Saturday, 22 April 2017

बड़ी दूर तक जाता है ये






दिल्ली से जयपुर का सफर था, ट्रेन रवाना होने को थी कि एक भाई साहब भागते-दौड़ते पहुँचे। कूपे की छः बर्थ के हम पाँच मुसाफिर पहले से बैठे थे और थोड़ी-थोड़ी गप्पें लगना शुरू हो गयीं थी। बातों का सिलसिला जारी रखते हुए, हम थोड़ा खिसके कि वे भी बैठ जाएँ। हमें कहाँ मालूम था कि उनका मूड उखड़ा हुआ है। उन्होंने अपना सीट नम्बर तलाशा जो कि खिड़की के पास वाला था। वहाँ एक महिला बैठी थी जो अपना लैपटॉप जमाकर काम भी कर रही थी और हमसे बातें भी। 'ये सीट तो मेरी है', भाई साहब बोले। उनकी आवाज में इतनी खीझ और झुंझलाहट थी कि हम सब चुप हो, उनकी तरफ देखने लगे। 

ट्रेन में सोने से पहले नीचे वाली बर्थ पर तीन लोग साथ ही तो बैठते हैं, खिड़की से सटी जगह उन भाई साहब की थी और उसके बाद वाली उस महिला की और फिर मेरी। यानि बिल्कुल पास-पास लेकिन उनकी बॉडी लैंग्वेज को देख उस महिला ने भी उन्हें कुछ नहीं कहना ही उचित समझा, और वो बाहर निकल आयी। हम सब ही शायद मन ही मन सोच रहे थे, ये खडूस कहाँ से आ गया पर किसी ने चेहरे से भी इसका इजहार नहीं होने दिया और फिर से हम अपनी बातों में लग गए। उन भाईसाहब ने इतने में अपना मोबाइल निकाला और किसी पर भड़कने लगे। उनकी बातों से ही लग रहा था कि वे कॉरपोरेट वर्ल्ड के बाशिन्दे हैं, और अपने जूनियर्स से बात कर रहे हैं। वे गुस्से में थे इसलिए तेज बोल रहे थे। 

आधा घण्टा लगा होगा, वे नॉर्मल होने लगे, और फिर धीरे-धीरे हमारी बातों में शामिल। हमें भी कहाँ गाँठ बाँधनी थी, ज्यादा से ज्यादा घण्टा भर और जागते, सुबह जयपुर और सब अपने-अपने घर। शायद ही कभी वापस मिलना हो। 
जिन्दगी में भी यही होता है पर प्रकृति ऐसा छलावा खेलती है कि हम याद ही नहीं रख पाते कि कुछ सालों बाद हम सब को भी बिछड़ना है। काश! हमें ये याद रह पाता तो एक-दूसरे को माफ करना, वो जैसा है उसे स्वीकार करना कितना आसान हो जाता। 
खैर, बातें चल रही थी, कि अचानक उन्होंने कहा, सॉरी, मैंने आते ही जिस तरह सीट के लिए कहा। वो एक्चुअल में हफ्ते भर पहले की ही बात है, मुझे एक जरुरी प्रेजेंटेशन बनानी थी, खिड़की के पास वाली सीट उस दिन भी एक महिला की ही थी। मैंने उससे रिक्वेस्ट की, कि वो एक घण्टे के लिए मुझे वहाँ बैठने दे दे। मुझे अपने लैपटॉप और फाइलों के साथ काम करना है तो थोड़ी आसानी होगी, पर वो महिला तो वापस ऐसे बोली जैसे उसने वो सीट खरीद ही ली हो। 

क्या कहता हम में से कोई, पर उस महिला ने जो आज उनकी जगह पर बैठी थी, असहजता तोड़ते हुए कहा, कोई बात नहीं। हो जाता है हम सब से कभी-कभी ऐसा। मुश्किल से एक या दो मिनट गुजरे होंगे कि वे कहने लगे, आप सब ने सोचा होगा कि कैसा आदमी है जो अपने जूनियर्स से ऐसे बात कर रहा है। पर, क्या बताऊँ आपको? कल की ही बात है, दिल्ली हैडऑफिस ने अचानक मीटिंग कॉल कर ली। मैं जयपुर से रवाना हुआ, इन्हीं जूनियर्स को कहकर कि वे मुझे जरुरी इनपुट देंगे, और सुबह जल्दी उठ में प्रेजेंटेशन तैयार कर लूँगा। पर इन्होंने ऐसी बुरी की मेरे साथ, रात के दस बजे तक तो फोन नहीं उठाए, फिर उठाए तो देर रात तक इनपुट्स भेजने का कहा, सुबह उठा, मेल खोली तो पाया सारे के सारे आधे-अधूरे। बड़ी मुश्किल से अपने लैपटॉप पर पुराने स्टोर्ड डाटा के भरोसे दौड़ते-भागते मीटिंग अटेन्ड की और अपनी जान बचायी। 
उन्होंने फिर अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगी, और बात आयी-गयी हो गयी। 


मैं सोचने लगा, हम अपने व्यवहार को लेकर कितने बेपरवाह होते हैं लेकिन ये कितनी दूर तक जाता है। किसी के साथ हमारा व्यवहार हमारा आपसी मसला ही नहीं होता बल्कि न जाने कितनों को प्रभावित कर रहा होता है। खासकर हम अपनों के साथ तो कुछ ज्यादा ही लापरवाह होते हैं कि कभी मना लेंगे। ख्याल ही नहीं आता कि ऐसा कर हम तब तक उन्हें उस मनोस्थिति में छोड़ रहे हैं जहाँ वे उन भाई साहब की ही तरह दूसरों के साथ व्यवहार करने लगेंगे। और हम ही वजह होंगे उस व्यवहार के बाद में उनके शर्मिन्दा होने और माफी माँगने के पीछे। अरे बापरे! इतनी बड़ी कीमत चुका रहे होते हैं हम अपनी इस बेपरवाही की। 

Saturday, 4 February 2017

शिकायत जरुरी




बहुत बड़े संयुक्त परिवार के मुखिया हैं वे। गर्व और संतुष्टि के भाव से बता रहे थे, "मैंने तो अपने परिवार की सारी लड़कियों को विदा करते समय ही कह दिया था, बेटा! कभी अपने ससुराल से कोई शिकायत लेकर मत आना। और सभी ने आज तक तो मेरी बात रखी है।" कई लोग थे हम, किसी शादी में ही मिलना हुआ था और उनके अनुभवों का लाभ ले रहे थे। उनकी बात सुन हम सब की आँखों में प्रशंसा के भाव थे लेकिन मेरी आँख में शायद कोई किरकिरी रल रही थी। बात कानों को तो अच्छी लग रही थी  पर दिल अपने अन्दर आने नहीं दे रहा था। और मेरा दिमाग, बिना पूछे ही काम पर लग गया। 

कोई शिकायत ना लायें? तो बिटिया किसके पास जाए? क्या हर शिकायत गलत ही होती है? क्या शान्ति, सुकून और अच्छा लगने के नाम पर वो बस 'एडजस्ट' करते चली जाए?
नहीं, ऐसा तो किसी हालत में नहीं होना चाहिए। 
ये मतलब शायद उन बुजुर्ग का भी नहीं रहा होगा। वे कहना चाहते होंगे कि बिटिया वहाँ सब ही से अच्छे से पेश आए। नए रिश्तों को स्वीकारे, और सुने यह मानकर की कहने वाला भी उसका अपना है। ये रिश्तों के मिट्टी का खाद-पानी होगा जो दाम्पत्य-जीवन के वृक्ष को हरा-भरा रखेगा। 
कोई बुजुर्ग और क्या 'भलावण' देगा भला। 

लेकिन परम्पराओं से चले आ रहे ये शब्द इतनी अच्छी बात को कितने गलत अर्थों के साथ पहुँच रहे थे। जैसे उसके लिए सारे दरवाजे बन्द हो गए हो। जो है, जैसा है उसे बस निभाना है। उसे ही अपने आप को बदलना है क्योंकि यही हिदायत मिली है उसको। और हम, उसके शिकायत ना करना उसका सुखी होना समझ लेते हैं। पर, हम जानते हैं कई बार ऐसा नहीं भी होता। 

बचपन से हर छोटी बात में उसकी मदद को तैयार रहते हम माँ-बाप, जिन्दगी के इतने अहम पड़ाव पर उसे यूँ अकेला कैसे छोड़ सकते हैं? जब भाई-बहनों को सुलह-सफाई की जरुरत होती है, तो नव-दम्पति को ऐसी जरुरत हो इसमें गलत क्या है? फिर छोटे बच्चों को समझाना तो आसान होता है जबकि बड़े बच्चों का 'ईगो' को आकार ले चुका होता है। हाँ, ये जरूर एहतियात बरतनी होगी कि हम किसी का पक्ष ना लें, दोनों को पूछें, सुनें और उनकी मदद करें। लेकिन यदि सचमुच हमारी बिटिया को कोई शिकायत है तो उसे भरोसा होना चाहिए कि कहीं हो न हो दुनिया में एक जगह है जहाँ जाकर वो अपना दिल हल्का कर सकती है, जहाँ से कोई न कोई रास्ता तो अवश्य निकलेगा। 

तो जो मैं समझा वो ये कि,
शिकायत तो करनी होगी, और शिकायत करना कतई गलत नहीं होता। बल्कि शिकायत तो वही करता है जिसमें आत्म-विश्वास हो। पर अकेले आत्म-विश्वास का होना भी तो काम नहीं आता। कई बार आत्म-विश्वास हो भी तो हम सब के पास शिकायत करने की जगह नहीं होती। खुशकिस्मत होते है जिनके पास कोई होता है जिसके पास वे अपनी शिकायत कर सकें! 
तो जवाब में प्रश्न उठता है कि हम किन-किन को वो भरोसा दिला पा रहे हैं? हमारे कितने अपने निर्भीकता से हमारे पास आ अपनी शिकायत कर सकते हैं? और यदि नहीं, तो ऐसा कर पाने के लिए हम क्या कर रहे हैं? 

Tuesday, 10 January 2017

पूजा के फूल





पहाड़ी गाँव में रहती थी वो। रोजाना सुबह झरने से पानी लाना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था। एक गडरिए की तरह दोनों कन्धों पर एक लाठी और दोनों सिरों पर एक-एक घड़ा। अकेली जान को दिन भर के लिए इतना पानी काफी होता था। पर, उसमें से एक घड़ा थोड़ा रिसता था जिसे वो हमेशा अपने बायें हाथ की तरफ बाँधती थी। झरना दूर था और घर पहुँचते-पहुँचते घड़े में आधा पानी ही बचता। घड़े को बहुत ग्लानि होती। सोचता, कैसा हूँ मैं? कितना गया-गुजरा! जितना पानी ला पाने के लिए बना हूँ, उससे बड़ी मुश्किल आधा ही ला पाता हूँ। मैं चाहकर भी कभी दूसरे घड़ों जैसा नहीं हो पाऊँगा! क्या सोचती होगी अम्मा मेरे बारे में? ये तो ठीक है, वे हैं कोई दूसरी होती तो कभी का मुझे पटक चुकी होती। कैसा जीवन है मेरा! उनकी दया पर जिन्दा हूँ। इससे तो अच्छा हो उनसे पानी भरते हुए मैं किसी से टकरा जाऊँ, और वहीं बात खत्म। 

ऐसा सोचते-सोचते दो साल बीत गए। ग्लानि कुण्ठा की गाँठ बन चुकी थी और एक दिन फूट पड़ी। उसने अम्मा से कहा, आप क्यों मुझे इतना सँभाले हुए हैं? फेंक क्यों नहीं देती कहीं? इस उम्र में इतनी मेहनत करती हो आप। मुझे भर, पूरा वजन उठाती हो और मैं घर पहुँचते-पहुँचते आधा रीत जाता हूँ। क्यों करती हो आप ऐसा? दायें वाला कितना अच्छा है। वैसा ही दूसरा बाजार से क्यों नहीं ले आती?

अम्मा हौले से मुस्करायी, बोली, क्या आते हुए तुमने कभी रास्ते पर ध्यान दिया है? तुम्हारी ओर कैसी फुलवारी होती है पर ऐसा दाँयीं ओर नहीं है। पता है क्यूँ? क्योंकि तुम में से पानी रिसता है। पिछले दो सालों से तुम रास्ते के बायीं ओर के पौधों को रोजाना पानी पिला रहे हो। तुम्हारी वजह से वो रास्ता आबाद, खुशगवार है और मालूम तुम्हें, ये जो रोज पूजा में ताजे-सुगन्धित फूल मैं चढ़ा पाती हूँ, उसकी वजह तुम ही हो। वरना इस उम्र में मैं कहाँ जाती फूल चुनने। तुम तो अब तक के सारे घड़ों में मुझे सबसे प्रिय हो। अब तो उस रिसते घड़े की आँखों में भी पानी था। 

ये चीनी लोक-कथा मैंने कहीं पढ़ी, कितनी मार्मिक!
और इससे जो मैं समझा वो ये कि 
रिसने में ही उस घड़े की सार्थकता थी। जिसे वो आज तक अपनी कमी और दुर्भाग्य समझता आया था वही उसकी खास बात थी। उसी वजह से तो वो अम्मा को इतना प्यारा था। उसका जीवन-उद्देश्य अम्मा के लिए ताजे-सुगन्धित पूजा के फूल जुटा पाना था और ये उसके रिसते रहने से ही सम्भव था। 
तो, हम जैसे हैं ठीक हैं, यही हमारा होना है और जरुरी भी क्योंकि इसके बिना हमारा अपने उद्देश्यों को पूरा करना सम्भव नहीं। यही वो बात है जो हमें सबसे अलग करती है और हमारे अपनों की नजरों में चढ़ाती है। इसी वजह से ही हमारे जीवन में सुन्दरता है और हम प्रेम के लायक।  

Wednesday, 16 November 2016

खेल-खेल में







आज ही तो मिला था उसे खिलौना, और उसने पूरा खोल दिया था उसे। अब लगा था अस्थि-पंजर जोड़ने। ऐसा वो ही नहीं सारे बच्चे ही करते हैं। वे अचम्भित होते हैं उसे बजता, कूदता, नाचता देख और फिर रह नहीं पाते कि ये होता कैसे हैं? नतीजा, तितर-बितर हो जाता है वो बेचारा। बहुत कम ही बार होता है कि वो वापस से जुड़ पाता है, लेकिन जब कभी ऐसा हो पाता है एक अजब सी पुलक उनके चेहरे पर होती है, जैसे कलिंग विजय कर ली हो। 

धीरे-धीरे ये छोटी-छोटी विजयें हमारे सीने पर होशियार होने का तमगा लगा देती है और इसके साथ ही हम बड़े होते जाते हैं। ये भूल जाते हैं कि ये सब तब की बातें थीं, हमारा कौतूहल था, इसका मूलतः हार-जीत से कोई लेना-देना नहीं था। वो तो बस सहज परिणाम थी, पर बड़े होकर हम सहज कहाँ रह जाते हैं। कौतूहल अहं में तब्दील हो चुका होता है। अब तो, हमें रोज जीतना होता है, ये हमें सन्तुष्टि का अहसास देता है, हमारे होने को स्वीकृति देता है लेकिन इसके लिए जरुरी है कि कुछ बिखरा हो। तब ही तो हम जोड़ पायेंगे, जीत पायेंगे और और जब ऐसा नहीं होता तब बच्चों की ही तरह बिखेरने-फैलाने लगते हैं। इस बात का मुझे अहसास उस दिन हुआ जब बिना वजह मैं अपने चारों और अपनों के बारे में सोचने लगा था। मुझे तो नहीं लगता, पर उनकी नजर में वे समस्याओं से घिरे थे। बिल्कुल वैसे ही जैसे, 'जवानों चारों और से दुश्मन ने हमें घेर रखा है, गोली जिधर चलाओगे दुश्मन ही मरेगा।' वे गोलियाँ चलाने में लगे हैं लेकिन छलनी भी खुद ही हो रहे हैं, क्योंकि दुश्मन तो असल में कहीं है नहीं और लड़ने में जो जान निकल रही है सो अलग। 

ऐसा नहीं, कुछ बातें, कुछ परिस्थितियाँ होती हैं जिन्हें किसी भी हालत में हमारी जिन्दगी में नहीं होना चाहिए, और इन्हीं से अनवरत युद्ध असल जीवन है लेकिन वे बहुत थोड़ी, बहुत गहरी होती हैं। रही बात रोजमर्रा की तो ऐसे लगता है जैसे हमें समस्याओं से प्रेम है। हम चाहते हैं उनका हमारी जिन्दगी में होना। ये मौका देती है हमें उन्हें हल करने का जो हमारे अहं को सन्तुष्ट करता है। नहीं मिलती है तो हम ढूँढने लगते है, और ढूँढते हैं तो किसी कोने में कोई छोटी सी दुबकी मिल भी जाती है और ऐसा भी नहीं हो पाता, तो सोच-सोच कर पैदा कर लेते हैं। फिर हमें अच्छा लगता है, हम थकते हैं, तनाव से भरते हैं पर जीतने की इच्छा बरकरार रहती है। 

तो जो मैं समझा वो ये कि 
जिन्दगी को उसकी अपूर्णता के साथ ही स्वीकार करना होगा। कुछ भी 'परफेक्ट' नहीं, और यही सौन्दर्य है, फिर हम क्यूँ लगे हैं अपनी जिन्दगी को 'परफेक्ट' बनाने में। जिन्दगी सहज, सरल है और इसका आनन्द लेना है तो वैसा ही बन कर लिया जा सकता है। उसकी यही 'रिदम' है। हम बहुत कुछ कर सकते हैं, पर योजनाएँ जिन्दगी की होंगी। उन्हें होने देना और सफल बनाना ही पुरुषार्थ है। 
सब कुछ हल नहीं करना होता और हर अनचाही स्थिति समस्या नहीं होती। 
हमारी योग्यता अहं बन जीवन के आनन्द को कम न करने पाए।  

Monday, 17 October 2016

इसमें उसकी कोई गलती नहीं







काम पड़ गया था उससे फिर एक बार। हर बार सोचता था अब कभी इससे दिमाग नहीं लगाऊँगा, लेकिन हर बार स्थितियाँ ऐसी बनती कि अन्ततः अपने आपको उससे बात करते पाता। इस बार फोन पर उधर से आ रही आवाज में एक विश्वसनीयता झलक रही थी, और अन्त तो इस तरह हुआ कि, "जो भी होगा मैं आपको बताऊँगा, 'हाँ' होगी तब भी और 'ना' होगी तब भी, और वो फलाँ तारीख की शाम को नहीं तो अगले दिन सुबह।"

बड़े भरोसे में वे तीन दिन बीते, फिर वो शाम भी और फिर अगले दिन की सुबह भी। मैंने सोचा, कुछ हो गया होगा! लग जाता है समय किसी को भी, एक दिन तो और देखना चाहिए, यूँ जल्दबाजी करना भी ठीक नहीं ........ वो दिन भी बीता। अगले दिन मैंने फोन लगाया और वो नहीं उठा। मैंने अलग-अलग समय पर, गैप दे, कांटेक्ट करने की कोशिश की। उसे नहीं उठाना था उसने नहीं उठाया। हर बार झुँझलाहट बढ़ती, और अन्तिम कोशिश गुस्से में तब्दील होकर बन्द हुई। मैं फिर वही मन्त्र दोहरा रहा था, आईन्दा कभी इस आदमी से दिमाग नहीं लगाऊँगा। 

काम किसी के भरोसे नहीं रहता, मेरा भी निकल गया, मन कुछ शान्त हुआ और मैं सोचने लगा, कुछ तो है जो मैं नहीं सीख रहा हूँ तब ही तो हर बार इस झुँझलाहट और गुस्से का शिकार होता हूँ। और ना जाने कहाँ से पृथ्वीराज चौहान-मोहम्मद गौरी की दास्ताँ याद हो आयी और पूरी बात समझ में आ गई। क्षमा सदगुण है लेकिन किसी व्यक्ति के स्वभाव को नहीं पहचानना लापरवाही। क्योंकि मुझे जरुरत थी, क्योंकि उसका लहजा विश्वसनीय था, इससे उसका स्वभाव नहीं बदल जाता। वैसे भी किसी के स्वभाव का बदल पाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। ये कोई और नहीं खुद व्यक्ति ही कर सकता है, वो भी केवल चाहने भर से नहीं होता बल्कि लगातार वर्षों के अथक प्रयासों का परिणाम होता है। उसने जो किया, वो वैसे ही कर सकता था। इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। गलती मेरी थी कि मैंने उससे उसके स्वभाव से विपरीत आचरण की उम्मीद की। 

तो, जो मैं समझा वो ये कि 
हमें निश्चित ही छोटी-छोटी बातों में किसी के बारे में राय नहीं बनानी चाहिए, यानी 'जजमेंटल' नहीं होना चाहिए। हमारा व्यवहार काफी कुछ उन परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है जिनसे उस समय हम गुजर रहे होते हैं लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि हम किसी के स्वभाव को समझे ही ना। समझना होगा कि, व्यक्ति अपने स्वभाव के विपरीत आचरण तो चाह कर भी नहीं कर सकता। 
और प्रकृति का वरदान हैं हमारे में अच्छे-बुरे में भेद करने की क्षमता का होना। ऐसा न कर हम अपने ही रास्ते में खड़े होते हैं। ये वैसे ही है जैसे हम अहिंसा के नाम पर अपनी आत्म-रक्षा से ही परहेज करने लगें।  

Thursday, 15 September 2016

सहज ही सही






बात ही कुछ ऐसी थी, मैंने अपने मित्र के साथ कोई काम शुरू किया था और आज बातचीत आपसी लेन-देन पर होनी थी। एक जगह आकर उसने कहा, देख लेना यार, इसे और सोचना 'स्ट्रेस' पैदा कर रहा है इसलिए मैं आगे नहीं सोच रहा। बात यहीं खत्म हो गई और हमने एक-दूसरे से विदा भी ले ली पर मैं मन ही मन अभी भी उसे देख रहा था, सुन रहा था। बहुत कम बार होता है जब मैं किसी को अपने सहज होने को लेकर इतना सजग, इतना गम्भीर पाता हूँ। हम तो ये ख्याल ही नहीं रख पाते कि निर्णय न लेना भी एक विकल्प होता है। इसके लिए हम नहीं वो घुट्टी दोषी होती है जिससे हम समझ आने के पहले दिन से सीख जाते हैं कि जीवन में अवसर बार-बार नहीं आते, पर कभी न कभी आते जरूर हैं इसलिए सफल होना हो तो हर क्षण ताक में रहना चाहिए और जैसे ही आये उन्हें झपट लेना चाहिए। 
हम इसे यूँ कभी देख ही नहीं पाते कि जिन्दगी का तो हर क्षण दो राहा होता है,- ये करें या वो, और हर बार हम उसमें से एक को चुनते हैं। यानि जिन्दगी का हर क्षण एक अवसर है, सहजता और तनाव में से किसी एक को चुनने का। 
क्योंकि आखिरकार ये जिन्दगी है, कोई चूहे-बिल्ली का खेल नहीं। 

हमारी संवेदनाएँ मन से आए संकेत होती हैं यानि तनाव होना ही नकारात्मक संकेत है, इस बात का कि या तो आप सही दिशा में नहीं या अभी सही समय नहीं और ऐसी स्थिति में कुछ तय नहीं करना ही ज्यादा ठीक। तो बेहतर है, यदि रिश्ते विश्वास के हों तो अगले पर छोड़ दें नहीं तो प्रकृति पर। प्रकृति के पास अनगिनत तरीके हैं सही समय पर आपको सही जवाब देने के। वैसे भी, हर बात के होने का एक समय होता है, वो न तो उसके पहले होनी चाहिए और न ही उसके बाद, ठीक एक बच्चे के जन्म की तरह। कई बार हम जरूर अपनी इच्छाओं के चलते कुछ जल्दबाजी मचाने लगते हैं, पर ऐसे करने से होता कुछ नहीं अलबत्ता बात बिगड़ती ही है। आप क्या आप से बात करते-करते, मैं भी सोचने लगा हूँ कि जिन्दगी हमेशा इतनी आसान तो नहीं होती कि आप इतना सीधा-सीधा सोच पाओ। कई मौके ऐसे होते हैं जब हमें कुछ न कुछ निर्णय लेने ही होते हैं, उनका समय आ चुका होता है चाहे वे कितने ही तनाव भरे क्यूँ न हों। पर जब बहुत सोचा तो पाया, सच में वे निर्णय तनाव भरे नहीं होते। हमें हर बार मालूम होता है कि हमें करना क्या चाहिए। हाँ, कई बार हमें करना वो होता है जो हम करना नहीं चाहते। उन निर्णयों के परिणाम हमें पसन्द नहीं होते और तब हम हर सम्भव कोशिश में जुटे होते हैं कि वे किसी तरह टल जाएँ। पर ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि जीवन प्रकृति से बँधा है और प्रकृति नियमों से। 

तो जो मैं समझा, 
वो ये कि यदि आप सहज हैं तो सही हैं, और यदि ऐसा नहीं तो कहीं न कहीं गड़बड़ तो है। 
ऐसा है तो रुकिए, टटोलिये और तब आगे बढिए, यही एकमात्र रास्ता है।  
और ऐसे निर्णय जिन्हें लेना तनाव से भरता हो, उन्हें लेने में उनके परिणामों की बजाय अपनी सहजता को प्राथमिकता दें। यदि ऐसा किया तो धीरे-धीरे ही सही हम उस दिशा में बढ़ते चले जाएँगे जहाँ से परिणाम हमारे पक्ष में आने शुरू होंगे, और यही तो हम चाहते हैं। 

Thursday, 1 September 2016

मन की आजादी









'तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है', नीरज जी की ये मार्मिक कविता कितनी माफिक बैठती है हम पर। कितने आगे आ गए हम इन सत्तर वर्षों में, पर मन जैसे दिन-ब-दिन गुलाम होता जा रहा है। जैसे सुबह से शाम तक हम को कोई हाँक रहा हो। सुबह उठने के बाद हम तय नहीं करते हैं कि हम क्या करेंगे और क्या नहीं, ये तो पहले से ही तय होता है। एक लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त तैयार होती है जिसकी हर बात या तो 'पड़ेगा' पर खत्म होती है या 'चाहिए' पर, शायद ही कभी इनकी जगह 'चाहता हूँ' आता हो। 


मजे की बात तो ये कि कोई हमें टोके इसके पहले हमारे पास इसके जवाब मौजूद होते है, जिनका घुमा-फिरा कर मतलब 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट' के इर्द-गिर्द होता है यानि अच्छे से जीवन गुजारना है, बने रहना है तो ये सब तो करना ही होगा। मतलब गुलामी तो है ही हमने उसे स्वीकार भी कर लिया है। तन की गुलामी जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के भेष में आयी थी मन की ये गुलामी सफलता के भेष में आती है और तनाव की जंजीरों से हमें जकड़ लेती हैं। सफल होना है तो खूब काम करना होगा और काम अगर इतना होगा तो जिन्दगी में तनाव तो होगा ही, इस बात पर हमें यकीं ही नहीं है गाहे-बगाहे हम अपने से छोटों को तर्कों-वितर्कों से इस पर यकीं करवाते हुए मिल भी जाएँगे। 

क्या सचमुच ऐसा होगा? क्या मन का गुलाम रहना सफल जिन्दगी की कीमत है? ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा तो नहीं हो सकता, फिर गड़बड़ कहाँ हैं? ये 'पड़ेगा' और 'चाहिए' ही शायद सबसे बड़ी झंझट है। यदि बिल्कुल नहीं तो कम से कम ऐसा हो कि फलाँ काम करना ही पड़ेगा या फलाँ काम मुझे करना ही चाहिए, तब हमारा मन सचमुच मुक्त होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, जब काम पर हमारा नियन्त्रण और उसे करने, न करने की स्वतन्त्रता होगी तब ही हमारा मन भी आजाद होगा।  
पर ये कैसे होगा?

तो जो मैं समझा, वो ये कि सबसे पहले तो हमें कुछ जगह खाली करनी होगी यानि कुछ काम या जिम्मेदारियाँ जो अनावश्यक हमने ओढ़  लीं हैं उससे मुक्ति पानी होगी। न जाने कितने ऐसे काम हम रोजाना नियम से करते चले जाते हैं जिनके बारे में एक मिनट भी रुककर देखें भी, तो हमें अहसास हो जाएगा कि उन्हें करने की अब कोई आवश्यकता ही नहीं रही। इसके बाद बचे कामों का नियोजन यानि प्लानिंग करनी होगी। ये प्लानिंग समय के दबाव से मुक्त करेगी। ये समय का दबाव ही तो है जो हमें दौड़ता है और फिर वहीं से तनाव का बनना शुरू होता है। अब रही बात काम को करने या न करने की स्वतन्त्रता की, तो इसके लिए हमें थोड़ा अध्यात्म की तरफ मुड़ना होगा। कहीं अपने काम से होने वाले लाभ से हमें मोह तो नहीं हो गया है? हर क्षण ये चिन्ता कि, कहीं मुझे नहीं मिला तो? इसका मतलब यह भी नहीं की हमें अपने काम से मिलने वाले परिणामों की उत्सुकता या इच्छा न हो, बस इतना ही कि ये उसके चुनने की वजह न हो। ये इच्छा-उत्सुकता बढ़ कर मोह में तब्दील हो हमारा सुख-चैन न छिन लें। 
यदि ये हम कर पाए, समझ पाए तो मैं समझता हूँ, उस दिन हमारा तन ही नहीं मन भी आजाद होगा।