Tuesday, 10 January 2017

पूजा के फूल





पहाड़ी गाँव में रहती थी वो। रोजाना सुबह झरने से पानी लाना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था। एक गडरिए की तरह दोनों कन्धों पर एक लाठी और दोनों सिरों पर एक-एक घड़ा। अकेली जान को दिन भर के लिए इतना पानी काफी होता था। पर, उसमें से एक घड़ा थोड़ा रिसता था जिसे वो हमेशा अपने बायें हाथ की तरफ बाँधती थी। झरना दूर था और घर पहुँचते-पहुँचते घड़े में आधा पानी ही बचता। घड़े को बहुत ग्लानि होती। सोचता, कैसा हूँ मैं? कितना गया-गुजरा! जितना पानी ला पाने के लिए बना हूँ, उससे बड़ी मुश्किल आधा ही ला पाता हूँ। मैं चाहकर भी कभी दूसरे घड़ों जैसा नहीं हो पाऊँगा! क्या सोचती होगी अम्मा मेरे बारे में? ये तो ठीक है, वे हैं कोई दूसरी होती तो कभी का मुझे पटक चुकी होती। कैसा जीवन है मेरा! उनकी दया पर जिन्दा हूँ। इससे तो अच्छा हो उनसे पानी भरते हुए मैं किसी से टकरा जाऊँ, और वहीं बात खत्म। 

ऐसा सोचते-सोचते दो साल बीत गए। ग्लानि कुण्ठा की गाँठ बन चुकी थी और एक दिन फूट पड़ी। उसने अम्मा से कहा, आप क्यों मुझे इतना सँभाले हुए हैं? फेंक क्यों नहीं देती कहीं? इस उम्र में इतनी मेहनत करती हो आप। मुझे भर, पूरा वजन उठाती हो और मैं घर पहुँचते-पहुँचते आधा रीत जाता हूँ। क्यों करती हो आप ऐसा? दायें वाला कितना अच्छा है। वैसा ही दूसरा बाजार से क्यों नहीं ले आती?

अम्मा हौले से मुस्करायी, बोली, क्या आते हुए तुमने कभी रास्ते पर ध्यान दिया है? तुम्हारी ओर कैसी फुलवारी होती है पर ऐसा दाँयीं ओर नहीं है। पता है क्यूँ? क्योंकि तुम में से पानी रिसता है। पिछले दो सालों से तुम रास्ते के बायीं ओर के पौधों को रोजाना पानी पिला रहे हो। तुम्हारी वजह से वो रास्ता आबाद, खुशगवार है और मालूम तुम्हें, ये जो रोज पूजा में ताजे-सुगन्धित फूल मैं चढ़ा पाती हूँ, उसकी वजह तुम ही हो। वरना इस उम्र में मैं कहाँ जाती फूल चुनने। तुम तो अब तक के सारे घड़ों में मुझे सबसे प्रिय हो। अब तो उस रिसते घड़े की आँखों में भी पानी था। 

ये चीनी लोक-कथा मैंने कहीं पढ़ी, कितनी मार्मिक!
और इससे जो मैं समझा वो ये कि 
रिसने में ही उस घड़े की सार्थकता थी। जिसे वो आज तक अपनी कमी और दुर्भाग्य समझता आया था वही उसकी खास बात थी। उसी वजह से तो वो अम्मा को इतना प्यारा था। उसका जीवन-उद्देश्य अम्मा के लिए ताजे-सुगन्धित पूजा के फूल जुटा पाना था और ये उसके रिसते रहने से ही सम्भव था। 
तो, हम जैसे हैं ठीक हैं, यही हमारा होना है और जरुरी भी क्योंकि इसके बिना हमारा अपने उद्देश्यों को पूरा करना सम्भव नहीं। यही वो बात है जो हमें सबसे अलग करती है और हमारे अपनों की नजरों में चढ़ाती है। इसी वजह से ही हमारे जीवन में सुन्दरता है और हम प्रेम के लायक।  

Wednesday, 16 November 2016

खेल-खेल में







आज ही तो मिला था उसे खिलौना, और उसने पूरा खोल दिया था उसे। अब लगा था अस्थि-पंजर जोड़ने। ऐसा वो ही नहीं सारे बच्चे ही करते हैं। वे अचम्भित होते हैं उसे बजता, कूदता, नाचता देख और फिर रह नहीं पाते कि ये होता कैसे हैं? नतीजा, तितर-बितर हो जाता है वो बेचारा। बहुत कम ही बार होता है कि वो वापस से जुड़ पाता है, लेकिन जब कभी ऐसा हो पाता है एक अजब सी पुलक उनके चेहरे पर होती है, जैसे कलिंग विजय कर ली हो। 

धीरे-धीरे ये छोटी-छोटी विजयें हमारे सीने पर होशियार होने का तमगा लगा देती है और इसके साथ ही हम बड़े होते जाते हैं। ये भूल जाते हैं कि ये सब तब की बातें थीं, हमारा कौतूहल था, इसका मूलतः हार-जीत से कोई लेना-देना नहीं था। वो तो बस सहज परिणाम थी, पर बड़े होकर हम सहज कहाँ रह जाते हैं। कौतूहल अहं में तब्दील हो चुका होता है। अब तो, हमें रोज जीतना होता है, ये हमें सन्तुष्टि का अहसास देता है, हमारे होने को स्वीकृति देता है लेकिन इसके लिए जरुरी है कि कुछ बिखरा हो। तब ही तो हम जोड़ पायेंगे, जीत पायेंगे और और जब ऐसा नहीं होता तब बच्चों की ही तरह बिखेरने-फैलाने लगते हैं। इस बात का मुझे अहसास उस दिन हुआ जब बिना वजह मैं अपने चारों और अपनों के बारे में सोचने लगा था। मुझे तो नहीं लगता, पर उनकी नजर में वे समस्याओं से घिरे थे। बिल्कुल वैसे ही जैसे, 'जवानों चारों और से दुश्मन ने हमें घेर रखा है, गोली जिधर चलाओगे दुश्मन ही मरेगा।' वे गोलियाँ चलाने में लगे हैं लेकिन छलनी भी खुद ही हो रहे हैं, क्योंकि दुश्मन तो असल में कहीं है नहीं और लड़ने में जो जान निकल रही है सो अलग। 

ऐसा नहीं, कुछ बातें, कुछ परिस्थितियाँ होती हैं जिन्हें किसी भी हालत में हमारी जिन्दगी में नहीं होना चाहिए, और इन्हीं से अनवरत युद्ध असल जीवन है लेकिन वे बहुत थोड़ी, बहुत गहरी होती हैं। रही बात रोजमर्रा की तो ऐसे लगता है जैसे हमें समस्याओं से प्रेम है। हम चाहते हैं उनका हमारी जिन्दगी में होना। ये मौका देती है हमें उन्हें हल करने का जो हमारे अहं को सन्तुष्ट करता है। नहीं मिलती है तो हम ढूँढने लगते है, और ढूँढते हैं तो किसी कोने में कोई छोटी सी दुबकी मिल भी जाती है और ऐसा भी नहीं हो पाता, तो सोच-सोच कर पैदा कर लेते हैं। फिर हमें अच्छा लगता है, हम थकते हैं, तनाव से भरते हैं पर जीतने की इच्छा बरकरार रहती है। 

तो जो मैं समझा वो ये कि 
जिन्दगी को उसकी अपूर्णता के साथ ही स्वीकार करना होगा। कुछ भी 'परफेक्ट' नहीं, और यही सौन्दर्य है, फिर हम क्यूँ लगे हैं अपनी जिन्दगी को 'परफेक्ट' बनाने में। जिन्दगी सहज, सरल है और इसका आनन्द लेना है तो वैसा ही बन कर लिया जा सकता है। उसकी यही 'रिदम' है। हम बहुत कुछ कर सकते हैं, पर योजनाएँ जिन्दगी की होंगी। उन्हें होने देना और सफल बनाना ही पुरुषार्थ है। 
सब कुछ हल नहीं करना होता और हर अनचाही स्थिति समस्या नहीं होती। 
हमारी योग्यता अहं बन जीवन के आनन्द को कम न करने पाए।  

Monday, 17 October 2016

इसमें उसकी कोई गलती नहीं







काम पड़ गया था उससे फिर एक बार। हर बार सोचता था अब कभी इससे दिमाग नहीं लगाऊँगा, लेकिन हर बार स्थितियाँ ऐसी बनती कि अन्ततः अपने आपको उससे बात करते पाता। इस बार फोन पर उधर से आ रही आवाज में एक विश्वसनीयता झलक रही थी, और अन्त तो इस तरह हुआ कि, "जो भी होगा मैं आपको बताऊँगा, 'हाँ' होगी तब भी और 'ना' होगी तब भी, और वो फलाँ तारीख की शाम को नहीं तो अगले दिन सुबह।"

बड़े भरोसे में वे तीन दिन बीते, फिर वो शाम भी और फिर अगले दिन की सुबह भी। मैंने सोचा, कुछ हो गया होगा! लग जाता है समय किसी को भी, एक दिन तो और देखना चाहिए, यूँ जल्दबाजी करना भी ठीक नहीं ........ वो दिन भी बीता। अगले दिन मैंने फोन लगाया और वो नहीं उठा। मैंने अलग-अलग समय पर, गैप दे, कांटेक्ट करने की कोशिश की। उसे नहीं उठाना था उसने नहीं उठाया। हर बार झुँझलाहट बढ़ती, और अन्तिम कोशिश गुस्से में तब्दील होकर बन्द हुई। मैं फिर वही मन्त्र दोहरा रहा था, आईन्दा कभी इस आदमी से दिमाग नहीं लगाऊँगा। 

काम किसी के भरोसे नहीं रहता, मेरा भी निकल गया, मन कुछ शान्त हुआ और मैं सोचने लगा, कुछ तो है जो मैं नहीं सीख रहा हूँ तब ही तो हर बार इस झुँझलाहट और गुस्से का शिकार होता हूँ। और ना जाने कहाँ से पृथ्वीराज चौहान-मोहम्मद गौरी की दास्ताँ याद हो आयी और पूरी बात समझ में आ गई। क्षमा सदगुण है लेकिन किसी व्यक्ति के स्वभाव को नहीं पहचानना लापरवाही। क्योंकि मुझे जरुरत थी, क्योंकि उसका लहजा विश्वसनीय था, इससे उसका स्वभाव नहीं बदल जाता। वैसे भी किसी के स्वभाव का बदल पाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। ये कोई और नहीं खुद व्यक्ति ही कर सकता है, वो भी केवल चाहने भर से नहीं होता बल्कि लगातार वर्षों के अथक प्रयासों का परिणाम होता है। उसने जो किया, वो वैसे ही कर सकता था। इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। गलती मेरी थी कि मैंने उससे उसके स्वभाव से विपरीत आचरण की उम्मीद की। 

तो, जो मैं समझा वो ये कि 
हमें निश्चित ही छोटी-छोटी बातों में किसी के बारे में राय नहीं बनानी चाहिए, यानी 'जजमेंटल' नहीं होना चाहिए। हमारा व्यवहार काफी कुछ उन परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है जिनसे उस समय हम गुजर रहे होते हैं लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि हम किसी के स्वभाव को समझे ही ना। समझना होगा कि, व्यक्ति अपने स्वभाव के विपरीत आचरण तो चाह कर भी नहीं कर सकता। 
और प्रकृति का वरदान हैं हमारे में अच्छे-बुरे में भेद करने की क्षमता का होना। ऐसा न कर हम अपने ही रास्ते में खड़े होते हैं। ये वैसे ही है जैसे हम अहिंसा के नाम पर अपनी आत्म-रक्षा से ही परहेज करने लगें।  

Thursday, 15 September 2016

सहज ही सही






बात ही कुछ ऐसी थी, मैंने अपने मित्र के साथ कोई काम शुरू किया था और आज बातचीत आपसी लेन-देन पर होनी थी। एक जगह आकर उसने कहा, देख लेना यार, इसे और सोचना 'स्ट्रेस' पैदा कर रहा है इसलिए मैं आगे नहीं सोच रहा। बात यहीं खत्म हो गई और हमने एक-दूसरे से विदा भी ले ली पर मैं मन ही मन अभी भी उसे देख रहा था, सुन रहा था। बहुत कम बार होता है जब मैं किसी को अपने सहज होने को लेकर इतना सजग, इतना गम्भीर पाता हूँ। हम तो ये ख्याल ही नहीं रख पाते कि निर्णय न लेना भी एक विकल्प होता है। इसके लिए हम नहीं वो घुट्टी दोषी होती है जिससे हम समझ आने के पहले दिन से सीख जाते हैं कि जीवन में अवसर बार-बार नहीं आते, पर कभी न कभी आते जरूर हैं इसलिए सफल होना हो तो हर क्षण ताक में रहना चाहिए और जैसे ही आये उन्हें झपट लेना चाहिए। 
हम इसे यूँ कभी देख ही नहीं पाते कि जिन्दगी का तो हर क्षण दो राहा होता है,- ये करें या वो, और हर बार हम उसमें से एक को चुनते हैं। यानि जिन्दगी का हर क्षण एक अवसर है, सहजता और तनाव में से किसी एक को चुनने का। 
क्योंकि आखिरकार ये जिन्दगी है, कोई चूहे-बिल्ली का खेल नहीं। 

हमारी संवेदनाएँ मन से आए संकेत होती हैं यानि तनाव होना ही नकारात्मक संकेत है, इस बात का कि या तो आप सही दिशा में नहीं या अभी सही समय नहीं और ऐसी स्थिति में कुछ तय नहीं करना ही ज्यादा ठीक। तो बेहतर है, यदि रिश्ते विश्वास के हों तो अगले पर छोड़ दें नहीं तो प्रकृति पर। प्रकृति के पास अनगिनत तरीके हैं सही समय पर आपको सही जवाब देने के। वैसे भी, हर बात के होने का एक समय होता है, वो न तो उसके पहले होनी चाहिए और न ही उसके बाद, ठीक एक बच्चे के जन्म की तरह। कई बार हम जरूर अपनी इच्छाओं के चलते कुछ जल्दबाजी मचाने लगते हैं, पर ऐसे करने से होता कुछ नहीं अलबत्ता बात बिगड़ती ही है। आप क्या आप से बात करते-करते, मैं भी सोचने लगा हूँ कि जिन्दगी हमेशा इतनी आसान तो नहीं होती कि आप इतना सीधा-सीधा सोच पाओ। कई मौके ऐसे होते हैं जब हमें कुछ न कुछ निर्णय लेने ही होते हैं, उनका समय आ चुका होता है चाहे वे कितने ही तनाव भरे क्यूँ न हों। पर जब बहुत सोचा तो पाया, सच में वे निर्णय तनाव भरे नहीं होते। हमें हर बार मालूम होता है कि हमें करना क्या चाहिए। हाँ, कई बार हमें करना वो होता है जो हम करना नहीं चाहते। उन निर्णयों के परिणाम हमें पसन्द नहीं होते और तब हम हर सम्भव कोशिश में जुटे होते हैं कि वे किसी तरह टल जाएँ। पर ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि जीवन प्रकृति से बँधा है और प्रकृति नियमों से। 

तो जो मैं समझा, 
वो ये कि यदि आप सहज हैं तो सही हैं, और यदि ऐसा नहीं तो कहीं न कहीं गड़बड़ तो है। 
ऐसा है तो रुकिए, टटोलिये और तब आगे बढिए, यही एकमात्र रास्ता है।  
और ऐसे निर्णय जिन्हें लेना तनाव से भरता हो, उन्हें लेने में उनके परिणामों की बजाय अपनी सहजता को प्राथमिकता दें। यदि ऐसा किया तो धीरे-धीरे ही सही हम उस दिशा में बढ़ते चले जाएँगे जहाँ से परिणाम हमारे पक्ष में आने शुरू होंगे, और यही तो हम चाहते हैं। 

Thursday, 1 September 2016

मन की आजादी









'तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है', नीरज जी की ये मार्मिक कविता कितनी माफिक बैठती है हम पर। कितने आगे आ गए हम इन सत्तर वर्षों में, पर मन जैसे दिन-ब-दिन गुलाम होता जा रहा है। जैसे सुबह से शाम तक हम को कोई हाँक रहा हो। सुबह उठने के बाद हम तय नहीं करते हैं कि हम क्या करेंगे और क्या नहीं, ये तो पहले से ही तय होता है। एक लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त तैयार होती है जिसकी हर बात या तो 'पड़ेगा' पर खत्म होती है या 'चाहिए' पर, शायद ही कभी इनकी जगह 'चाहता हूँ' आता हो। 


मजे की बात तो ये कि कोई हमें टोके इसके पहले हमारे पास इसके जवाब मौजूद होते है, जिनका घुमा-फिरा कर मतलब 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट' के इर्द-गिर्द होता है यानि अच्छे से जीवन गुजारना है, बने रहना है तो ये सब तो करना ही होगा। मतलब गुलामी तो है ही हमने उसे स्वीकार भी कर लिया है। तन की गुलामी जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के भेष में आयी थी मन की ये गुलामी सफलता के भेष में आती है और तनाव की जंजीरों से हमें जकड़ लेती हैं। सफल होना है तो खूब काम करना होगा और काम अगर इतना होगा तो जिन्दगी में तनाव तो होगा ही, इस बात पर हमें यकीं ही नहीं है गाहे-बगाहे हम अपने से छोटों को तर्कों-वितर्कों से इस पर यकीं करवाते हुए मिल भी जाएँगे। 

क्या सचमुच ऐसा होगा? क्या मन का गुलाम रहना सफल जिन्दगी की कीमत है? ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा तो नहीं हो सकता, फिर गड़बड़ कहाँ हैं? ये 'पड़ेगा' और 'चाहिए' ही शायद सबसे बड़ी झंझट है। यदि बिल्कुल नहीं तो कम से कम ऐसा हो कि फलाँ काम करना ही पड़ेगा या फलाँ काम मुझे करना ही चाहिए, तब हमारा मन सचमुच मुक्त होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, जब काम पर हमारा नियन्त्रण और उसे करने, न करने की स्वतन्त्रता होगी तब ही हमारा मन भी आजाद होगा।  
पर ये कैसे होगा?

तो जो मैं समझा, वो ये कि सबसे पहले तो हमें कुछ जगह खाली करनी होगी यानि कुछ काम या जिम्मेदारियाँ जो अनावश्यक हमने ओढ़  लीं हैं उससे मुक्ति पानी होगी। न जाने कितने ऐसे काम हम रोजाना नियम से करते चले जाते हैं जिनके बारे में एक मिनट भी रुककर देखें भी, तो हमें अहसास हो जाएगा कि उन्हें करने की अब कोई आवश्यकता ही नहीं रही। इसके बाद बचे कामों का नियोजन यानि प्लानिंग करनी होगी। ये प्लानिंग समय के दबाव से मुक्त करेगी। ये समय का दबाव ही तो है जो हमें दौड़ता है और फिर वहीं से तनाव का बनना शुरू होता है। अब रही बात काम को करने या न करने की स्वतन्त्रता की, तो इसके लिए हमें थोड़ा अध्यात्म की तरफ मुड़ना होगा। कहीं अपने काम से होने वाले लाभ से हमें मोह तो नहीं हो गया है? हर क्षण ये चिन्ता कि, कहीं मुझे नहीं मिला तो? इसका मतलब यह भी नहीं की हमें अपने काम से मिलने वाले परिणामों की उत्सुकता या इच्छा न हो, बस इतना ही कि ये उसके चुनने की वजह न हो। ये इच्छा-उत्सुकता बढ़ कर मोह में तब्दील हो हमारा सुख-चैन न छिन लें। 
यदि ये हम कर पाए, समझ पाए तो मैं समझता हूँ, उस दिन हमारा तन ही नहीं मन भी आजाद होगा। 

Thursday, 21 July 2016

रफत-रफत में





मैं उन्हें डेन्टिस्ट के यहाँ ले कर गया था, हमारा आज का कोई अप्पोइंटमेंट नहीं था, कल ही तो उन्होंने केप लगवायी थी। एक तरह से ट्रीटमेन्ट कल ही खत्म हो गया था। डॉक्टर ने तो रस्मी तौर पर कहा था कि कल आप मुझे फोन पर ही बता देना कि सब कुछ ठीक ही रहा। पर रात ही से उन्हें दर्द था। उन्होंने बड़ी हिम्मत से सहन किया, कोई पेन किलर नहीं लिया जिससे वे डॉक्टर को सही स्थिति बता सकें और उसके लिए तकलीफ को जड़ से पकड़ना आसान हो। जैसे ही हमने अपनी सारी बात बताई, छूटते ही डॉक्टर ने कहा, "तो आपने पेन किलर क्यों नहीं खाई। दर्द जैसे ही बढ़ने लगे हमें दवा खा लेनी चाहिए। दर्द का 'साइकल' तोड़ना बहुत जरूरी होता है, नहीं तो दर्द इकट्ठा होने लगता है और फिर पहले वह असहनीय और फिर लाईलाज हो जाता है।"

डॉक्टर साहब तो रफत-रफत में अपनी बात कह गए पर मुझे काम दे गए ........ "दर्द का 'साइकल' तोड़ना बहुत जरूरी होता है, नहीं तो दर्द इकट्ठा होने लगता है और फिर पहले वह असहनीय और फिर लाईलाज हो जाता है।" एक बार तो लगा जैसे वे दाँत के दर्द की नहीं बल्कि दर्शन की बात कर रहे हैं, या फिर जीवन जीने की कला को उदाहरण के साथ समझा रहे हैं। दूसरे ही क्षण मुझे एक्हार्ट टॉल की 'द पॉवर ऑफ नॉउ' का वो कॉन्सेप्ट याद आ गया जिसमें वे लिखते हैं कि हर बार जब हमें कोई बात इतनी बुरी लगती है कि गुस्सा आने लगता है तब उस गुस्से के गुजर जाने के बाद भी उसकी कुछ बातें हमारे मन में बच जाती है। ऐसे हर बार हमारे वैसी ही किसी बात पर गुस्सा आने पर ये बची हुई बातें एक साथ इकट्ठा होने लगती हैं। इन्हें बातों की जगह शायद बारूद के कण कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। फिर किसी दिन वैसी ही किसी बात पर जब हमें गुस्सा आता है तो जैसे सारी इकट्ठा हुई बातों को चिंगारी लग जाती है। बात तो हम उस समय जो बुरा लगा उसकी ही कर रहे होते हैं लेकिन आवेश उन सारी इकट्ठा हुई बातों का होता है। जैसे कोई बम ही फट पड़ा हो, और इस तरह एक छोटी-सी बात हमारे रिश्तों को तहस-नहस कर देती है। 

और ऐसा इसलिए होता है कि हर बार गुस्सा आने पर मन में हम कुछ बचा लेते हैं। हम गुस्से का पेन किलर नहीं खाते, और इसका 'साइकल' बन जाता है और दाँत के दर्द ही तरह यह पहले असहनीय और फिर लाईलाज यानि काबू से बाहर हो जाता है। लेकिन गुस्से का पेन किलर क्या हो? निश्चित ही ये दवा सबके लिए अलग-अलग होगी क्योंकि क्रोध एक भाव है और सबकी भावनाओं की तीव्रता अलग-अलग। पर जो भी हो; चाहे कह लीजिए, समझ लीजिए, माफ कर दीजिये या किनारा कर लीजिए लेकिन गुस्से एक भी कण मन में नहीं बचना चाहिए।

तो जो मैं समझा, 
वो ये कि विकार आना मानवीय शरीर और मन की कमजोरी और विशेषता है, वे आयेंगी ही लेकिन उनका कुछ भी शेष अपने पास बचा कर नहीं रखना है। हर वो सम्भव प्रयास करना है जिससे उनका चक्र न बनने पाए। यदि ऐसा हुआ जो जैसे-जैसे समय बीतेगा उनसे निजात पाना मुश्किल होता चला जाएगा। और इकट्ठा हुआ जहर तो नुकसान फैलाएगा ही इसमें क्या सन्देह है। 
सहेजना ही है तो उसके लिए खुशियाँ होती हैं, दर्द नहीं।  

Wednesday, 15 June 2016

खुशियों की तैयारी




दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो खुश नहीं रहना चाहता। कम से कम ये एक बात तो हम सब में कॉमन है ही, और मुझे नहीं लगता इसमें कोई दो राय होगी। खुशियाँ, चाहिए हम सबको और है बहुत कमों के पास, डिमाण्ड और सप्लाई में इतना बड़ा गैप शायद ही और किसी में हो, इसलिए है भी ये बहुत कीमती। पर विचार करते-करते एक बात चौंकाने वाली दिखी, और वो ये थी कि इसे हमने उस श्रेणी में डाल दिया है जहाँ हमने उन बातों को रख रखा है जो प्रकृति के अधिकार में है, जिस पर हमारा कोई जोर नहीं। 

शायद इसलिए कि हम पैदा तो खुश ही हुए थे पर फिर जैसे-जैसे हम बड़े होते गए ये हमसे दूर होती गई। अध्ययन कहते हैं कि जब हम बच्चे थे, कभी किसी तो कभी किसी बात पर दिन में 400 बार होंठों पर मुस्कराहट थिरक उठती थी, और अब बड़े होने पर हालत ये कि बमुश्किल 40 बार आ पाती है। हमने सोचा यह स्वाभाविक होगा, जैसे बड़े होने के साथ हमारी आवाज बदलती है या दूसरे परिवर्तन आते हैं वैसे ही खुशियों के साथ भी होता होगा! 'यही जिन्दगी है!' - हम खुश हैं तो हैं और नहीं तो नहीं, जैसा हमारा भाग्य। जीवन की परिस्थितियाँ हमारे तो बस में नहीं, हमारा काम तो बस उसका डटकर मुकाबला करना है, बस। कभी हम हार जाते हैं तो कभी जीत, जीत गए तो खुश हो लिए और हार गए तो दुखी; पर हाथ में कुछ नहीं, जैसा नियति ने लिखा है वैसा भोगना है। 

तो फिर ये सारा ज्ञान, सारा कर्म किसलिए? क्या हम महज परिस्थितियों के गुलाम भर हैं? नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता है? हम खुश पैदा हुए थे यानि ये हमारा नैसर्गिक, मूल स्वभाव है। तब तो इसका मतलब ये हुआ कि हम खुश हैं तो नॉर्मल हैं, खुश नहीं हैं तो, एबनॉर्मल। ऐसा हैं, तो फिर आयी कहाँ से ये एबनोर्मल्टी। रुका, सोच और विचार को रोका, और ऐसा करते ही कुछ सतह पर आया। जो आया वो यह था कि हम जैसे-जैसे बड़े होते गए, जिन्दगी की तैयारी करने लगे। पहले तो अपने बड़ों से सुन, फिर अपने आस-पास देख उसकी एक छवि गढ़ ली। ये छवि बड़ी डरा देने वाली थी जैसे जिन्दगी नहीं कोई जंग हो। अब हम इस जंग की तैयारी में जुट गए। हमें ऐसे बिहेव करना है, ऐसे बोलना है, लोग कैसे होते हैं?, क्या-क्या मुश्किलें हमारे सामने आने ही वाली हैं?, और न जाने क्या-क्या। एक योद्धा की तरह हमने आपको लैस कर लिया, अब आप ही बताइए ऐसे में खुशियाँ क्या खाक फटकेंगी हमारे पास?

तो करना बस इतना ही होगा कि इस कवच-बख्तर को, इन हथियारों को उतारना होगा। अपने आपका सहज करना होगा। डर की जगह विश्वास को जगह देनी होगी। ऐसा नहीं कि हमारे ऐसा करने से दुनिया एकदम से अच्छी हो जाएगी, पहले की तरह ही इसमें अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग होंगे, सब दिन अच्छे भी नहीं होंगे लेकिन मेरा पाला अच्छे लोगों से पड़ेगा, मेरे साथ अच्छा ही होगा क्योंकि मेरा विश्वास अच्छाई में है, इस बात को समझना और इस पर भरोसा कायम करना होगा। 

तो जो मैं समझा,
वो ये था कि खुशियों को हर पल का साथी बनाना है तो सब से पहले जिन्दगी की तैयारी में जो कुछ सीखा है उसे अनसीखा करना होगा और उन बातों का अभ्यास करना होगा जो हममें थीं ही। अभ्यास इसलिए की इतने साल हो गए, हमें हमारे स्वभाव की ही आदत नहीं रही। अकारण किसी को देख मुस्करा देना, छोटी सी बात पर खुश हो जाना, अपनी पसन्द-नापसन्द को खुल कर बताना, जो है सो कहना, बात इसलिए करना कि कुछ कहना या जानना चाहते हैं और न कि किसी से जीतना। ........... हाँफने लगा हूँ, ये फेहरिस्त लम्बी है, बस यूँ समझ लीजिए जैसे हम थे वही होने का अभ्यास करना है। 
तो लब्बोलुआब ये कि खुश रहना सीखा जा सकता है, ये हम पर हैं कि हम इसके लिए कितने तैयार हैं और कितना प्रयास करते हैं।