Friday, 15 January 2016

अफसोस की टोकरी और नया साल



.......... और कैलेन्डर बदल गया। दिन बीतते-बीतते कब वे महीनों में बदल जाते हैं और फिर कब वे अचानक यूँ साल ही पलट देते हैं, मालूम ही नहीं चलता और इस बार भी यही हुआ। बधाई-संदेशों और शुभकामनाओं की बारिश के साथ हर बार की तरह इस बार भी हर कोई कुछ न कुछ तय करने में लगा था कि इस बार क्या कुछ नया करना है या फिर और ज्यादा दृढ़ता से करना है जिसे वो पिछली बार नहीं कर पाया था। कुछ लोग ऐसे भी कहते-सुनते मिले कि मैं कोई रिजोल्यूशन-विजोल्यूशन पास नहीं करता। ये तो होते ही टूटने के लिए हैं, इससे बढ़िया है जिन्दगी जो परोसे उसका भरपूर आनन्द लो। बात तो ये भी ठीक थी पर ये उपजी पुराने अनुभवों से थी, जो सोचा वो न कर पाने की वजह से थी न कि इस भावना से कि वे लोग बस आज में जीना चाहते हैं, हर क्षण का आनन्द लेना चाहते हैं। 

इस तरह सोच कर मैं खुद ही फँस गया था, और अब तो समस्या और भी बड़ी होती जा रही थी। मुझे लगने लगा कि बात नए साल की ही नहीं है, हम कभी चाह कर भी कुछ नया कर ही नहीं पाते। उसी पटरी पर गाड़ी चाहे जितनी तेज भगवा लो, लेकिन पटरी नहीं बदली जाती और यही वजह है कि कभी स्टेशन भी नहीं बदलते और फिर दोष देने के लिए तो बेचारी किस्मत है ही हमारे पास। क्या वजह हो सकती थी? सबसे पहले जो जेहन में कौंधी वो थी कि हमारा निश्चय पक्का नहीं होता। ....... पर ये बात खुद को भी वैसी ही लग रही थी जैसे ए फॉर एप्पल, रटी-रटायी। या तो बात कोई और थी या निश्चय के पक्का न रह पाने की वजह कोई और। ...... बात कुछ और थी! 

प्रकृति ने संकेत दिया एक किताब के मार्फत, लिखा था नया साल कुछ ही दिनों के बाद पुराने साल के ही जैसा इसलिए हो जाता है क्योंकि हम आगमन को तो जोर-शोर से तैयार होते हैं लेकिन विदाई की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं होता। सोचा तो पाया, सही तो था, हम नए साल में प्रवेश करते है अफसोस की टोकरी के साथ जिसमें रखी होती हैं वे सारी बातें जो हमें बुरी लगीं, जो हमसे नहीं हुई और वो भी जो सच में हमारे साथ अच्छा नहीं हुआ लेकिन हमारे हाथ में भी नहीं था। अब जब भी हम रिश्तों को नयापन देने की कोशिश करते हैं, कुछ अलग सा करने लगते हैं या अपने विश्वास को पुख्ता करने लगते है, ये टोकरी सबूत पेश कर हमें वहीं के वही जकड़ी रखती है। ऐसा नहीं कि गए साल में कुछ अच्छा न हुआ हो लेकिन वो पेश ही नहीं होता क्योंकि वो इस टोकरी में रखा ही नहीं होता। 

यदि हमें इस जकड़न से मुक्त होना है तो इस अफसोस नाम की रद्दी की टोकरी से निजात पानी होगी। विदाई को भी आगमन की तरह निभाना होगा। बात गए साल की हो या जिन्दगी की कोई और, जो हो चुका उसे जाने देना होगा, उसे पूरी तरह से विदा करना होगा और यह तब ही होगा जब यह धन्यवाद के साथ हो, जो कुछ हुआ उसके लिए आप कृतज्ञ हों और ऐसा तब ही हो पाता है जब हम अपने अच्छे अनुभवों को याद रखते हुए ये समझें कि जिन्हें हम बुरा समझ रहे हैं वे वास्तव में अध्याय हैं जिन्दगी के जिन्हें पढ़े बिना हमारा अगली कक्षा में जाना सम्भव नहीं और अगली कक्षा में पहुँचे बिना स्कूल यानि जिन्दगी का मजा नहीं। 

जो मैं समझा, वो यही था कि हम अपने जीवन में कुछ नया चाहते हैं तो पुराने को छोड़ना होगा। नये को आ पाने के लिए जगह देनी होगी और ये तब ही होगा जब पुराने को पूरे प्यार और सम्मान के साथ विदा करें। समझना होगा कि हर चीज की एक एक्सपायरी डेट होती है, जो कल तक दवाई थी आज जहर बन चुकी है। .........और तब हम तय करें न करें, हमारी हर सुबह नित-नयी होगी, उत्साह और उमंग से लवरेज।   

Friday, 1 January 2016

प्यारा बच्चा और अच्छे अंकल



आप को भी अपने रेल सफर में कई बार मन मोहने वाले मासूम बच्चे जरूर मिले होंगे। उनके साथ बात करते सफर कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। अपने-अपने स्टेशन पर उतरते ऐसा लगता है जैसे कोई बिल्कुल अपना बिछड़ रहा हो। ऐसा हमें ही नहीं उसे भी लग रहा होता है, शायद इसलिए कि बहुत दिनों बाद उसे भी कोई मिला होता है जो उसकी हर बात का आनन्द ले रहा होता है, बिना उसको कहे कि बेटा, ऐसे नहीं ऐसे करो या ऐसे नहीं ऐसे बैठों, और डाँट, उसका तो सवाल ही उठता। अधिक से अधिक प्यार से कुछ समझा दिया बस, इसलिए जितना प्यारा वो होता है उतने ही अच्छे अंकल हम। 

अभी कुछ ही दिनों पहले में भी ऐसे ही एक रेल सफर पर था, ऐसे ही आस-पास बैठे बच्चों से बातें कर रहा था, तो न जाने कैसे मेरा ध्यान इसके आगे इस बात बात पर पहुँच गया कि क्या मेरा बच्चा अगर यही बात कर रहा होता तो क्या मैं उतनी ही तस्सली से सुनता, उसे समझाता। क्या मैं उसकी ऐसी ही कितनी सारी प्यारी-प्यारी बातों और हरकतों का इतना ही मजा ले पाता हूँ और अगर नहीं ले पाता तो नुकसान में कौन रहता है? मैं या वो। ये बात सच है कि मैं पराये बच्चे को डाँट नहीं सकता, लेकिन क्या अपने बच्चे को डाँटने से पहले एक मिनट भी ख्याल करता हूँ कि डाँटने से पहले या बजाय मैं अपनी बात को मनवाने के लिए क्या और भी कुछ कर सकता हूँ? मैं उससे और वो भी मुझसे बहुत प्यार करता है पर वो मेरे साथ इतना खुश, इतना सहज क्यों नहीं है? मेरा सर घूमने लगा था।

कोई जवाब सवाल के बाहर नहीं होता, मेरा जवाब भी वहीं छुपा था। हम जितनी अच्छी तरीके से ये बात दूसरे बच्चों के लिए समझ लेते हैं कि ये ऐसा ही है इसलिए ऐसा ही करेगा, अपने बच्चे के लिए नहीं समझ पाते। निश्चित रूप से इसके पीछे भी हमारा प्रेम ही होता है। हम सोचते हैं हम उसे वैसा बना दे जैसा एक अच्छे बच्चे को होना चाहिए, और इसका हम एक भी मौका नहीं चूकना चाहते। हम उसकी बातों, हरकतों में यही मौके ढूँढ़ते रहते है, क्योंकि हम समझते है उसे अच्छा बनाने का जो हमारा कर्तव्य है उसके लिए ये बहुत जरुरी है। हम जो बात अपने लिए जानते हैं कि व्यक्ति अपने आपको हल्का-फुल्का 'मोल्ड' कर सकता है लेकिन अपनी 'बेसिक नेचर' को नहीं बदल सकता, अपने बच्चे के लिए समझने और मानने को तैयार नहीं होते। 

मैंने जब इस कड़वे प्रश्न का सामना किया तो पाया कि शायद हम यही समझते हैं कि बच्चों की कोई 'बेसिक नेचर' होती ही नहीं, ये तो उसके लालन-पालन से पड़ती है। आप ही एक मिनट के लिए उन सारी बातों को भूलाकर सोचिए जो आज तक हम कहते-सुनते आए हैं, क्या ऐसा हो सकता है? नहीं ना। सबकी एक 'बेसिक नेचर' होती है, एक स्वतन्त्र अस्तित्व और वैसे ही एक बच्चे का भी और इसे नहीं मानना ही समस्या की जड़ है। जब ये बात मेरे जेहन में साफ हुई तो लगा, ये बात बच्चों के ही नहीं हमारे अपने घर में हर रिश्ते के साथ है। हम अपने अपनों को अपने जैसा बनाने लग जाते हैं, और ऐसा हम सब करते हैं और इसीलिए बाहर हम सब सहज होते हैं लेकिन अपने घर को असहज बना लेते हैं। बात तो ठीक है, लेकिन इसे अपनायें कैसे? तो अचानक, वो अंग्रेजी में 'जेंटलमैन्स कर्टसी' कहते हैं, याद हो आया। 

जो मैं समझा, वो यही एकमात्र तरीका था एक-दूसरे के साथ सहज होने का। इतना सा अदब कि हमें दूसरे के बुरे लगने का भान रहे। जितना हम परायों के साथ थोड़े से अपने होते हैं उतना ही हमें अपनों के साथ भी थोड़ा सा पराया होना होगा। एक हल्की सी दूरी हमें और पास ले आएगी। ये दूरी वही जगह देगी जो पौधों को क्यारी देती है, और तब हम ज्यादा खुश, ज्यादा सहज होंगे, उतने ही जितने हम और किसी के साथ होते हैं। 

Saturday, 19 December 2015

कम सामान सफ़र आसान



हमारे बच्चों के भारी स्कूल बैगों की हमारी चिंता बिल्कुल जायज और प्रशंसनीय है। नन्ही जानें और इतना बोझ, ठीक से चल पाना मुश्किल। रोज-रोज की तरह-तरह की परीक्षाएँ और अनुशासन के नाम पर इतने कायदे-कानून। ख़ुशी की बात है कि इस दौर में अधिकांश स्कूलें और अभिभावक दोनों ही इस समस्या के प्रति जागरूक हो रहे हैं। मन किया इस विचार को थोडा और विस्तार दें, तो पाया हम सभी कितना अनावश्यक बोझ अपने पर लादे है और फ़ालतू ही हांफ रहे है। कोई अनावश्यक वस्तुओं का, कोई विचारों का तो कोई दायित्वों का।

जगह कितनी ही सुंदर क्यों न हो, यदि आप थके हुए है तो घूमने का मज़ा नहीं आ सकता, ठीक उसी तरह इस खुबसूरत जिन्दगी का आनन्द भी दिमाग़ में इन फ़ालतू बोझों के साथ नहीं आ सकता। आप ही बताइए, क्या एक यात्री नदी पार कर लेने के बाद चप्पू-पतवार साथ लिए चल पड़ता है? कभी नहीं, चाहे उसे अहसास हो कि इसके बिना यात्रा संभव ही नहीं थी। हमने भी कितनी ही ऐसी वस्तुएँ इकट्ठी कर रखी है जिसका अब कोई उपयोग नहीं। कुछ चीजें हमें बहुत पसंद है इसलिए, तो कुछ चीजें हमें नापसंद है लेकिन हमें सिखाया है कि बिना काम लिए किसी चीज को हटाना बरबादी है इसलिए। एक रास्ता है, इन चीजों को उन लोगों तक पहुँचाइए जिन्हें इनकी ज्यादा जरुरत है और शुरुआत कम पसंद की वस्तुओं से कीजिए।

मानता हूँ, ये कोई इतनी बड़ी बात नहीं है, लेकिन आपका यह दृष्टिकोण आपकी मनोदशा बदल अनावश्यक विचारों और दायित्वों से पीछा छुड़ाने में मदद करेगा। आपका घर स्वतः ही सुंदर और दैनिक जीवन अधिक व्यवस्थित होने लगेगा।

ऐसे विचारों का बोझ जिनका सम्बन्ध भूतकाल से है। किसी के आहत करने की पीड़ा घर कर गई है या आपको किसी बात का अफ़सोस है। दोनों ही स्थितियों में, आपको यह बात समझनी और स्वीकारनी पड़ेगी कि जो बीत गया उसे बदला नहीं जा सकता। हाँ, यदि हम इस क्षण को पूरे विवेक के साथ जिएँ तो, स्थितियाँ कैसी भी हों, हम उनका उपयोग अपने हित में जरुर कर सकते हैं। टेक्नॉलोजी के इस युग में उन जानकारियों का बोझ भी कम नहीं जो अनजाने ही हमने अपने दिमाग में ठूंस ली है। आवश्यक जानकारियों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल तो निश्चित ही व्यक्ति की मदद करता है लेकिन इंटरनेट और मीडिया द्वारा जानकारियों की बमबारी ने तो व्यक्ति के मस्तिष्क की उर्वरा का ही नाश कर दिया है।

इसी तरह वे औपचारिकताएँ, तारीखें और दायित्व जो हमने बिना सोचे-समझे या सभी ऐसा करते है इसलिए या किसी और ने हमारे लिए तय कर ली है। इन सब के चलते हमने अपने दैनिक जीवन को अत्यधिक व्यस्त, तनाव भरा और उबाऊ बना लिया है। यहाँ तक कि हम अपनी प्राथमिकताओं को लेकर भी पूरी तरह भ्रमित हो चुके है।

एक मिनट ठिठक कर सोचिये, क्या आपके लिए है और क्या नहीं फिर चाहे वे वस्तुएँ हों, विचार हों या दायित्व। अपने जीवन से फ़ालतू चीजों की सफाई कीजिए, आपके पास अपनी प्राथमिकताओं को ढंग से निभा पाने के लिए पर्याप्त समय और पर्याप्त ऊर्जा होगी । जिन्दगी को देखने और आनंद लेने का धीरज होगा। मैं तो यही कहूँगा, 'कम सामान, सफ़र आसान'।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 24 मार्च 2013 को प्रकाशित)

Saturday, 12 December 2015

संतुष्ट हूँ कि और चाहिए




कुछ दिनों पहले एक टी.वी. प्रोग्राम में पण्डित शिवकुमार शर्मा का इंटरव्यू देखने का अवसर मिला। जब बोमन ईरानी, जो उनका इंटरव्यू ले रहे थे, ने उनकी उपलब्धियाँ बतानी शुरू की तो अंत में पण्डित जी ने यही कहा, 'मैं आज भी संगीत का विद्यार्थी हूँ।' मैं रियाज करता हूँ तब तो सीखता ही हूँ, जब कॉन्सर्ट दे रहा होता हूँ तब भी सीख रहा होता हूँ और जब अपने शिष्यों को सीखा रहा होता हूँ तब भी।

ये बातें वो व्यक्ति कर रहा था जिसे भारत सरकार ने पदम् श्री और पदम् विभूषण से नवाजा, जिसे सयुंक्त राज्य की मानद नागरिकता प्राप्त है, जिसने लोक-संगीत में काम आने वाले वाद्य को शास्त्रीय संगीत बजा सकने के लिए परिष्कृत कर दिया, जो स्वयं आज संतूर का पर्याय है। इसके बाद भी वे अपनी कला में और निपुण होना चाहते है, तो क्या पण्डित जी संतुष्ट नहीं है? कितना बेतुका सवाल है, लेकिन हाँ, यहाँ यह प्रश्न हमें संतुष्टि को समझने में मदद जरुर कर सकता है।

'और की चाह' हमें प्रकृति से मिली है। एक बीज, वृक्ष होने तक हर क्षण उन्नत होना चाहता है और यही हम सब के साथ भी है, आखिर हम भी तो उस विराट प्रकृति का ही तो हिस्सा है। यदि अपने आपको रोक लेना संतुष्टि है तब तो यह हमारे नैसर्गिक गुणों के विपरीत है। अर्जुन से ज्यादा कृष्ण का सामीप्य किसे मिला होगा पर उसे भी कृष्ण के विराट स्वरुप और फिर चतुर्भुज स्वरुप की चाह है।

संतुष्टि का मतलब 'और की चाह' न होना कतई नहीं है वरन जो कुछ है उसके लिए प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का एवम स्वयं के प्रति सराहना का भाव होना। अपनी कमियों को, जिसे मैं विशिष्टताएँ कहूँगा, स्वीकारना। इन भावों के साथ हर क्षण अपने आपको और बेहतर अभिव्यक्त करने की चाह, यही संतुष्टि है। संतुष्टि अकर्मण्यता नहीं, जीवन को बेहतर बनाने का मंत्र है।

वास्तव में, 'और की चाह' हमारी बेचैनी और तनाव का कारण नहीं होती वरन हमारी यह सोच कि उन सब के बिना हमारा काम नहीं चल सकता, एक अच्छी जिन्दगी वो सब हासिल किए बिना सम्भव नहीं। हम अपनी उपलब्धियों को अपने जीवन की सार्थकता और अपना परिचय समझने लगते है। हमारी इसी सोच के चलते हम अपनी जिन्दगी को बेचैनी और तनाव से भर लेते है जो हमें अधीर तो बनाती ही है हमारी दृष्टी को भी धुंधला कर देती है। कई बार लगता है कि सीधे तरीकों से यह सब कर पाना सम्भव नहीं तो कई बार सामने पड़े अवसर भी दिखाई नहीं देते।

ऐसा नहीं है, एक खुशहाल जिन्दगी न तो आपकी उपलब्धियों की मोहताज है न ये आपका परिचय न ही आपके होने का प्रमाण। ये महज आपकी अभिव्यक्ति है, वृक्ष पर आये फल और फूलों की तरह । उपलब्धियाँ जिन्दगी का श्रृंगार हो सकती है प्राण नहीं। जिन्दगी की यही उलटबाँसी है कि यदि हमारा रवैया यह रहे कि 'मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक' तो ज्यादा मिलता है क्योंकि तब दृष्टी साफ़ और मन शांत होता है।

मेरी मानिए, संतुष्टि को सफलता की सीढी बनाइए और जिन्दगी का लुत्फ़ उठाइए।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 17 मार्च 2013 को प्रकाशित)

Saturday, 5 December 2015

एक दहन यह भी




वे चित्रकार बेहतरीन होते हैं जो सेल्फ पोट्रेट बना पाते हैं पर वे तो लाखों में एक ही होते होंगे जो अपने मन के भावों को भी अपने चित्र पर ला पाते हैं। इसमें बात चित्रकारी की नहीं है, भावों को उकेरना ही तो चित्रकला है और सारे ही बेहतरीन चित्रकार ऐसा कर पाते हैं लेकिन अपने भावों का सामना करना, ये मानना कि ये मेरे ही भाव हैं, कला नहीं साहस की बात है।

खैर! ये तो बहुत बड़ी बात है, हम तो अपने आप तक को देख-सुन नहीं पाते। सब दिखाई देता है हमें, सब सुनाई देता है हमें, सिवाय इसके कि हम क्या करते हैं, हम क्या बोलते हैं। आपको विश्वास नहीं होता तो आप एक ही वाक्य को अपनी और अपने कुछ दोस्तों की आवाज में टेप कर लीजिए फिर उन्हें सुनिए और बताइए कि उनमें से आपकी आवाज कौन सी है। आप हर्गिज, हर्गिज नहीं बता पायेंगे क्योंकि हमने आज के पहले कभी खुद को सुना ही नहीं। यह पहला मौका होगा जब हम अपने आपको सुन रहे होंगे। यहाँ तक कि जब आपको पता चलेगा तो आप कह उठेंगे, अरे! मैं ऐसे बोलता हूँ? 

हम ऐसे हैं इसमें हमारी गलती भी नहीं क्योंकि न तो हमें किसी ने सिखाया, न ही बताया कि ऐसा हम क्यों करें? हमें कैसे मालूम होगा कि इतनी सी बात हमारे जीवन को कितना सुन्दर बना सकती है पर दिवाली के मौसम में एक मिनट के लिए सोचिए, 
एक बार भी रावण अपने आपको देख-सुन पाता तो उस जैसा वीर शक्तिशाली महापण्डित वो गति पाता जो उसने पायी। 
निश्चित ही नहीं, तो फिर उस जैसा विद्वान भी ऐसा क्यों नहीं कर पाया? 
सिर्फ इसलिए ना कि उसका अहं ये कैसे मंजूर करता कि उससे गलती हो गई, क्योंकि राम तो तब भी उसे माफ करने को तैयार थे। 
क्या ऐसा करने से उसकी प्रतिष्ठा कम होती? 
कतई नहीं, शायद महापुरुषों में गिनती होती। 
लेकिन सारी बातों के बावजूद वो नहीं कर पाया ..........

तब से लगाकर आज तक व्यक्ति की ये समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है, हम जो करते हैं, जो कहते हैं उसे देखने-सुनने को तैयार नहीं। हाँ, दूसरों का किया-सुना बड़ा साफ-साफ दिखाई-सुनाई पड़ता है, शायद कुछ ज्यादा ही। मेरा ध्यान भी इस बात पर तब गया जब मैंने पहली बार लुईस एल. हे की पुस्तक में इस बात को पढ़ा था। उसके बाद जब भी खुद को सुन पाता, हैरत रह जाता, बात नये ही परिपेक्ष्य में समझ आती, लगता गलत सिर्फ अगला ही नहीं है। स्थितियाँ सम्भलती और परिणाम बेहतर मिलते।  

मैं चाहता हूँ ज्यादा नहीं, दिन में एक बार ही सही आप जब भी किसी से बात करें खासकर उस समय जब आप उससे सहमत न हों और तब आप जो कह रहे हैं उसे स्वयं भी सुनें। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप भी वैसा ही पायेंगे। आप उसकी बात को ज्यादा ध्यान से सुनने लगेंगे और फिर बेहतर समझने। ज्यादा गुंजाईश रहेगी कि अन्त में आप किसी नतीजे तक पहुँच पाएँ। आप अपनी बात को भी ढंग से कह पाएँगे और यदि आप सही हैं तो ख़ुशी-ख़ुशी अपनी बात मनवा भी पाएँगें। जिस दिन ऐसा करना हमारी आदत पड़ गयी, जिसकी कोशिश में मैं आज भी लगा हूँ, उस दिन निश्चित है कि हमारे न तो किसी से रिश्ते खराब होंगे न रहेंगे। 

किसी ने ठीक ही कहा है, "जब आप अकेले हों तब अपने विचारों पर ध्यान दीजिए और जब लोगों बीच में हों अपने शब्दों पर।" हमारे लिए ये रावण जितना मुश्किल भी नहीं होगा क्योंकि हमने वैसा अपराध भी तो नहीं किया पर इतना जरूर है कि ऐसा कर हम धीरे-धीरे ही सही अपने अन्दर के रावण को मारने में जरूर कामयाब हो जायेंगे।  

Saturday, 21 November 2015

खट्ठी-मिट्ठी जिन्दगी




दिल की सुनें-दिल की सुनें, सुन-सुनकर कई बार झुंझलाहट होने लगती है, वाजिब भी है। कितनी सारी बातें होती है जो तय करती है की हम अपनी जिन्दगी को कैसे जिएँगे। जिन्दगी के हर क्षण की कुछ जरूरतें होती है। अपने परिवार और प्रियजनों के प्रति हमारे कुछ जरुरी फर्ज होते है। इन्हें निभाने के ज़ज्बे के साथ जरुरी होता है पर्याप्त धन। दिल की आवाज के साथ इस बात का भी उतना ही ध्यान रखना होता है। यहाँ आकर जिन्दगी खट्ठी-मिट्ठी हो जाती है। आप खुश तो होते है कि आप वो सब कर पाए जो आपको करना चाहिए था लेकिन अपने मन की न कर पाने के कारण संतुष्टि का भाव नदारद होता है।

आप खुश है पर संतुष्ट नहीं। आप जैसे दिखते है वैसे है नहीं। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे इनमें दूरियाँ बढती है, मन का खालीपन गहराता चला जाता है। इस खाई को पाटने के लिए जरुरी है यह समझना कि आपने अपने दायित्वों के चलते अपने दिल की आवाज को मुल्तवी किया था, नकारा नहीं था। होता यह है कि हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते दूसरों की अपेक्षाओं पर जीने लगते है। हमारे परिवार और प्रियजन जो निस्संदेह हमसे प्रेम करते है, हमारा भला चाहते है, हमें अपने तरह से जीने के लिए मजबूर करने लगते है। वे समझते है, जीने का उनका तरीका ही ठीक है और ऐसा करना उनका नैतिक कर्त्तव्य है। और हम, उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने को अपना दायित्व समझ लेते है।

आपका फर्ज क्या है, यह आप तय करेंगे। कई बार ऐसा भी होता है कि जो व्यक्ति अपने दायित्वों के प्रति सचेत होता है उससे सबकी अपेक्षाएँ तो अधिक होती ही है, लोग अपने काम भी उसकी झोली में डाल देते है। आप उसे भी अपना दायित्व लेते है और लगे रहते है। उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने की आपको ख़ुशी तो होती है पर मन के किसी कोने में लगता है आपका उपयोग किया गया और एक असंतुष्टि का भाव तैर जाता है। अपने दायित्व निभाना धर्म है लेकिन अपने आपको उपयोग में लिए जाने की अनुमति देना, अपने प्रति दुर्व्यवहार। इन दोनों के बीच आपको स्पष्ट सीमा-रेखा खींचनी होगी।

हो सकता है आपने अपने काम के साथ समझौते किए हों, करने भी पड़ते है। व्यावहारिक जीवन में धन के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता लेकिन आप इन समझौतों से अपनी जिम्मेदारियों के पूरा होते ही बाहर आ सकते है। आपको आना ही चाहिए, पर यह तब ही सम्भव होगा जब आप जिस काम में आज है उसे बेहतर से बेहतर करने की कोशिश करें। आपकी यही कोशिश आपके पसंद के काम की सीढ़ी बनेगी। आपकी पात्रता, आपकी लायकियत बढ़ाएगी। अवसरों और आशीर्वादों की तो बारिश हो रही है, हमें तो बस समेटने की क्षमता बढ़ानी है।

यदि आप अपने काम में बदलाव को उम्र से जोड़कर देखते है तो मैं कहूँगा, यह बिल्कुल बेमानी है। कितने ही उदाहरण हमारे आस-पास बिखरे पड़े है जो इसे झुठलाते है। बोमन ईरानी को हो लीजिए, चालीस की उम्र में अभिनय शुरू किया और आज वे फिल्म जगत के मंजे हुए चरित्र अभिनेता है।

दिल और दिमाग का सही संतुलन ही ख़ुशी और संतुष्टि को एकरूप करेगा । जिन्हें आपने अपनी जिम्मेदारी समझा और निभाया वह भी आपके ही दिल की आवाज थी और आज आप अपने जीवन को किसी और तरह जीना चाहते है तो यह भी आपकी अपने प्रति जिम्मेदारी और आपके दिल की आवाज ही है। यदि खुश होने का कारण संतुष्टि नहीं है तो निश्चित है कि आपने अपनी जिन्दगी को दुसरे खुश लोगों के पैमाने पर कसा है। संतुष्टि अनुभूति है तो ख़ुशी अभिव्यक्ति, पर है दोनों निजी। आप तो जिन्दगी की गाड़ी को संतुष्टि की राह पर मोड़ दीजिए, खुशियाँ अपने आप पीछे खींची चली आएँगी।

(पुराने पन्नों से -दैनिक नवज्योति में रविवार, 10 मार्च 2013)

Saturday, 14 November 2015

यात्रा के अनुभव




आज एक वर्ष हो जाएगा मेरे लेखन की शुरुआत को, समय कैसे गुजर जाता है, मालुम ही नहीं चलता। 2004 से जब इस विषय को पढना-गुणना शुरू किया था तब कहाँ मालुम था कि यात्रा में एक पड़ाव यह भी आएगा। इस यात्रा ने मुझे सिखाया कि अपने सपनों को पूरा करने के लिए तीन बातें जरुरी होती है,-


1.काम की शुरुआत 
2.लगे रहें 
3.सपनों को हमेशा जेहन में बनाए रखें 



- प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक 'शुरूआती हिचक' होती है। इस हिचक का कारण चाहे जो हो लेकिन इससे पार पा लेने भर में काम की आधी सफलता छुपी होती है। हेनरी फोर्ड जब अपनी कार की वी-8 श्रन्खला निकालने की सोच रहे थे, जिसमें एक ही ब्लॉक में आठ सिलेंडर होने थे और ऐसा उस समय एक भी कार में नहीं था, तब उनका एक भी इंजीनियर उनके इस विचार से सहमत नहीं था। यहाँ तक कि इस मॉडल के नक़्शे तक बन गए पर इंजीनियर्स का मत था कि ऐसा मॉडल सड़क पर सफल नहीं हो पायेगा। उनके तर्क सुन-सुनकर वे परेशान हो चले थे, आख़िरकार एक दिन वे फैक्ट्री पहुंचे और एक कार मंगवायी। खड़े रह कर वहाँ से उसे काटने को कहा जहां से उसमें बदलाव लाने थे और फिर इंजीनियर्स से बोले, बातें करना बंद कीजिए और नए मॉडल पर काम शुरू कीजिए। आचरण की यही बेबाकी व्यक्ति से आश्चर्यचकित कर देने वाले काम करवा देती है। 



- काम की शुरुआत में तो सभी का मन उत्साह और उमंग से भरा होता है लेकिन फिर धीरे-धीरे बोरियत होने लगती है। हम परिणामों को लेकर अधीर होने लगते है और मन की यही अधीरता व्यक्ति को यह सोचने पर मजबूर करने लगती है कि शायद उससे यह काम संभव ही नहीं। मन की इसी चंचलता की वजह से व्यक्ति का टिक कर एक ही काम में 'लगे रहना' मुश्किल होता है। 'लगे रहने' का यह ज़ज्बा अव्वल दर्जे का संयम मांगता है इसीलिए यह सबसे अहम् हो जाता है। आपने देखा होगा, जब हम किसी वृक्ष को काट रहे होते है तब कुल्हाड़ियों की कितनी चोटों तक वो तस से मस नहीं होता और फिर एक आखिरी चोट और वो धराशायी। वृक्ष पर की गई हर चोट उतनी ही अहमियत रखती है जितनी आखिरी। इसका श्रेष्ठ उदाहरण है थॉमस एल्वा एडिसन। सफल बल्ब बनाने के लिए उन्होंने 900 से अधिक बार कोशिशें की। वे लगे रहे और आखिर बल्ब को जलना पड़ा।



- शुरूआती हिचकक से पार पाना और फिर उसमें लगे रहने की ऊर्जा के लिए जरुरी है कि हमारा ध्येय हमेशा हमारी आखों के सामने बना रहे। काम की शुरुआत से अंत तक चाहे जैसी परिस्थितियाँ आएँ, चाहे जैसी मनःस्थिति बने, हम हर हाल में अपने सपनों को जिन्दा रखें। आचार्य चाणक्य ने जो अखण्ड आर्यावृत का सपना देखा था वो उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति तक अक्षु०ण रखा। कैसी-कैसी परिस्थितियाँ और कितना लम्बा अंतराल, लेकिन उनके जेहन में अपने सपने की तस्वीर बिल्कुल साफ़ और स्पष्ट थी और वे उसे रूप देते चले गए। व्यक्ति के मन में अपने लक्ष्य की छवि स्पष्ट हो तो कोई प्रलोभन या परिस्थिति उसे विचलित नहीं कर सकती।



ये तीनों गुण हर इन्सान को मिले हैं; आपको, मुझको, हम सभी को इसलिए बेहिचक सपने देखिए। देखेंगे तब ही तो पूरे होगे  सपने क्या है?, प्रकृति का आपको दिया जॉब-कार्ड ही तो है। प्रकृति को आप पर भरोसा है, वो आपके साथ है फिर आप क्यों अपने सपनों पर प्रश्न-चिन्ह लगाए बैठे है? अपनी बात को विराम देने के लिए सपनों की अहमियत को उकेरती कॉलरिज की इन सुंदर पंक्तियों से बेहतर क्या होगा ......



क्या हुआ जो तुम सो गए 
और तुमने एक सपना देखा,
तुम स्वर्ग में थे 
जहाँ तुमने,
एक अनदेखा खुबसूरत फुल तोड़ लिया,
तुम्हे कहाँ मालुम था 
जब उठोगे 
वो फुल तुम्हारे हाथ में होगा।