Friday, 27 December 2013

फ़ालतू पचड़े में क्यों पड़ना




आज अनदेखी करना शान्त जीवन का गुरु-मंत्र बन गया है। 'फ़ालतू पचड़े में क्यों पड़ना', ये सीख हम रोजमर्रा कि जिन्दगी में लेते-देते रहते है, इसके बावजूद इसके ये 'पचड़े' दिन दौ गुनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे है। शायद ही हमारा सामाजिक जीवन इससे पहले कभी इतना त्रस्त रहा हो। डर ने हमारे जीवन को हर लिया है। इतना कि किसी गलत बात का विरोध करने कि सोचते ही उसके परिणाम हमें डराने आ जाते है। 'मेरे ऐसा करने से क्या होगा, उल्टा अपना ही नुकसान कर बैठूँगा' की भावना इतनी बलवती हो जाती है कि वहाँ से खिसकना ही श्रेयस्कर लगता है। अब तो जैसे ये बात सर्व-स्वीकार्य हो चुकी है और ऐसा नहीं करने वाला यानि फ़ालतू पचड़े में पड़ने वाला तय शुदा 'मूर्ख'।

दिल ही दिल में तो हम सब ही जानते है कि ये बात गलत है। उस दिन ये बात और भी शिद्दत से समझ आती है जब बारी हमारी होती है और, कोई और ऐसे ही अनदेखी कर खिसक रहा होता है। फिर हम ऐसा क्यूँ करते है? यहाँ तक कि अपने साथ ऐसा हो जाने के बाद भी हमारा व्यवहार नहीं बदलता। मन में इस सवाल के साथ जवाब ऐसे ही चला आया जैसे शिव के साथ पार्वती। मन ने कहा ऐसे व्यक्ति से, ऐसी स्थितियों से हम जीत तो सकते नहीं, फिर लड़ने से क्या फायदा? ये जवाब कम और सवाल ज्यादा था, सयाना सवाल। काफी दिनों तक इसे ले लेकर घूमता रहा कि अच्छा घर देखकर इसे ब्याह दूँ, आखिर खोज पूरी हुई, उम्र में मुझसे काफी एक बड़े एक स्नेही लेखक-मित्र की आप-बीती में।

उन्होंने बताया, कई वर्षों पहले कि यह घटना है। मैं ऑफिस से लौट रहा था कि कुछ मनचले चलती सड़क पर एक लड़की के साथ बदतमीजी कर रहे थे। बीस-पच्चीस लोग भी जमा थे पर सब के सब मूक-दर्शक। मैंने ड्राइवर से गाडी रोकने को कहा, पहले तो रोकी नहीं और फिर दृढ़ता से कहने पर रोकी भी तो थोड़ी आगे ले जाकर। कहा, मैं तो पचड़े में नहीं पड़ता, आपको जाना हो तो जाओ। उन्होंने आगे बताया, वे गए और उन लड़कों से भिड़ गए। लड़कों को उलझाकर सबसे पहला काम किया, लड़की को कहा, 'तुम निकलो, घर जाओ'। वे अकेले और सामने दो-चार लड़के, अच्छी खासी मार खानी पड़ी लेकिन वह लड़की जरुर बच निकली। वे कहते है, एक तरफ तो पूरा शरीर दर्द कर रहा था दूसरी तरफ रास्ते भर वो ड्राइवर उपदेश दिए जा रहा था। कहा था न बाबू, फ़ालतू कि तबालत मोल मत लो, अब भुगतो। पता नहीं कैसे, लेकिन उन लड़कों से उलझते मेरा कोई विजिटिंग-कार्ड जेब से गिर गया होगा। दूसरे दिन, जिस स्वर में उस लड़की का फ़ोन आया, उसने मेरे सारे दर्द को हवा कर दिया।

यही था जवाब 'जीत नहीं सकते तो लड़ने से क्या फायदा?' का। गलत का विरोध करना ही पर्याप्त है, विरोध का परिणाम चाहे जो हो, ऐसा कर पाना ही व्यक्ति की जीत है, डर पर जीत और डर से बड़ा व्यक्ति का कोई शत्रु नहीं। कोई हारे न हारे ऐसा कर हम डर को जरुर डरा देते है और इससे बड़ी जीत किसी व्यक्ति के लिए क्या होगी?

हमें अहसास ही नहीं होता पर हमारे ये छोटे-छोटे विरोध एक सामूहिक प्रतिरोध में हिस्सेदारी निभा रहे होते है जो लम्बे समय में व्यवस्था में बदलाव का कारण बनती है। चलिए, लम्बे समय के बाद होने वाले फायदे हमें नहीं लुभाते हों तो भी इतना तो तय है कि हमारा ये आचरण अपनों से छोटों के लिए प्रेरणा जरुर बनता है, जीवन जीने की एक सीख। इससे बढ़कर, श्रेष्ठतम तो यह है कि हमारा यह आचरण हमारे ही आत्म-बल को निखारता है। आत्म-बल की जिस गंगा को हमारे तर्क-वितर्कों ने डर के पत्थर से दबा रखा था, उसे मुक्त कर हमारा ये आचरण हमारा और हमारे अपनों का जीवन सुंदर और सुरक्षित बना देता है।

आपका
राहुल ...........  
(जैसा कि दैनिक नवज्योति में रविवार, 22 दिसम्बर को प्रकाशित)


Friday, 20 December 2013

अपने मूव को पहचानिए



वैसे तो अपने अन्तिम मैच के दिनों सचिन तेंदुलकर टी.वी. के हर चैनल पर छाए हुए थे लेकिन रिमोट पर मेरा हाथ उस प्रोग्राम पर रुक गया जहाँ वे बच्चों से क्रिकेट और जीवन के बारे में बात कर रहे थे। एक बच्चे ने उनसे पूछा कि क्या आप अपने पुराने मैच देखते है? उन्होंने कहा, 'देखता हूँ लेकिन अपनी कमियों के साथ और उससे कहीं अधिक ध्यान अपनी अच्छाईयों पर देता हूँ। ये मुझे अगले मैच के लिए आत्म-विश्वास और नए जोश से भर देती है।'

कोई महान् पैदा नहीं होता; व्यक्ति कि सोच, व्यक्ति का दृष्टिकोण उसे महान् बनाता है। अपनी अच्छाइयों पर ध्यान दो, उन्हें अपनी शक्ति बनाओ, ये कोई सचिन ही कह सकता है। कहाँ हम सब बचपन से यही सुनते आये है कि अपना सारा ध्यान अपनी गलतियों पर लगाओ, इन्हें दूर करके ही तुम बेहतर प्रदर्शन कर पाओगे। किसी ने ये नहीं सोचा कि सारे दिन अपनी कमियों के बारे में ही सोचते रहेंगे तो हमारे आत्म-विश्वास का क्या होगा? क्या कमजोर आत्म-विश्वास से कभी किसी ने बड़ी सफलता पाई है? निश्चित ही हमें अपनी कमियों को पकड़ना चाहिए, उन पर मेहनत करनी चाहिए कि कोई उन रास्तों से हमें भेद न सके, कोई छोटी सी चूक हमारे किए कराए पर पानी न फेर दे, लेकिन एक बात ध्यान रखिए कि कमियों पर तो काबू ही पाया जा सकता है जबकि अच्छाईयाँ हमारी शक्ति बन सकती है।

सच तो यह है कि कमी या अच्छाई जैसी कोई चीज होती ही नहीं, सारी कि सारी व्यक्ति कि विशेषताएँ होती है। जादूगर प्रकृति प्रत्येक व्यक्ति को भिन्न मिश्रण देती है, यही कारण है कि हम मूलतः एक होते हुए भी अभिव्यक्ति के स्तर पर अलग-अलग है। कोई दूसरे जैसा नहीं, सभी अद्वितीय। हर व्यक्ति में कोई न कोई ख़ास बात होती है और अगर ऐसा है तो मान के चलिए कोई कम ख़ास भी होगी। हम यहाँ सबको अपनी ख़ास बात बताने आए है न कि उसे भूलकर बाकी बातों में उलझने। बाकी बातों को काबू में करना होता है जिससे हमारी ख़ास बातें उभरकर सामने आ सके। सचिन की बात का यही तो मतलब था लेकिन कितनी बड़ी बात कितनी आसानी और सहजता से उन्होंने कही कि एक बच्चे को भी समझ आ जाए। 


आपसे ये सब बात करते हुए मुझे याद आ रही है हल्की-फुल्की कॉमेडी फ़िल्म 'चाँदनी चौक टू चाइना' फ़िल्म में ढाबे पर काम करने वाला हीरो किसी तरह चीन पहुँच जाता है जहाँ स्थितियाँ कुछ ऐसी बनती है कि उसे वहाँ के श्रेष्ठ कुंग फू मास्टर से मुकाबला करना होता है। यही फ़िल्म का विलेन है। फ़िल्म का हीरो एक गुरु ढूँढता है और अत्यंत कठिन प्रशिक्षण से भी गुजरता है, इसके बावजूद मुकाबले के समय वह किसी तरह भी विलेन को काबू में नहीं कर पाता, तब घेरे से बाहर खड़े उसके गुरु यही कहते है, 'सिद्धू याद कर अपना वो मूव जो सिर्फ तेरे पास है'। उसे याद आता है कि ढाबे पर वह ढेर सारे आटे को किस तरह उठा-उठाकर लगाता था। थोड़ी देर ही बाद वो विलन उसे लगाया हुआ आटा नजर आने लगता है और वह उसके साथ वही कर रहा होता है जो उस आटे के साथ किया करता था। 

चित्रण निश्चित ही कॉमिक था लेकिन बात कितनी मार्मिक। हम सब में कोई न कोई 'मूव' है। कितना ही कुछ सीख लें, सीखा हुआ हमें रिंग में बनाए रख सकता है लेकिन जीत हमें हमारा अपना मूव ही दिलाएगा। जरुरत है अपने मूव को पहचानने की, उसे तराशने की, फिर जिन्दगी कि परिस्थितियाँ चाहे कैसी हों, वे हमारे बाँये हाथ का खेल होंगी। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 15 दिसम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ............  

Friday, 13 December 2013

थकना तो मरना है




ये बात मेरे लिए तो बिलकुल नयी है। न तो कहीं पढ़ा न ही किसी को कहते हुए सुना। कोई और कहता तो हवा में उड़ा भी देता पर जब कोई 92 वर्षीय स्वस्थ योग-नौलि विशेषज्ञ ऐसी बात कहे तो मैं तो क्या किसी को भी सोचने पर मजबूर होना पड़े। बात है कुछ दिनों पहले सेंट्रल-पार्क की, जब श्री सूरज करण जी जिन्दल मुझे नियमित सूर्य-नमस्कार करने को प्रेरित कर रहे थे और मेरा ऐसा नहीं कर पाने के फ़ालतू तर्कों को एक के बाद एक खारिज कर रहे थे। एक बात के जवाब में उन्होंने कहा, 'अरे! भाई थकिए मत। उतना ही कीजिए जितना कर सकें। जो थकाए वह योग हो ही नहीं सकता। इतनी जल्दी क्या है? बस थोडा-थोडा सीखते-करते चले जाइए और फिर थकना तो मरना है।'

मैं चौंका, ये क्या 'थकना तो मरना है'। पूछा उनसे तो उन्होंने एक सटीक उदहारण दिया, 'आप 100 मीटर के ओलम्पिक विजेता को दौड़ ख़त्म होने के तुरंत बाद वापस दौड़ने को कहिए, कोई हालत में वह ऐसा नहीं कर पाएगा। वह इतना थक चूका होगा कि कुछ समय तो उसे लगेगा ही अपने आप को इकट्ठा करने में। अब दुनिया के सबसे तेज धावक के जिन्दगी का वो समय जब वो दौड़ ही न पाए, उसके लिए 'मर जाने' जैसा हुआ कि नहीं? उनकी बात सुनकर आप ही बताइए, मेरे पास उनसे सहमत हो जाने के अलावा चारा ही क्या था?

उनसे बात कर मैं घर तो आ गया पर 'थकना तो मरना है' मेरे दिमाग में घर चुकी थी। ऐसी कि मैं तब से इसे जिन्दगी के हर पहलू से जोड़ कर देख रहा हूँ और अभी तक जहाँ पहुँच पाया वह यह कि किसी काम को तब तक ही कीजिए जब तक आप उसकी गुणवत्ता को बरक़रार रख सकें। यही आपके काम की हद होनी चाहिए। अपने काम को अच्छे से अच्छा करने की कोशिश आपको आत्म-संतुष्टि तो देगी ही, यही आत्म-संतुष्टि आपके मन में उस काम को करने की ललक भी बनाये रखेगी। हो सकता है यहाँ तक आपका शरीर थक जाए पर मन नहीं थकेगा। उसे फिर करने, और बेहतर करने की इच्छा मन में बनी रहेगी क्योंकि आपको कहीं न कहीं यह अहसास रहेगा कि अन्त में मुझे इससे संतुष्टि का आनन्द मिलने वाला है।

मुझे मालूम है, आप क्या सोच रहे हैं? आप कह रहे हैं, ऐसा कर पाना सम्भव थोड़े ही है। दिन में, जिन्दगी में ढेरों काम ऐसे होते है जिन्हें करना ही पड़ता है चाहे मन करे न करे या शरीर साथ दे न दे। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ लेकिन सिर्फ वहाँ तक जिन बातों पर हमारा जोर नहीं, जो ईश्वर या प्रकृति प्रदत्त है। एक बार सोच कर देखिए कि कितने ऐसे काम है जो हमें इस जीवन के साथ मिले है और कितने ऐसे जिन्हें हम न जाने क्यूँ लोक-लिहाज के नाम पर जबरदस्ती ढोए जा रहे हैं। आप जब अपने मन का काम करके थकते भी हैं तो उसकी थकान भी मजा देती है क्योंकि तब सिर्फ शरीर थकता है, मन तो खिल उठता है और यह खिला मन ही उन कामों को करने का ऊर्जा-स्रोत भी बनता है जो हमें इस जीवन के साथ मिले हैं। जरुरी है हम अपने जीवन से वो सारा बोझ उतार लें, उन सारे अनावश्यक दायित्वों से मुक्ति पा लें जो हमारे मन को थकते हों, उन्हें खिलने से रोकते हों। 

अन्त में मुझे दो सूत्र हाथ लगे। पहला, आपके कामों से आपका अंतर्मन रज़ा हो। जिन कामों को आप चुन सकें वे आपके मन के अनुकूल हों। दूसरा, आपके कामों की हद उसकी गुणवत्ता हो। काम को तब तक ही करें जब तक आप उसकी गुणवत्ता बनाए रख सकें। मैं तो आने वाले जीवन में यह कोशिश करूँगा कि मन कभी न थके क्योंकि थकना तो .....................। क्या आप मेरे साथ आएँगे?



(जैसा कि नवज्योति में 8 दिसम्बर, रविवार को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ......... 

Saturday, 7 December 2013

सुरति बनी रहे


स्मृति का अपभ्रंश है सुरति। दादू, नानक, कबीर का दिया शब्द ही ये। उन्होंने अपने दोहों-भजनों में जगह-जगह इसकी महिमा को गया है। परमात्मा को याद करना जितना जरुरी है उससे कहीं अधिक जरुरी है परमात्मा का याद रहना, यही है सुरति। हर क्षण यह अहसास जगा रहे, यह स्मृति रहे कि हम उसी की एक अभिव्यक्ति है, एक अद्वितीय रचना। वही हम सब के होने की वजह है। यह सुरति हमें हर बात में 'क्या होगा' कि चिंता से मुक्त रखेगी और तब हमारा पैमाना केवल उपयुक्तता और आनन्द होगा। कुछ भी करने से पहले हम सिर्फ यह सोचेंगे कि क्या हमारे लिए ठीक है और क्या हमें आनन्द भी देता है? ये सुरति हमें कर्ता भाव से मुक्त रख कभी अहंकारी न बनने देगी, फिर भला हमारा रास्ता कौन रोकेगा?
 
कबीर का रूपक सुरति को तरल कर सीधा दिल में उतारता है। वे कहते है जिस तरह पनिहारिनें घड़ा लेकर चलती है वही आपके जीने का अन्दाज हो। वे पनघट से घर हँसी-ठिठोली करती, गाती हुई लौटती है लेकिन सारी बातों के साथ एक ध्यान हमेशा घड़े पर बना रहता है। वह ध्यान न तो रास्ते के आनन्द में रुकावट बनता है न ही चिंता का कारण, बस बना रहता है एक पृष्ठभूमि की तरह। वे जो कुछ भी रास्ते में करती आती है उसे करने का ढंग अपने आप ही ऐसे ढल जाता है कि जरा सा पानी भी न झलके। बस यही सुरति है, इसी को गौतम बुद्ध ने 'माइंडफुलनेस' कहा है। 

इसी बात को थोडा विस्तार दें तो लगता है यह तो सफलता का अचूक सूत्र है। हमारी सम्भावनाओं को सम्भव कर पाने का रसायन। जीवन में हमें क्या पाना है, क्या होना है बस इसकी एक सुरति बनी रहे। हमारे हर किये न किये में एक 'माइंडफुलनेस' नजर आए। जीवन का तो हर क्षण उपलब्ध विकल्पों से अटा पड़ा है। मेहनत भरे, धैर्य माँगते रास्तों के साथ कुछ जुगाड़ भी और कुछ भटकाव भी सामने है जो निश्चित ही अधिक लुभावने होते है और तब अपने सपनों की स्मृति ही हमें सही रास्तों पर बनाए रखती है। एक और बात जिसका ध्यान रखना जरुरी है वह यह कि कहीं हम 'माइंडफुलनेस' को 'मिशन' न बना दें। मिशन यानि आपको सिर्फ और सिर्फ अपने लक्ष्य ध्यान रहे, रास्ते का आनन्द आप ले ही न पाएँ जैसे ताँगे का घोडा चलता है जबकि माइंडफुलनेस का मतलब रास्तों का आनन्द लेते हुए अपने सपनों को पूरा करने से है। 

हर क्षण की सुरति तो अंतिम सोपान है, एक दिन में भी कई बार ऐसा होगा जब कुछ करने के बाद ऐसा महसूस हो कि मैंने नाहक ही समय व्यर्थ किया। कहीं इससे आप यह न समझ बैठे कि इस तरह जीना तो मेरे लिए सम्भव नहीं। आप तो बस दिन में कभी भी एक बार यह टटोल लें कि आज आपने ऐसा कुछ किया या नहीं जो आपके सपनों को थोडा ही सही, नजदीक ले आया हो। इतना भर बहुत बड़ी बात है। इस तरह जीने की आदत हम दैनिक जीवन के छोटे-छोटे कामों को करने के ढंग से डाल सकते है जैसे खाना खाना हो या गाड़ी चलाना, सुबह कि सैर हो या सब्जी-फल खरीदना; इन्हें यंत्रवत न करें। आप पूरे मन से इन कामों में उपस्थित रहिए। इस तरह उपस्थित रहना आपकी आदत बनती चली जायेगी और तब जीवन के महत्वपूर्ण कामों में भी ऐसा ही होने लगेगा, जीवन के तागों में वस्त्र होने की सुरति बनने लगेगी। 


(नवज्योति में रविवार, 1 दिसम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ........... 
 

Friday, 29 November 2013

एक श्रद्धांजलि, एक पछतावा



और बिज्जी नहीं रहे ............। बिज्जी यानि श्री विजयदान देथा। राजस्थानी के शीर्षस्थ लेखक। आप शायद उन्हें फ़िल्म 'पहेली' के नाम से जल्दी जान पाएँ। अमोल पालेकर निर्देशित और शाहरुख़ खान अभिनीत इस सुन्दर फ़िल्म के कहानीकार वे ही थे। मिट्टी की सौंधी खुश्बू लिए उनकी सारी कहानियाँ इतनी ही सुन्दर और अनूठी है।  

उनकी 'सपन-प्रिया'से तो ऐसा मोह हुआ कि हिंदी में अनुदित लगभग सारा साहित्य ही पढ़ना पड़ा। उन्हें पढ़ना शुरू करने के बाद अपने को रोक पाना शायद ही किसी के लिए सम्भव हो। ऐसा लगता है मानो आपका बचपन लौट आया हो और आप अपने दादा-नाना कि गोदी में बैठकर कहानी सुन रहे हों। बिज्जी की शुरुआत का तो शायद ही दूसरा कोई सानी हो जैसे कोई बात को लोक-जीवन की पहली तह से समेटना शुरू करे।      

तो बात तक़रीबन दस साल पहले कि होगी। मैं अपनी बिटिया के साथ उस दूकान पर था जहाँ से बिज्जी कि किताबें प्रकाशित होती थी। वह तब 5 या 6 वर्ष की रही होगी। मैं उससे अलग-अलग किताबों और उनके लेखकों के बारे में बात कर रहा था। हम देखते-देखते उस रैक तक पहुँचे जहां बिज्जी कि किताबें रखी हुई थी। उन्ही दिनों मैंने 'सपन-प्रिया'पढ़ी थी। मैं अपनी बिटिया को उनके बारे में बताने लगा। मैं उनका प्रशंसक हो चला था इसलिए शायद कुछ ज्यादा ही विस्तार से बता रहा था। एक सज्जन जो काफी देर से हमें देख रहे थे, हमारे पास आए। उन्होंने मुझे शाबासी दी कि मैं अपनी बिटिया को किताबों के बारे में बता रहा हूँ। उन्होंने बताया कि वे बिज्जी के मित्र है, वे जोधपुर विश्वविद्यालय के प्रो. भारद्वाज थे। उन्होंने मुझे बिज्जी के टेलीफोन नम्बर दिए और कहा कि मैं उनसे अवश्य बात करूँ, उन्हें भी अच्छा लगेगा। 

और मैं, मैं सोचता ही रह गया। इन पिछले वर्षों में कई बार सोचा, टेलीफोन डायरी हाथ में भी उठायी पर हर बार यह सोचकर रख दी कि जिस दिन कुछ लिखूँगा उस दिन बात भी करूँगा और अपना लिखा भी दिखाऊँगा। पिछले दो वर्षों से लिख रहा हूँ और इस स्तम्भ के जरिए आपसे हर सप्ताह रुबरु भी हूँ पर क्या मालूम यही लगता रहा कि अभी वैसा और वैसे थोड़े ही लिख पाया हूँ जो उन्हें दिखाने काबिल हो। मुझे आज भी नहीं मालूम कि मैं वैसा लिख पाता हूँ या नहीं पर इतना जरुर है कि जब से ये खबर आयी है मन पछतावे से भरा है, अपने आपको कोस रहा हूँ। काश ! .......

अब पछतावे का भार कुछ हल्का हुआ है तो एक बात पक्के तौर पर गाँठ बाँध ली है कि आइंदा कभी ऐसी गलती नहीं करूँगा। जो बात हमें इतनी शिद्दत से महसूस हो कि उसे करना चाहिए या न करना चाहिए को लेकर मन में जरा भी सन्देह न हो वही तो हमारा होना है, हमारी अन्तरात्मा की आवाज और अपनी अन्तरात्मा की आवाज को दबाना तो निश्चित ही किसी गुनाह से कम नहीं। अब ऐसा कर हम पछतावे को नहीं तो किसे बुलावा दे रहे होते है। स्थगन यदि योजना का हिस्सा है तो और बात है अन्यथा दूसरे सारे तर्क बेवजह है, गलत है। स्थितियाँ कभी बिल्कुल ठीक नहीं होती, हमारे कदम उन्हें ठीक बनाते चले जाते है। मैं तो बिज्जी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए यही सलाह दूँगा कि अपनी ऐसी किसी इच्छा को एक पल के लिए भी स्थगित मत कीजिए जिसकी जन्मभूमि आपकी अन्तरात्मा हो, आपको जीवन में कभी पछतावे का मुँह नहीं देखना पड़ेगा। मेरी तो यही सीख उन्हें मेरी श्रद्धांजलि होगी।

 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 24 नवम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ............ 

Saturday, 23 November 2013

कोई बात नहीं



संगीत और शोर के बीच में इतना सा ही तो फर्क होता है, जिन स्वरों के बीच निःशब्दता यानि खाली जगह होती है वह संगीत बन जाता है और जहाँ स्वरों में निरंतरता होती है, जहाँ स्वर एक क्षण को भी नहीं ठहरते वो शोर हो जाता है। यह ठहरना ही तो है जो स्वरों में मधुरता पैदा कर उसे संगीत में तब्दील कर देता है। कितना, कैसे और कहाँ ठहरना है इसमें संगीतज्ञ की निपुणता जैसे-जैसे बढ़ती चली जाती है संगीत उतना ही मधुर होता चला जाता है। 

ठहरना एक कला है और किसी भी साधना या विकास-क्रम का एक आवश्यक अंग, चाहे वह हमारा आध्यात्मिक विकास ही क्यूँ न हो लेकिन यह बात पहले ही दिन बताने की नहीं है। यदि कोई संगीत-गुरु पहले ही दिन अपने विद्यार्थी से स्वर की बजाय ठहरने की बात करने लगे तो शायद ही वो कुछ सीख पाए। पहले तो उसे शोर सिखाना होगा फिर शोर को तराशना होगा। पहले तो अभ्यास कि नियमितता सिखानी होगी चाहे थोड़े डर और कुछ प्रलोभन का ही सहारा क्यूँ न लेना पड़े। शोर के बीच उसे एक बार संगीत कि झलक तो मिले फिर तो वो झलक ही उसकी प्रेरणा बन जाएगी। संगीत स्वयं उसकी प्रेरणा बनने लगे तब उसे डर और प्रलोभन से मुक्त करना होगा। अभ्यास की आदत के लिए जहां डर और प्रलोभन औषधि का काम करते है वहीँ निपुणता के लिए विष का। जिन बैसाखियों का हमने चलना सीखने के लिए सहारा लिया उन्हें क्रमशः छोड़ना भी होगा। 

हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक अभ्यासों में इसी बात को भूला दिया गया। ऐसा अनजाने हुआ या हमारे गुरुओं का और कोई प्रयोजन था, मालूम नहीं पर हुआ जरुर। बात मन्दिर जाने कि हो या नमाज पढ़ने की, व्रत-उपवास की हो या ध्यान-स्वाध्याय की; इन्हें लगातार किया तो ये मिल जाएगा और नहीं तो वो हो जाएगा जैसी बातों से इसलिए जोड़ दिया कि हम इस ओर आयें तो सही। इनका प्रयोजन इतना भर है कि एक बार हम इधर आयें और एक झलक उस परमात्मा की, उस आनन्द की मिल जाए। ठीक वैसे ही जैसे एक बच्चे को पहली कोई चीज चखाने के लिए डर या प्रलोभन का सहारा लेना पड़े लेकिन दूसरी बार तो उसका स्वाद ही उसे खाने को लालायित करे और ऐसा नहीं भी हो पाता है तो इसमें भी कुछ गलत नहीं। ये उसका स्वाद नहीं, इसकी उसे जरुरत नहीं, उसका खाना कुछ और है। 

हम सब किसी न किसी धार्मिक-आध्यात्मिक अभ्यास से जुड़े हैं लेकिन किसी दिन हम न कर पायें तो हमें कुछ अधूरा-अधूरा सा लगने लगता है। इससे बढ़कर यदि कुछ दिनों तक हमारा मन उन अभ्यासों में जाने का न करे तो, या तो हम उन्हें जबरदस्ती घसीटते है या अपने को ग्लानि भाव से भर लेते है। हमें लगता है, मैं वैसा नहीं हूँ जैसा मुझे होना चाहिए। मैं ठीक नहीं हूँ और जब ये दौर गुजर भी जाता है तब ये ही घर कि हुई भावनाएँ हमें वापस अपने अभ्यास पर आने से रोकती है। 

मैं सोचता हूँ ये उतना ही स्वाभाविक और आवश्यक है जितना कि संगीत के लिए दो स्वरों के बीच निःशब्दता,ठहराव। वे डर, वे प्रलोभन आनंद की एक झलक के लिए थे, हमें सिखाने के लिए थे की करने वाला वो परमात्मा है हम केवल निमित्त मात्र। अब एक बार ये पहाड़ा आ गया और बीच में कुछ दिन रट्टा नहीं भी लगाया तो क्या फर्क पड़ता है। जरुरी है पहाड़ा याद रहना ठीक उसी तरह जरुरी है अपने कर्मों को समर्पण भाव से करना। हमारे सारे अभ्यास इसीलिए तो है, तो विश्वास रखिए आप जिस दिन मन्दिर नहीं भी गए या नमाज अदा नहीं भी की तो कोई बात नहीं, उस दिन भी आप उतने ही धार्मिक है जिस दिन आपने ऐसा किया था। 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 17 नवम्बर को प्रकाशित)
आपका  
राहुल ............ 

Friday, 15 November 2013

उम्मीद पर दुनिया कायम है



कोई और होता तो कब की उम्मीद छोड़ बैठा होता पर उन्होंने नहीं छोड़ी। वे है मुम्बई पुलिस के कांस्टेबल गणेश रघुनाथ धननगडे। 1989 में अपने दोस्तों के साथ रेल से कहीं जा रहे थे कि उनसे बिछुड़ गए। इतने छोटे थे कि अपने आप से घर लौट पाना उनके लिए सम्भव नहीं था। इन बुरे दिनों में उन्हें भीख तक मांगनी पड़ी लेकिन इतने में ही उनकी खैर कहाँ थी। बदहवासी की उस हालत में कुछ ही दिनों बाद वे एक रेल से टकरा गए। जान तो बच गयी लेकिन कोमा में चले गए। गनीमत थी कि दुर्घटना रेल से हुई थी इसलिए उन्हें अस्पताल पहुँचा दिया गया। कहते है न जीवन में कुछ भी निरुद्देश्य नहीं होता, यह जानलेवा दुर्घटना ही उनके लिए आगे चलकर वरदान साबित हुई। वैसे भी हमें कहाँ पता होता है कि जो कुछ भी हमारे साथ होता है वह सचमुच ही हमारे लिए अच्छा है या बुरा। इधर ठीक हो जाने के बाद अस्पताल वालों ने उनको एक अनाथालय को सौंप दिया। 

प्रकृति की एक व्यवस्था है कि जीवन में आप चाहे जहाँ हों आपके पास वह सब कुछ मौजूद होता है जो आपको आगे ले जाने के लिए आवश्यक है। गणेश ने देखा कि वह कुछ बनकर ही कुछ कर पाएगा। उन्होंने जमकर मेहनत की और सन् 2011 में मुम्बई पुलिस में कांस्टेबल नियुक्त हो गए। अब तक परिवार से बिछुड़े 24 वर्ष बीत चुके थे पर उन्हें विश्वास था कि एक न एक दिन वे अवश्य अपने घर लौटेंगे। उन्होंने अपने दोस्त सुमित गंधवाले के साथ थाने-थाने जाकर गुमशुदी कि रिपोर्टें खंगाली। फेसबुक, ऑरकुट पर एक तरह से अभियान चलाया पर कुछ पता न चला। एक दिन बैठे-बैठे उन्हें ख्याल आया कि जब उन्हें अनाथालय ले जाया गया होगा तब उन्होंने प्रविष्टि के लिए अपना कोई न कोई पता जरुर बताया होगा। जवाब हमेशा ही व्यक्ति के सामने होते है बस उनका दिखना जरुर उसकी सजगता पर निर्भर करता है। अनाथालय से मालूम चला कि जब वे यहाँ आए थे तब उन्होंने अपना पता कोई मामा-भांजा की दरगाह के पास बताया था। 

अब मिशन था इस दरगाह को ढूँढना। दो महीनों के अथक परिश्रम के बाद यह दरगाह मिली उन्हें ठाणे में। सुमित ने यहाँ भी पूरा साथ निभाया। वहाँ उन्होंने घर-घर जाकर अपनी माँ के उम्र की महिलाओं से पूछताछ की। आखिर मंदा नाम कि महिला ने बताया कि करीब 20 वर्ष पहले दोस्तों के साथ जाते हुए उनका बेटा बिछुड़ गया था। गणेश ने कोई निशानी पूछी। मंदा ने बताया कि उसके हाथ पर गोदना था। गणेश ने अपना हाथ आगे कर दिया। दोनों का गला रुंध गया बस आँखों से बहती अविरल धारा बोले जा रही थी। सुमित कहते है कि उस भावुक क्षण को शब्दों में बयाँ करना मुमकिन नहीं। 

ये सब कुछ हो पाया क्योंकि गणेश ने अपने मन में उम्मीद की लौ जलाए रखी। एक मिनट के लिए भी अपने विश्वास को नहीं खोया। परिस्थितियों को भाग्य नहीं समझा। परिस्थितियों को भाग्य समझ लेना उन्हें स्वीकार करना है, अपने हथियार डाल देना है। वे जब तक परिस्थितियाँ बनी रहती है तब तक हमारे मन में उन्हें बदल पाने का जज्बा बना रहता है। गणेश इसका जीता-जागता उदाहरण है कि यदि मनोबल दृढ़ हो तो परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही मुश्किल क्यों न हो उन्हें बदलना ही पड़ता है। 

मैं अपनी ही बात कहूं तो दिन में कम से कम एक बार तो कह ही उठता हूँ कि अब कुछ नहीं हो सकता लेकिन फिर गणेश और सुमित जैसे लोग यह सोचने पर मजबूर कर देते है कि कुछ हमेशा ही हो सकता है। हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था चरमरा चुकी है लेकिन हम इसे अपना भाग्य न मान लें। धैर्य और विश्वास के साथ लगे रहें तो जिस तरह गणेश को अपनी माँ मिल गई हमें भी अपनी मंजिल मिल ही जाएगी। हम जिस बात को यूँ ही बोल देते है वह कितनी सार्थक है कि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है।
 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 10 नवम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ...........  

Friday, 8 November 2013

सुख, शान्ति और समृद्धि


आज शाम हम सब अपने मन में समृद्धि की कामना लिए लक्ष्मी-पूजन में बैठेंगे। कुछ लोग ऐसा नहीं भी करेंगे तो भी वे अपने जीवन में सुख-समृद्धि कि चाहना को नकार नहीं सकते। नकारें भी क्यूँ, ये हमारा अधिकार है, हमारा स्वभाव है। 
एक बात पर गौर किया आपने, कैसे समृद्धि के पीछे-पीछे सुख चला आया। सुख और समृद्धि का यही मिलन जीवन में शान्ति का कारण बनता है। 

हम सब किसी न किसी तरीके से यह सब जानते जरुर है, समझते भी हैं लेकिन मानने से हिचकिचाते है। समृद्धि का आशय - प्रचुरता, और दैनिक जीवन में उसकी इकाई धन।  अब न जाने क्यूँ और कब से हम सब नए यह मान लिया है कि जिस काम से हमें पैसे मिलते हों वो कभी पवित्र-पावन या आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता। आपको नहीं लगता यही वो बात है जिस कारण या तो व्यक्ति दो चेहरों के साथ जी रहा है यानि 'स्प्लिट पर्सनलटी' या व्यक्ति आध्यात्मिक होने को अपने बूढ़े हो जाने, अपनी जिम्मेदारियों के निपटा लेने तक स्थगित किए रखता है। 

व्यक्ति अपने घर में, दोस्तों में, समाज में कुछ और तरीके से पेश आता है और अपने कार्यस्थल पर कुछ और तरीके से। वहाँ उसके मूल्य कुछ और होते है और वहाँ कुछ और। उसे लगता है जिन मूल्यों के साथ वह जीना चाहता है उन पर टिके रहकर तो पैसे कमाना सम्भव नहीं और पैसों के बिना जिंदगी चलाना भी सम्भव नहीं। इसके जवाब में कोई तर्क देने से बेहतर है स्टीव जॉब्स, सुनील दत्त, अजीम प्रेमजी, डॉ नरेश त्रेहन या प्रोफेसर यशपाल जैसे लोगों को याद करना। हो सकता है ये नाम बड़े हों पर इस कारण से इन्हें हाशिए पर डाल देने से पहले हम एक बार अपने ही चारों ओर नज़र घुमाए तो ऐसे लोग जरुर दिख जाएँगे जिन्होंने अपने काम से समाज को फायदा भी पहुँचाया तो सुख, शान्ति और समृद्धि भरा जीवन भी जीया। सिर्फ पैसा कमाने के लिए किसी काम को करना निश्चित ही हेय है लेकिन अपने काम का उचित मूल्य मिले इसमें गलत क्या है? एक बात जो यहाँ स्पष्टीकरण माँगती है वह यह कि मैं यहाँ आदर्श मूल्यों और नीतिगत आचरण की बात कर रहा हूँ, नियमों को शत-प्रतिशत पालन की पैरवी नहीं कर रहा। हमारी व्यवस्था के कुछ नियम इतने अप्रासंगिक और अव्यावहारिक है कि कई बार उनकी अवहेलना अपरिहार्य हो जाती है।

व्यक्ति के लिए शास्त्रों में चार पुरुषार्थों का उल्लेख है,- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसका सीधा सा तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य सही रास्ते पर चलते हुए धन का उपार्जन करे जिससे वो अपनी कामनाओं को पूरा कर सके। ऐसा जीवन ही शान्त मृत्यु के बाद मोक्ष का अधिकारी होगा। एक योगी इन चारों में से सिर्फ धर्म और मोक्ष को चुनता है तो एक भोगी सिर्फ अर्थ और काम को लेकिन एक सद् गृहस्थ के लिए तो इन चारों में श्रम करना और इनमें सही संतुलन बनाना उसके जीवन का लक्ष्य और परीक्षा होती है। शायद इसीलिए हमारी संस्कृति में एक सद् गृहस्थ को सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है। 

लक्ष्मी जी कमल पर विराजित है। मैं सोचता हूँ हमारे जीवन में धन-वैभव का यह श्रेष्ठ रूपक है। कमल कीचड़ में ही खिलता है, पानी का स्तर कितना भी उपर या नीचे हो कीचड़ कमल छू भी पाता। लक्ष्मी जी की इस कल्पना के साथ पूजा-अर्चना के विधान का आशय शायद यही रहा होगा कि हमें स्मरण रहे कि हमारे काम हमारे जीवन में उसी धन-वैभव को लाएँ जिस पर दुनियादारी के छींटे न लगे हों। हमारे आँगन में लक्ष्मी आए, खूब आए लेकिन कमल पर आसीन आए कीचड़ से सनी नहीं। 
मेरी ओर से भी आपके और मेरे लिए इन्हीं मंगल कामनाओं के साथ आप सभी को दिवाली कि बहुत-बहुत बधाई।  


(जैसा कि नवज्योति में दिवाली कि सुबह प्रकाशित) 
आपका,
राहुल ............    

Saturday, 2 November 2013

रावण के पुतले और महावीर



दशहरा गया, न जाने कितने रावण के पुतले फूँके गए। साल दर साल हम यही करते है इसलिए तो हम इन्हें त्यौहार कहते है। त्यौहार यानि जिसकी पुनरावृति हो। त्यौहार चाहे किसी धर्म का हो ये हमारा प्रतीकात्मक सम्मान तो है ही साथ ही ये समाज में प्रेम और समरसता बनाए रखने के एक मात्र सहज सुन्दर उपाय होते है। ये त्यौहारों के महीने है। शुभ दिनों की इस ऋतु में न जाने क्यूँ ऐसा लगा कि जैसे सुगन्ध बिना कोई भेदभाव किए अपने चारों ओर के वातावरण को महका देती है वैसे ही ये त्यौहार हमारे आध्यात्मिक जीवन को भी जरुर पोषित करते होंगे। 

क्या त्यौहार महज उन घटनाओं को याद करना भर है? नहीं, हम सब जानते है ऐसा नहीं है। दशहरा अच्छाई की बुराई पर जीत तो होली ईश्वर पर भरोसा रखने की याद और ईद किसी के लिए मर-मिट जाने के जज्बे को बनाए रखने की प्रेरणा देती है। ऐसी ही कोई न कोई नैतिक शिक्षा हर त्यौहार के पीछे छिपी है। हर साल इन त्यौहारों को मनाना ठीक वैसा ही है जैसा सुदूर यात्रा के दौरान हर थोड़ी देर बाद रोड मेप को देखते रहना। भटक भी जाएँ तो जल्दी से वापस आ सकें और हमारा सही चलना हमारे मन में मंजिल पर पहुँच पाने का हौसला बनाए रखे। 

आप कहेंगे, उपर से तो ये बात ठीक लगती है लेकिन रोड़ मेप देखकर आगे के रास्ते के बारे में जानना और साल दर साल उन्हीं नैतिक शिक्षाओं को याद करने के लिए त्यौहार मनाना बिल्कुल अलग बात है। ये तो बहाना है मौज-मस्ती करने का। यही बात थी जिसने मुझे इतना उद्वेलित किया कि वो आज हमारी बातचीत का कारण बनी। 

सोचते-सोचते इस बात का जवाब भगवान महावीर की शिक्षाओं में मिला। वे कहते है, जिस तरह जमीन पर बैठने से कुछ मिट्टी हमारे कपड़ों पर लग जाती है और हर बार उठते वक्त उसे झाड़ना होता है ठीक उसी तरह आपसी व्यवहार में जिसे हम दुनियादारी कहते है कुछ गर्द हमारे चित्त पर भी लग जाती है और इसे भी झाड़ना उतना ही जरुरी है। इसे उन्होंने बाकायदा एक नाम दिया 'निर्झरा'। जैन अनुयायी जो स्वाध्याय या 'समाई' करते है वह अपने आपको 'निर्झर' करने की एक विधि ही तो है। 

यह दुनिया द्वैत पर टिकी है। अच्छाई का अस्तित्व भी बुराई पर ही टिका है। बुराई है इसलिए अच्छाई है और उसकी जरुरत है। रावण ही राम अवतार का कारण है यही हालत हमारे मन कि दुनिया कि भी है। बुराई के बीज मन कि भूमि में दबे पड़े हैं, वे रहेंगे हमेशा। हमें तो ध्यान रखना है कि वे कभी पौधे और वृक्ष न बन पाएँ इसीलिए समय-समय पर इस खरपतवार को हटाते रहना है जिससे हमारे जीवन का उद्यान सुन्दर बना रहे। 

यही कारण है इन त्यौहारों को साल दर साल मनाने का। ये हमारे मन-चित्त को निर्झर करने का काम करते है। हमें रास्ता दिखाते है, उस पर लौटा लाते है बशर्ते हम त्यौहारों के उल्लास और उमंग के साथ इनके मनाने कि वजह को अपनी जिन्दगी से जोड़ पाएँ। दशहरा हमें याद दिलाए कि जीत अन्ततः अच्छाई की ही होती है, होली हमें परमात्मा पर भरोसा करना सिखाए और ईद समर्पण कि भावना पैदा करे तो इन त्यौहारों को मना भर लेने के अलावा शायद ही व्यक्ति को किसी शिक्षा-दीक्षा कि कोई जरुरत रहे। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 27 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ...........   

Friday, 25 October 2013

इसका साथ कभी ना छोड़ें



राम को वन जाता देख दशरथ ने किसी क्षण यह जरुर सोचा होगा कि काश! मैं कैकयी को वचन नहीं देता और कुरुक्षेत्र से पहले भीष्म ने भी एक क्षण के लिए ही सही यह जरुर सोचा होगा कि काश! मैं प्रतिज्ञा नहीं करता। इस काश पर तो न जाने कितने ग्रन्थ लिखे जा सकते है। ऐसा नहीं होता तो क्या होता या वैसा हो जाता तो क्या होता लेकिन आज हमारी बातचीत का विषय 'काश' नहीं प्रतिज्ञा और वचनों का है। चूँकि ये घटनाएँ रामायण और महाभारत की केंद्र-बिंदु है इसलिए हमें ज्यादा आंदोलित करती है लेकिन गौर करें तो हमारा सारा इतिहास ही मानो प्रतिज्ञाओं-वचनों को निभाने की दास्तान लगता है और वो चाहे कोई भी हो ये हमेशा ही किसी न किसी तरह की हिंसा में जरुर तब्दील हुई है। 

और हमारी श्रद्धा देखो, और बातों को माने न माने, उनके मर्म को समझें न समझें किसी न किसी वचन या प्रतिज्ञा से बंधने को जैसे बाहें चढाये तैयार लगते है। क्या ये श्रद्धा है या इससे हमारा अहंकार पुष्ट होता है? पता नहीं, लेकिन इनके परिणामों को देखकर भी वैसा ही करने की कोशिश करना कोरी श्रद्धा तो नहीं हो सकती। कारण चाहे जो हो लेकिन मैं तो यह सोचने पर मजबूर जरुर हुआ कि क्या व्यक्ति को अपने जीवन में प्रतिज्ञाओं और वचनों से बंधना भी चाहिए? मैंने तो जितने लोगों को भी इससे बंधे हुए देखा है उन्हें जीवन में कभी न कभी दशरथ जैसी उथल-पुथल और भीष्म जैसी दुविधा से घिरा हुआ ही पाया है। 

एक मित्र से विमर्श में यह तो सतह पर आया कि प्रतिज्ञाएँ अंततः हिंसा को जन्म देती है इसके बावजूद भी मन यह मानने को तैयार नहीं हुआ कि व्यक्ति को प्रतिबद्ध और वचनबद्ध होना ही नहीं चाहिए। सत्य, अहिंसा, ईमानदारी या राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध होना कैसे गलत हो सकता है या फिर रिश्तों में एक-दूसरे की खुशियों के प्रति वचनबद्ध होना बुरा। फिर गड़बड़ कहाँ है? कई दिनों तक इस गुत्थी को अपने जेहन में सम्भाले रहा क्योंकि मुझे लगता है समस्या यदि इंतज़ार करती रहे तो समाधान दस्तक दे ही देता है। 

और उसने आकर यही बताया कि हमें साध्य से प्रतिबद्ध होना चाहिए साधनों से नहीं। कितना अच्छा होता यदि दशरथ अपनी कृतज्ञता की भेंट भविष्य में देने का कैकयी को वचन जरुर देते पर 'कुछ भी मांग लेना' से बचते। व्यक्तिगत भावनाओं की भेंट व्यक्तिगत होती। एक राजा नहीं एक पति अपनी पत्नी से वचनबद्ध होता। ठीक इसी तरह कितना अच्छा होता कि भीष्म अपने पिता के जीवन की खुशियों को सहेजने के लिए प्रतिज्ञ होते चाहे राजपाट छोड़ने एवम अविवाहित रहने को साधन के रूप में अपनाते। उनकी प्रतिबद्धता हस्तिनापुर और कुरुवंश से तो थी ही चाहे इसकी उन्होंने घोषणा की हो या नहीं। 

प्रतिज्ञाएँ और वचन निजता का विषय है लेकिन इतना तय है कि इरादा चाहे कितना ही नेक हो और आपकी इच्छा-शक्ति कितनी ही दृढ़ अपने विवेक के इस्तेमाल का अधिकार हमेशा अपने पास रखें। जब-जब व्यक्ति ने विवेक का साथ छोड़ा है उससे जिन्दगी सम्भाले नहीं सम्भली है। जैसे ही आप मूल विषय को छोड़ उसे पाने के तरीकों से प्रतिबद्ध हुए समझिये आपने अपने विवेक का अधिकार किसी और के हाथों में दे दिया। यही वो साथी है जो ईश्वर ने इस जीवन-यात्रा में हमारा ध्यान रखने हमारे साथ भेजा है। आप ही बताइए, इसी का साथ छोड़ देना उसे कैसे प्रसन्न कर सकता है?

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 20 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,  
राहुल .............. 

Friday, 18 October 2013

रावण की दुविधा




मेरे शहर में यह एक अनूठी पहल थी, कवि सम्मलेन और मुशायरे का साथ होना। मंच पर हिन्दी और उर्दू के श्रेष्ठ हस्ताक्षर मौजूद थे। मैं उन्हीं में से एक श्री उदय प्रताप सिंह जी की एक कविता के बारे में आज आपसे बात करना चाहता हूँ। कविता की पृष्ठभूमि कुछ यूँ है कि रावण प्रतिदिन नये-नये प्रलोभनों के साथ सीता जी से प्रणय-निवेदन करता है लेकिन माँ उसकी और आँख उठाकर भी नहीं देखती। आखिर थक हार कर एक दिन रावण उनसे कहता है कि तुम एक बार मेरी तरफ आँख उठाकर देख लो, इसके बाद भी तुम इन्कार करोगी तो मैं उसे तुम्हारा अंतिम निर्णय समझूँगा। 

इस पर भी माँ सीता तिनके की ओट लेकर रावण की ओर देखती है। कविता यहीं से शुरू होती है। मंदोदरी रावण से कह रही है, करवा आए अपना अपमान। मैं आपकी जगह होती और प्रेम में इतनी ही व्याकुल होती तो एक ही उपाय करती। राम का रूप धर सीता के सम्मुख प्रस्तुत हो जाती। क्या इतनी सी बात नहीं सूझी आपको। मार्मिक रावण का जवाब है। वह कहता है तू क्या समझती है, मैं दशानन, क्या इतना भी नहीं सोच पाया हूँगा? यह भी करके देख चुका पर क्या बताऊँ, जब-जब यह चाल चलता हूँ, राम का रूप धरता हूँ तब-तब मुझे हर पराई स्त्री माँ का रूप नज़र आती है।

हर व्यक्ति हर बात को अपनी तरह समझता है। मेरे साथ भी ऐसा ही था। कविता सुनकर मुझे तो लगा कि कवि ने स्वयं के परिवर्तन का एक वैज्ञानिक तरीका कितनी सुन्दर कल्पना के साथ कितने कम शब्दों में कितनी सहजता से कह दिया। ऐसा कि हर किसी के ह्रदय में गहरे उतर जाए और जिससे बुद्धि भी सहमत हो। 

जब किसी व्यक्ति को लगे कि उसकी अपनी आदतों ने ही उसे वश में कर लिया है और विचार उसके विमानों की तरह उड़ते है। अब उसका अपने पर कोई नियंत्रण शेष नहीं। अब उसके लिए भीतर से बाहर की यात्रा दुष्कर है तो यही तरीका है बाहर से भीतर की यात्रा का। हम जैसा बनना चाहते है, जैसा होना चाहते है उसका अभिनय शुरू कर दें। ऐसा करते-करते आपको मालूम ही नहीं चलेगा कि कब आप वैसे ही हो गए। और फिर आदतें क्या है, किसी बात का अभ्यस्त होना ही तो है। अभिनय करते-करते कब ये आपकी आदतें बन जाती है और फिर आपका स्वभाव बनकर आपके व्यक्तित्व को ही बदल देती है, आपको अहसास ही नहीं होगा। आपको इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखना हो तो इस बार जब भी आपका मन अशान्त हो - मूड खराब हो, आप शीशे के सामने जाकर खड़े हो जाएँ और दो-चार मिनट तक जबरदस्ती मुस्कुराएँ। पाँचवे मिनट से ही आपका मन ठीक होने लगेगा, क्योंकि यह तो तय है कि राम और रावण कभी साथ नहीं रह सकते।

आप जीवन के जिस भी क्षेत्र में परिवर्तन चाहते है उसमें अपना आदर्श तलाशिए और फिर उसी तरह व्यवहार करना शुरू कीजिए। हो सकता है बीच-बीच में आपकी पुरानी आदतें उभरें। जब भी आपको ऐसा लगने लगे बिना अपने को दोष दिए पुनः अपने रास्ते पर लौट आइए। धीरे-धीरे आप स्वयं भी उसी तरह सोचने-समझने और जीने लगेंगे। आप बाहर से बदलते-बदलते कब अन्दर से भी बदल गए और जैसा बनना और होना आपका सपना था वो कब हकीकत में बदल गया आपको मालूम ही नहीं चलेगा।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 13 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 

Friday, 11 October 2013

युग बदला या हम बदले



विविध-भारती पर सुबह-सुबह आने वाले शास्त्रीय संगीत के प्रोग्राम संगीत-सरिता में उस दिन पंडित हरी प्रसाद चौरसिया बोल रहे थे। संगीत की बातों के साथ उन्होंने हमारे आज के जीवन को लेकर एक गम्भीर सवाल खड़ा किया जिसने मुझे दो दिन पहले अपनी बिटिया से हो रही बातचीत से जोड़ दिया। बिटिया कह रही थी कि आज युवा के सामने जीवन इतना असुरक्षित है कि वो आज ही कल के लिए सारे साधन जुटा लेना चाहता है। उसका कहना था कि आज युवा के मन में असुरक्षा का भाव इतना गहराया है कि उसने अपने कल को सुरक्षित करने के लिए अच्छे-बुरे की तराजू को ताक पर रख दिया है। मैं उसे हर किसी को अपना जीवन मूल्यों पर जीकर ही परिदृश्य बदल सकता है की सलाह तो दे रहा था लेकिन न जाने क्यूँ कहीं न कहीं मैं स्वयं भी उसके सरोकारों से जुड़ता जा रहा था। 

पंडित जी चूँकि फिल्म-संगीत भी देते है तो बात फिल्मों की भी चली। उनसे जब तेज संगीत और कई बार तो संगीत के नाम पर शोर के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बड़े ही अफ़सोस के साथ बताया कि फिल्म की कहानी में कई जगहों पर शान्त संगीत और धीरे स्वरों की गुंजाईश होती है विशेषकर जहां कहानी करुण-रस की अभिव्यक्ति माँगती हो लेकिन वहाँ निर्देशक बैक ग्राउंड म्यूजिक से ही काम चलाना पसंद करते है।उनका तर्क होता है कि इस तरह के गाने आज की पीढ़ी को पसंद नहीं आयेंगे। पंडित जी ने यही वजह बताई जिस कारण आज फिल्म-संगीत से धीरे-धीरे करुण-रस गायब होता चला जा रहा है। वे कह रहे थे कि मैं लाख कोशिशों के बाद भी उन निर्देशकों को ये नहीं समझा पाता हूँ कि जीवन से करुणा कभी आउट ऑफ़ फैशन या आउट डेटेड नहीं हो सकती और न ही ऐसा हो सकता है कि करुण-रस की कोई सुन्दर रचना सुनने वालों के दिल को न छुए। वे कह रहे थे कि ऐसा सब देख मैं कई बार सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि आखिर युग बदला या हम बदले?

मुझे लगता है यही वो प्रश्न है जिस पर हम सब को सोचना चाहिए। यही वो सलाह है जो मुझे अपनी बिटिया को देनी चाहिए। क्या सचमुच ही आज के इस जटिल जीवन के लिए बदला हुआ समय दोषी है या हम ही बदल गए है? क्या हममें से अधिकांश लोग जो कुछ भी कर रहे हैं वो सुरक्षित भविष्य के लिए है या वे विलासिता ही हर सम्भव वस्तु को हासिल कर पाने की क्षमता हासिल करना चाहते है?

यदि बात अपने और अपने परिवार के सम्मानजनक अस्तित्व की हो तो बात अलग है लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? जिन लोगों के साथ यह दुर्भाग्य है भी तो मेरे हिसाब से वे तो समाज का सबसे ईमानदार और मेहनती तबका है। भ्रष्ट आचरण तो वो ही निभा सकता है जिसके पास पद, प्रतिष्ठा या पैसा हो, तो उसे किससे सुरक्षित होना है? मूल्यों को निभाने की असहजता से बचने का ये सुन्दर बहाना ईज़ाद किया है हमने लेकिन हमें ये मालूम नहीं कि जीवन को जटिल बनाकर हम इसकी कीमत चुका रहे है। अपने बच्चों को अच्छे संस्कार न दे पाने के रूप में इसकी कीमत चुका रहे है, और तो और अपनी ही नज़रों में गिर कर इसकी कीमत चुका रहे है। पंडित जी के प्रश्न का जवाब हर व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर ढूँढना होगा और तब हम एक बार फिर युग बदल रहे होंगे।


(जैसा की नवज्योति में 6 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 

Friday, 4 October 2013

ये भी जरुरी है



ये घटना कोई पांच साल पुरानी होगी। मैं अपने कॉलोनी पार्क में सुबह-सुबह टहल रहा था। क्या देखता हूँ, हमारी कॉलोनी के सेक्रेटरी ही खड़े होकर एक हरे-भरे पेड़ को कटवा रहे हैं। पहली बार तो चुप रहा लेकिन दूसरी बार जब उनके पास से गुजरा तो मुझसे रहा न गया। मैंने उनसे पूछा वे ऐसा क्यों कर रहे हैं तो उनका जवाब था, इस पेड़ के पत्तों और छाल को छूने से खुजली हो जाती है और सर्दियों के मौसम में तो इसमें से ऐसी गंध आने लगती है कि पक्षी भी इस पर नहीं बैठते। उनका जवाब सुन, संतुष्टि का भाव लिए मैं आगे बढ़ गया लेकिन मन था कि इसे मथे जा रहा था। 

कई दिनों तक ये बिलौना चलता रहा और जो अंततः बाहर निकला वो यह था कि श्रेष्ठ तो यह है, आपके पत्ते और छाल किसी के लिए औषधि बनें और आप अपनी सुगंध से उधान को महकाएँ। यदि ऐसा न भी हो पाए तो कम से कम ऐसा तो न हो कि कोई आपके पास फटकना भी न चाहे और गलती से छू भी ले तो उस बेचारे को खुजली हो जाए। तो सारांश यह था कि पेड़ हो या व्यक्ति, जिसका होना वातावरण और समाज को दूषित करे और जिसका स्वभाव बदल पाना किसी तरह सम्भव न हो तो उसका नष्ट किया जाना ही शुभ है। ये घटना तब पुनः याद हो आई जब पिछले दिनों कोर्ट ने उन चार दरिंदों को फाँसी की सजा सुनाई। यही शुभ था। 

हमने अहिंसा को हमेशा ही गलत समझा है और यही वजह है की आज अहिंसा कायरता का पर्याय बन गई है। अहिंसा तो वीरता है और वो इसलिए कि करने वाला अन्त तक इसे नहीं करने की कोशिश करता है और वो सारे उपाय करता है जिससे हिंसा से बचा जा सके। हिंसा उसके लिए अन्तिम उपाय होती है। एक वीर के लिए हिंसा अन्तिम उपाय होती है और एक कायर के लिए प्रथम। जब हिंसा अन्तिम उपाय होती है तब वो शुभ हो जाती है, कर्तव्य बन जाती है और कर्ता को महान बना देती है। 

संहार ही सृजन का आधार बनता है और यही इस घटना में भी था। पेड़ दुर्गन्ध और खुजली फैलता हो तो न तो कोई पक्षी उसकी डाल पर बैठता है और न ही कोई व्यक्ति उसकी छाहं में आश्रय लेता है और तब उसे काट देने के अलावा कोई चारा नहीं बचता और इसी तथ्य में जीवन-रस का सृजन छिपा था। यही बात सीखने-समझने की है। समझने की यह कि हम किसी के जीवन में तकलीफों का कारण नहीं बनें नहीं तो उनके पास हमें अपनी जिन्दगी से निकाल देने के अलावा कोई रास्ता न बचेगा। जब इतना कर लें तो यह बात सीखने की है कि हम अपने में ऐसी बात पैदा करें कि सब हमारे समीप रहना चाहें। हम में से वो सुगन्ध आए। 

हम सब एक दूसरे से सबद्ध है। यह बात सही है कि हमारी सुन्दरता और खुशियाँ हम ही में छिपी है लेकिन इसका मोल तब ही होगा जब ये आस-पास के पूरे वातावरण में भी छाई हो, अन्यथा ये वैसी ही बात होगी कि हमारी जेब में तो ढेर सारे पैसे हों लेकिन खरीदने के लिए बाज़ार में कुछ नहीं। यदि आपको अपने जीवन में सुन्दरता और खुशियों की रचना करनी है तो आपको दूसरों के जीवन को उतनी ही सुन्दरता और खुशियों से भरना होगा। यदि आप उधान का सुन्दर वृक्ष है; खिले फूल, अद्भुत सुगन्ध और छायादार। यदि आने वाले आपकी छाया में बैठकर सुकून पाते है, यदि आपके होने से उधान की सुन्दरता है तो निश्चिन्त रहिए आपका आपसे बेहतर ध्यान माली स्वयं रखेगा। 

आपका,
राहुल …………  

Saturday, 28 September 2013

हमारे बच्चे और कठोपनिषद



 
पाण्डवों में जो स्थान अर्जुन का है वही स्थान उपनिषदों में कठोपनिषद का है। एक ख़ास वजह है उसकी, बालक नचिकेता और पिता राजा उद्दालक के बीच इस लम्बे कथा-संवाद के माध्यम से ये उपनिषद परतें खोलता है उस चिर जिज्ञासा की जो मानव मन पर सदियों से छाई है। आखिर क्या होता है व्यक्ति मृत्यु के बाद और जो कुछ भी होता है क्या उसके लिए मरना जरुरी है या कोई विधि है उसे जीते जी भी पा लेने की?

कठोपनिषद को पढना ही शुरू किया था कि आचार्य रजनीश ने एक बात जो उसकी पृष्ठभूमि में कही, उसने मन भर दिया। वे कहते है, ये कोई एक ऋषि होगा जिसने एक बच्चे को अपनी बात अपने पिता से कहते हुए सुन लिया होगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने बच्चों को इतने ही ध्यान और मर्म से सुनना शुरू कर दे तो न जाने कितने कठोपनिषदों का जन्म हो जाए, या फिर किसी कठोपनिषद की जरुरत ही न रहे। कितना सूक्ष्म अन्वेक्षण है लेकिन कितना सुन्दर। सच ही तो है, एक सरल ह्रदय हमेशा ही अपने में वेद-उपनिषदों सा ज्ञान समाए होता है। 

और हम, हम लगे है अपने ही बच्चों की इस सरलता को मिटाने में क्योंकि हम उनसे प्रेम करते है। हमें लगता है यह इस तरह इस दुनिया में कैसे जी पायेंगे और लग जाते है उन्हें पाने जैसा बनाने की जद्दोजहद में। इस मिशन में हम इतने खो जाते है कि ये तक ध्यान नहीं रहता कि हम खुद ही कहाँ खुश और संतुष्ट है अपनी जिन्दगी से,लेकिन हम भी क्या करें? यही हमारे पास है और यही हमें आता है। 

तो क्या करें? मुझे लगता है इसका एक ही इलाज है। हमें इस जबरदस्ती के ओढ़े हुए दायित्व से मुक्त होना होगा की मुझे अपने बच्चों को हर स्थिति में गाइड करना है चाहे स्वयं मुझे पता हो या न हो। मैं हर बात में अपने बच्चों से ज्यादा जानता हूँ, इस दंभ से निजात पानी होगी। निश्चित ही हमारे पास अनुभव है और कुछ चीजों को अनुभव से ही समझा जा सकता है, वहां हम जरुर उनका मार्गदर्शन करें लेकिन जिन बातों का वास्ता सरलता-सहजता से है वहां हमारे बच्चे हमसे ज्यादा जानते है। मानने से आगे बढ़कर जरुरत तो इस बात की है कि इन बातों में हम उनसे सीखें। 

अब ये जो संकरी गली है अनुभव की, हम अनजाने ही सही इसका भी दुरूपयोग करने लग जाते है और हर बात को मनवाने के लिए अपने अनुभवों की दुहाई देने लगते है। जिन्दगी के दस प्रतिशत निर्णय ऐसे होते होंगे जिनमें अनुभव की आवश्यकता हो अन्यथा नब्बे प्रतिशत तो ऐसे ही होते है जो एक सरल ह्रदय के लिए बायें हाथ का खेल होता है लेकिन अपने बच्चों से प्रेम की खोल में ढका हमारा दंभ इस अनुपात को उलट देता है। 

कितना अच्छा हो हम अपने बच्चों की जिन्दगी बनाना छोड़ बच्चों के साथ जीना शुरू कर दें। अपनी कहें, उनकी सुनें। मुझे मालूम है आप क्या कहना चाहते है? आप उनकी सुन कर तो देखिये, वे भी आपकी सुनेगें। इस तरह सबसे पहले तो हम एक दूसरे को जान पाएँगे और तब मिलकर किसी सही निर्णय पर पहुँचना आसान होगा। ऐसा हम कर पाये तो हमारे नाचिकेताओं का जीवन कहीं आसान और हम उद्दलकों का जीवन कहीं खुशहाल होगा। 

आपका,
राहुल ……… 

Friday, 20 September 2013

अपनी झोली फैलाये रखिए



एक बार की बात है। एक गाँव के बाहर एक संत आकर रुके। जब गाँव वालों को इस बात का पता चला तो वे उनके पास इकट्ठा होकर पहुँचे। उनका आग्रह था कि वे गाँव में पधारें और अपने ज्ञान से सभी को लाभान्वित करें। उन संत को इन सब में रूचि नहीं थी। जब देखो वे अपनी ध्यान-साधना में ही लीन मिलते। गाँव वालों के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि मैं आप लोगों से एक प्रश्न पूछूँगा और देखूँगा कि मेरे कुछ कहने की जरुरत भी है या नहीं।

संत ने पूछा,'अच्छा बताओ, ईश्वर है या नहीं?' गाँव वालों को ऐसे प्रश्न की कतई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने सोचा एक संत के सामने इस प्रश्न का जवाब 'हाँ' के अलावा और क्या हो सकता है लेकिन वे बोले, तब तुमको मेरी जरुरत नहीं। निराश गाँव वाले वापस लौट आएँ। उन्होंने सोचा कल वापस चलते है और कहते है 'ईश्वर नहीं है' तब शायद वे मान जाएँ। उन्होंने ऐसा ही किया लेकिन हुआ वही। 'नहीं' सुनकर भी वे यही बोले 'तब तुमको मेरी जरुरत नहीं।' परेशान होकर तीसरे दिन वापस पहुँचे और झुंझला कर बोले, बाबा ! हमें नहीं पता ईश्वर है या नहीं, बाकि आपकी इच्छा। सुनकर उनका चेहरा खिल गया। वे बोले, तब मेरी जरुरत हैं। मैं जरुर चलूँगा तुम्हारे साथ और बताऊंगा मैंने क्या पाया है। 

इस कहानी का मर्म ज्ञान का आधार है। कुछ पाना है तो सबसे पहले खाली होना पड़ेगा, वैसे ही जैसे भरे हुए बर्तन को नहीं भरा जा सकता। ज्ञान की आवक वहीँ रुक जाती है जब व्यक्ति 'मुझे सब पता है' की गुफा में प्रवेश कर जाता है। यही कारण है कि एक अच्छा शिक्षक वही बना रह पाता है जो हमेशा पहले एक विद्ध्यार्थी बना रहे। मुझे तो लगता है शिक्षक वो नहीं होता जो अपने विषय के बारे में सब कुछ जानता है बल्कि वो होता है जो अपने विषय को जानना चाहता है और जो कुछ जान पाता है उसे अपनों के बीच बाँटता है। 

आप किसी की और कोई आपकी मदद भी तब ही कर सकता है जब हम उन्हें ऐसा करने दें। प्रकृति के अपार भंडार में वो सब कुछ है जिसकी आपको जीवन के किसी भी मोड़ पर जरुरत है या हो सकती है बस आपके मनोभावों की झोलों फैली होनी चाहिए। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूँ जो किसी की सुनते ही नहीं लेकिन कोई उन्हें नहीं समझता ये शिकायत उन्हें हमेशा अपनी जिन्दगी से रहती है। मैं ऐसे भी कई विद्वानों से मिला हूँ जो अपनी बात को वेद-वाक्यों की तरह कहते है लेकिन पाता हूँ की तब से वे वहीँ खड़े हैं। 

ये बातें जीवन के दूसरे पहलुओं पर भी जस की तस लागू होती है चाहे समृद्धि,प्रतिष्ठा हो या आपसी रिश्ते। आपके पास जो है उससे संतुष्ट जरुर रहिए लेकिन और के लिए प्रयास हमेशा जारी रखिए। नहीं मांगने से तो देने वाले की ही हेठी लगती है और 'मैं सब जानता हूँ', मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ ' या मेरे पास सब कुछ है' कहकर हम उस देने वाले की हेठी ही तो लगा रहे होते है। आप तो बस झोली फैलाये रखिए, आप सोच भी नहीं सकते उसने आपके लिए क्या-क्या सोच रखा है। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 15 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 
 




Friday, 13 September 2013

कोशिश मत कीजिए


यही बात महसूस हुई जब मैं दो दिनों तक यह सोचता रहा कि अगला विषय क्या होगा जिस पर मैं आपसे बात करूँगा। फिल्म के दृश्यों की तरह एक के बाद एक विषय आते और अगले ही क्षण या यों कह लीजिए साथ ही कोई न कोई तर्क (कु) भी चला आता कि क्यों मुझे उस पर बात नहीं करनी चाहिए। थक कर एक क्षण के लिए आँखें मूँदी और अपना सारा ध्यान साँसों पर ले गया तो बस यही एक विचार कौंधा। 

ये विचार पढ़ा तो पहले भी था लेकिन आज से पहले कभी इसे स्वीकार नहीं कर पाया। लगता था हम कोशिश ही नहीं करेंगे तो सफल कैसे होंगे? जीवन में नई बातें कैसे सीखेंगे? इस परत दर परत दुनिया को कैसे ढूंढ़-जान आनन्दित होंगे? जीवन में और गहरे कैसे उतर पायेंगे? आज लगा, यहाँ भी जीवन की वही उलटबाँसी। जब तक कोशिश करो कुछ दूरी बनी रहती है और जो पाना चाहते हो उसे जीना शुरू कर दो तो लगता है यह तो पहले ही से प्राप्त था, बस इसे काम ही में नहीं लिया था। आपको नहीं लगता, कोशिश शब्द ही अपने आप में इस स्वीकारोक्ति को समाए हुए है कि शायद मुझसे नहीं हो पाएगा या मैं नहीं कर पाऊँगा। एक दबी नकारात्मकता। हम जो पाना चाहते है उसके लिए हम जो है उससे कहीं अधिक होना पड़ेगा। 

अपनी आँखों को मूँद अपना सारा ध्यान साँसों पर ले जाते समय ये विचार शायद इसीलिए मन में कौंधा होगा क्योंकि हम साँस लेने की कोशिश नहीं करते बस लेते है। यह हमारी प्रकृति है अतः कोशिश करने की कभी जरुरत ही नहीं पड़ी। कोशिश तो तब करनी पड़ती है जब आप साँस लेने में पूरी तरह सक्षम न हों यानि साँस की तकलीफ हो। ठीक इसी तरह यदि आपके अंतर्मन में कोई विचार उपजा है तो तय मानिए उसका पाना और होना उतना ही सहज है जैसे साँस लेना बशर्ते यह आपके अंतर्मन की उपज हो न कि अहम् या किसी और जैसा बनने की चाह। वेन डब्लू. डायर ने इसे बहुत ही सुन्दरता से कहा है, उन्हीं के शब्दों में, 'इफ यू केन कन्सीव इट, यू केन क्रिएट इट।'

ये हमारे मन के सन्देह ही तो है जो हमें मानसिक रूप से कमजोर बना देते है और तब हम स्वयं ही रास्ते में आने वाली मुश्किलों को बढ़ा अपने असफल होने की संभावनाओं को बढ़ा लेते है। डगमगाए विश्वास की नीवं पर कभी सफलता की पक्की इमारत खड़ी नहीं हो सकती। इसका मतलब ये कतई नहीं कि अंतर्मन की आवाज़ पर किए किसी काम में हम असफल होंगे ही नहीं। बिल्कुल, जीवन में ऐसा कई बार होगा लेकिन तब वो हमारी मेहनत में कमी और तरीकों में बदलाव की जरुरत का सूचक होगा न कि हमारी अक्षमताओं का परिचायक। किसी भी काम को करने का एक विशेष तरीका और उपयुक्त बल की जरुरत होती है। यदि इसे हम समय-समय पर जाँचते-परखते रहें तो आपके होने को कोई नहीं रोक सकता। 

मैं अपनी बात को वॉरेन बफेट की इन सारगर्भित पंक्तियों के साथ विराम दूँगा, " मैं हमेशा से जानता था कि मैं धनी होऊँगा। मैं नहीं सोचता मैंने एक मिनट के लिए भी इस पर सन्देह किया हो। "



(जैसा की दैनिक नवज्योति में रविवार, 8 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .........    

Friday, 6 September 2013

अपने आपको लौटाएँ



अभी कुछ दिनों पहले मैं अपने पूरे परिवार के साथ मारवाड़ के प्राचीन तीर्थों पर घुमने निकला था। सच है,साथ होने से बड़ा सुख नहीं। जब वापस काम पर लौटा तो ऐसा लगा जैसे रोजमर्रा के जीवन की सफाई हो गई हो, जैसे फालतू चीजों को बुहार कर कूड़े दान में डाल दिया हो। न जाने कितनी बेवजह चीजें करता ही चला जा रहा था। एक तरह से घडी का गुलाम होता जा रहा था और उपर से शिकायत, समय के कमी की। 

ऐसा ही होता है, एक ढर्रे पर चलते-चलते, पर हम भी क्या करें हमारी मज़बूरी होती है और इस चक्कर में ऐसे काम हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन जाते है जो अब बेवजह हो चूके है और उन कामों को अपना समय नहीं दे पाते जिन्हें हमारी प्राथमिकता होना चाहिए। कुल मिलाकर हम भाग रहे होते है और ये भूल जाते है कि हम क्यों भाग रहे थे। इस अहसास ने मुझे महान चित्रकार, गणितज्ञ और पुनर्जागरण के प्रणेताओं में से एक लियोनार्डो डी विंची की एक बहुत सुंदर कविता दिला दी .......

जब कभी निकल लें 
थोडा आराम करें     
और तब 
जब आप लौटेंगे काम पर 
आपके निर्णय होंगे ज्यादा पक्के 
बिना रुके कैसे रहेगा 
आपके निर्णयों में पैनापन

थोडा दूर निकल आएँ 
कम दिखेगा छोटा होकर 
और उससे भी ज्यादा 
दिखेगा पूरा का पूरा 
और तब 
चल जाएगा तुरंत मालूम 
कहाँ अनुपात बिगड़ रहा है 
कहाँ लय टूट रही है। 

इस क्षण में किये गए हमारे चुनाव, हमारे निर्णय ही तय करते है कि हमारा आने वाला क्षण, हमारा भविष्य कैसा होगा और उसके लिए रुकना उतना ही जरुरी है जितना समय-समय पर चाकू के धार लगवाना। जिस तरह लगातार काम में लेने से चाकू भोंतरा हो जाता है उसी तरह रोजमर्रा के जीवन में उलझे रहने से हमारे निर्णय भी दूसरी बातों से प्रभावित होने लगते है। चूँकि हम सामाजिक प्राणी है इसलिए हमारा कोई भी निर्णय चाहे वह कितना भी निजी क्यों न हो, किसी न किसी को प्रभावित जरुर करता है और जिन्हें प्रभावित करता है उनकी प्रतिक्रियाएँ हमारी सोच को पुनः प्रभावित करने लगती है। सोच के इस ऑक्सीकरण यानि जंग लगने से हमारे निर्णयों का पैनापन जाने लगता है। इसे बनाए रखने के लिए जरुरी है हम अपनी सोच की सफाई के लिए समय-समय पर रुकें। 

रुकने का दूसरा फायदा, हमें अपना काम समग्रता से दिखाई देता है ठीक वैसे ही जब हम अपने ही शहर को ऊँचाई से देख रहे होते है। चूँकि जीवन का हर पहलू दुसरे से जुदा है अतः क्या ठीक है क्या नहीं, ये अपने काम-अपने जीवन को एक साथ पूरे का पूरा देखने पर ही पता चल सकता है और तब इसे दुरुस्त करना कहीं आसान हो जाता है। 

इस मंथन से मेरे हाथ दो सूत्र लगे। पहला, समय-समय पर स्वयं एवम जीवन से परे होकर देखने की कोशिश करें। सशरीर कहीं जाना जरुरी नहीं, आप जहाँ हैं वहीँ से ऐसा कर सकते है जिसे हम साक्षी भाव कहते है। आपको जीवन की रुकावटों के बेहतर वैकल्पिक मार्ग नज़र आने लगेंगे। दूसरा, अपने काम को शुरू करने से पहले कम से कम दो-तीन मिनट के लिए इसी भाव में आ जाएँ, ध्यान लगाएँ। आपके सामने आपके काम का खाका स्वतः खींच जाएगा। यही तो कहते है विन्ची, जैसे भी हो बस थोडा निकल लें। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 1 सितम्बर को प्रकाशित)
आपका 
राहुल .........    

Friday, 30 August 2013

गुरु कृष्ण की दक्षिणा


कृष्ण अवतरण की कथा तो आपने खूब सुनी है, मैं जन्माष्टमी की ढेरों बधाईयों के साथ आपसे उस अनमोल भेंट की बात करना चाहता हूँ जो गुरु कृष्ण ने हम सब को दी। जिसने पूरे अध्यात्म का ही रुख मोड़ दिया। इससे पहले कर्म और अध्यात्म जीवन के दो अलग-अलग रास्ते हुआ करते थे और कर्म का मार्ग कहीं निम्न था। कर्मशील व्यक्ति यानि दुनियादारी के जंजाल में फंसा ऐसा व्यक्ति जो अपने कर्म-बंधन बाँधते ही चला जा रहा है और जिसकी मुक्ति संभव ही नहीं। उन्होंने 'अनासक्त कर्म' का सूत्रपात कर न केवल उसका योग अध्यात्म से कर दिया अपितु एक साधारण गृहस्थ के लिए परमात्मा के द्वार भी खोल दिए। निस्संदेह अनासक्त कर्म ही गुरु कृष्ण की सारे जगत को अमूल्य भेंट है। 

साधारणतः जो जुमला प्रचलित है वह यह कि गीता कहती है, कर्म करो लेकिन फल की इच्छा मत करो। शायद इसीलिए कि ये सुनने में बड़ा चुनौतीपूर्ण लगता है जो हमारी बुद्धि की कमजोरी है, उसकी पसंदीदा खुराक है। जहाँ तक गीता को मैं समझ पाया, गीता में कृष्ण कहते है, 'कर्म करो और उसके परिणाम निस्संदेह तुम्हारे कर्म की प्रेरक शक्ति बनें लेकिन उन परिणामों से तुम्हारी आसक्ति न हो। यहाँ इच्छा और आसक्ति में फर्क को समझने की जरुरत है। इच्छा प्रेरक शक्ति है और आसक्ति हवस। जब कुछ पाने की लालसा आपकी समझ से अच्छे-बुरे का भेद मिटा दे और आपको उसे पाने के लिए गलत रास्ते भी जायज जान पड़े, वही आसक्ति है। आपका प्राप्य आपके जीवन का पर्याय बन जाए। ऐसे कर्म निश्चित ही कर्म-बंधन का कारण होंगे। आसक्त कर्म, एक ऐसा दलदल है जिससे हम जितना निकलने की कोशिश करते है उतने ही फँसते चले जाते है।

हमारे कर्म क्रिया है तो कर्म-फल प्रकृति की प्रतिक्रिया। हम जो कुछ करते है उसका परिणाम प्रकृति के शाश्वत नियमों के अनुसार पाते है अतः कोई औचित्य नहीं बनता कि हम कर्म-फल को नियंत्रित करने की कोशिश करें। यही आशय है कृष्ण के उस कथन का कि तू अपने सारे कर्मों को मुझे समर्पित कर। ऐसा कह वे भरोसा दिलाना चाहते है कि यदि हम अच्छा करते है तो निश्चिन्त रहें, हमारे साथ अच्छा ही होगा। यही अनासक्त कर्म है। 

स्वामी विवेकानन्द ने अनासक्त कर्म को जीवन में अपनाने का एक बहुत ही सरल-सुगम मार्ग सुझाया है 'हम किसी से कोई उम्मीद न करें। उम्मीद ही आसक्ति का व्यावहारिक रूप है।' मैं समझता हूँ अनासक्त कर्म को अपना स्वभाव बना पाने की शुरुआत हम आपसी रिश्तों में उम्मीदों को कम और धीरे-धीरे उन्हें शून्य कर, कर सकते है। हम किसी के लिए कुछ करें तो सिर्फ इसलिए कि ऐसा करना हमें अच्छा लगता है, हमारे मन को सुकून देता है। हमारा व्यवहार हमारा स्वभाव हो, निवेश नहीं। हमारा अच्छा व्यवहार इस कारण हो कि प्रत्युत्तर में जैसा हम चाहते है वैसा व्यवहार मिलेगा तो तय मानिए वो रिश्ता लम्बे समय तक मधुर नहीं रह सकता। हम सब का अपना-अपना स्वभाव है और वैसा ही आचरण। एक दूसरे को जीने की जगह देकर हम जीवन में अनासक्त कर्म का व्यावहारिक पक्ष समझ सकते है। 

उलटबाँसी यह है कि कर्म फल की आसक्ति से मुक्त होकर हमारे कर्म सघन हो जाते है। जब हम परिणामों की चिंता किए बगैर कुछ करते है तब हम अपना शत-प्रतिशत दे पाते है और तब हमारे परिणाम स्वतः ही सर्वोत्तम होते है। अनासक्त कर्म स्वतन्त्र जीवन और बेहतर परिणामों का मार्ग है अतः उमीदों से निजात पाने से श्रेष्ठ श्री कृष्ण को हमारी गुरु दक्षिणा हो ही नहीं सकती। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 25 अगस्त को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........    

Friday, 23 August 2013

क्या हम इतना भी नहीं कर सकते?




रक्षा-बन्धन का त्यौहार कब, कैसे और कहाँ शुरू हुआ इसका प्रमाणिक लेखा-जोखा तो कहीं नहीं मिलता। हाँ, कुछ कथाएँ जरुर प्रचलित हैं। उनमें से एक है, जब समुद्र-मंथन के समय असुरों का पलड़ा भरी पड रहा था तब इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी ने अभिमंत्रित कर एक धागा उनके हाथ पर बाँधा था। इस रक्षा-कवच के बाद असुर उनका बाल भी बांका नहीं कर पाए, वह दिन श्रावण मास की पूर्णिमा का था। एक कथा राजा बलि और वामनावतार की भी है। तीन पग जमीन नापते हुए भगवान विष्णु ने राजा बलि को रसातल में भेज दिया। राजा बलि ने एक बार फिर भगवान विष्णु की तपस्या की और उन्हें प्रसन्न कर ये वचन ले लिया कि वे हमेशा ही उसकी आँखों के सामने बने रहेंगे। अब विष्णु जी का घर लौटना सम्भव नहीं था और लक्ष्मी जी का चिंतित होना स्वाभाविक। ब्रह्मर्षि नारद ने सुझाया और लक्ष्मी जी राजा बलि को राखी बाँध अपने पति को लौटा लाई। कहते है उस दिन भी श्रावण मास की पूर्णिमा ही थी। 

एक प्रसंग जिसका ऐतिहासिक प्रमाण है, वह है बादशाह हुमायूँ और रानी कर्मावती का। मेवाड़ की रानी कर्मावती को गुप्त सूचना मिली की बहादुरशाह उन पर हमला बोलने वाला है। उन्हें आभास था कि यदि ऐसा हुआ तो वे अपने राज्य की रक्षा नहीं कर पाएँगी। उन्होंने अपने दूत के हाथों हुमायूँ को राखी भिजवाई। हुमायूं राखी देखते ही समझ गए। बादशाह हुमायूँ मेवाड़ की रक्षा के लिए रानी कर्मावती की ओर से लड़े। निश्चित ही था, बहादुरशाह रानी कर्मावती को नहीं हरा पाया। 

आज जब हम अपने चारों और देखते है तो लगता है इस त्यौहार की प्रासंगिकता कहीं अधिक हो गयी है। प्रेम को हमने कितना संकीर्ण बना दिया है। प्रेम के मायने सिर्फ स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध होकर रह गए है। रक्षा-बन्धन का ये त्यौहार प्रतिवर्ष हमें प्रेम के सच्चे उदात्त स्वरुप की याद दिलाता है। प्रेम को हमारे संकीर्ण विचारों की बेड़ियों से मुक्त करवाने की कोशिश करता लगता है। 

ये त्यौहार याद दिलाता है कि प्रेम बिना शर्त होता है, प्रेम जिम्मेदार होता है, प्रेम प्रतिबद्धता है, प्रेम सर्व शक्तिशाली है और अंततः प्रेम ही भक्ति है। प्रेम से बांधे एक धागे की शक्ति इन्द्र को असुरों पर विजय दिला देती है, यही धागा हुमायूँ को एक जिम्मेदारी से बाँध देता है और इसी पावन धागे के कारण राजा बलि सब कुछ भूलकर विष्णु जी को लक्ष्मी जी के साथ विदा करते है। इन पौराणिक कथाओं के सच होने पर विवाद हो सकता है लेकिन प्रेम इस सृष्टि की आधार-ऊर्जा है इसमें शायद ही किसी के मन में कोई दो राय हो। आप प्रेम के बारे में थोड़ी देर गहनता से विचारेंगे तो आपको लगेगा कि किसी इन्सान में हो सकने वाली कोई भी अच्छाई वास्तव में प्रेम का ही एक रूप है। वास्तव में इंसान के सारे चारित्रिक गुण प्रेम की परिधि में ही तो समाए है।

यदि हम प्रेम के इस उदात्त स्वरुप को समझने की कोशिश करें तो निश्चित ही हमारे चारों ओर का दृश्य बदल सकता है। ये आए दिन के दुष्कर्म, घरेलू हिंसा और सामाजिक सुरक्षा का यही एकमात्र उपाय है। प्रेम ही व्यक्ति को सुसंस्कृत करेगा और तब ही हम अपने परिवार के साथ निर्भीक होकर जीवन-रस ले पाएँगे। 

हुमायूँ रानी कर्मावती के लिए युद्ध कर सकता है तो मैं चाहता हूँ, एक सवाल हम सब अपने आप से करें, क्या हम इतना भी नहीं कर सकते?


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 18 अगस्त को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........