राम को वन जाता देख दशरथ ने किसी क्षण यह जरुर सोचा होगा कि काश! मैं कैकयी को वचन नहीं देता और कुरुक्षेत्र से पहले भीष्म ने भी एक क्षण के लिए ही सही यह जरुर सोचा होगा कि काश! मैं प्रतिज्ञा नहीं करता। इस काश पर तो न जाने कितने ग्रन्थ लिखे जा सकते है। ऐसा नहीं होता तो क्या होता या वैसा हो जाता तो क्या होता लेकिन आज हमारी बातचीत का विषय 'काश' नहीं प्रतिज्ञा और वचनों का है। चूँकि ये घटनाएँ रामायण और महाभारत की केंद्र-बिंदु है इसलिए हमें ज्यादा आंदोलित करती है लेकिन गौर करें तो हमारा सारा इतिहास ही मानो प्रतिज्ञाओं-वचनों को निभाने की दास्तान लगता है और वो चाहे कोई भी हो ये हमेशा ही किसी न किसी तरह की हिंसा में जरुर तब्दील हुई है।
और हमारी श्रद्धा देखो, और बातों को माने न माने, उनके मर्म को समझें न समझें किसी न किसी वचन या प्रतिज्ञा से बंधने को जैसे बाहें चढाये तैयार लगते है। क्या ये श्रद्धा है या इससे हमारा अहंकार पुष्ट होता है? पता नहीं, लेकिन इनके परिणामों को देखकर भी वैसा ही करने की कोशिश करना कोरी श्रद्धा तो नहीं हो सकती। कारण चाहे जो हो लेकिन मैं तो यह सोचने पर मजबूर जरुर हुआ कि क्या व्यक्ति को अपने जीवन में प्रतिज्ञाओं और वचनों से बंधना भी चाहिए? मैंने तो जितने लोगों को भी इससे बंधे हुए देखा है उन्हें जीवन में कभी न कभी दशरथ जैसी उथल-पुथल और भीष्म जैसी दुविधा से घिरा हुआ ही पाया है।
एक मित्र से विमर्श में यह तो सतह पर आया कि प्रतिज्ञाएँ अंततः हिंसा को जन्म देती है इसके बावजूद भी मन यह मानने को तैयार नहीं हुआ कि व्यक्ति को प्रतिबद्ध और वचनबद्ध होना ही नहीं चाहिए। सत्य, अहिंसा, ईमानदारी या राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध होना कैसे गलत हो सकता है या फिर रिश्तों में एक-दूसरे की खुशियों के प्रति वचनबद्ध होना बुरा। फिर गड़बड़ कहाँ है? कई दिनों तक इस गुत्थी को अपने जेहन में सम्भाले रहा क्योंकि मुझे लगता है समस्या यदि इंतज़ार करती रहे तो समाधान दस्तक दे ही देता है।
और उसने आकर यही बताया कि हमें साध्य से प्रतिबद्ध होना चाहिए साधनों से नहीं। कितना अच्छा होता यदि दशरथ अपनी कृतज्ञता की भेंट भविष्य में देने का कैकयी को वचन जरुर देते पर 'कुछ भी मांग लेना' से बचते। व्यक्तिगत भावनाओं की भेंट व्यक्तिगत होती। एक राजा नहीं एक पति अपनी पत्नी से वचनबद्ध होता। ठीक इसी तरह कितना अच्छा होता कि भीष्म अपने पिता के जीवन की खुशियों को सहेजने के लिए प्रतिज्ञ होते चाहे राजपाट छोड़ने एवम अविवाहित रहने को साधन के रूप में अपनाते। उनकी प्रतिबद्धता हस्तिनापुर और कुरुवंश से तो थी ही चाहे इसकी उन्होंने घोषणा की हो या नहीं।
प्रतिज्ञाएँ और वचन निजता का विषय है लेकिन इतना तय है कि इरादा चाहे कितना ही नेक हो और आपकी इच्छा-शक्ति कितनी ही दृढ़ अपने विवेक के इस्तेमाल का अधिकार हमेशा अपने पास रखें। जब-जब व्यक्ति ने विवेक का साथ छोड़ा है उससे जिन्दगी सम्भाले नहीं सम्भली है। जैसे ही आप मूल विषय को छोड़ उसे पाने के तरीकों से प्रतिबद्ध हुए समझिये आपने अपने विवेक का अधिकार किसी और के हाथों में दे दिया। यही वो साथी है जो ईश्वर ने इस जीवन-यात्रा में हमारा ध्यान रखने हमारे साथ भेजा है। आप ही बताइए, इसी का साथ छोड़ देना उसे कैसे प्रसन्न कर सकता है?
(दैनिक नवज्योति में रविवार, 20 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ..............
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