Thursday, 21 July 2016

रफत-रफत में





मैं उन्हें डेन्टिस्ट के यहाँ ले कर गया था, हमारा आज का कोई अप्पोइंटमेंट नहीं था, कल ही तो उन्होंने केप लगवायी थी। एक तरह से ट्रीटमेन्ट कल ही खत्म हो गया था। डॉक्टर ने तो रस्मी तौर पर कहा था कि कल आप मुझे फोन पर ही बता देना कि सब कुछ ठीक ही रहा। पर रात ही से उन्हें दर्द था। उन्होंने बड़ी हिम्मत से सहन किया, कोई पेन किलर नहीं लिया जिससे वे डॉक्टर को सही स्थिति बता सकें और उसके लिए तकलीफ को जड़ से पकड़ना आसान हो। जैसे ही हमने अपनी सारी बात बताई, छूटते ही डॉक्टर ने कहा, "तो आपने पेन किलर क्यों नहीं खाई। दर्द जैसे ही बढ़ने लगे हमें दवा खा लेनी चाहिए। दर्द का 'साइकल' तोड़ना बहुत जरूरी होता है, नहीं तो दर्द इकट्ठा होने लगता है और फिर पहले वह असहनीय और फिर लाईलाज हो जाता है।"

डॉक्टर साहब तो रफत-रफत में अपनी बात कह गए पर मुझे काम दे गए ........ "दर्द का 'साइकल' तोड़ना बहुत जरूरी होता है, नहीं तो दर्द इकट्ठा होने लगता है और फिर पहले वह असहनीय और फिर लाईलाज हो जाता है।" एक बार तो लगा जैसे वे दाँत के दर्द की नहीं बल्कि दर्शन की बात कर रहे हैं, या फिर जीवन जीने की कला को उदाहरण के साथ समझा रहे हैं। दूसरे ही क्षण मुझे एक्हार्ट टॉल की 'द पॉवर ऑफ नॉउ' का वो कॉन्सेप्ट याद आ गया जिसमें वे लिखते हैं कि हर बार जब हमें कोई बात इतनी बुरी लगती है कि गुस्सा आने लगता है तब उस गुस्से के गुजर जाने के बाद भी उसकी कुछ बातें हमारे मन में बच जाती है। ऐसे हर बार हमारे वैसी ही किसी बात पर गुस्सा आने पर ये बची हुई बातें एक साथ इकट्ठा होने लगती हैं। इन्हें बातों की जगह शायद बारूद के कण कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। फिर किसी दिन वैसी ही किसी बात पर जब हमें गुस्सा आता है तो जैसे सारी इकट्ठा हुई बातों को चिंगारी लग जाती है। बात तो हम उस समय जो बुरा लगा उसकी ही कर रहे होते हैं लेकिन आवेश उन सारी इकट्ठा हुई बातों का होता है। जैसे कोई बम ही फट पड़ा हो, और इस तरह एक छोटी-सी बात हमारे रिश्तों को तहस-नहस कर देती है। 

और ऐसा इसलिए होता है कि हर बार गुस्सा आने पर मन में हम कुछ बचा लेते हैं। हम गुस्से का पेन किलर नहीं खाते, और इसका 'साइकल' बन जाता है और दाँत के दर्द ही तरह यह पहले असहनीय और फिर लाईलाज यानि काबू से बाहर हो जाता है। लेकिन गुस्से का पेन किलर क्या हो? निश्चित ही ये दवा सबके लिए अलग-अलग होगी क्योंकि क्रोध एक भाव है और सबकी भावनाओं की तीव्रता अलग-अलग। पर जो भी हो; चाहे कह लीजिए, समझ लीजिए, माफ कर दीजिये या किनारा कर लीजिए लेकिन गुस्से एक भी कण मन में नहीं बचना चाहिए।

तो जो मैं समझा, 
वो ये कि विकार आना मानवीय शरीर और मन की कमजोरी और विशेषता है, वे आयेंगी ही लेकिन उनका कुछ भी शेष अपने पास बचा कर नहीं रखना है। हर वो सम्भव प्रयास करना है जिससे उनका चक्र न बनने पाए। यदि ऐसा हुआ जो जैसे-जैसे समय बीतेगा उनसे निजात पाना मुश्किल होता चला जाएगा। और इकट्ठा हुआ जहर तो नुकसान फैलाएगा ही इसमें क्या सन्देह है। 
सहेजना ही है तो उसके लिए खुशियाँ होती हैं, दर्द नहीं।  

Wednesday, 15 June 2016

खुशियों की तैयारी




दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो खुश नहीं रहना चाहता। कम से कम ये एक बात तो हम सब में कॉमन है ही, और मुझे नहीं लगता इसमें कोई दो राय होगी। खुशियाँ, चाहिए हम सबको और है बहुत कमों के पास, डिमाण्ड और सप्लाई में इतना बड़ा गैप शायद ही और किसी में हो, इसलिए है भी ये बहुत कीमती। पर विचार करते-करते एक बात चौंकाने वाली दिखी, और वो ये थी कि इसे हमने उस श्रेणी में डाल दिया है जहाँ हमने उन बातों को रख रखा है जो प्रकृति के अधिकार में है, जिस पर हमारा कोई जोर नहीं। 

शायद इसलिए कि हम पैदा तो खुश ही हुए थे पर फिर जैसे-जैसे हम बड़े होते गए ये हमसे दूर होती गई। अध्ययन कहते हैं कि जब हम बच्चे थे, कभी किसी तो कभी किसी बात पर दिन में 400 बार होंठों पर मुस्कराहट थिरक उठती थी, और अब बड़े होने पर हालत ये कि बमुश्किल 40 बार आ पाती है। हमने सोचा यह स्वाभाविक होगा, जैसे बड़े होने के साथ हमारी आवाज बदलती है या दूसरे परिवर्तन आते हैं वैसे ही खुशियों के साथ भी होता होगा! 'यही जिन्दगी है!' - हम खुश हैं तो हैं और नहीं तो नहीं, जैसा हमारा भाग्य। जीवन की परिस्थितियाँ हमारे तो बस में नहीं, हमारा काम तो बस उसका डटकर मुकाबला करना है, बस। कभी हम हार जाते हैं तो कभी जीत, जीत गए तो खुश हो लिए और हार गए तो दुखी; पर हाथ में कुछ नहीं, जैसा नियति ने लिखा है वैसा भोगना है। 

तो फिर ये सारा ज्ञान, सारा कर्म किसलिए? क्या हम महज परिस्थितियों के गुलाम भर हैं? नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता है? हम खुश पैदा हुए थे यानि ये हमारा नैसर्गिक, मूल स्वभाव है। तब तो इसका मतलब ये हुआ कि हम खुश हैं तो नॉर्मल हैं, खुश नहीं हैं तो, एबनॉर्मल। ऐसा हैं, तो फिर आयी कहाँ से ये एबनोर्मल्टी। रुका, सोच और विचार को रोका, और ऐसा करते ही कुछ सतह पर आया। जो आया वो यह था कि हम जैसे-जैसे बड़े होते गए, जिन्दगी की तैयारी करने लगे। पहले तो अपने बड़ों से सुन, फिर अपने आस-पास देख उसकी एक छवि गढ़ ली। ये छवि बड़ी डरा देने वाली थी जैसे जिन्दगी नहीं कोई जंग हो। अब हम इस जंग की तैयारी में जुट गए। हमें ऐसे बिहेव करना है, ऐसे बोलना है, लोग कैसे होते हैं?, क्या-क्या मुश्किलें हमारे सामने आने ही वाली हैं?, और न जाने क्या-क्या। एक योद्धा की तरह हमने आपको लैस कर लिया, अब आप ही बताइए ऐसे में खुशियाँ क्या खाक फटकेंगी हमारे पास?

तो करना बस इतना ही होगा कि इस कवच-बख्तर को, इन हथियारों को उतारना होगा। अपने आपका सहज करना होगा। डर की जगह विश्वास को जगह देनी होगी। ऐसा नहीं कि हमारे ऐसा करने से दुनिया एकदम से अच्छी हो जाएगी, पहले की तरह ही इसमें अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग होंगे, सब दिन अच्छे भी नहीं होंगे लेकिन मेरा पाला अच्छे लोगों से पड़ेगा, मेरे साथ अच्छा ही होगा क्योंकि मेरा विश्वास अच्छाई में है, इस बात को समझना और इस पर भरोसा कायम करना होगा। 

तो जो मैं समझा,
वो ये था कि खुशियों को हर पल का साथी बनाना है तो सब से पहले जिन्दगी की तैयारी में जो कुछ सीखा है उसे अनसीखा करना होगा और उन बातों का अभ्यास करना होगा जो हममें थीं ही। अभ्यास इसलिए की इतने साल हो गए, हमें हमारे स्वभाव की ही आदत नहीं रही। अकारण किसी को देख मुस्करा देना, छोटी सी बात पर खुश हो जाना, अपनी पसन्द-नापसन्द को खुल कर बताना, जो है सो कहना, बात इसलिए करना कि कुछ कहना या जानना चाहते हैं और न कि किसी से जीतना। ........... हाँफने लगा हूँ, ये फेहरिस्त लम्बी है, बस यूँ समझ लीजिए जैसे हम थे वही होने का अभ्यास करना है। 
तो लब्बोलुआब ये कि खुश रहना सीखा जा सकता है, ये हम पर हैं कि हम इसके लिए कितने तैयार हैं और कितना प्रयास करते हैं।   

Wednesday, 18 May 2016

जो नहीं उसकी जरूरत भी नहीं



जब आचार्य विनोबा भावे जैसा व्यक्ति कहे कि, "जो गुण अपने में नहीं है, वह गुण अपने में लाने की कोशिश नहीं करनी है", तो ऐसा नहीं लगता जैसे सिर पर न जाने कब से रखा टनों बोझ किसी ने नीचे उतार, रख दिया हो। पर आप चौंकते भी हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है? अपनी कमियों को देखना और फिर उसमें सुधार करना, ये बात तो हम उस पहले दिन से रट रहे हैं जिस दिन से हम कुछ समझने लगे थे।हम आज जो हैं वो उन सुधारों का और उन कमियों का जो हम नहीं सुधार पाए, का जोड़ ही तो हैं। और जो बातें हम नहीं सुधार पाए, उनका आज भी हमें अफसोस है। फिर ऐसा कैसे हो सकता है? जो गुण अपने में नहीं है, वही तो लाने की कोशिश करनी है। यही तो बेहतर इन्सान बनने का फलसफा है, पर्सनल्टी-डेवलपमेंट का बेसिक सब्जेक्ट मैटर। और वे हैं कि कह रहे हैं, जो गुण अपने में नहीं है, वह गुण अपने में लाने की कोशिश नहीं करनी है। 

वे आगे लिखते हैं, "दूसरों के गुणों के लिए आदर बढ़ाना होगा और अपने गुणों का विकास करना होगा। ......... हमारे में दोष भी होंगे। जिन मनुष्यों में वे दोष न हों, उनका द्वेष न करें।" यहाँ आकर तो वे जैसे पूरी तरह आजाद ही कर देते हैं। हमारे में दोष होंगे ही, और ये कोई अफसोस की भी बात नहीं। हमें तो सिर्फ अपने गुणों का विकास करना है यानि हम सब में कोई न कोई गुण, कोई न कोई खास बात है, इतना भी तय है। हमारे में, हम सब में कई ऐसी बातें भी होंगी जो हमारे में नहीं होनी चाहिए, इन्हें सहर्ष स्वीकार करना होगा, यहाँ तक कि जिनमें वे दोष नहीं हैं उनसे तुलना करने की भी कोई जरुरत नहीं। आपके कुछ दोष आपको किसी तरह कमतर नहीं बनाते। 
हैं न ! पूरी आजादी, पर ये आजादी भी है हर आजादी की तरह एक जिम्मेदारी के साथ कि आपको अपने गुणों का बढ़ाना होगा। 

अपने गुणों को बढ़ाना होगा, स्वाभाविक है पर जो नहीं है उसे लाने की कोशिश ही न करना ,......... निश्चित ही कोई गहरी बात होगी, मैं काफी दिनों तक मथता रहा। समझना चाहता था इसके पीछे का विज्ञान। फिर एक दिन सूझा कि इसे उलट कर देखते हैं और जैसे ही ऐसा किया पूरी कहानी समझ में आ गयी। कैसे किसी व्यक्ति की एक गलत आदत धीरे-धीरे उसमें सारी गलत आदतें लगवा देती है। जैसे एक चोर चोरी करते-करते किसी दिन बड़ा हाथ मार ले तो जुआ खेलने लगता है। जुआरियों के साथ बैठ कर शराब और फिर लालच में आकर कोई बड़ा अपराध, हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य। उसने अपनाया था एक अवगुण को पर लग गए धीरे-धीरे सारे। वैसे ही जब हम उस गुण को पालने-पोसने लगते हैं जो हमारे में हैं तो एक सीमा तक बढ़ जाने के बाद वो स्वतः दूसरे गुणों को आकर्षित करने लगता है। और धीरे-धीरे आप में वे सारे अच्छे गुण भी आने लगते हैं जिसके लिए आपने अलग से कोई प्रयास किए ही नहीं। जैसे एक करुणा से भरा व्यक्ति किसी से क्या झूठ बोलेगा, अहिंसा में तो उसका विश्वास होगा ही, और सेवा की तरफ स्वतः उन्मुख भी। 

तो जो मैं समझा,
वो ये था कि हम सब में कोई न कोई खास बात है। प्रकृति ने एक भी ऐसा इन्सान नहीं बनाया जिसे कोई विशेष गुण न दिया हो। हमें उसे पहचानना कर उसे बढ़ाना होगा। यदि आप में सच बोलना है, या दूसरों की दुखों को कम करना अच्छा लगता है, या फिर आप अपने काम में ईमानदार बने रहना चाहते हैं या कोई और बात,- आप बस इन्हें ही अपने आप में बढ़ाइए। प्रकृति ने आपके बढ़ने का यही रास्ता चुना है। जो आप में नहीं है, यदि वे जरुरी हैं तो इसी रास्ते मिलेंगे। इसके साथ गाँठ बाँध लीजिए कि आप में जो नहीं है उसका एक मिनट भी दुख नहीं मनाना है, ये भी प्रकृति का ही चुनाव है। जिनमें है, वो उनका रास्ता है। आप सिर्फ अपने रास्ते पर चल सकते हैं इसलिए इस बात को लेकर न तो अपने आप को कमतर समझने की जरुरत है और न ही उन रास्तों पर पहुँचने की कोशिश करने की दरकार।   

Saturday, 16 April 2016

सफलता, आपके अपने तरीके से


सफलता की ये परिभाषा सचमुच हौसला बढ़ाने वाली लेकिन सोचने पर मजबूर देनी वाली थी। मेरे प्रिय लेखक ऐलन कोहेन लिखते हैं, "व्यक्ति की सबसे बड़ी सफलता अपनी तरह जी पाने में है।" 
हौसला बढ़ाने वाली इसलिए कि मेरे अपने जीने के तरीके को समर्थन था। मैं जैसा हूँ ठीक हूँ ये छिपा सन्देश था, जैसे मेरे होने को ही मान्यता थी। और सोचने वाली इसलिए कि अपनी तरह जीना कहते किसे हैं? ये 'अपना तरीका' किसी में कब और कैसे बनता है? या ये उसमें होता है, जन्मजात जैसे डीएनए। 

जब मैं इस 'अपने तरीके' को टटोलने लगा तो पाया हम अमूमन उसे अपना तरीका कहते हैं जिसे हमसे पहले किसी और ने आजमा कर वो सब हासिल किया है जो हम भी अपनी जिन्दगी से चाहते हैं। वाजिब भी है हमारा ऐसा सोचना, दो दूनी चार होते हैं तो चार भाजक दो भी तो दो ही होंगे ना? वैसे ही, हम कैसे जीना चाहते हैं ये स्पष्ट हैं तो हमें तरीका भी तो वो ही अपनाना पड़ेगा ना? कारण और परिणाम की यही शिक्षा तो हम स्कूल-कॉलेज में लेकर बड़े हुए हैं। पर न जाने क्यूँ अपने आप से तर्क करते हुए मैं भी ठीक वैसा ही महसूस कर रहा था जैसा पढ़ते हुए अभी आप कर रहे हैं, थोड़ा सा असहज। क्या गड़बड़ है ये तो मालूम नहीं चल रहा था पर कुछ तो है जो ठीक नहीं है ऐसा पक्के से लग रहा था। 

काफी सोचने के बाद भी कुछ नहीं सूझा तो लगा दो-चार दिनों के लिए बात यहीं छोड़ देते हैं, प्रश्न करना हमारा काम है जवाब देना प्रकृति का। वो अपने तरीके से जब उचित समझेगी अपने आप बताएगी। मैं दूसरा कुछ पढ़ने-लिखने में लग गया। अचानक एक दिन लगा जैसे कोई मुझसे पूछ रहा था कि जिन्दगी क्या कोई गणित है? ये प्रश्न नहीं जवाब था। और फिर इसके सहारे-सहारे तो मैं चलता ही चला गया। हम चाहे अपने मन से तय करें या किसी को देखकर कि हम अपना जीवन कैसे जीयेंगे लेकिन उसे पाने का तरीका हमारा अपना होगा, वो जो हमारे जीवन-मूल्यों से मेल खाता हो। लता मंगेशकर की बड़ी तमन्ना थी कि वे एक बार के. एल. सहगल के साथ गाए और उतना ही नाम कमाए, उन्होंने शायद उससे भी अधिक कमाया भी पर गाया हमेशा अपनी तरह। बात समृद्धि की हो तो व्यापार नारायण मूर्ति और प्रेमजी अजीम जैसे लोग भी करते हैं और वे लोग भी हैं जिनके नाम रोज अखबारों को भरने के काम आते हैं।  

अब बात थी कि ये 'अपना तरीका' जन्मजात होता है या व्यक्ति इसे कहीं से सीखता है? बात लता जी चल रही थी तो इसे भी गायन के उदाहरण से ही समझते हैं, अपनी तरह गाना जन्मजात होता है लेकिन पेशेवर गायिकी में अपना व्यवहार कैसा रखना है, कैसे गाने गाने हैं ये निर्भर करता है उस गायक के जीवन-मूल्यों पर जो उसने अपनी सोच-समझ से चुनें हैं। यानि ये होता जन्मजात है जिसे व्यवहार में लाना व्यक्ति धीरे-धीरे अपने चारों ओर से चुनता है, सीखता है। 

तो, जो मैं समझा 
वो ये था कि हम जैसे हैं ठीक हैं, हमारे तरीके हमारे अपने हैं जिन्हें बदलने की कोई जरुरत नहीं चाहे हम जो जिन्दगी से चाहते हैं वो किसी और ने किन्हीं और तरीकों से हासिल किया हो। इस तरह सफलता की इस परिभाषा में एक आश्वासन भी छिपा था कि एक ही चीज को कई तरीकों से हासिल किया जा सकता है। ये आश्वासन ही तो इसकी विशेषता है जो हमें हिम्मत देती है अपने विश्वासों, अपने मूल्यों पर टिके रहने की। और ऐसा व्यक्ति तो निश्चित ही सफल है ही। 

Monday, 4 April 2016

जो है वही है


अभी मैं जो पुस्तक पढ़ रहा हूँ ये सचमुच नई दृष्टि देनी वाली है। डॉ. अभय बंग की लिखित 'ह्रदय रोग से मुक्ति'। नाम से तो ऐसा ही लगेगा जैसे हर दूसरी किताब की तरह ये भी कोई नुस्खे बताने वाली किताब ही है, बशर्ते कि आप श्री अभय बंग को नहीं जानते हों। महाराष्ट्र के गढ़ चिरौली आदिवासी इलाके में डॉ. अभय पिछले करीब 28 सालों से काम कर रहे हैं। एम.डी. के बाद आगे पढ़ने वे जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी, अमेरिका चले गए, समय-समय पर उनके रिसर्च-पेपर अलग-अलग मेडिकल जर्नल्स में छपते रहे हैं। 44 वर्ष की उम्र में एक दिन अचानक उन्हें हार्ट-अटैक आ गया। वैसे ये किसी को भी कह कर नहीं आता, पर सभी को लगता ऐसे ही है। बात जीवन-मरण की थी और वो भी एक शोधार्थी के सामने। उन्होंने अपनी ही शोध शुरू कर दी। 

अगले तीन सालों तक उनका जीवन ही उनकी प्रयोगशाला रहा और वे बीमारी को काबू में ही नहीं पलटने में भी कामयाब हुए। ये उसी सफर की आत्म-कथा है। पहले दो अध्यायों में तो उनकी पड़ताल शरीर के स्तर पर होती है पर तीसरे अध्याय से वे मन को खंगालने लगते हैं। आप चौंक उठते हैं, ऐसा लगता है जैसे आपके मन की परतें भी साथ में उधड़ रही हैं। एक जगह आकर वे लिखते हैं कभी ईश्वर होने या उसके कैसे होने की मैं कल्पना करता तो वैसी ही कर पाता जैसा मैंने बचपन से पौराणिक कथा-कहानियों में सुना था। बादलों के पार बड़े से सिंहासन पर बैठा सोने के मुकुट-आभूषणों और रेशमी वस्त्र पहने कोई दिव्य पुरुष। पर साथ ही लगता, ऐसा कैसे हो सकता है? और दूसरे ही पल सँस्कार इस पर सोचने से मना करने लगते। पर अब तो वे शोध कर रहे थे। 
एक दिन उनके हाथ लगी गाँधी जी की आत्म-कथा, 'सत्य के साथ प्रयोग।' पढ़ी उन्होंने विद्यार्थी-जीवन में भी थी पर अब दृष्टि दूसरी थी। उसमें एक जगह गाँधी जी कहते हैं, 'सत्य ही ईश्वर है।' बस, यही वो तथ्य था जिसने उनकी शोध के इस हिस्से को मुकाम तक पहुँचाया।  

हम सब ये तो सुनते-पढ़ते बड़े हुए हैं कि 'ईश्वर ही सत्य है' पर वे तो कह रहे थे, 'सत्य ही ईश्वर है'। बात तो ठीक थी, यदि ईश्वर सत्य है तो सत्य ही ईश्वर है पर शब्दों के इस फेर से आगे रोशनी दिखने लगी थी। ईश्वर को हम खोज पाएँ न खोज पाएँ, या खोजा भी जा सकता हो या नहीं लेकिन 'सत्य' को तो ढूँढा ही जा सकता है। और यदि वही ईश्वर है तब तो इसका मतलब हुआ कि ईश्वर को भी ढूँढा जा सकता है। तो 'सत्य' क्या है? ......... अरे! प्रश्न को मुश्किल क्यूँ बनाना? जो है वही तो सत्य है, हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा। ये पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, आप-मैं, यहाँ तक कि एक चींटी भी, और यही ईश्वर है। ऐसा समझते ही एक बात और सतह पर आयी और वो यह कि जो है वो तो इसी क्षण में है। अतः 'जो है' उससे जुड़ना है तो इसी क्षण में रहना होगा। इसी क्षण में रहना युक्ति है तो इसी क्षण में बिखरा सौन्दर्य 'ईश्वर'। शायद इसी सौन्दर्य को बखानने हमारे पूर्वजों ने उस 'दिव्य-पुरुष' की कल्पना की होगी। 

तो, जो मैं समझा,
वो यह कि यदि ईश्वर ही हमारा उद्धार करते हैं तो वे तो इसी क्षण में हैं। यानि न तो जो था और न ही जो होगा उससे हमारा कुछ हो सकता है। हमारा कुछ हो सकता है तो बस, इस क्षण में जो है उसी से। इस तरह तो 'जो है' उसे स्वीकारना 'ईश्वर-दर्शन' ही हुआ और उससे आगे बढ़ने  प्रयास 'ईश्वर-भक्ति'। बात बस इतनी सरल-सीधी है और हम हैं कि न जाने कहाँ-कहाँ उलझे हुए हैं। 

Monday, 21 March 2016

परिवर्तन की नदी और परम्पराओं की टहनी


'परिवार, परम्पराएँ और परिवर्तन', यही विषय था जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल के उस सेशन का, वक्ता थीं मृदुला सिन्हा और अल्का सरावगी। बातों ही बातों में एक बात पर अल्का जी ने कहा, 'मेरी दादी मेरी माँ से कहीं ज्यादा खुले विचारों की थी।' अरे! हाँ, मैं सोचने लगा, बात छोटी सी थी पर मैं स्वयं भी तो पिछले कई सालों से कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था जिसे आज शायद बस शब्द मिल गए थे। क्या आपको नहीं लगता, हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं ज्यादा परम्परावादी होते जा रहे हैं। रीती-रिवाजों को संस्कृति के नाम पर धर्म समझने लगे है। सीधे कहूँ तो, रहन-सहन से तो मॉडर्न और विचारों से दकियानूस। क्यों होते जा रहे हैं हम इतने दकियानूस?

क्या आजादी के बाद से अस्सी के दशक तक की पीढ़ी जन्मपत्री, मांगलिक-दोष, वास्तु में इतना ही विश्वास करती थी? मुझे नहीं लगता। त्योहारों को ही ले लीजिए, उनके पीछे की बात और उसे मनाना तो जैसे कहीं पीछे छूट गया है और हम विधियों में उलझ कर रह गए हैं। मैं नहीं कहता कि ये फिजूल हैं। है, इनका भी विज्ञान है लेकिन मैं निश्चित हूँ कि हमारी वो वजह नहीं। तो साफ है, इन सब के पीछे वजह है डर, और कुछ नहीं। तो हम इतने डरे हुए क्यूँ है? पहले से आज हमारे जीवन में सुविधाएँ भी बढ़ी है और रहन-सहन का स्तर भी। क्या जब हम शुरू हुए थे तब हमने सोचा था कि किसी दिन इतना सब हमारे पास होगा? नहीं ना, तब तो फिर हमारा डर कम होना चाहिए था, पर ये तो बढ़ा। क्यूँ हुआ ऐसा?

ये विश्लेषण मेरा है पर मैं अल्का जी के निष्कर्ष से सहमत था, हम भले ही अच्छी रफ्तार से आगे बढे लेकिन समय में परिवर्तन उससे कहीं तेज हुआ और हम चाह कर भी उससे ताल नहीं मिला पाए। इसमें हमारी गलती थी भी नहीं पर इसने हमें असुरक्षा की भावना से भर दिया। परिवर्तन की नदी के तेज बहाव में अपने आपको बचाए रखने के लिए हमने परम्पराओं की टहनी पकड़ ली। हम चाहेंगे ही कि हमारे बच्चे सुरक्षित खुश रहें, हमारे परिवार में कभी धन-धान्य की कमी न हो, हम सब खुश रहें पर वक्त इतना तेजी से बदला कि हम डर गए और हमने इसका जवाब जन्मपत्री, वास्तु और दूसरे कर्मकाण्डों में ढूँढ लिया। 

बात वहाँ इतनी ही होकर रह गयी थी, पर ये तो पूरी नहीं थी। घर आकर मैं सोचने लगा, आखिर आप और मैं करें क्या? या सिर्फ ऐसा होते हुए देखते रहें, अपनी जिन्दगी यूँ ही डर में गुजार दें। मैं वापस सोचने लगा, परिवर्तन-ताल-असुरक्षा, और तब अचानक एक छूटी कड़ी दिखाई देने लगी। वो थी, क्या हर होने वाला परिवर्तन हमारे लिए है? प्रश्न के स्पष्ट होते ही जवाब जैसे तैयार था,- नहीं, हर परिवर्तन हमारे लिए नहीं; और फिर तो जैसे दरवाजे खुलते चले गए। 

और जो मैं समझा
वो ये था कि हमारी दुनिया हम बनाएँगे। कितना बदलना है ये हम तय करेंगे न कि बाजार या हमारे संगी-साथी। जो उपलब्ध है उसे अपनाना जरुरी नहीं जब तक कि वो आपके जीवन को बेहतर न बनाता हो। हर व्यक्ति के जीने का अपना तरीका है। कोई और जो चुनता है ये उसके जीवन की जरुरत होगी। ऐसा करने से परिवर्तन का अनावश्यक दबाव कम होगा। चीजें नियंत्रण में होगीं तो अपने आप पर विश्वास लौटेगा। न बहने का खतरा होगा न टहनी को पकड़ने की जरुरत।  

Sunday, 28 February 2016

इष्ट आपका कौन हो?

ये बात सही है कि आपका इष्ट कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अन्ततः वह एक ही है।
लेकिन इसे थोड़ा समझना होगा,-
इष्ट वो महापुरुष जिन्हें दर्शन, निर्वाण, कैवल्य, आत्मज्ञान हुआ। ऐसा होने के बाद वे भी वही हो गए, शुद्धतम ऊर्जा। सच, इस मायने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन उन्होंने यह मंजिल अलग-अलग रास्तों पर चलकर पायी।
किसी ने भक्ति से, ध्यान से, तो किसी ने तपस्या से। किसी ने समर्पण से तो किसी ने शक्ति से।
आप भी पाएँगे कि कुछ रास्ते आपको सहज लगते हैं और कुछ रास्ते जिनके बारे में भी आप मानते हैं की वे भी आपको वहीं पहुँचायेंगे पर आपको अपने लिए उतने सहज नहीं लगते।

तो स्पष्ट है कि जिन रास्तों पर चलना आपको सहज लगता है उस पर चला वो महान व्यक्ति ही आपका इष्ट होना चाहिए जिसने उस पर चलकर अपने आपको अनुभव किया, कैवल्य प्राप्त किया।  

 (डायरी पन्ना)