Friday, 11 October 2013

युग बदला या हम बदले



विविध-भारती पर सुबह-सुबह आने वाले शास्त्रीय संगीत के प्रोग्राम संगीत-सरिता में उस दिन पंडित हरी प्रसाद चौरसिया बोल रहे थे। संगीत की बातों के साथ उन्होंने हमारे आज के जीवन को लेकर एक गम्भीर सवाल खड़ा किया जिसने मुझे दो दिन पहले अपनी बिटिया से हो रही बातचीत से जोड़ दिया। बिटिया कह रही थी कि आज युवा के सामने जीवन इतना असुरक्षित है कि वो आज ही कल के लिए सारे साधन जुटा लेना चाहता है। उसका कहना था कि आज युवा के मन में असुरक्षा का भाव इतना गहराया है कि उसने अपने कल को सुरक्षित करने के लिए अच्छे-बुरे की तराजू को ताक पर रख दिया है। मैं उसे हर किसी को अपना जीवन मूल्यों पर जीकर ही परिदृश्य बदल सकता है की सलाह तो दे रहा था लेकिन न जाने क्यूँ कहीं न कहीं मैं स्वयं भी उसके सरोकारों से जुड़ता जा रहा था। 

पंडित जी चूँकि फिल्म-संगीत भी देते है तो बात फिल्मों की भी चली। उनसे जब तेज संगीत और कई बार तो संगीत के नाम पर शोर के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बड़े ही अफ़सोस के साथ बताया कि फिल्म की कहानी में कई जगहों पर शान्त संगीत और धीरे स्वरों की गुंजाईश होती है विशेषकर जहां कहानी करुण-रस की अभिव्यक्ति माँगती हो लेकिन वहाँ निर्देशक बैक ग्राउंड म्यूजिक से ही काम चलाना पसंद करते है।उनका तर्क होता है कि इस तरह के गाने आज की पीढ़ी को पसंद नहीं आयेंगे। पंडित जी ने यही वजह बताई जिस कारण आज फिल्म-संगीत से धीरे-धीरे करुण-रस गायब होता चला जा रहा है। वे कह रहे थे कि मैं लाख कोशिशों के बाद भी उन निर्देशकों को ये नहीं समझा पाता हूँ कि जीवन से करुणा कभी आउट ऑफ़ फैशन या आउट डेटेड नहीं हो सकती और न ही ऐसा हो सकता है कि करुण-रस की कोई सुन्दर रचना सुनने वालों के दिल को न छुए। वे कह रहे थे कि ऐसा सब देख मैं कई बार सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि आखिर युग बदला या हम बदले?

मुझे लगता है यही वो प्रश्न है जिस पर हम सब को सोचना चाहिए। यही वो सलाह है जो मुझे अपनी बिटिया को देनी चाहिए। क्या सचमुच ही आज के इस जटिल जीवन के लिए बदला हुआ समय दोषी है या हम ही बदल गए है? क्या हममें से अधिकांश लोग जो कुछ भी कर रहे हैं वो सुरक्षित भविष्य के लिए है या वे विलासिता ही हर सम्भव वस्तु को हासिल कर पाने की क्षमता हासिल करना चाहते है?

यदि बात अपने और अपने परिवार के सम्मानजनक अस्तित्व की हो तो बात अलग है लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? जिन लोगों के साथ यह दुर्भाग्य है भी तो मेरे हिसाब से वे तो समाज का सबसे ईमानदार और मेहनती तबका है। भ्रष्ट आचरण तो वो ही निभा सकता है जिसके पास पद, प्रतिष्ठा या पैसा हो, तो उसे किससे सुरक्षित होना है? मूल्यों को निभाने की असहजता से बचने का ये सुन्दर बहाना ईज़ाद किया है हमने लेकिन हमें ये मालूम नहीं कि जीवन को जटिल बनाकर हम इसकी कीमत चुका रहे है। अपने बच्चों को अच्छे संस्कार न दे पाने के रूप में इसकी कीमत चुका रहे है, और तो और अपनी ही नज़रों में गिर कर इसकी कीमत चुका रहे है। पंडित जी के प्रश्न का जवाब हर व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर ढूँढना होगा और तब हम एक बार फिर युग बदल रहे होंगे।


(जैसा की नवज्योति में 6 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 

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