मेरे शहर में यह एक अनूठी पहल थी, कवि सम्मलेन और मुशायरे का साथ होना। मंच पर हिन्दी और उर्दू के श्रेष्ठ हस्ताक्षर मौजूद थे। मैं उन्हीं में से एक श्री उदय प्रताप सिंह जी की एक कविता के बारे में आज आपसे बात करना चाहता हूँ। कविता की पृष्ठभूमि कुछ यूँ है कि रावण प्रतिदिन नये-नये प्रलोभनों के साथ सीता जी से प्रणय-निवेदन करता है लेकिन माँ उसकी और आँख उठाकर भी नहीं देखती। आखिर थक हार कर एक दिन रावण उनसे कहता है कि तुम एक बार मेरी तरफ आँख उठाकर देख लो, इसके बाद भी तुम इन्कार करोगी तो मैं उसे तुम्हारा अंतिम निर्णय समझूँगा।
इस पर भी माँ सीता तिनके की ओट लेकर रावण की ओर देखती है। कविता यहीं से शुरू होती है। मंदोदरी रावण से कह रही है, करवा आए अपना अपमान। मैं आपकी जगह होती और प्रेम में इतनी ही व्याकुल होती तो एक ही उपाय करती। राम का रूप धर सीता के सम्मुख प्रस्तुत हो जाती। क्या इतनी सी बात नहीं सूझी आपको। मार्मिक रावण का जवाब है। वह कहता है तू क्या समझती है, मैं दशानन, क्या इतना भी नहीं सोच पाया हूँगा? यह भी करके देख चुका पर क्या बताऊँ, जब-जब यह चाल चलता हूँ, राम का रूप धरता हूँ तब-तब मुझे हर पराई स्त्री माँ का रूप नज़र आती है।
हर व्यक्ति हर बात को अपनी तरह समझता है। मेरे साथ भी ऐसा ही था। कविता सुनकर मुझे तो लगा कि कवि ने स्वयं के परिवर्तन का एक वैज्ञानिक तरीका कितनी सुन्दर कल्पना के साथ कितने कम शब्दों में कितनी सहजता से कह दिया। ऐसा कि हर किसी के ह्रदय में गहरे उतर जाए और जिससे बुद्धि भी सहमत हो।
जब किसी व्यक्ति को लगे कि उसकी अपनी आदतों ने ही उसे वश में कर लिया है और विचार उसके विमानों की तरह उड़ते है। अब उसका अपने पर कोई नियंत्रण शेष नहीं। अब उसके लिए भीतर से बाहर की यात्रा दुष्कर है तो यही तरीका है बाहर से भीतर की यात्रा का। हम जैसा बनना चाहते है, जैसा होना चाहते है उसका अभिनय शुरू कर दें। ऐसा करते-करते आपको मालूम ही नहीं चलेगा कि कब आप वैसे ही हो गए। और फिर आदतें क्या है, किसी बात का अभ्यस्त होना ही तो है। अभिनय करते-करते कब ये आपकी आदतें बन जाती है और फिर आपका स्वभाव बनकर आपके व्यक्तित्व को ही बदल देती है, आपको अहसास ही नहीं होगा। आपको इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखना हो तो इस बार जब भी आपका मन अशान्त हो - मूड खराब हो, आप शीशे के सामने जाकर खड़े हो जाएँ और दो-चार मिनट तक जबरदस्ती मुस्कुराएँ। पाँचवे मिनट से ही आपका मन ठीक होने लगेगा, क्योंकि यह तो तय है कि राम और रावण कभी साथ नहीं रह सकते।
आप जीवन के जिस भी क्षेत्र में परिवर्तन चाहते है उसमें अपना आदर्श तलाशिए और फिर उसी तरह व्यवहार करना शुरू कीजिए। हो सकता है बीच-बीच में आपकी पुरानी आदतें उभरें। जब भी आपको ऐसा लगने लगे बिना अपने को दोष दिए पुनः अपने रास्ते पर लौट आइए। धीरे-धीरे आप स्वयं भी उसी तरह सोचने-समझने और जीने लगेंगे। आप बाहर से बदलते-बदलते कब अन्दर से भी बदल गए और जैसा बनना और होना आपका सपना था वो कब हकीकत में बदल गया आपको मालूम ही नहीं चलेगा।
(दैनिक नवज्योति में रविवार, 13 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ..........
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