन उत्साह और उमंग से भरा होता है लेकिन फिर धीरे-धीरे बोरियत होने लगती है। हम परिणामों को लेकर अधीर होने लगते है और मन की यही अधीरता व्यक्ति को यह सोचने पर मजबूर करने लगती है कि शायद उससे यह काम संभव ही नहीं। मन की इसी चंचलता की वजह से व्यक्ति का टिक कर एक ही काम में 'लगे रहना' मुश्किल होता है। 'लगे रहने' का यह ज़ज्बा अव्वल दर्जे का संयम मांगता है इसीलिए यह सबसे अहम् हो जाता है। आपने देखा होगा, जब हम किसी वृक्ष को काट रहे होते है तब कुल्हाड़ियों की कितनी चोटों तक वो तस से मस नहीं होता और फिर एक आखिरी चोट और वो धराशायी। वृक्ष पर की गई हर चोट उतनी ही अहमियत रखती है जितनी आखिरी। इसका श्रेष्ठ उदाहरण है थॉमस एल्वा एडिसन। सफल बल्ब बनाने के लिए उन्होंने 900 से अधिक बार कोशिशें की। वे लगे रहे और आखिर बल्ब को जलना पड़ा।

- शुरूआती हिचकक से पार पाना और फिर उसमें लगे रहने की ऊर्जा के लिए जरुरी है कि हमारा ध्येय हमेशा हमारी आखों के सामने बना रहे। काम की शुरुआत से अंत तक चाहे जैसी परिस्थितियाँ आएँ, चाहे जैसी मनःस्थिति बने, हम हर हाल में अपने सपनों को जिन्दा रखें। आचार्य चाणक्य ने जो अखण्ड आर्यावृत का सपना देखा था वो उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति तक अक्षु०ण रखा। कैसी-कैसी परिस्थितियाँ और कितना लम्बा अंतराल, लेकिन उनके जेहन में अपने सपने की तस्वीर बिल्कुल साफ़ और स्पष्ट थी और वे उसे रूप देते चले गए। व्यक्ति के मन में अपने लक्ष्य की छवि स्पष्ट हो तो कोई प्रलोभन या परिस्थिति उसे विचलित नहीं कर सकती।

ये तीनों गुण हर इन्सान को मिले हैं; आपको, मुझको, हम सभी को इसलिए बेहिचक सपने देखिए। देखेंगे तब ही तो पूरे  ।सपने क्या है?, प्रकृति का आपको दिया जॉब-कार्ड ही तो है। प्रकृति को आप पर भरोसा है, वो आपके साथ है फिर आप  अपने सपनों पर प्रश्न-चिन्ह लगाए बैठे है? अपनी बात को विराम देने के लिए सपनों की अहमियत को उकेरती कॉलरिज की इन सुंदर पंक्तियों से बेहतर क्या होगा ......

क्या हुआ जो तुम सो गए 
और तुमने एक सपना देखा,
तुम स्वर्ग में थे 
जहाँ तुमने,
एक अनदेखा खुबसूरत फुल तोड़ लिया,
तुम्हे कहाँ मालुम था 
जब उठोगे 
वो फुल तुम्हारे हाथ में होगा।


( नवज्योति में रविवार, 3 मार्च को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ...........        

Friday, 1 March 2013

अपना संसार आप रचिए



आज हर कोई व्यक्ति भीड़ में अकेला नज़र आता है; डरा हुआ, सहमा हुआ। ख़ुशी है तो बाँटे किसके साथ और दुखी है तो सम्बल कौन दे? बस, हर बार बिखरे हुए स्वयं को इकट्ठा करके आगे चलता हुआ, हर क्षण अपने अकेलेपन से जुझता हुआ। मुझे लगता है अकेलेपन से बड़ा कोई श्राप नहीं। व्यक्ति में आ सकने वाली सारी शारीरिक बीमारियों और मानसिक कमजोरियों की जड़ है उसका अकेलापन। यदि हम सब एकाकी महसूस करते है तो फिर एक-दूसरे का हाथ क्यों नहीं थाम लेते? स्वाभाविक है यहाँ इस प्रश्न का उठना, पर ये भी सत्य है कि हम ऐसा नहीं कर पा रहे है? क्या वजह हो सकती है? व्यक्ति इतना संकीर्ण कैसे हो गया?

'डर'- एकमात्र वजह है और यह डर देन है हमारे सामाजिक वातावरण की, उन मूल्यों की जिस पर हमारी सामाजिक व्यवस्था टिकी है। आज व्यक्ति डरा हुआ है अपने और अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर, पग-पग पर व्याप्त गला-काट प्रतिस्पर्धा को लेकर, बच्चों के भविष्य और उसके लिए आवश्यक धन को लेकर, जीवन के संध्याकाल के सुकून से गुजर पाने को लेकर और ऐसी ना मालूम कितनी चिंताएँ। साधारण सी बात है जब व्यक्ति डरा हुआ होता है तब उसे अपने अलावा किसी का ख्याल नहीं आता। फ़र्ज़ कीजिए, आप किसी जंगल से गुजर रहे है और आपके सामने शेर आकर खड़ा हो गया, ऐसे समय आपको क्या किसी को भी अपनी जान बचाने के अलावा कुछ और याद नहीं आएगा। बस, ये डर ही है जिसने हमको इतना संकीर्ण बना दिया है।

डर ने व्यक्ति को संकीर्ण बना दिया और व्यक्ति ने अपनी चिंताओं का उपाय पैसे में ढूंढ़ लिया। उसने अपने आपको बचाने के लिए अपने चारों ओर पैसे की चारदीवारी खींच ली और व्यक्ति, व्यक्ति से कटता गया। पैसे की दौड़ में हम एक-दूसरे के डर को ही तो भुना रहे है और एक-दूसरे के जीवन में चिंताएँ पैदा कर रहे है। हमारे यही सामाजिक मूल्य हमारे अकेलेपन की वजह है।

जिन मूल्यों में आप विश्वास नहीं करते उन्हें क्यूँ समाज से उधार लें? इसका मतलब यह भी नहीं कि आप बिला वजह विरोध करें जैसे किसी दिन आप बिना कपड़ों के ही घर से निकलने की सोचने लगें। सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना ओर बात है और जीवन मूल्यों का चुनाव और बात। आप किस तरह जिएँगे, ये आप और सिर्फ आप तय करेंगे। आप किन बातों को अपने जीवन में तरजीह देंगे इसका फैसला सिर्फ आप करेंगे, न कि समाज और रीती-रिवाज।

आप जब ऐसा करने लगेंगे तो स्वतः ही आप जिन्दगी में ऐसे लोगों को उपस्थित पाएँगे जिनके जीवन-मूल्य आपसे मेल खाते हों। हाँ, इतना अवश्य है कि हाथ आपको बढ़ाना होगा। धीरे-धीरे आपके चारों ओर अपना एक संसार बनने लगेगा। ऐसा संसार जिसमें लोग आपके दुःख-सुख बाँटने को आतुर होंगे। जिन्दगी की मुश्किल घड़ियों में, जब आप थक हुआ महसूस कर रहे होंगे, वे घने वृक्ष की तरह छाया तो देंगे ही, जरुरत पड़ी तो  देर के लिए आपका सामान  भी उठा लेंगे। ऐसे मित्रों के जीवन को आसन बनाने के लिए आप भी हमेशा तत्पर होंगे क्योंकि आप एक-दूसरे को बखूबी समझते है। आप के रिश्ते समान  जीवन-मूल्यों की डोर से बंधे है। एक-दूसरे पर ये भरोसा ही आपको सच्ची ख़ुशी देगा। आप संकीर्णताओं के केंचुल से मुक्त हो जिंदादिल जिन्दगी जी पाएँगे। जीवन एक उत्सव होगा। 
तो आइए, कहीं ओर निवेश करने की बजाए इंसानों में निवेश करें, अपने संसार की रचना स्वयं करें।


(नवज्योति में रविवार, 24 फरवरी को प्रकाशित)
आपका 
राहुल.......... 

Friday, 22 February 2013

जाऊं कहाँ बता-ए-दिल



व्यक्ति को उसका काम नहीं, स्थितियाँ थकाती है आज जब हमारे सामने विकल्पों का ढेर है तब स्थितियाँ ज्यादा थका रही है। आप शहर के किसी भीड़-भाड़ वाली जगह पर दो मिनट के लिए खड़े हो जाइए, शायद ही आपको कोई शांत चेहरा नज़र आएगा। एक दुविधा नज़र आती है, ऐसा लगता है व्यक्ति जो कर रहा है वह पूरे मन से नहीं और जो नहीं कर रहा है वह पूरे विश्वास से नहीं।

यह दुविधा ही तनाव का कारण है। एक डर है मन में कि जिस रास्ते को पकड़ा है वह ठीक तो है और जिसे छोड़ा है वह भविष्य में अफ़सोस का कारण तो नहीं बन जाएगा। डर वास्तव में भूत की कोख से जन्म लेता है और भविष्य में निवास करता है। हो सकता है भूतकाल में आपके लिए कुछ निर्णय गलत सिद्ध हुए हों लेकिन क्या वे सही निर्णयों तक पहुँचने का एकमात्र उपलब्ध रास्ता नहीं थे? आपने जो भी निर्णय लिए वे उस दिन की आपकी समझ और समय-परिस्थिति के हिस़ाब से बिल्कुल सही थे। आज आप कहीं समझदार और परिपक्व है, और बेहतर निर्णय लेने की स्थिति में है तो उन कम ठीक निर्णयों की ही बदौलत। जीवन का कोई अनुभव फ़ालतू नहीं होता। अपने निर्णयों पर मजबूत रहिए और आगे बढिए, आगे का रास्ता अपने आप बनता चला जाएगा।

रही बात जिस रास्ते को छोड़ा है भविष्य में उसे नहीं चुनने का अफ़सोस रह जाने का,  तो निश्चिन्त रहिए, यदि ऐसा हुआ भी है तो प्रकृति पुनः नये तरीके से विकल्पों के साथ आपके सामने प्रस्तुत होगी। आपको फिर-फिर मौका देगी। प्रकृति को आपसे कोई अहंकार नहीं, ये तो वो शिक्षक है जो विद्यार्थी को तब तक मौका देती है जब तक विद्यार्थी उत्तीर्ण न हो जाए। मुझे याद आ रही है पूर्व सेनाध्यक्ष श्री वी.के.सिंह की वो उक्ति जो उन्होंने अपने हाल ही के जयपुर आगमन पर एक आख्यान में उद्धृत की थी, 'जीवन हौसलों से चलता है, हौसले निर्णयों से पैदा होते है, सही निर्णय अनुभवों की देन होते है लेकिन अनुभव, गलत निर्णयों की वजह से ही होते है।'

जीवन में कुछ स्थितियाँ ऐसी भी होती है जहाँ विकल्प हमारी भावनाओं से, हमारे दिल से जुड़े होते है। एक दूसरी तरफ जाने से रोकता है तो दूसरा पहली तरफ। दुविधा की ऐसी विकट घड़ी में आप अपने आपको उस स्थिति से अलग कर देखने की कोशिश करें। आप की जगह कोई और होता तो क्या करता? इस तरह निरपेक्ष भाव से देखने पर आपको सारे पहलू साफ़-साफ़ नज़र आने लगेंगे और तब आपके लिए तय कर पाना कहीं आसान होगा।

सारी दुविधाओं की वजह हमारे गलत पैमाने है जिन पर हम अपने निर्णयों को कसते है। हम उपलब्ध विकल्पों को लाभ-हानि या हार-जीत के तराजू में तौलते है और इसलिए हमेशा मन में हारने का, खोने का एक डर समाया रहता है। निर्णय का पैमाना सिर्फ विकल्प की उपयुक्तता होनी चाहिए। जो देश, काल, समय और परिस्थिति में उपयुक्त हो। जो हमारा कर्त्तव्य है। जिसमें हम सब का भला निहित है। यही निरपेक्ष भाव है जहाँ आपको विकल्पों और परिणामों से मोह नहीं, आपके लिए क्या उचित है, सिर्फ इसका ख्याल है।

सुन-पढ़कर निश्चित रूप से आपको लगेगा कि ऐसे तो इस तरह तो दुनिया में जी पाना सम्भव ही नहीं, लेकिन यही तो मजे की बात है। निरपेक्ष भाव से लिए निर्णय ही हमारे लिए लाभदायक और हमें विजयी बनाते है। सच ही है, हम सभी इस कर्म-भूमि के अर्जुन है तो सारथी कृष्ण भी हमारे ही भीतर मौजूद है, बस जरुरत है हम निर्णय की रासें उस निर्लिप्त कृष्ण के हाथों सौंप दें।


( नवज्योति में रविवार, 17 फरवरी को प्रकाशित) 
आपका 
राहुल .............               

Friday, 15 February 2013

तुम्हें याद दिला दूँ



हजारों साल पुरानी बात है जब ईसाई धर्म अपने शैशव काल में था। इन दिनों उन लोगों को तरह-तरह से कुचला और रौंदा जा रहा था जो ईसाई धर्म की शिक्षाओं में विश्वास करने लगे थे। ऐसे ही एक व्यक्ति थे वेलेन्टीनस, जिन्हें ईश्वर के प्रेम पर अटूट विश्वास था। उन्हें लोगो को भड़काने के जुर्म में कैद कर लिया गया, उन पर मुकदमा चला और पहले से तय फाँसी की सजा सुना दी गई।

कैद के दौरान जेल के चौकीदार ने भांप लिया था कि यह व्यक्ति साधारण नहीं है। वह रोज अपनी अंधी बेटी जूलिया को शिक्षा-संस्कार के लिए उनके पास लाने लगा एक दिन जूलिया ने वेलेन्टीनस से पूछा, " क्या मैं कभी देख पाऊँगी?" वेलेन्टीनस ने जवाब दिया "बेटा ! दिल में प्रेम और परमात्मा में विश्वास हो तो सब कुछ संभव है।" वेलेन्टीनस की प्रेरणा पाकर उस क्षण जूलिया का ह्रदय परम और विश्वास से लबालब हो गया, जहां किसी आशंका की कोई गुंजाईश नहीं थी। उसी क्षण कुछ हुआ, और जूलिया के आँखों की रोशनी वापस लौट आयी। 

दूसरे दिन जब जूलिया वापस अपने गुरु से मिलने पहुँची तब तक उन्हें फाँसी के लिए ले जाया जा चुका था। हाँ, उसे अपने नाम एक पत्र जरुर मिला,-

         मेरी प्रिय जूलिया,

                   शायद हम वापस कभी न मिलें लेकिन एक बात हमेशा ध्यान रखना, मैं तुम्हें हमेशा 
                   प्रेम करता रहूँगा। तुम मुझे बहुत प्रिय हो। मैं हमेशा तुम्हारे पास हूँ, तुम्हारे दिल में 
                   ही तो रहता हूँ। मुझे तुम में पूरा विश्वास है। 

                                                                                                            तुम्हारा,
                                                                                                            वेलेन्टाईन

           .......... और ह्रदय के असीमित प्रेम ने वेलेन्टीनस को 'सेंट वेलेन्टाईन' बना दिया और जिस तरह उन्होंने अपने प्रेम और विश्वास का इज़हार जूलिया से किया वही याद रखने और उन्हें आदरांजलि देने के लिए हम हर साल यह दिन 'वेलेन्टाईन डे' के रूप में मनाने लगे।

यह दिन है एक-दूसरे को याद दिलाने का कि आपका प्रेम बिना शर्त है, यह विश्वास दिलाने का कि हर स्थिति में आप उनके साथ है और यह भरोसा दिलाने का कि आपको उनमें पूरा विश्वास है। आपको नहीं लगता यह अहसास ही काफी है व्यक्ति के लिए वह सब कर गुजरने के लिए जो साधारण स्थितियों में उसके लिए सम्भव ही नहीं। इसीलिए इस दिन की महत्ता और बढ़ जाती है। यह दिन उन लोगों को स्वयं से परिचय कराने का है जिनसे आप प्रेम करते है। आप अपनी भावनाओं का इजहार कर अपने प्रिय की मुलाकात उसकी असाधारणता से करवाते है।

अनाश्रित प्रेम और अखंडित विश्वास से अधिक पवित्र इस दुनिया में और कुछ नहीं। परमात्मा के प्रति इसी प्रेम और विश्वास ने जूलिया के आँखों की रोशनी लौटा दी। यदि हम अपने जीवन में अपने प्रियजनों को इसी प्रेम और विश्वास के लिए प्रेरित कर सकें, तो यह दुनिया निश्चित ही स्वर्ग से बेहतर होगी।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 10 फरवरी को प्रकाशित) 
आपका 
राहुल .............

Friday, 8 February 2013

अर्थ, कर्म और जीवन



वॉरेन बफ़ेट, दुनिया के तीसरे सबसे धनी व्यक्ति, 2012 में 'टाइम' मैग्जीन द्वारा प्रमाणित दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति। जिनकी कुल सम्पत्ति 46 बिलियन डॉलर यानि करीब 2,53,000 करोड़ रुपये। जिन्होंने अपनी सम्पति का 99% भाग 'बिल एंड मेलिंदा फाउंडेशन' को दान कर दिया। जिन्होंने दुनिया के 20 सबसे अमीर व्यक्तियों को इकट्ठा कर यह समझाने की कोशिश की, कि उन्हें अपनी सम्पति का आधा हिस्सा परोपकार में लगा देना चाहिए। जो आज भी अपने उसी पुराने घर में रहते है जो उन्होंने आज से 50 साल पहले ख़रीदा था। अमेरिका के नेबरस्का के पास ओहामा में उनका तीन कमरों का निवास बिल्कुल सामान्य पड़ोस की तरह जान पड़ता है। इन सारी बातों में यही वो बात थी जिसने मेरे मन को आन्दोलित किया। उनके रहन-सहन के बारे में और जानकारी जुटाने की कोशिश की तो आश्चर्य हुआ कि न तो वे अपने साथ मोबाइल रखते है और न ही उनकी ऑफिस टेबल पर कोई कम्प्यूटर ही है।

वॉरेन बफेट मुझे जीता-जागता उदाहरण लगे जो धन का उपयोग कर रहे है धन उनका उपयोग नहीं कर रहा। चीजें हमारे जीवन को नहीं चलाए, जीवन को चलाने के लिए हम चीजों को उपयोग में लें। आजकल हमारी हालत तो ऐसी है कि किसी कारण से कुछ घंटों मोबाइल न बजे तो बेचैनी-सी होने लगती है। लगता है हमारी कहीं जरुरत ही नहीं या हमारे पास कोई काम ही नहीं। बच्चे कहीं ऐसी जगह चले जाएँ जहां टी.वी. नहीं हो तो उन्हें ऑक्सीजन की कमी महसूस होने लगती है और महिलाएँ यदि फैशन या चलन की जानकारी न रख पाएँ तो उन्हें लगता है, वे पिछड़ गयी है, कहीं उनका आकर्षण कम न हो जाएँ। 

ये छोटी-छोटी बातें यहीं तक सीमित नहीं है, ये हमारी पूरी मनोदशा को रेखांकित करती है। आप कहेंगे, हमने मेहनत से पैसा कमाया है तो हमारा हक़ बनता है कि हम उसका भरपूर आनन्द लें। दूसरी तरफ, ये भी ठीक है कि कम और ज्यादा का कोई मापदण्ड नहीं होता जो आपके लिए कम है वही किसी के लिए बहुत ज्यादा है। अनावश्यक है, फिजूल है। आपकी दोनों बातें बिल्कुल ठीक है लेकिन जरुरत है इन दोनों को उधेड़ने की। पहली बात तो 'धन का आनंद', वो तब ही संभव है जब तक धन, आप जैसी जिन्दगी चाहते है उसे पाने में आपका सहयोग करें न कि उसकी मात्रा यह निश्चित करे कि आप कैसा जीवन जिएँगे। दूसरी बात, 'कम या ज्यादा', तो ये पैमाना सिर्फ आपका अपना होगा आप जिन और जितनी चीजों के साथ सहज है वही आपके लिए बिल्कुल ठीक है, उचित है, न कम न ज्यादा।

जीवन की आधारभूत जरूरतें हमारे कर्म की प्रेरणा हो सकती है लेकिन उसके बाद यह हमारी रचनात्मकता की अभिव्यक्ति ही है। हमारा पुरुषार्थ, हमारी उद्यमशीलता ही है। आप कितना कमाते है और आप कैसे रहते है, ये दोनों अलग-अलग बातें है।  आपकी रचनात्मकता आपको अधिक से पुरुस्कृत करती है तो यह ख़ुशी और संतुष्टि का प्रसंग है। यह प्रकृति ओर से दी आपको दी गई शाबासी है, लेकिन यहाँ एक अहम् प्रश्न स्वतः पैदा होता है कि फिर व्यक्ति सहज जीवन से अतिरक्त धन का क्या करें? इसका उत्तर चाणक्य देते है। वे कहते है, धन की केवल तीन गतियाँ होती है; उपभोग, दान एवं विनाश। उचित उपभोग के बाद शेष बचे धन को दान, यानि परोपकार में लगाना ही श्रेष्ठ है वरन उसका विनाश निश्चित है। आप इस सृष्टि के ताने-बाने का एक तागा है, और वस्त्र की सुन्दरता भी आप ही की जिम्मेदारी है।

यही वॉरेन बफेट ने किया। जीवन के साथ अपनी सहजता को बनाए रखा वरना क्या जरुरत थी कि एक प्राइवेट विमान कम्पनी का मालिक, यात्री विमान के इकॉनोमी क्लास में सफ़र करें। आप भी उस बिन्दु को तलाशें जहां आपका रहन-सहन और सहज-जीवन आपस में मिलते हों। यहाँ जिन्दगी की डोर आपके हाथ में होगी और आपकी समृद्धि आपके जीवन में आनन्द की सहायक होगी।


( रविवार, 3फरवरी को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका 
राहुल ..........  

Saturday, 2 February 2013

प्रेरणा




प्रिय दोस्तों,
        नमस्ते,

                26 जनवरी के अवकाश के कारण 27, रविवार को अख़बार नहीं छपे और मुझे मौका मिल गया कि मैं आपसे कुछ विशेष, कुछ अलग हट के साझा कर सकूँ।

रूस के प्रसिद्द कवि वसिली सुखोम्लीन्सकी की यह कविता मुझे एक पेंटिंग एक्जीबिशन में मिली। पोस्टकार्ड साइज में छपी यह रचना पेंटर बतौर अपने विजिटिंग कार्ड इतेमाल कर रहा था। मुझे इतनी भायी की कुछ दिनों बाद मैंने इसे फ्रेम करवा अपने स्टडी टेबल की दीवार पर लगा लिया। मुझे इस कविता ने हमेशा ही प्रेरणा दी है, शायद आपको भी पसंद आए;  


प्रेक्षण करना, सोचना,
चिंतन मनन करना,
श्रम से ख़ुशी पाना 
और अपने कार्य पर गर्व करना,
लोगों के लिए सुन्दरता 
और ख़ुशी की रचना करना 
और उसमें सुख पाना,
प्रकृति,संगीत और कला के सौंदर्य 
पर विमुग्ध होना 
और इस सौंदर्य से 
अपने आत्मिक जगत को समृद्ध बनाना,
लोगों के दुःख-सुख में 
हाथ बंटाना --

यही है 
चरित्र निर्माण का 
मेरा आदर्श 


अगले सप्ताह फिर से नवज्योति के स्थायी स्तम्भ के जरिये आपसे फिर मुलाक़ात होगी,  

आपका 
राहुल ......